Chapter 13, Verse 10
Verse textअसक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.10।।
Verse transliteration
asaktir anabhiṣhvaṅgaḥ putra-dāra-gṛihādiṣhu nityaṁ cha sama-chittatvam iṣhṭāniṣhṭopapattiṣhu
Verse words
- asaktiḥ—non-attachment
- anabhiṣhvaṅgaḥ—absence of craving
- putra—children
- dāra—spouse
- gṛiha-ādiṣhu—home, etc
- nityam—constant
- cha—and
- sama-chittatvam—even-mindedness
- iṣhṭa—the desirable
- aniṣhṭa—undesirable
- upapattiṣhu—having obtained
Verse translations
Swami Sivananda
Non-attachment, non-identification of the Self with son, wife, home, and the rest, and constant even-mindedness in the face of the attainment of both desirable and undesirable.
Dr. S. Sankaranarayan
Non-attachment, detachment towards one's children, wives, houses, and the like; and a constant even-mindedness in the occurrence of desirable and undesirable things.
Shri Purohit Swami
Indifference, non-attachment to sex, progeny, or home, equanimity in both good fortune and bad;
Swami Ramsukhdas
।।13.10।।आसक्तिरहित होना; पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
Swami Tejomayananda
।।13.10।। आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता।।
Swami Adidevananda
Non-attachment, absence of clinging to son, wife, home, and the like, and constant even-mindedness in regard to all desirable and undesirable events;
Swami Gambirananda
Non-attachment and absence of fondness with regard to sons, wives, homes, etc., and constant equanimity of the mind with regard to the attainment of both the desirable and the undesirable;
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।13.10।।असक्ितरिति अमुत्र भोगविरागः।
Sri Sridhara Swami
।।13.10।।किंच -- असक्तिरिति। असक्तिः पुत्रादिपदार्थेषु प्रीतित्यागः? अनभिष्वङ्गः पुत्रादीनां सुखे दुःखे वाऽहमेव सुखी दुःखी चेत्यध्यासातिरेकाभावः? इष्टानिष्टयोरुपपत्तिषु प्राप्तिषु नित्यं सर्वदा समचित्तत्वम्।
Swami Sivananda
13.10 असक्तिः nonattachment? अनभिष्वङ्गः nonidentification of the Self? पुत्रदारगृहादिषु in son? wife? home and the rest? नित्यम् constant? च and?समचित्तत्वम् evenmindedness? इष्टानिष्टोपपत्तिषु on the attainment of the desirable and the undesirable.Commentary When a man thinks? This object is mine? the idea of mineness enters his mind. He develops Abhimana (false identification). Then he begins to love the objects. He clings to them and gets attached to them. Asakti is nonattachment to objects. There is absence of liking for the objects.Anabhishvangah There is intense attachment to wife? son or mother? etc. There is complete identification of the Self with another. He feels happy or miserable when that person is happy or miserable. Govindan feels miserable when his wife is dead because he was very much attached to her but he does not feel anything when his neighbours wife is dead. A man of wisdom has no attachment to his home. He considers his home as a public inn on the side of a public road.And the rest Others who are very dear relatives or other dependants.Constant evenmindedness or eanimity is an index of knowledge. The man of wisdom is neither elated when he gets the desirable or pleasant objects? nor grieves when he attains the undesriable or painful objects.Nonattachment? absence of affection and eanimity are all conducive to the attainment of knowledge of the Self. They are designated as knowledge because they are the means of attaining knowledge.
