Chapter 13, Verse 2
Verse textश्री भगवानुवाचइदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
Verse transliteration
śhrī-bhagavān uvācha idaṁ śharīraṁ kaunteya kṣhetram ity abhidhīyate etad yo vetti taṁ prāhuḥ kṣhetra-jña iti tad-vidaḥ
Verse words
- śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Divine Lord said
- idam—this
- śharīram—body
- kaunteya—Arjun, the son of Kunti
- kṣhetram—the field of activities
- iti—thus
- abhidhīyate—is termed as
- etat—this
- yaḥ—one who
- vetti—knows
- tam—that person
- prāhuḥ—is called
- kṣhetra-jñaḥ—the knower of the field
- iti—thus
- tat-vidaḥ—those who discern the truth
Verse translations
Swami Sivananda
The Blessed Lord said, "O Arjuna, this body is called the field; he who knows it is called the knower of the field by those who know them."
Shri Purohit Swami
Lord Shri Krishna replied: O Arjuna! The body of a person is the playground of the Self; and That which knows the activities of Matter, sages call the Self.
Swami Ramsukhdas
।।13.2।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! 'यह' -- रूपसे कहे जानेवाले शरीरको 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं।
Swami Tejomayananda
।।13.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसे तत्त्वज्ञ जन, क्षेत्रज्ञ कहते हैं।।
Swami Adidevananda
The Lord said, "O Arjuna, this body is called the Field, Ksetra. Those who know the self call the one who knows it the Field-knower, Ksetrajna."
Swami Gambirananda
The Blessed Lord said, "O son of Kunti, this body is referred to as the 'field'. Those who are versed in this call him who is conscious of it the 'knower of the field'."
Dr. S. Sankaranarayan
The Bhagavat said, "O son of Kunti! This physical body is called the 'field' (decayer-cum-protector); He who sensitizes it—His knowers call Him properly the 'Field-sensitizer'.
Verse commentaries
Sri Abhinavgupta
।।13.2 -- 13.3।।क्वचित् श्रुतौ क्षेत्रज्ञ उपास्यः इति श्रूयते। स च किमात्मा? उत ईश्वरः अथ तृतीयः कश्चिदन्य एव इति प्रश्नाशङ्कायाम् -- श्रीभगवानादिशतिं -- इदमिति? क्षेत्रज्ञमिति। संसारिणां शरीरं क्षेत्रम्? यत्र कर्मबीजप्ररोहः। अत एव तेषामात्मा आगन्तुककालुष्यरूषितः क्षेत्रज्ञ उच्यते। प्रबुद्धानां तदेव क्षेत्रम्। अन्वर्थभेदस्तु तद्यथा -- क्षिणोति कर्मबन्धमुपभोगेन? त्रायते जन्ममरणभयात् इति। तांश्च प्रति परमात्मा वासुदेवः (S? वासुदेवाख्यः) क्षेत्रज्ञः। एतत्क्षेत्रं (S?N यो वेदयति। वेदेत्यन्तर्भा यो वेदयति अन्तर्भा -- ) यो वेद? वेदयति इत्यन्तर्भावितण्यर्थो (N -- ण्यर्थोऽत्र) विदिः। तेन यत्प्रसादादचेतनमिदं चेतनीभावमायाति स एव क्षेत्रज्ञो नान्यः कश्चित्। विशेषस्तु परिमितव्याप्तिकं रूपमालम्ब्य आत्मेति भण्यते अपरिच्छिन्नसर्वक्षेत्रव्याप्त्या परमात्मा भगवान् वासुदेवः। ममेति कर्मणि षष्ठी अहमनेन ज्ञानेन ज्ञेयः इत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।13.2।। व्याख्या -- इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते -- मनुष्य यह पशु है? यह पक्षी है? यह वृक्ष है आदिआदि भौतिक चीजोंको इदंतासे अर्थात् यहरूपसे कहता है और इस शरीरको कभी मैंरूपसे तथा कभी मेरारूपसे कहता है। परन्तु वास्तवमें अपना कहलानेवाला शरीर भी इदंतासे कहलानेवाला ही है। चाहे स्थूलशरीर हो? चाहे सूक्ष्मशरीर हो और चाहे कारणशरीर हो? पर वे हैं सभी इदंतासे कहलानेवाले ही।