Chapter 8, Verse 9
Verse textकविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।8.9।।
Verse transliteration
kaviṁ purāṇam anuśhāsitāram aṇor aṇīyānsam anusmared yaḥ sarvasya dhātāram achintya-rūpam āditya-varṇaṁ tamasaḥ parastāt
Verse words
- kavim—poet
- purāṇam—ancient
- anuśhāsitāram—the controller
- aṇoḥ—than the atom
- aṇīyānsam—smaller
- anusmaret—always remembers
- yaḥ—who
- sarvasya—of everything
- dhātāram—the support
- achintya—inconceivable
- rūpam—divine form
- āditya-varṇam—effulgent like the sun
- tamasaḥ—to the darkness of ignorance
- parastāt—beyond
Verse translations
Shri Purohit Swami
Whoso meditates on the Omniscient, the Ancient, more minute than an atom, yet the Ruler and Upholder of all, Unimaginable, Brilliant like the Sun, Beyond the reach of darkness;
Swami Ramsukhdas
।।8.9।। जो सर्वज्ञ, पुराण, शासन करनेवाला, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञानसे अत्यन्त परे, सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप -- ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है।
Swami Tejomayananda
।।8.9।। जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है।।
Swami Adidevananda
He who meditates on the Omniscient, the Ancient, the Ruler, subtler than the subtle, the Ordainer of everything, of inconceivable form, effulgent like the sun, and beyond darkness—he attains the Supreme Person.
Swami Gambirananda
He who meditates on the Omniscient, the Ancient, the Ruler, subtler than the subtle, the Ordainer of everything, of inconceivable form, effulgent like the sun, and beyond darkness—he attains the Supreme Person.
Swami Sivananda
Whosoever meditates on the Omniscient, the Ancient, the Ruler of the whole world, minuter than an atom, the supporter of all, of inconceivable form, effulgent like the sun and beyond the darkness of ignorance.
Dr. S. Sankaranarayan
He who meditates continuously on the Ancient Seer, the Ruler, the subtler than the subtle, the supporter of all, the unimaginably formed, the sun-colored, and that which is beyond darkness;
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।8.9।।पुनरप्यनुचिन्तनाय पुरुषं विशिनष्टि -- कविमिति द्वाभ्याम्। कविं सर्वज्ञं सर्वविद्यानिर्मातारं पुराणमनादिसिद्धं अनुशासितारं नियन्तारं अणोः सूक्ष्मादप्यणीयांसमतिसूक्ष्मम् आकाशकालदिग्भ्योऽप्यतिसूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं पोषकं अपरिमितमहित्वादचिन्त्यरूपम् मलीमसयोर्मनोबुद्ध्योरगोचरं आदित्यवत्स्वपरप्रकाशात्मको वर्णः स्वरूपं यस्य तं तमसः प्रकृतेः परस्ताद्वर्तमानंवेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् इति श्रुतिः।
Swami Sivananda
8.9 कविम् Omniscient? पुराणम् Ancient? अनुशासितारम् the Ruler (of the whole world)? अणोः than atom? अणीयांसम् minuter? अनुस्मरेत् remembers? यः who? सर्वस्य of all? धातारम् supporter? अचिन्त्यरूपम् one whose form is inconceivable? आदित्यवर्णम् effulgent like the sun? तमसः from the darkness (of ignorance)? परस्तात् beyond.Commentary Kavim The sage? seer or poet? the omniscient.The Lord dispenses the fruits of actions of the Jivas (individual souls). He is the Ruler of the world. It is very difficult to conceive the form of the Lord. He is selfluminous and He illumies everything like the sun.
Sri Vallabhacharya
।।8.8 -- 8.9।।एवं सप्तप्रश्नानामुत्तरं निरूप्य प्रयाणकाले योगिनां ज्ञानिनां भक्तानां च तत्तत्स्वरूपप्राप्त्यात्मकं फलमाह -- अभ्यासयोगेति। नान्यगामिना विषयाद्यगामिना(अक्षराद्यगामिना)ऽनुचिन्तयन्परमं पुरुषं नारायणं दिव्यं सूर्यस्थं याति तमेव विशिनष्टि -- कविमिति। यो योगी सर्गमर्यादाधिदेवं परमात्मानं अणोरणीयांसं समनुस्मरेत् अणोर्जीवादप्यणुतरम्अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् इति वाक्यात्। आदित्यवर्णं स्वप्रकाशस्वरूपं तदन्तर्वर्त्तिरूपं वायुरूपं पुरुषसूक्तप्रतिपाद्यस्वरूपं वा तमसः प्रकृतेः परस्तात्परतरम्।