Swami Ramsukhdas
।।13.10।। व्याख्या -- असक्तिः -- उत्पन्न होनेवाली (सांसारिक) वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें जो प्रियता है? उसको सक्ति कहते हैं। उस सक्तिसे रहित होनेका नाम असक्ति है।सांसारिक वस्तुओं? व्यक्तियों आदिसे सुख लेनेकी इच्छासे? सुखकी आशासे और सुखके भोगसे ही मनुष्यकी उनमें आसक्ति? प्रियता होती है। कारण कि मनुष्यको संयोगके सिवाय सुख नहीं दीखता? इसलिये उसको संयोगजन्य सुख प्रिय लगता है। परन्तु वास्तविक सुख संयोगके वियोगसे होता है (गीता 6। 23)? इसलिये साधकके लिये सांसारिक आसक्तिका त्याग करना बहुत आवश्यक है।उपाय -- संयोगजन्य सुख आरम्भमें तो अमृतकी तरह दीखता है? पर परिणाममें विषकी तरह होता है (गीता 18। 38)। संयोगजन्य सुख भोगनेवालेको परिणाममें दुःख भोगना ही पड़ता है -- यह नियम है। अतः संयोगजन्य सुखके परिणामपर दृष्टि रखनेसे उसमें आसक्ति नहीं रहती।अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु -- पुत्र? स्त्री? घर? धन? जमीन? पशु आदिके साथ माना हुआ जो घनिष्ठ सम्बन्ध है? गाढ़ मोह है? तादात्म्य है? मानी हुई एकात्मता है? जिसके कारण शरीरपर भी असर पड़ता है? उसका नाम अभिष्वङ्ग है (टिप्पणी प0 683)। जैसे -- पुत्रके साथ माताकी एकात्मता रहनेके कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है? तब माताका शरीर कमजोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्रके? स्त्रीके मर जानेपर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया? धनके चले जानेपर कहता है कि मैं मारा गया? आदि। ऐसी एकात्मतासे रहित होनेके लिये यहाँ अनभिष्वङ्गः पद आया है।उपाय -- जिनके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दीखे? उनकी सेवा करे? उनको सुख पहुँचाये? पर उनसे सुख लेनेका उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वङ्ग (तादात्म्य) दूर करनेका ही रखे। अगर उनसे सेवा,लेनेका उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जायगा। हाँ? उनकी प्रसन्नताके लिये कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो क्योंकि राजी होनेसे अभिष्वङ्ग हो जायगा। तात्पर्य है कि किसीके साथ अपनेको लिप्त न करे। इस बातकी बहुत सावधानी रखे।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु -- इष्ट अर्थात् मनके अनुकूल वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें राग? हर्ष? सुख आदि विकार न हो और अनिष्ट अर्थात् मनके प्रतिकूल वस्तु? व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें द्वेष? शोक? दुःख? उद्वेग आदि विकार न हो। तात्पर्य है कि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके प्राप्त होनेपर चित्तमें निरन्तर समता रहे? चित्तपर उसका कोई असर न पड़े। इसको भगवान्ने सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा (2। 48)। पदोंसे भी कहा है।उपाय -- मनुष्यको जो कुछ अनुकूल सामग्री मिली है? उसको वह अपने लिये मानकर सुख भोगता है -- यह महान् बाधक है। कारण कि संसारकी सामग्री केवल संसारकी सेवामें लगानेके लिये ही मिली है? अपने शरीरइन्द्रियोंको सुख पहुँचानेके लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्यको जो कुछ प्रतिकूल सामग्री मिली है? वह दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है? प्रत्युत संयोगजन्य सुखका त्याग करनेके लिये? मनुष्यको सांसारिक राग? आसक्ति? कामना? ममता आदिसे छुड़ानेके लिये ही मिली है। तात्पर्य है कि अनुकूल और प्रतिकूल -- दोनों परिस्थितियाँ मनुष्यको सुखदुःखसे ऊँचा उठाकर (उन दोनोंसे अतीत) परमात्मतत्त्वको प्राप्त करानेके लिये ही मिली हैं -- ऐसा दृढ़तासे मान लेनेसे साधकका चित्त इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें स्वतः सम रहेगा।