जो पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश -- इन पाँच तत्त्वोंसे बना हुआ है अर्थात् जो मातापिताके रजवीर्यसे पैदा होता है? उसको स्थूलशरीर कहते हैं। इसका दूसरा नाम अन्नमयकोश भी है क्योंकि यह अन्नके विकारसे ही पैदा होता है और अन्नसे ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय? अन्नस्वरूप ही है। इन्द्रियोंका विषय होनेसे यह शरीर इदम् (यह) कहा जाता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ? पाँच प्राण? मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुएको सूक्ष्मशरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वोंमेंसे प्राणोंकी प्रधानताको लेकर यह सूक्ष्मशरीर प्राणमयकोश? मनकी प्रधानताको लेकर यह मनोमयकोश और बुद्धिकी प्रधानताको लेकर यह विज्ञानमयकोश कहलाता है। ऐसा यह सूक्ष्मशरीर भी अन्तःकरणका विषय होनेसे इदम् कहा जाता है।अज्ञानको कारणशरीर कहते हैं। मनुष्यको बुद्धितकका तो ज्ञान होता है? पर बुद्धिसे आगेका ज्ञान नहीं होता? इसलिये उसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरोंका कारण होनेसे कारणशरीर कहलाता है -- अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम् (अध्यात्म0 उत्तर0 5। 9)। इस कारणशरीरको स्वभाव? आदत और प्रकृति भी कह देते हैं और इसीको आनन्दमयकोश भी कह देते हैं। जाग्रत्अवस्थामें स्थूलशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म तथा कारणशरीर भी साथमें रहता है। स्वप्नअवस्थामें सूक्ष्मशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें कारणशरीर भी साथमें रहता है। सुषुप्तिअवस्थामें स्थूलशरीरका ज्ञान नहीं रहता? जो कि अन्नमयकोश है और सूक्ष्मशरीर भी ज्ञान नहीं रहता? जो कि प्राणमय? मनोमय एवं विज्ञानमयकोश है अर्थात् बुद्धि अविद्या(अज्ञान)में लीन हो जाती है। अतः सुषुप्तिअवस्था कारणशरीरकी होती है। जाग्रत् और स्वप्नअवस्थामें तो सुखदुःखका अनुभव होता है? पर सुषुप्तिअवस्थामें दुःखका अनुभव नहीं होता और सुख रहता है। इसलिये कारणशरीरको आनन्दमयकोश कहते हैं। कारणशरीर भी स्वयंका विषय होनेसे? स्वयंके द्वारा जाननेमें आनेवाला होनेसे इदम् कहा जाता है।उपर्युक्त तीनों शरीरोंको शरीर कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है (टिप्पणी प0 668.1)। इनको कोश कहनेका तात्पर्य है कि जैसे चमड़ेसे बनी हुई थैलीमें तलवार रखनेसे उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है? ऐसे ही जीवात्माके द्वारा इन तीनों शरीरोंको अपना माननेसे? अपनेको इनमें रहनेवाला माननेसे इन तीनों शरीरोंकी कोश संज्ञा हो जाती है।इस शरीरको क्षेत्र कहनेका तात्पर्य है कि यह प्रतिक्षण नष्ट होता? प्रतिक्षण बदलता है (टिप्पणी प0 668.2)। यह इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा? उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते क्योंकि वह तो बदल गया।शरीरको क्षेत्र कहनेका दूसरा भाव खेतसे है। जैसे खेतमें तरहतरहके बीज डालकर खेती की जाती है? ऐसे ही इस मनुष्यशरीरमें अहंताममता करके जीव? तरहतरहके कर्म करता है। उन कर्मोंके संस्कार,अन्तःकरणमें पड़ते हैं। वे संस्कार जब फलके रूपमें प्रकट होते हैं? तब दूसरा (देवता? पशुपक्षी? कीटपतङ्ग आदिका) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेतमें जैसा बीज बोया जाता है? वैसा ही अनाज पैदा होता है? उसी प्रकार इस शरीरमें जैसे कर्म किये जाते हैं? उनके अनुसार ही दूसरे शरीर? परिस्थिति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरमें किये गये कर्मोंके अनुसार ही यह जीव बारबार जन्ममरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टिसे इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है।