Sri Shankaracharya
।।8.9।। --,कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञं पुराणं चिरन्तनम् अनुशासितारं सर्वस्य जगतः प्रशासितारम् अणोः सूक्ष्मादपि अणीयांसं सूक्ष्मतरम् अनुस्मरेत् अनुचिन्तयेत् यः कश्चित् सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विधातारं विचित्रतया प्राणिभ्यो विभक्तारम् अचिन्त्यरूपं न अस्य रूपं नियतं विद्यमानमपि केनचित् चिन्तयितुं शक्यते इति अचिन्त्यरूपः तम् आदित्यवर्णम् आदित्यस्येव नित्यचैतन्यप्रकाशो वर्णो यस्य तम् आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् अज्ञानलक्षणात् मोहान्धकारात् परं तम् अनुचिन्तयत् याति इति पूर्वेण संबन्धः।।किञ्च --,
Sri Purushottamji
।।8.9।।चिन्तनीयस्वरूपधर्मानाह द्वाभ्याम् -- कविमिति। कविं शब्दार्थरसिकं स्वगुणानुवर्णनश्रवणानन्दसंसूचितानुग्रहम् पुराणं अनादिसिद्धं सर्वदैकरसम् अनुशासितारं भावादिधर्मनियन्तारम् अणोरणीयांसं अणोः सूक्ष्मात् अणीयांसं सूक्ष्मम्। अयं भावः -- सूक्ष्माज्जीवात् सूक्ष्मं जीवभावभावनयोग्यस्वरूपप्राकट्येन तद्वृदि बहिस्तद्दृष्ट्यादिस्थितियोग्यम्। सर्वस्य स्वक्रीडायोग्यस्य भावादिरूपाक्षरादिरूपपदार्थस्य धातारं पोषकम्। अचिन्त्यरूपं अलौकिकक्रीडाद्यपरिमेयमहिमानम्। आदित्यवर्णं रसात्मकतापतेजसा सर्वप्रकाशकम्। तमसः परस्तात् प्रकृतेः परस्ताद्वर्त्तमानम्। अत्रायं भावः -- भावात्मकप्राप्तभक्तस्वरूपं प्रकटितलीलास्वरूपात् सर्वदा रसात्मकत्वेन वर्तमानमेवं पुरुषं पुरुषोत्तमम्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।8.9।।पुनरपि तमेवानुचिन्तयितव्यं गन्तव्यं च पुरुषं विशिनष्टि -- कविं क्रान्तदर्शिनं तेनातीताऽनागताद्यशेषवस्तुदर्शित्वेन सर्वज्ञं पुराणं चिरन्तनम्। सर्वकारणत्वादनादिमिति यावत्। अनुशासितारं सर्वस्य जगतो नियन्तारं अणोरणीयांसं सूक्ष्मादप्याकाशादेः सूक्ष्मतरं तदुपादानत्वात्। सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विचित्रतया प्राणिभयो विभक्तारंफलमत उपपत्तेः इति न्यायात्। न चिन्तयितुं शक्यमपरिमितमहित्वेन रूपं यस्य तम् आदित्यस्येव सकलजगदवभासको वर्णः प्रकाशो यस्य तम् सर्वस्य जगतोऽवभासकमिति यावत्। अतएव तमसः परस्तात्तमसो मोहान्धकारादज्ञानलक्षणात्परस्तात् प्रकाशरूपत्वेन तमोविरोधिनमिति यावत्। अनुस्मरेच्चिन्तयेद्यः कश्चिदपि स तं यातीति पूर्वेणैव संबन्धः। स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यमिति परेण वा संबन्धः।
Sri Jayatritha
।।8.9।।उत्तरश्लोकगतविशेषणबलाच्च परमात्मैवायमिति भावेन तत्तात्पर्यमाह -- ध्येयमिति। आह विशिनष्टीत्यर्थः। ननु कवित्वमन्येषामप्यस्ति तत्कथं भगवतो विशेषणं इत्यत आह -- कविमिति। परमेश्वरस्य सार्वज्ञे प्रमिते भवेदिदं व्याख्यानम् तदेव कुतः इत्यत आह -- य इति। सर्वज्ञः कविशब्दार्थ इत्येतत्कुतः इत्यत आह -- त्वमिति। अन्येषां तुसर्वे विमोहितधियः इत्यादिना सार्वज्ञाभावः प्रमितः। ननु धाता विरिञ्चोऽपि प्रसिद्धः तत्कथमेतद्भगवतो विशेषणं इत्यत आह -- धातारमिति। कुतोऽयमर्थः। इत्यत आह -- डुधाञिति। तृचः कर्तृवाचित्वं प्रसिद्धमेव। परमेश्वरस्य धातृत्वसद्भावे किं प्रमाणं इत्यत आह -- धातेति। विधाता कर्ता। परमा सन्दृक् परमज्ञानरूपः।सर्वस्य धातारं इत्येतत् भगवत एव नान्येषामित्यत्र प्रमाणमाह -- ब्रह्मेति। तेन भगवताऽऽदिष्टं दत्तं फलं सुखं यस्यां सा तथोक्ता। मोक्षधर्मे कथितमिति शेषः। तमसः परस्तादित्येतत् आदित्यादिसाधारणं इत्यतो द्वेधा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तमस इति। स्थितमिति शेषोक्तिः। अप्राकृतविग्रहमित्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।8.9 -- 8.10।।कविमिति। प्रयाणेति। एवम् अनुस्मरेदिति। आदित्येति। आदित्यवर्णत्वं वासुदेवतत्त्वस्य [न] परिच्छेदकम्। आकृतिकल्पनादि (N विकल्पनादि) विभ्रान्तिमयमोहतमसः अतीतत्त्वात् रवित्वेनोपमानमित्याशयः। भ्रुवोर्मध्ये इति प्राग्वत्।
Swami Ramsukhdas
।।8.9।। व्याख्या--'कविम्'-- सम्पूर्ण प्राणियोंको और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मोंको जाननेवाले होनेसे उन परमात्माका नाम 'कवि' अर्थात् सर्वज्ञ है।