Swami Chinmayananda
।।13.10।। असक्ति अर्जित की हुयी वस्तुओं से होने वाली सामान्य प्रीति को सक्ति अर्थात् संग कहते हैं। उसका अभाव असक्ति कहलाता है। हमें जो दुख होता है? वह विषयों के कारण नहीं? हमारे उसके साथ के मानसिक संग के कारण होता है। जैसै? अग्नि स्वयं किसी को नहीं जला सकती? जब तक कि कोई उसे स्पर्श न करे।पुत्र? भार्या और गृहादिक में अनभिष्वंग अति स्नेह को अभिष्वंग कहते हैं। अत उसका अभाव ही अनभिष्वंग कहलाता है। जब किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति सामान्य प्रीति बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है? तब उसे अभिष्वंग कहते हैं। इस आसक्ति का लक्षण है यह है कि मनुष्य को अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य हो जाता है कि उनके सुखदुख उसे अपने ही अनुभव होते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण है पुत्र के प्रति माता की आसक्ति का। इस प्रकार की आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में सदा विक्षेप बना रहता है और वह कार्य करने में भी अकुशल हो जाता है।हमें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के चारों ओर विवेक की ऐसी दीवार खड़ी करनी चाहिये कि ये सभी विक्षेप हमसे दूर रहें और मन का सन्तुलन सदा बना रहे जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति या समृद्धि कदापि संभव नहीं होती।प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों में चित्त की समता को सतत अभ्यास करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। यदि मनुष्य अपनी मूढ़ प्रीति और आसक्ति के बन्धनों से मुक्त हो जाये? तो उसे अपने में ही अतिरिक्त शक्ति का भण्डार प्राप्त होता है? जिसका उसे सही दिशा में सदुपयोग करना चाहिये? अन्यथा वही शक्ति आत्मघातक सिद्ध हो सकती है।वह सही दिशा क्या है इसे अगले श्लोक में बताते हैं
Sri Anandgiri
।।13.10।।साधनान्तरमाह -- किञ्चेति। अनन्ययोगमेव संक्षिप्तं व्यनक्ति -- नेत्यादिना। उक्तधीद्वारा जाताया भक्तेर्भगवति स्थैर्यं दर्शयति -- नेति। तत्रापि ज्ञानशब्दस्तद्धेतुत्वादित्याह -- सा चेति। देशस्य विविक्तत्वं द्विविधमुदाहरति -- विविक्त इति। तदेव स्पष्टयति -- अरण्येति। उक्तदेशसेवित्वं कथं ज्ञाने हेतुस्तत्राह -- विविक्तेष्विति। आत्मादीत्यादिशब्देन परमात्मा वाक्यार्थश्चोच्यते। नन्वरतिविषयत्वेनाविशेषतो जनसंसन्मात्रं किमिति न गृह्यते तत्राह -- तस्या इति। सतः सङ्गस्य भेषजमित्युपालम्भादित्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।13.10।।किंचासक्तिः सङ्निमितेषु विषयेषु प्रीततिमात्रस्याभावः। अनभिष्वङ्गः अन्यस्मिन्पुत्रादौ सुखिनि वा जीवति मृते वाहमेव सुखी दुःखी च जीवामि मरिष्यामीति चेति। पुत्रादिषु तादात्म्यभावनालक्षणस्याभिष्वङ्गस्याभाव। आदिपदादन्यदप्यत्यन्तेषं दासपश्वादिकं गृह्यते। इष्टा नामनिष्टानां चोपपत्तिषु प्राप्तिषु नित्यं सर्वदा समचित्तत्वं इष्टोपपत्तिषु हर्षस्यानिष्टोपपत्तिषु कोपस्य च वर्जनं तच्चैतन्त्रयमपि ज्ञानान्तरङ्गसाधनत्वाज्ज्ञानमित्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।13.10।।सक्तिः स्नेहः। स एवातिपक्वोऽभिष्वङ्गः।स्नेहः सक्तिः स एवातिपक्वोऽभिष्वङ्ग उच्यते इत्यभिधानम्।
Sri Neelkanth