अपने वास्तविक स्वरूपसे अलग दीखनेवाला यह शरीर प्राकृत पदार्थोंसे? क्रियाओंसे? वर्णआश्रम आदिसे,इदम् (दृश्य) ही है। यह है तो इदम् पर जीवने भूलसे इसको अहम् मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्माका अंश एवं चेतन है? सबसे महान् है। परन्तु जब वह जड (दृश्य) पदार्थोंसे अपनी महत्ता मानने लगता है (जैसे? मैं धनी हूँ? मैं विद्वान् हूँ आदि)? तब वास्तवमें वह अपनी महत्ता घटाता ही है। इतना ही नहीं? अपनी महान् बेइज्जती करता है क्योंकि अगर धन? विद्या आदिसे वह अपनेको बड़ा मानता है? तो धन विद्या आदि ही बड़े हुए उसका अपना महत्त्व तो कुछ रहा ही नहीं वास्तवमें देखा जाय तो महत्त्व स्वयंका ही है? नाशवान् और जड धनादि पदार्थोंका नहीं क्योंकि जब स्वयं उन पदार्थोंको स्वीकार करता है? तभी वे महत्त्वशाली दीखते हैं। इसलिये भगवान् इदं शरीरं क्षेत्रम् पदोंसे शरीरादि पदार्थोंको अपनेसे भिन्न इदंता से देखनेके लिये कह रहे हैं।एतद्यो वेत्ति -- जीवात्मा इस शरीरको जानता है अर्थात् यह शरीर मेरा है? इन्द्रियाँ मेरी हैं? मन मेरा है? बुद्धि मेरी है? प्राण मेरे हैं -- ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीरको कभी मैं कह देता है और कभी,यह कह देता है अर्थात् मैं शरीर हूँ -- ऐसा भी मान लेता है और यह शरीर मेरा है -- ऐसा भी मान लेता है।इस श्लोकके पूर्वार्धमें शरीरको इदम् पदसे कहा है और उत्तरार्धमें शरीरको एतत् पदसे कहा है। यद्यपि ये दोनों ही पद नजदीकके वाचक हैं? तथापि इदम् की अपेक्षा एतत् पद अत्यन्त नजदीकका वाचक है। अतः यहाँ इदम् पद अङ्गुलिनिर्दिष्ट शरीरसमुदायका द्योतन करता है और एतत् पद इस शरीरमें जो मैंपन है? उस मैंपनका द्योतन करता है।तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ (टिप्पणी प0 668.3) इति तद्विदः -- जैसे दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें सत्असत्के तत्त्वको जाननेवालोंको तत्त्वदर्शी कहा है? ऐसे ही यहाँ क्षेत्रक्षेत्रज्ञके तत्त्वको जाननेवालोंको तद्विदः कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है -- इसका जिनको बोध हो चुका है? ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्माको क्षेत्रज्ञ नामसे कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्रकी तरफ दृष्टि रहनेसे? क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही इस जीवात्माको वे ज्ञानी महापुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्रके साथ सम्बन्ध न रखे? तो फिर इसकी क्षेत्रज्ञ संज्ञा नहीं रहेगी? यह परमात्मस्वरूप हो जायगा (गीता 13। 31)।मार्मिक बातयह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है? वहाँसे खोलनेपर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है। अतः मनुष्यशरीरसे ही बन्धन होता है और मनुष्यशरीरके द्वारा ही बन्धनसे मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्यका अपने शरीरके साथ किसी प्रकारका भी अहंताममतारूप सम्बन्ध न रहे? तो वह मात्र संसारसे मुक्त ही है। अतः भगवान् शरीरके साथ माने हुए अहंताममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको क्षेत्र बताकर उसको इदंता(पृथक्ता) से देखनेके लिये कह रहे हैं? जो कि वास्तवमें पृथक् है ही।शरीरको इदंतासे देखना केवल अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंके लिये ही नहीं? प्रत्युत मनुष्यमात्रके लिये परम आवश्यक है। कारण कि अपना उद्धार करनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है। यही कारण,है कि गीताका उपदेश आरम्भ करते ही भगवान्ने सबसे पहले शरीर और शरीरीका पृथक्ताका वर्णन किया है।