Swami Chinmayananda
।।8.9।। मन को आत्मा के चिन्तन में एकाग्र करने के फलस्वरूप साधक भक्त के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे साधक को अन्तकाल में भी आत्मस्वरूप का स्मरण होगा। पूर्व के श्लोकों में यह भी संकेत किया गया था कि वर्तमान जीवन में ही अहंकार का नाश और जीवन्मुक्ति संभव है। इस अविद्याजनित विपरीत धारणाओं तथा तज्जनित गर्व मद आदि विकारों का समूल नाश तभी संभव हो सकता है जब साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा देहादि जड़ उपाधियों के साथ अपने मिथ्या तादात्म्य का सर्वथा परित्याग कर दे।पूर्व के श्लोक में अस्पष्ट रूप से केवल इतना संकेत किया गया था कि आत्मा का ध्यान परम दिव्य पुरुष के रूप में करना चाहिए। परन्तु इन शब्दों का पूर्ण अर्थ जाने बिना उस पर ध्यान करना संभव नहीं हो सकता क्योंकि उस दशा में वे केवल अर्थहीन ध्वनि या शब्द मात्र होंगे। जैसे किसी के उपदेशानुसार मैं आक्सीजनेलिटीन नामक वस्तु पर ध्यान नहीं कर सकता क्योंकि यह एक शब्द मात्र है वेदान्त को जीवन में जीने की कला सिखाने वाले इस ग्रन्थ में इस कला का और अधिक स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। विचाराधीन दो श्लोकों में इस साधना का विस्तृत विवेचन किया गया है। कोई भी साधक इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर सकता है।इस श्लोक में दिये गये अनेक विशेषण उस सत्य को लक्षित करते हैं (परिभाषित नहीं) जो ऐसा सार तत्त्व है जिसके कारण जड़ और मिथ्या पदार्थ भी चेतन और सत्य प्रतीत होते हैं। इसलिए यहाँ किसी भी एक विशेषण को अपने आप में सम्पूर्ण नहीं समझना चाहिए। रेखागणित में किसी अज्ञात बिन्दु का बोध अन्य दो ज्ञात बिन्दुओं के सन्दर्भ में ही कराया जाता है। उसी प्रकार यहाँ भी अनिर्वचनीय सत्य का निश्चयात्मक वर्णन इन विशेषणों के द्वारा किया गया है।इन शब्दों के ऊपर मनन करने का अर्थ अन्तःकरण में ऐसे वातावरण को उत्पन्न करना है जिसमें रहने से एक सुगठित और अन्तर्मुखी मन अनन्तस्वरूप की अनुभूति में स्थिर हो सकता है।कवि देहविशेष में उपहित चैतन्य आत्मा मन में उठने वाली समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करती है। आत्मा एक अनन्त और सर्वव्यापी होने के कारण वही सारे शरीरों तथा वृत्तियों को प्रकाशित करती है। जैसे पृथ्वी पर स्थित सभी वस्तुओं का प्रकाशक होने से सूर्य को सर्वसाक्षी कहा जाता है वैसे ही इस आत्मा को कवि अर्थात् सर्वज्ञ कहा जाता है क्योंकि इसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं है। आत्मा का कवि यह विशेषण जगत् के परिच्छिन्न औपाधिक ज्ञान की दृष्टि से है।पुराण सृष्टि के आदि मध्य और अन्त में समान रूप से विद्यमान होने के कारण आत्मा को पुराण कहा गया है। यह शब्द दर्शाता है कि यही एक अविकारी सर्वव्यापी आत्मा काल की कल्पना का भी अधिष्ठान है।अनुशासितारम् (सब का शासक) इस विशेषण के द्वारा हम यह न समझें कि आत्मा कोई सुल्तान है जो क्रूरता से इस संसार पर शासन कर रहा है। यहाँ शासक से अभिप्राय इतना ही है कि चैतन्य तत्त्व की उपस्थिति के बिना विषयों भावनाओं एवं विचारों को ग्रहण करने की हमारी शरीर मन और बुद्धि की उपाधियाँ कार्य नहीं कर सकतीं और उस स्थिति में जीवन में आने वाले नानाविध अनुभवों को एक सूत्र में गूंथा भी नहीं जा सकता।हमारा जीवन जो कि अनुभवों की अखण्ड धारा है आत्मा के बिना संभव नहीं हो सकता। मिट्टी के बिना घट स्वर्ण के बिना आभूषण और समुद्र के बिना तरंगे नहीं हो सकती और इसीलिए मिट्टी स्वर्ण और समुद्र अपनेअपने कार्यों (विकारों) के अनुशासिता कहे जा सकते हैं। इसी अर्थ में यहाँ आत्मा को अनुशासिता समझना चाहिए। ईश्वर की इस रूप में कल्पना करना कि वह कोई शक्तिशाली पुलिस है जो अपने हाथ में स्वर्ग और नरक के द्वार खोलने के लिए सोने की और लोहे की बनी दो कुन्जियां लिए खड़ा है तो यह ईश्वर की एक असभ्य कल्पना है जिसमें बुद्धिमान जागरूक व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए कोई पवित्रता नहीं है अणु से भी सूक्ष्मतर किसी तत्त्व का परिमाण में वह अत्यन्त सूक्ष्म अविभाज्य कण जिसमें उस तत्त्व की विशेषताएं विद्यमान होती हैं अणु कहलाता है। आत्मा अणु से भी सूक्ष्मतर है। जितनी ही सूक्ष्मतर वस्तु होगी उसकी व्यापकता उतनी ही अधिक होगी। जल बर्फ से सूक्ष्मतर है और वाष्प जल से अधिक सूक्ष्म है। वस्तुओं की व्यापकता सूक्ष्मता का तुलनात्मक अध्ययन करने का मापदण्ड है। ब्रह्म विद्या में आत्मा को सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर अर्थात् सूक्ष्मतम कहा है जिसका अभिप्राय है आत्मासर्वव्यापक है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता।सर्वस्य धातारम् आत्मा सबका धारण पोषण करने वाला है। इसका अर्थ है कि वह सबका आधार है। चलचित्र गृह में जो स्थिर अपरिवर्तशील श्वेत पट होता है वह चलचित्र का धाता कहा जा सकता है क्योंकि उसके बिना निरन्तर परिवर्तित हो रही चित्रों की धारा हमें एक सम्पूर्ण कहानी का बोध नहीं करा सकती। चित्र के माध्यम से कितना ही आदर्श और महान् सन्देश एक कुशल चित्रकार क्यों न व्यक्त करे परन्तु पटल के बिना वह चित्र संभव नहीं हो सकता। चित्र की पूर्णता एवं सुन्दरता के लिए वह पटल धाता अर्थात् पोषक है। इसी प्रकार यदि चैतन्य तत्त्व हमारे आन्तरिक और बाह्य जगत् को निरन्तर प्रकाशित न करता होता तो हमें एक अखण्ड जीवन का अनुभव ही नहीं हो सकता था।अचिन्त्यरूपम् कवि पुराण आदि विशेषणों से विशिष्ट किसी तत्त्व पर हमें ध्यान करने को कहा जाय तो संभव है कि हम तत्काल यह धारणा बना लें कि किसी अन्य परिच्छिन्न वस्तु या विचार के समान आत्मा का भी ध्यान हृदय या बुद्धि के द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने तथा इस पर बल देने के लिए कि अनन्त आत्मा को इन्द्रियों मन और बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता। भगवान कहते हैं कि आत्मा अचिन्त्य रूप है उसका चिन्तन नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा का स्वयं से भिन्न किसी विषय रूप में चिन्तन अथवा ज्ञान संभव नहीं है परन्तु उपाधियों के परे जाने से अर्थात् उनसे तादात्म्य न होने पर आत्मा का स्वयं के स्वरूप में साक्षात् अनुभव होता है न कि स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में।आदित्यवर्णम् यदि अचिन्त्यरूप का तात्पर्य सही हो तो कोई भी बुद्धिमान् साधक यह प्रश्न पूछने का लोभ संवरण नहीं कर सकता कि फिर आत्मा का अनुभव किस प्रकार हो सकता है साधक के रूप में साधना की प्रारम्भिक अवस्था में हमारा तादात्म्य शरीरादि उपाधियों के साथ दृढ़ होता है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के साधन भी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ही होते हैं जिसके द्वारा हम आत्मतत्त्व को भी समझने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि इन्हीं के द्वारा ही हम अपने अन्य अनुभवों को भी प्राप्त करते हैं। अत स्वाभाविक है कि गुरु के इस उपदेश से कि अचिन्त्य का चिन्तन करो अप्रमेय को जानो शिष्य भ्रमित हो जाता है आत्मा को अचिन्त्य अथवा अप्रमेय केवल यह दर्शाने के लिए कहा जाता है कि हमारे पास उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा किसी विषय के रूप में आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। स्वप्नद्रष्टा ने जिस स्वाप्निक अस्त्र से स्वप्न में अपने शत्रु की हत्या की थी वह अस्त्र उसे जाग्रत अवस्था में आने पर उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि उसके रक्त रंजित हाथ भी स्वत ही बिना पानी या साबुन के स्वच्छ हो जाते हैं जब तक मनुष्य अनात्म उपाधियों को अपना श्वरूप समझकर स्वकल्पित रागद्वेष युक्त बाह्य जगत् में रहता है तब तक उसके लिए यह आत्मतत्त्व अचिन्त्य और अज्ञेय रहता है। परन्तु जिस क्षण आत्मज्ञान के फलस्वरूप वह उपाधियों से परे चला जाता है उस क्षण वह अपने शुद्ध पारमार्थिक स्वरूप के प्रति जागरूक हो जाता है।वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत को ग्रहण कर लेने पर यहाँ दिये गये सूर्य के अनुपम दृष्टान्त की सुन्दरता समझना सरल हो जाता है। सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सूर्य स्वयं ही प्रकाशस्वरूप है प्रकाश का स्रोत है। वह सब वस्तुओं का प्रकाशक होने से उसका प्रकाश स्वयंसिद्ध है। भौतिक जगत् में जैसे यह सत्य है वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में स्वयं चैतन्य स्वरूप आत्मा को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। स्वप्न पुरुष कभी जाग्रत पुरुष को नहीं जान सकता क्योंकि जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्नद्रष्टा लुप्त होकर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है। स्वप्न से जागने का अर्थ है जाग्रत् पुरुष को जानना और जानने का अर्थ है स्वयं वह बन जाना। ठीक इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के क्षण जीव नष्ट हो जाता है। वह यह पहचानता है कि वास्तव में सदा सब काल में वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही था जीव नहीं। आदित्यवर्ण इस शब्द में इतना अधिक अर्थ निगूढ़ है।तमसः परस्तात् (अन्धकार से परे) कोई भी दृष्टान्त पूर्ण नहीं हो सकता। सूर्य के दृष्टान्त से साधक के मन में कुछ विपरीत धारणा बनने की संभावना हो सकती है। पृथ्वी के निवासियों का अनुभव है कि उनके लिए रात्रि में सूर्य का अभाव हो जाता है और दिन में भी सूर्य के प्रकाश और उष्णता की तीव्रता एक समान नहीं होती। उसमें परिवर्तन प्रतीत होता है। कोई मन्दबुद्धि का साधक कहीं यह न समझ ले कि आत्मा की चेतनता का भी कभी अभाव हो जाता हो तथा उस चेतनता में किसी प्रकार का तारतम्य हो सूर्य के दृष्टान्त में संभावित इन दो दोषों की निवृत्ति के लिए भगवान् श्रीकृष्ण आत्मा को अन्धकार से परे अर्थात् अविद्या से परे बताते हैं। अज्ञानरूप अन्धकार का ही निषेध कर देने पर सूर्य की परिच्छिन्नता आत्मा को प्राप्त नहीं होती। वह सदा ही चैतन्य रूप से ज्ञान और अज्ञान दोनों ही वृत्तियों को समान रूप से प्रकाशित करता है अत वह अविद्या के परे है। यही अविद्या माया भी कहलाती है।जो साधक पुरुष इस कवि पुराण अनुशासिता सूक्ष्मतम सर्वाधार अचिन्त्यरूप स्वयं प्रकाशस्वरूप अविद्या के परे आत्मतत्त्व का ध्यान करता है वह उस परम पुरुष को प्राप्त होता है।
Sri Anandgiri
।।8.9।।पुरुषमनुचिन्तयन्निति संबन्धः। चकारात्कया वा नाड्योत्क्रामन्नित्यनुकृष्यते तत्र ध्यानद्वारा प्राप्यस्य पुरुषस्य विशेषणानि दर्शयति -- उच्यत इति। क्रान्तदर्शित्वमतीतादेरशेषस्य वस्तुनो दर्शनशालित्वम्। तेन निष्पन्नमर्थमाह -- सर्वज्ञमिति। चिरंतनमादिमतः सर्वस्य कारणत्वादनादिमित्यर्थः। सूक्ष्ममाकाशादि ततः सूक्ष्मतरं तदुपादानत्वादित्यर्थः। यो यथोक्तमनुचिन्तयेत्स तमेवानुचिन्तयन्यातीति पूर्वेणैव संबन्ध इति योजना। ननु विशिष्टजात्यादिमतो यथोक्तमनुचिन्तनं फलवद्भवति न त्वस्मदादीनामित्याशङ्क्याह -- यः कश्चिदिति।फलमत उपपत्तेः इति न्यायेनाह -- सर्वस्येति।एतदप्रमेयं ध्रुवं इति श्रुतिमाश्रित्याह -- अचिन्त्यरूपमिति। नहि परस्य किंचिदपि रूपादि वस्तुतोऽस्ति अरूपवदेव हीति न्यायात् कल्पितमपि नास्मदादिभिः शक्यते चिन्तयितुमित्याह -- नास्येति। मूलकारणादज्ञानात्तत्कार्याच्च पुरस्तादुपरिष्टाद्व्यवस्थितं परमार्थतो ज्ञानतत्कार्यास्पृष्टमित्याह -- तमस इति।
Sri Dhanpati
।।8.9।।किंविशिष्टं च पुरुषं चिन्तयन्यातीत्यत आह। कविं क्रान्तदर्शिनं तेनातीतादिवस्तुज्ञानात्सर्वज्ञं पुराणं सर्वस्य कार्यकारणस्य हेतुत्वेनानादित्वाच्चिरन्तनम्। अनुशासितारमन्तर्यामिरुपेण नियन्तरं अणोरणीयांसं अणोः सूक्ष्मादाकाशादेरप्यणायांसमतिशयेन सूक्ष्मं योऽनुचिन्तयेत् स तमेवानुचिन्तयन्तातीति पूर्वेण संबन्धः। य इत्यस्य यः कश्चिदित्यर्थः। एतेन ननु विशिष्टजात्यादिमतो यथोक्तचिन्तरं सफलं भवति नास्मदादेर्यस्य कस्यचिदिति शङ्का निरस्ता। सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विधातारं विचित्रतया प्राणिभ्यो विभज्य दातारम्। सहि सर्वाध्यक्षः देवगन्धर्वयक्षरक्षः पितृपिशाचभूतजराजुजाण्डस्वेदजोद्भिज्जादिलक्षणस्य द्युवियत्पृथिव्यादित्यचन्द्रग्रहनक्षत्रविचित्रस्य विविधप्राण्युपभोग्योग्यस्थानसाधनसंभन्धिनोऽत्यन्तकुशलशिल्पिभिरपि मनसाप्यचिन्तयनिर्माणस्य जगतः सृष्टिस्थितसंहारान्विदधद्देशकालविशेषाभिज्ञतया कर्मिणां कर्मानुरुपं फलं संपादयति। ननु कर्मण एवाचिन्त्यप्रभावात्सर्वैश्च फलहेतुत्वेनाभ्युपगमात् तत्तत्फलप्राप्तिरभ्युपगन्तव्या एवंच कृतं फलप्रदानायेश्चराधिकल्पनयेति चेन्न। प्रत्यक्षविनाशिनोऽभावरुपात्मकर्मणो भावरुपस्य फलस्य प्राप्त्यसंभवात्। ननु कर्म विनश्यत्स्वकालमेव स्वानुरुपं फलमर्जयित्वा विनश्यति। तत्फलमुपात्तमपि भोक्तुरयोग्यत्वाद्वा कर्मान्तरप्रतिबन्धाद्वा