।।13.10।।असक्तिरिति। सक्तिः पुत्रादौ ममतामात्रम्। अभिष्वङ्गस्तेन सह तादात्म्याभिमानोऽयमेवाहमिति च। पुत्रादेः सुखेऽहमेव सुखी तस्य दुःखेऽहमेव दुःखीति सङ्गाभिष्वङ्गौ तद्वर्जनमित्यर्थः। समचित्तत्वं हर्षविषादराहित्यम्। कुत्र इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टप्राप्तौ हर्षाभावोऽनिष्टप्राप्तौ विषादाभावः।
Sri Ramanujacharya
।।13.10।।मयि सर्वेश्वरे च ऐकान्तिकयोगेन स्थिरा भक्तिः जनवर्जितदेशवासित्वं जनसंसदि च अप्रीतिः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।13.10।।पूर्वम्इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् [13।9] इति सांस्पर्शिकं शब्दादिविषये? विरक्तिरुक्ता? इदानींअसक्तिः इत्याभिमानिकेषु सङ्गरहितत्वमुच्यत इति पुनरुक्तिं परिहर्तुंआत्मव्यतिरिक्तपरिग्रहेष्वित्युक्तम्। तर्हि गृहस्थस्य मुमुक्षोराभिमानिकसर्वधर्मपरित्यागेन कथमाश्रमधर्मो निर्वर्त्येत इत्यत्रोच्यते -- अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिष्विति। नात्र तेषूपयुक्तानामपि स्वरूपेण त्यागो विवक्षितः? प्रव्रजितस्याप्यवर्जनीयेषु सङ्गमात्रनिषेधात्?न कुड्यां नोदके सङ्गो न चेले न च विष्टरे। नागारे नासने नान्ये यस्य वै मोक्षवित्तु सः इति। अतो धर्मोपयुक्तत्वमात्रेण तु परिग्रह एवेत्यभिप्रायेणाह -- शास्त्रीयेति। सङ्गोऽभिष्वङ्गहेतुः?सङ्गात्सञ्जायते कामः [2।62] इत्युक्तत्वात्। अतः कारणाभावात्कार्याभाव इति भावः। अभिष्वङ्गोऽतिसक्तिः। सांस्पर्शिकेष्टानिष्टयोः समचित्तत्वस्याशक्यत्वादाह -- सङ्कल्पप्रभवेष्विति। पुत्रदारादिप्रसङ्गात्तद्विषयत्वं युक्तमेवेति च भावः।
Sri Abhinavgupta
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
Sri Jayatritha
।।13.10।।सक्त्यभिष्वङ्गशब्दयोरर्थभेदमाह -- सक्तिरिति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।13.10।।असक्तिरिति। किंच सक्तिर्ममेदमित्येतावन्मात्रेण प्रीतिः। अभिष्वङ्गस्त्वहमेवायमित्यनन्यत्वभावनया प्रीत्यतिशयः अन्यस्मिन् सुखिनि दुःखिनि वाऽहमेव सुखीदुःखीचेति तद्राहित्यमसक्तिरनभिष्वङ्ग इति चोक्तम्। कुत्र सक्त्यभिष्वङ्गौ वर्जनीयावत आह -- पुत्रेति। पुत्रदारगृहादिषु पुत्रेषु दारेषु गृहेषु आदिग्रहणादन्येष्वपि भृत्यादिषु सर्वेषु स्नेहविषयेष्वित्यर्थः। नित्यं च सर्वदा समचित्तत्वं हर्षविषादशून्यमनस्त्वम्। इष्टानिष्टोपपत्तिषु उपपत्तिः प्राप्तिः। इष्टोपपत्तिषु हर्षाभावोऽनिष्टोपपत्तिषु विषादाभाव इत्यर्थः। चः समुच्चये।
Sri Purushottamji
।।13.10।।किञ्चअसक्तिरिति। पुत्रदारगृहादिपदार्थेष्वसक्तिः आसक्तिराहित्यम्। अनभिष्वङ्गः तेषु समदुःखसुखतया तन्मयत्वाभावः। इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टानिष्टप्राप्तिषु नित्यं भगवदिच्छाविचारेण समचित्तत्वम्।
Sri Shankaracharya
।।13.10।। --,असक्तिः सक्तिः सङ्गनिमित्तेषु विषयेषु प्रीतिमात्रम्? तदभावः असक्तिः। अनभिष्वङ्गः अभिष्वङ्गाभावः। अभिष्वङ्गो नाम आसक्तिविशेष एव अनन्यात्मभावनालक्षणः यथा अन्यस्मिन् सुखिनि दुःखिनि वा अहमेव सुखी? दुःखी च? जीवति मृते वा अहमेव जीवामि मरिष्यामि च इति। क्व इति आह -- पुत्रदारगृहादिषु? पुत्रेषु दारेषु गृहेषु आदिग्रहणात् अन्येष्वपि अत्यन्तेष्टेषु दासवर्गादिषु। तच्च उभयं ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानमुच्यते। नित्यं च समचित्तत्वं तुल्यचित्तता। क्व इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टानामनिष्टानां च उपपत्तयः संप्राप्तयः तासु इष्टानिष्टोपपत्तिषु नित्यमेव तुल्यचित्तता। इष्टोपपत्तिषु न हृष्यति? न कुप्यति च अनिष्टोपपत्तिषु। तच्च एतत् नित्यं समचित्तत्वं ज्ञानम्।।किञ्च --,