इदम् का अर्थ है -- यह अर्थात् अपनेसे अलग दीखनेवाला। सबसे पहले देखनेमें आता है -- पृथ्वी? जल? तेज? वायु तथा आकाशसे बना यह स्थूलशरीर। यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। इसको देखनेवाले हैं -- नेत्र। जैसे दृश्यमें रंग? आकृति? अवस्था? उपयोग आदि सभी बदलते रहते हैं? पर उनको देखनेवाले नेत्र एक ही रहते हैं? ऐसे ही शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्धरूप विषय भी बदलते रहते हैं? पर उनको जाननेवाले कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका एक ही रहते हैं। जैसे नेत्रोंसे ठीक दीखना? कम दीखना और बिलकुल न दीखना -- ये नेत्रमें होनेवाले परिवर्तन मनके द्वारा जाने जाते हैं? ऐसे ही कान? त्वचा? जिह्वा और नासिकामें होनेवाले परिवर्तन भी मनके द्वारा जाने जाते हैं। अतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ (कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त? कभी स्थिर और कभी चञ्चल -- ये मनमें होनेवाले परिवर्तन बुद्धिके द्वारा जाने जाते हैं। अतः मन भी दृश्य है। कभी ठीक समझना? कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना -- ये बुद्धिमें होनेवाले परिवर्तन स्वयं(जीवात्मा) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। बुद्धि आदिके द्रष्टा स्वयं(जीवात्मा) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं? है नहीं? होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। वह सदा एकरस रहता है अतः वह कभी किसीका दृश्य नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 669)।इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयको तो जान सकती हैं? पर विषय अपनेसे पर (सूक्ष्म? श्रेष्ठ और प्रकाशक) इन्द्रियोंको नहीं जान सकते। इसी तरह इन्द्रियाँ और विषय मनको नहीं जान सकते मन? इन्द्रियाँ और विषय बुद्धिको नहीं जान सकते तथा बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ और विषय स्वयंको नहीं जान सकते। न जाननेमें मुख्य कारण यह है कि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं अर्थात् एकदूसरेकी सहायतासे केवल अपनेसे स्थूल रूपको देखनेवाले हैं किन्तु स्वयं (जीवात्मा) शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिसे अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होनेके कारण निरपेक्ष द्रष्टा है अर्थात् दूसरे किसीकी सहायताके बिना खुद ही देखनेवाला है।उपर्युक्त विवेचनमें यद्यपि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिको भी द्रष्टा कहा गया है? तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिये कि स्वयं(जीवात्मा) के साथ रहनेपर ही इनके द्वारा देखा जाना सम्भव होता है। कारण कि मन? बुद्धि आदि जड प्रकृतिका कार्य होनेसे स्वतन्त्र द्रष्टा नहीं हो सकते। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। दृश्य पदार्थ (शरीर)? देखनेकी शक्ति (नेत्र? मन? बुद्धि) और देखनेवाला (जीवात्मा) -- इन तीनोंमें गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण? देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि स्वयं (जीवात्मा) तो चेतन है? फिर वह जड बुद्धि आदिको (जिससे उसकी तात्त्विक एकता नहीं है।) कैसे देखता है इसका समाधान यह है कि स्वयं जडसे तादात्म्य करके जडके सहित अपनेको मैं मान लेता है। यह मैं न तो जड है और न चेतन ही है। जडमें विशेषता देखकर यह जडके साथ एक होकर कहता है कि मैं धनवान हूँ मैं विद्वान हूँ आदि और चेतनमें विशेषता देखकर यह चेतनके साथ एक होकर कहता है कि मैं आत्मा हूँ मैं ब्रह्म हूँ आदि। यही प्रकृतिस्थ पुरुष है? जो प्रकृतिजन्य गुणोंके सङ्गसे ऊँचनीच योनियोंमें बारबार जन्म लेता रहता