भोक्का न भुज्यते भोक्तुर्योग्यताप्राप्त्या प्रतिबन्धापगमे वा,तेन भोक्ष्यते इति चेन्न। नहि स्वर्घ आत्मानं लभतामित्यधिकारिणः कामयन्ते किंतु स्वर्गो भोग्योऽस्माकं भवत्वित्यतो यादृशमदिकारिणा काम्यते तादृशस्य फलत्वमिति भोगयस्य फलत्वेन प्राग्भोक्तृसंबन्धात् कामयन्ते किंतु स्वर्गो भोग्योऽस्माकं भवित्वित्यतो यादृशमधिकारिणा काम्यते तादृशस्य फलत्वमिति भोग्यस्य फलत्वेन प्राग्नोक्तृसंबन्धात् भोग्यत्वासिद्य्धा फलत्वानुपत्तेः। यत्कालं हि यत्सुखं दुःखं वा आत्मना भुज्यते तस्यैव लोके फलत्वं प्रसिद्धम्। किंच स्वर्गनरकौ तीव्रतमे सुखदुःके इति तद्विषयेणामुभवेन भोगापरनान्मावश्यं भवितव्यम्। तस्मादनुभवयोग्योरननुभूयमानत्वेनाननुभूयमानशशशृङ्गवन्नस्तित्वं निश्चीयते। ननु कर्मजन्यादपूर्वात्फलमुत्पत्स्यत इति चेन्न। चेतनाऽप्रवर्तितस्य काष्ठलोष्टसमस्याचेतनस्य चेतनप्रवृत्तिंविना फलोत्पत्त्यर्थं प्रवृत्त्यनुपपत्तेः तत्सत्त्वे प्रमाणभावाच्चार्थपत्तिः प्रमाणमितिचेन्न। ईश्वरसिद्धेरर्थापत्तिक्षयात्स वा एष महाजन आत्मान्नादो वसुदानः इत्येवंजातीयकया श्रुत्यापीश्वर एव कर्मफलहेतुरिति निश्चीयते। ननुस्वर्गकामो यजेत इत्येवमादिषु वाक्येषु धर्मस्य फलदातृत्वं श्रुयते विधिश्रुतेर्विषयभावोपगमाद्यागः स्वर्गस्योत्पादक इत्यवपद्येत तथा कल्पियतव्यः। नचानुत्पाद्य किमप्यपूर्वं कर्म विनश्यत्कालान्तरितं फलं दातुं श्क्नोतीत्यतः कर्मणो वा सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलक्य वा पूर्वास्था वाऽपूर्वं नामास्तीति तर्क्यते। उपपद्यते चायमर्थ उक्तेन प्रकारेण ईश्वरः फलं तदातीत्यनुपपन्नमविचित्रस्य कारणस्य विचित्रकार्यानुपपत्तेर्वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गाच्चानुष्ठानवैयर्थ्यापत्तेश्च। तस्माद्धर्मादेव फलमिति चेदुच्यते।एष ह्येव साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते। एष ह्येवासाधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य अधो निनीषते इत्यादिश्रुतिषु धर्माधर्मयोः कारयितृत्वेनेश्वरस्य हेतुत्वं फलदातृत्वं च व्यपदिश्यते। विचित्रकार्यानुपपत्त्यादयोऽपि दोषाः कृतप्रयत्नापेक्षत्वादीश्वरस्य न प्रसज्यन्ते। तथा चेश्वरसिद्धेः कर्मणो वेत्यादि न परिकल्प्यम्।सर्वगकामो यजेत इत्यादिश्रुतिरपि ईश्वरकारणवादिश्रुत्यनुरोधेन व्याख्येया। तथाच व्याससूत्राणिफलमत उपपत्तेःश्रुतत्वाच्च धर्मे जैमिनिरतएवपूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात्। फलमत ईश्वारत्मकर्मभिराराधिताद्भवितुमर्हति। कुतः उपपत्तेः। न केवलमुपपत्तेरेवेश्वरं फलहेतुं कल्पयामः किं तर्हि श्रुतत्वादपीश्वरं फलहेतुं मन्यामहे। तथाहि श्रुतिर्भवतिसवा एष इत्याद्या। सिद्धान्तेनोपक्रम्य पूर्वपक्षं गृह्णाति। चैमिनिराचार्यः फलस्य दातारं धर्म्यं मन्यते। अतएव हेतोः श्रुतेरुपपत्तेश्च बादरायणस्तु आचार्यः पूर्वोक्तमेवेश्वरं फलहेतुं मन्यते। केवलात्कर्मणोऽपूर्वाद्वा केवलात्फलमित्ययं पक्षस्तुशब्देन व्यावर्तते। नहि मृत्पिण्डदण्डादयोऽचेतनाश्चेतनकुम्भकाराद्यनधिष्ठिताः कुम्भाद्यारम्भाय प्रभवन्तो दृष्टाः। कल्पना च दृष्टानुसारिण्येव युक्ता। तस्मादचेचनाधिष्ठितात्केवलादचेतनात्कर्मणस्तथाभूतादपूर्वाद्वा फलमित्यनुपपन्नमु। ननुकर्मादि चेतनाधिष्ठिमचेतनत्वान्मृदादिवत् इत्यनुमानेन सिद्धस्य कर्मादेर्जीववचैतन्याधिष्ठितत्वस्य शुभस्य कर्मणः सुखमितरस्य दुःखं ज्योतिष्ठोमात्स्वर्ग इत्यादिसाक्षात्कारवदधिष्ठितत्वमस्माभिः साध्यते इति सिद्धासाधनस्याभावात्। किंच देवपूजात्मको यागो देवतां न प्रसादयन् फलं प्रसूते इत्यपि दृष्टविरुद्धम्। राजसेवात्मकमाराधनं राजानं प्रसाद्य फलाय कल्पत इति लोके दृष्टत्वात्। तस्माद्दृष्टानुगुण्याय यागादिभिः दानपरिचरणप्रणामाऋजलिकरणस्तुतिमयीभिरतिश्रद्धागर्भाभिर्भक्तिभिश्चेश्वरप्रसक्तिरुत्पाद्यते। तथाचेश्वरप्रसाददेव स्थायिनः (कर्मणः) फलोत्पत्तेः कृतमपूर्वेण। एवमशुबेनापि कर्मणेस्वरविरोषनं श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धं ततः स्थायिनोऽनिष्टफलोत्पत्तिः यथा राजा साधुकारिणमनुगृह्णाति पापकारिणं निगृह्णाति तेन च द्विष्टो रक्तो वा न भवति तथेश्वरोऽपि। ननु प्रधानराधनेऽङ्गाराधनानामुपयोगः स्वाभ्याराधनइव तदमात्यतत्प्रणयिजनाराधनानामिवेति सर्वं समानम्। तस्माद्दृष्टाविरोधेनेश्वराराधनात्फलं नत्वपूर्वत्कर्मणो वा केवलात्। हेतुव्यपदेशः श्रौतः स्मार्तश्च व्याख्यातः। अचिन्त्यरुपंअरुपवदेव हि तत्प्रधानत्वात्प्रकाशवच्चावैयर्थ्यं आह च चिन्मात्रम् इत सूत्रोक्तप्रकारेण वस्तुतः परमेश्वरस्य किंचिदपि रुपं नास्ति। अरुपवदेव हि रुपादिरहितमेव हि ब्रह्मावधारयितव्यं न रुपादिम्त। कस्मात्तत्प्रधानत्वात्।अस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घमशब्दमरुपमव्ययंतदेतब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वामुभूः इत्येवमादिनां वाक्यानां निराकारब्रह्मप्रधानत्वात्।अस्मथूलमनण्ह्नस्वमदीर्घमशब्दमरुपमव्ययंतदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वामुभूः इत्येवमीदीनां वाक्यानां निराकारब्रह्मप्रधानत्वात्। तस्मादेवंजातीयकेषु वाक्येषु यथाश्रुतं निराकारमेव ब्रह्मावधारयितव्यम्। यद्याकाररहितं ब्रह्म तर्ह्याकारवद्विषयाणां श्रुतीनां का गतिरित्यत आह। प्रकाशवच्च। यथा सौरादिप्रकाशो वियद्य्वाप्यावतिष्ठमानोऽङ्गुल्याद्युपाधिसंबन्धादृजुवक्रादिभावमापन्ने सूर्यादौ तद्भावमिव प्रतिपद्यते तथा ब्रह्मापि पृथिव्याद्युपाधिसंबन्धात्तदाकारतामिव प्रतिपद्यते। तदालम्बनो ब्रह्मण आकारविशेषोपदेश उपासनार्थो न विरुध्यते। अत आकारवद्विषयाणां श्रुतीनावत्रैयर्थ्यम्। आहच श्रुतिश्चैतन्यमात्रं विलक्षणरुपान्तररहतिं निर्विशेषं ब्रह्मस यथा सैन्धवघनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्त्रो रसघन एवैवं वा अरे ब्रह्मणश्चैतन्यमेव तु नरिन्तरं स्वरुपं लतु चैतन्यादन्यदन्तर्बहिर्वा। दर्शयति च श्रुतिः पर प्रतिषेधेन ब्रह्णो निर्विशेषत्वंअथात आदेशो नेतिनेतीतिअन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधियतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा मह इत्येवमाद्या। बाष्कलिना च बाध्यः पृष्टः सन्नवचनेनैव ब्रह्म प्रोवाचेति श्रुयते।सहोवाचाधीहि भो इति सह तूष्णींबभूव तं ह द्वितीये वा तृतीये वाऽवचन उवाच ब्रूमः खलु त्वं तु न,विजानास्युपशान्तोऽयमात्मा इति। अपिच स्मृतिष्वपि परप्रतिषेधेनैवोपदिश्यते।ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते। अनादि मत्परंब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद्। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैव मां ज्ञातुमर्हसि इति। एवं च न वास्तवं परमात्मनि रुपादिकं किचिदस्ति। उपासनार्थं विद्यमानमपि परमेश्वरस्य काल्पनिकं रुपं न केनचिच्चिन्तयुतुं शक्यत इत्यचिन्त्यरुपं स्वयंप्रकाशस्यादित्यस्येव नित्यचैतन्यस्वप्रकाशरुपो वर्णो यस्य तं तमसोऽज्ञानलक्षणान्मोहान्धकारात्परस्तादुपरिष्टाद्य्ववस्थितम्। परमति यावत्। परमार्थतो मूलाज्ञानतत्कार्यास्पृष्टमित्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।8.9।।ध्येयमाह -- कविभिति। कविं सर्वज्ञम् यः सर्वज्ञः [मुं.उ.1।9] इति श्रुतेः।त्वं कविः सर्ववेदनात् इति च ब्राह्मे। धातारं धारणपोषणकर्तारम्डुधाञ् धारणपोषणयोः [धा.पा.3।10] इति धातोः। धाता विधाता परमोत सन्दृक् इति च श्रुतिः।ब्रह्मा स्थाणुः इत्यारभ्यतस्य प्रसादादिच्छन्ति (ते तत्प्रसादाद्गच्छन्ति) तदादिष्टफलां गतिम् [म.भा.12।334।3539] इति च मोक्षधर्मे। तमसोऽव्यक्तात्परतः स्थितम्। तपसः परस्तादित्यव्यक्तं वै तमः परस्ताद्धि सततः इति पिप्पलादशाखायाम् मत्युर्वाव तमो मृत्युर्वा मृत्युर्वै तमो ज्योतिरमृतम् [बृ.उ.1।3।28] इति श्रुतेः।
Sri Neelkanth
।।8.9।।तदेवमुपासनायाः स्वरूपमुक्त्वोपासस्य स्वरूपमाह -- कविमिति। कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञम्। पुराणं चिरन्तनं। अनुशासितारं जगतोन्तर्यामिणम्। अणोः सूक्ष्मादप्याकाशादेरणीयांसं सूक्ष्मतरं योऽनुस्मरेदनुचिन्तयेत्। सर्वस्य कर्मफलस्य धातारं विभागेन प्रदातारम्। अचिन्त्यरूपं नास्य रूपं विद्यमानमपि केनचिच्चिन्तयितुं शक्यम्। आदित्यवर्णं आदित्यस्येव नित्यप्रकाशरूपो वर्णो दीप्यमानता यस्य तं आदित्यवर्णम्। सर्वजगदवभासकमित्यर्थः। तमसः देहेन्द्रियादावनात्मनि आत्माभिमानरूपाऽविद्यातः परस्तात्पराचीनम्। सति देहाभिमाने न प्रकाशते योगयुक्त्या त्यक्ते तु तस्मिन् स्वयमेव प्रकाशत इत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।8.9।।कविं सर्वज्ञं पुराणं पुरातनम् अनुशासितारं विश्वस्य प्रशासितारम् अणोः अणीयांसं जीवाद् अपि सूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं सर्वस्य स्रष्टारम् अचिन्त्यरूपं सकलेतरविसजातीयस्वरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् अप्राकृतस्वासाधारणदिव्यरूपम् तम् एवंभूतम् अहरहः अभ्यस्यमानभक्तियुक्तयोगबलेन आरूढसंस्कारतया अचलेन मनसा प्रयाणकाले भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य संस्थाप्य तत्र भ्रुवोर्मध्ये दिव्यं पुरुषं यः अनुस्मरेत् स तम् एव उपैति तद्भावं याति तत्समानैश्वर्यो भवति इत्यर्थः।अथ कैवल्यार्थिनां स्मरणप्रकारम् आह --