है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह निकला कि प्रकृतिस्थ पुरुषमें जड और चेतन -- दोनों अंश विद्यमान हैं। चेतनकी रुचि परमात्माकी तरफ जानेकी है किन्तु भूलसे उसने जडके साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्यमें जो जडअंश है? उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडताकी तरफ होनेसे वही सजातीयताके कारण जड बुद्धि आदिका द्रष्टा बनता है। यह नियम है कि देखना केवल सजातीयतामें ही सम्भव होता है अर्थात् दृश्य? दर्शन और द्रष्टाके एक ही जातिके होनेसे देखना होता है? अन्यथा नहीं। इस नियमसे यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जबतक बुद्धि आदिका द्रष्टा रहता है? तबतक उसमें बुद्धिकी जातिकी जड वस्तु है अर्थात् जड प्रकृतिके साथ उसका माना हुआ सम्बन्ध है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही सब अनर्थोंका मूल है। इसी माने हुए सम्बन्धके कारण वह सम्पूर्ण जड प्रकृति अर्थात् बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ? विषय? शरीर और,पदार्थोंका द्रष्टा बनता है। सम्बन्ध -- उस क्षेत्रज्ञका स्वरूप क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।13.2।। पूर्णत्व का अनुभव आत्मरूप से होता है? न कि दृश्य रूप से। हिन्दू ऋषियों का इस विषय में एकमत है कि अन्तर्मुखी होकर आत्मविचार करना ही आत्मबोध तथा उसके साक्षात् अनुभव का साधन मार्ग है। इस अध्याय में आत्मा और उसकी उपाधियों का सुन्दर दार्शनिक पद्धति से विभाजन किया गया है। आत्मानात्मविवेक जनित बोध ही साधक को दर्शायेगा कि किस प्रकार पारमर्थिक सत्य की दृष्टि से जड़ अनात्मा का आत्यन्तिक (सर्वथा) अभाव है।जाग्रत पुरुष ही अपनी किसी एक विशेष मनस्थिति से स्वप्नद्रष्टा बन जाता है? और जब तक स्वप्न बना रहता है तब तक उस स्वप्नद्रष्टा के लिये वह अत्यन्त सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न का अभाव हो जाता है? और जाग्रत् पुरुष यह जानता है कि वह स्वप्न उसके ही मन का विभ्रम मात्र था। इसी प्रकार आत्मानुभूति की वास्तविक जागृति में इस दृश्य प्रपंच का अभाव होता है। साधक अपने आत्मस्वरूप से ही आत्मा का अनुभव करता है? जिसमें इस छायारूप जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं है।इस प्रकार? वेदान्त दर्शन के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि समस्त प्राणी दो तत्त्वों से बने हैं। एक तत्त्व है जड़अचेतन और दूसरा है चेतन तत्त्व। प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों को परिभाषित किया गया है।यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इस यान्त्रिक युग में यह समझना सरल है कि ऊर्जा को व्यक्त होने अथवा कार्य करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र की आवश्यकता होती है। तभी वह व्यक्त होकर मानव की सेवा कर सकती है।इंजन के बिना वाष्पशक्ति तथा पंखे के बिना विद्युत् शक्ति हमें क्रमश गति और मन्द समीर प्रदान नहीं कर सकती। इसी प्रकार? जिन शरीरादि उपाधियों के माध्यम से आत्मचैतन्य व्यक्त होता है? उन्हें ही यहाँ क्षेत्र कहा गया है।इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं यह क्षेत्र जड़ पदार्थों से बना हुआ है। तथापि? इसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति होने से यह कार्य करता है और विषयों को जानता है। वास्तव में? यह चेतन तत्त्व जो इन उपाधियों से व्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित कर रहा है वह क्षेत्रज्ञ है। शास्त्रीय भाषा में कहेंगे कि उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही क्षेत्रज्ञ अथवा जीव कहलाता है।जब तक जीव शरीर धारण किये रहता है? उसकी उपस्थिति जानने की प्रवृत्ति से स्पष्ट ज्ञात होती है। इस जिज्ञासा की प्रवृत्ति की मात्रा विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में हो सकती है। परन्तु? इसके व्यक्त होने को ही हम जीवन का लक्षण मानते हैं। प्राणी की विषय ग्रहण की तथा उनके प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने की क्षमता ही जीवन का व्यवहार है? और जब यह ज्ञाता? शरीर का त्याग करके चला जाता है तब हम उस शरीर को मृत घोषित करते हैं। यह ज्ञाता ही क्षेत्रज्ञ है।तद्विद (तत्त्वज्ञजन) यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ये परिभाषाएं उनकी स्वच्छन्द घोषणा नहीं हैं और न ही ये केवल परिकल्पित अनुमान है? अपितु स्वयं ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों द्वारा ही ये प्रमाणित की गई हैं। संक्षेप में? संपूर्ण जड़ जगत् क्षेत्र है? और चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।क्या इस विषय में केवल इतना ही जानना है नहीं? आगे सुनो
Sri Anandgiri
।।13.2।।दृश्यानां दुःखादीनां भेदकानां यावद्देहभाविनामनात्मधर्मत्वसिद्धये द्रष्टारं देहादन्यमुक्त्वा सांख्यानामिव तन्मात्रेण मुक्तिनिवृत्तये तस्य सर्वदेहेष्वैक्योक्तिपूर्वकं स्वेन परमार्थेनाक्षरेणैक्यं वृत्तमनूद्य प्रश्नद्वारा दर्शयति -- एवमित्यादिना। यथोक्तलक्षणं दृश्याद्देहान्निष्कृष्टं द्रष्टारमित्यर्थः। चापीतिनिपातौ जीवस्याक्षरत्वज्ञानस्य देहादन्यत्वज्ञानेन समुच्चयार्थौ भिन्नक्रर्मौ न क्षेत्रज्ञं सांख्यवद्दृश्यादन्यमेव विद्धि किंतु मां चापि विद्धीति संबध्येते। यः सर्वक्षेत्रेष्वेकः क्षेत्रज्ञस्तं मामेव विद्धीति संबन्धं सूचयति -- सर्वेति। तत्तत्क्षेत्रोपाधिकभेदभाजस्तत्तच्छब्दधीगोचरस्य कथं तद्विपरीतब्रह्मत्वधीरित्याशङ्क्याह -- ब्रह्मादीति। उत्तरार्धं विभजते -- यस्मादिति। तदेव विशिनष्टि -- क्षेत्रेति। न च भेदविषयत्वान्न सम्यग्ज्ञानं तदिति युक्तं? तस्य विवेकज्ञानस्य वाक्यार्थज्ञानद्वारा मोक्षौपयिकत्वेन सम्यक्त्वसिद्धेरिति भावः। जीवेश्वरयोरेकत्वमुक्तमाक्षिपति -- नन्विति। जीवेश्वरयोरेकत्वे जीवस्येश्वरे वा तस्य जीवे वान्तर्भावः। नाद्यः। जीवस्य परस्मादन्यत्वाभावे संसारस्य निरालम्बनत्वानुपपत्त्या परस्यैव तदाश्रयत्वप्रसङ्गादित्यर्थः।अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति इति श्रुतेर्न,तस्य संसारितेत्याशङ्क्य द्वितीयं दूषयति -- ईश्वरेति। जीवे चेदीश्वरोऽन्तर्भवति तदापि ततोऽन्यसंसार्यभावात्तस्य च संसारोऽनिष्ट इति संसारो जगत्यस्तं गच्छेदित्यर्थः। प्रसङ्गद्वयस्येष्टत्वं निराचष्टे -- तच्चेति। संसाराभावेतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति इत्यादिबन्धशास्त्रस्य तद्धेतुकर्मविषयकर्मकाण्डस्य चानर्थक्यमीश्वराश्रिते च संसारे तदभोक्तृत्वश्रुतेर्ज्ञानकाण्डस्य मोक्षतद्धेतुज्ञानार्थस्यानर्थक्यमतो न प्रसङ्गयोरिष्टतेत्यर्थः। संसाराभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वे हेत्वन्तरमाह -- प्रत्यक्षादीति। तत्र प्रत्यक्षविरोधं प्रकटयति -- प्रत्यक्षेणेति। आदिशब्दोपात्तमनुमानविरोधमाह -- जगदिति। विमतं विचित्रहेतुकं विचित्रकार्यत्वात्प्रासादादिवदित्यर्थः। प्रत्यक्षानुमानागमविरोधादयुक्तमैक्यमित्युपसंहरति -- सर्वमिति। ऐक्येऽपि संसारित्वमविद्यातो विद्यातोऽसंसारित्वमिति विभागान्नानुपपत्तिरित्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। तयोः स्वरूपतो,विलक्षणत्वे श्रुतिमाह -- दूरमिति। (अविद्या या च विद्येति प्रसिद्धे एते विद्याविद्ये दूरं विपरीते। अत्यन्तविरुद्धे इत्यर्थः। विषूची नानागती भिन्नफले इत्यर्थः।) स्वरूपतो विरोधवत्फलतोऽपि सोऽस्तीत्याह -- तथेति। फलभेदोक्तिमेव व्यनक्ति -- विद्येति। तयोर्द्विधाविलक्षणत्वे वेदव्यासस्यापि संमतिमाह -- तथाचेति। उक्तेऽर्थे भगवतोऽपि संमतिमुदाहरति -- इहचेति। द्वयोरपि निष्ठयोस्तुल्यमुपादेयत्वमिति शङ्कां शातयति -- अविद्या चेति। अविद्या सकार्या हातव्येत्यत्र श्रुतीरुदाहरति -- श्रुतयस्तावदिति। इहेति जीवदवस्थोच्यते? चेच्छब्दो विद्योदयदौर्लभ्यद्योती? अवेदीदहं ब्रह्मेति विदितवानित्यर्थः। अथ विद्यानन्तरमेव सत्यमवितथं पुनरावृत्तिवर्जितं कैवल्यं स्यादित्याह -- अथेति। अविद्याविषयेऽपि श्रुतिमाह -- न चेदिति। जन्ममरणादिरूपा संसृतिर्विनष्टिस्तस्य महत्त्वं सम्यग्ज्ञानं विना निवर्तयितुमशक्यत्वम्। विद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- तमेवमिति। परमात्मानं प्रत्यक्त्वेन यः साक्षात्कृतवान्स देही जीवन्नेव मुक्तो भवतीत्यर्थः। विद्यां विनापि हेत्वन्तरतो मुक्तिमाशङ्क्याह -- नेति। भयहेतुमविद्यां निराकुर्वती तज्जं भयमपि निरस्यति -- विद्येति। अत्र वाक्यान्तरमाह -- विद्वानिति। अविद्याविषये वाक्यान्तरमाह -- अविदुष इति। प्रतीच्येकरसे स्वल्पमपि भेदं मन्यमानस्य भेददृष्ट्यनन्तरमेव संसारध्रौव्यमित्यर्थः। तत्रैव श्रुत्यन्तरमाह -- अविद्यायामिति। तन्मध्ये तत्परवशतया स्थितास्तत्त्वमजानन्तो देहाद्यभिमानवन्तो मूढाः संसरन्तीत्यर्थः। विद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- ब्रह्मेति। अविद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- अन्योऽसाविति। भेददृष्टिमनूद्य तन्निदानमविद्येत्याह -- नेति। स च मनुष्याणां पशुवद्देवादीनां प्रेष्यतां प्राप्नोतीत्याह -- यथेति। विद्याविषये वाक्यान्तरमाह -- आत्मविदिति। इदं सर्वं प्रत्यग्भूतं पूर्णं ब्रह्मेत्यर्थः। ज्ञानादेव तु कैवल्यमित्यत्र श्रुत्यन्तरमाह -- यदेति। न खल्वाकाशं चर्मवन्मानवो वेष्टयितुमीष्टे तथा परमात्मानं प्रत्यक्त्वेनानुभूय न मुच्यत इत्यर्थः। आदिशब्देनानुक्ता विद्याविद्याफलभेदार्थाः श्रुतयो गृह्यन्ते। तासां भूयस्त्वेन प्रामाण्यं सूचयति -- सहस्रश इति। विद्याविद्याविषये स्मृतीरुदाहरति -- स्मृतयश्चेति। तत्राविद्याविषयं वाक्यमाह -- अज्ञानेनेति। विद्याविषयं वाक्यद्वयं दर्शयति -- इहेत्यादिना। विद्याफलमनर्थध्वस्तिरविद्याफलमनर्थाप्तिरित्येतदन्वयव्यतिरेकाख्यन्यायादपि सिध्यतीत्याह -- न्यायतश्चेति। तत्रैव पुराणसंमतिमाह -- सर्पानिति। उदपानं कूपम्? यथात्मज्ञाने विशिष्टं फलं स्यात्तथा पश्येति योजना। न्यायतश्चेत्यन्वयव्यतिरेकाख्यं न्यायमुक्तं विवृणोति -- तथाचेति। तत्रादावन्वयमाचष्टे -- देहादिष्विति। अनाद्यनिर्वाच्याविद्यावृतश्चिदात्मा देहादावनात्मन्यात्मबुद्धिमादधाति तद्युक्तो रागादिना प्रेर्यते तत्प्रयुक्तश्च कर्मानुतिष्ठति तत्कर्ता च यथाकर्म नूतनं देहमादत्ते पुरातनं त्यजतीत्येवमविद्यावत्त्वे संसारित्वं सिद्धमित्यर्थः। व्यतिरेकमिदानीं दर्शयति -- देहादीति। श्रुतियुक्तिभ्यां भेदे ज्ञाते रागादिध्वस्त्या कर्मोपरमादशेषसंसारासिद्धिरित्यविद्याराहित्ये बन्धध्वस्तिरित्यर्थः। उक्तान्वयादेरन्यथासिद्धिं शिथिलयति -- इति नेति। उक्तमन्वयादिवादिना केनचिदपि न्यायतो न शक्यं प्रत्याख्यातुं तदन्यथासिद्धिसाधकाभावादित्यर्थः। अन्वयादेरनन्यथासिद्धत्वे चोद्यमपि प्राचीनं प्रतिनीतमित्याह -- तत्रेति। ज्ञानाज्ञानयोरुक्तन्यायेन स्वरूपभेदे कार्यभेदे च स्वारस्येन परापरयोरैक्येऽपि बुद्ध्याद्युपाधिभेदादाविद्यकमात्मनः संसारित्वमाभासरूपं प्रातिभासिकं सिध्यतीत्यर्थः। आत्मनो ब्रह्मता स्वतश्चेदहमित्यात्मभावेन ब्रह्मतापि मायादित्याशङ्क्याह -- यथेति। देहाद्यतिरिक्तस्यात्मनो वैदिकपक्षे स्वतस्त्वेऽपि तस्मिन्नहमिति भात्येव तदतिरिक्तत्वं न भाति किं त्वविद्यातो देहाद्यात्मत्वमेव विपरीतं भासते तथात्मनो