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।8.9।।क्रान्तदर्शी हि कविरित्युच्यते अत्र तु कविशब्दः ईश्वरविषयत्वात् सर्वदर्शित्वपर इत्यभिप्रायेणाह -- सर्वज्ञमिति। पुराणशब्देनानादित्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंपुरातनमिति। अनुपूर्वः शासिर्विविच्य ज्ञापनार्थ इत्येतावन्मात्रपरत्वव्युदासायविश्वस्य प्रशासितारमित्युक्तम्। ईश्वरस्य सतोऽनुशासनमाज्ञापनभेवेति भावः। अनुशासनं कस्यत्याकाङ्क्षायांसर्वस्य धातारम् इत्यत्र सर्वस्येति पदमाकर्षणीयम् विशेषनिर्देशाभावाद्वा सर्वविषयत्वमित्यभिप्रायेण -- विश्वस्येत्युक्तम्। एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः [बृ.उ.3।उक्तप्रकास्येश्वरस्वरूपस्य सामान्यतो दृष्टैस्तर्कैरसम्भवनीयतां केचिदभिमन्येरन्निति तन्निरासपरम्।अचिन्त्यरूपम् इतिपदमित्यभिप्रायेणाहसकलेतरविसजातीयस्वरूपमिति। वर्णयोगस्य स्वरूपेणाघटनात् प्रमाणसिद्धविलक्षणविग्रहद्वारा तद्योगमाहअप्राकृतेति। येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः [य.तै.ब्रा.3।12।9।7] यस्यादित्यो भामुपयुज्य भाति तस्य भासा सर्वमिदं विभाति [मुं.उ.2।2।10] (तं)तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिषु निरतिशयदीप्तियोगः सिद्धः। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [य.सं.31।18श्वे.उ.3।8] इति श्रुतिखण्डस्यात्र निबन्धः तम आसीत् [ऋक्सं.8।7।17।3यजुः2।7।9] तमसस्तन्महिनाजायतैकं [यजुः2।4।9] यदा तमः [श्वे.उ.4।18] इत्यादिश्रुत्यन्तरोपलक्षणार्थः। तेनतमसः इति सर्वकारणभूततमोद्रव्यविवक्षा।तमसः परस्तात् इत्यनेन फलितमप्राकृतत्वम् तत एव चाकर्माधीनत्वं नित्यत्वं निरवद्यत्वमित्यादि सूचितम्। एतच्छ्लोकच्छायश्च मानवः श्लोकः -- प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसम -- [णोरपि] -- णीयसाम्। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्या (त्तं)त्तु पुरुषं परम् -- [मनुः12।122] इति। अनुकूलानां हितरमणीयत्वाद्याकारेण हिरण्यवर्णत्वरुक्माभत्वादिव्यपदेशः। प्रतिकूलदुष्प्रेक्षत्वप्रकाशातिरेकादिविवक्षया आदित्यवर्णत्वाद्युक्तिः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि च वक्ष्यति। एतेनादित्यशब्दस्य नित्यचैतन्यप्रकाशपरत्वं तमश्शब्दस्य चाज्ञानविषयत्वं परोक्तं (शं.) निरस्तम्।,श्लोकद्वयस्यान्वयं दर्शयति -- तमेवम्भूतमित्यादिना।भक्त्या युक्तो योगबलेन इति पृथङ्निर्देशात् परोक्तप्राणजयबलादिपृथगर्थताप्रतीतिः स्यादिति तदपाकरणाय विशिष्टैकार्थतां दर्शयितुंभक्तियुक्तयोगबलेनेत्युक्तम्। मनसोऽचलत्वे हेतुरिदम् तस्य चावान्तरव्यापारः योग्यपर्याययुक्तशब्देन विवक्षित इत्याहआरूढसंस्कारतयेति।आवेश्य इत्यनेन योगप्रकरणेषूक्तं निश्चलावस्थापनं विवक्षितमित्याहसंस्थाप्येति। अत्र पुरुषध्यानस्यापि भ्रूमध्यमेव देशः देशान्तरानभिधानाद्योगप्रकरणान्तरेषूपदेशाच्च तत्सिद्धेरिति विभाव्योक्तंतत्र भ्रूमध्य इति। तमेवम्भूतं दिव्यं पुरुषम् इत्यन्वयः।तं तमेवैति [8।6] इत्यवधारणदर्शनात्स तं परं पुरुषम् इत्यत्रापितं इतीतरव्यवच्छेदपरमित्यभिप्रायेणाहस तमेवोपैतीति।यः प्रयाति स मद्भावं याति [8।5] इति प्रक्रान्तप्रकार एवात्र विवक्षित इति दर्शयतितद्भावं यातीति। भावप्रधानोऽत्र निर्देश इति भावः। तत्र तादात्म्यादिभ्रमं व्युदस्यतितत्समानैश्वर्यो भवतीत्यर्थ इति। परमसाम्यापत्तिव्यवच्छेदाय समानैश्वर्य इत्युक्तम्। एतेनकविम् इत्यादिभिः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः ऐश्वर्यप्रदत्वार्थमनुसन्धेयतयोक्ताः न तु प्राप्यत्वार्थमिति फलितम्। एवमन्तिमकालस्मर्तव्यतया निर्दिष्ट एवाकारः प्रागपि ध्येयतयोक्त इति मन्तव्यम्। एवमुत्तरत्रापि।