ब्रह्मत्वे स्वाभाविकेऽपि तस्मिन्भात्येव ब्रह्मत्वं न भात्यविद्यातोऽब्रह्मत्वमेव त्वस्य भास्यतीत्यर्थः। आत्मनो देहाद्यात्मत्वमाविद्यं भातीत्युक्तमनुभवेन स्पष्टयति -- सर्वेति। अतस्मिंस्तद्बुद्धिरविद्याकृतेत्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। पुरःस्थिते वस्तुनि स्थाणावविद्यया पुमानिति निश्चयो जायते तथा देहादावनात्मन्यात्मधीरविद्यातो निश्चितेत्यर्थः। देहात्मनोरैक्यज्ञाने देहधर्मस्य जरादेरात्मन्यात्मधर्मस्य च चैतन्यस्य देहे विनियमः स्यादित्याशङ्क्याह -- नचेति। स्थाणौ पुरुषत्वं भ्रान्त्याभातीत्येतावता पुरुषधर्मः शिरःपाण्यादिर्न स्थाणोर्भवति तद्धर्मो वा वक्रत्वादिर्न पुंसो दृश्यते मिथ्याध्यस्ततादात्म्याद्वस्तुतो धर्माव्यतिकरादिति। दृष्टान्तमुक्त्वा दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति।जरादेरनात्मधर्मत्वेऽपि सुखादेरात्मधर्मत्वमिति केचित्तान्प्रत्याह -- सुखेति। कामसंकल्पादिश्रुतेरनात्मधर्मत्वज्ञानादित्यर्थः। किञ्च विमतो नात्मधर्मोऽविद्याकृतत्वाज्जरादिवन्न च हेत्वसिद्धिरतस्मिंस्तद्बुद्धिविषयत्वेन स्थाणौ पुरुषत्ववदविद्याकृतत्वस्योक्तत्वादिति मत्वाह -- अविद्येति। स्थाणौ पुरुषत्ववदाविद्यत्वं देहादेरयुक्तं दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यादिति शङ्कते -- नेति। तदेव प्रपञ्चयति -- स्थाण्वित्यादिना। ज्ञेयस्य ज्ञेयान्तरेऽध्यासादत्र चोभयोर्ज्ञेयत्वं व्यापकव्यावृत्त्या व्याप्याध्यासस्यापि,व्यावृत्तिरित्यर्थः। देहात्मबुद्धेर्भ्रमत्वाभावे फलितमाह -- अत इति। उपाधिधर्माणां सुखादीनामुपहिते जीवे वस्तुत्वमयुक्तमतिप्रसङ्गादिति परिहरति -- नेत्यादिना। अतिप्रसङ्गमेव प्रकटयति -- यदीति। सुखादीनामात्मधर्मत्वं चेदुपाधिधर्मत्वादचैतन्यं जरादिकं चात्मनो दुर्वारं स्यादित्यर्थः। सुखादिरात्मधर्मो नेति पक्षेऽपि नास्ति विशेषहेतुरित्याशङ्क्याह -- नेति। तदेवानुमानं साधयति -- अविद्येति। विमतं नात्मधर्मः आगमापायित्वात्संसारवदित्यनुमानान्तरमाह -- हेयत्वादिति। आदिशब्दाद्दृश्यत्वजडत्वादिति गृह्यते। सुखादीनां जरादिवदात्मधर्मत्वाभावे तस्य वस्तुतोऽसंसारितेति फलितमाह -- तत्रेति। आरोपितेनाधिष्ठानस्य वस्तुतोऽस्पर्शे दृष्टान्तमाह -- यथेति। पराभिन्नस्यात्मनः संसारित्वमध्यस्तमिति स्थिते यत्परस्य संसारित्वापादनं तदयुक्तमित्याह -- एवंचेति। आत्मनि संसारस्यारोपितत्वात्तदभिन्ने परस्मिन्नाशङ्कैव तस्यायुक्तेत्येतदुपपादयति -- नहीति। स्थाणौ पुरुषनिश्चयवदात्मनो देहाद्यात्मत्वनिश्चयस्याध्यस्ततेत्ययुक्तम्। दृष्टान्तस्य ज्ञेयमात्रविषयत्वादितरस्य ज्ञेयज्ञातृविषयत्वादित्युक्तमनुवदति -- यत्त्विति। वैषम्यं दूषयति -- तदसदिति। तर्हि केन साधर्म्यमिति पृच्छति -- कथमिति। अभीष्टं साधर्म्यं दर्शयति -- अविद्येति। तस्योभयत्रानुगतिमाह -- तन्नेति। ज्ञेयान्तरे ज्ञेयस्यारोपनियमाज्ज्ञातरि नारोपः स्यादित्याशङ्क्याह -- यत्त्विति। नायं नियमो ज्ञातरि जराद्यारोपस्योक्तत्वादित्याह -- तस्यापीति। ज्ञेयस्यैव ज्ञेयान्तरेऽध्यासनियमस्येति यावत्। अतो ज्ञातरि नारोपव्यभिचारशङ्केत्यर्थः। आत्मन्यविद्याध्यासे तत्राविद्यायाः स्वाभाविकत्वात्तदधीनत्वं संसारित्वमपि तथा स्यादिति शङ्कते -- अविद्यावत्त्वादिति। काऽविद्या विपरीतग्रहादिर्वाऽनाद्यनिर्वाच्याज्ञानं वा? नाद्यो विपरीतग्रहादेस्तमःशब्दितानिर्वाच्याज्ञानकार्यत्वात्तन्निष्ठस्यात्मधर्मत्वायोगादित्याह -- नेत्यादिना। तदेव प्रपञ्चयति -- तामसो हीति। आवरणात्मकत्वं वस्तुनि सम्यक्प्रकाशप्रतिबन्धकत्वम्। विपरीतग्रहणादेरविद्याकार्यत्वं विद्यापोहत्वेन साधयति -- विवेकेति। न च कारणाविद्याऽनाद्यनिर्वाच्यात्मधर्मः स्यादिति युक्तमनिर्वाच्यत्वादेव तस्यास्तद्धर्मत्वस्य दुर्वचत्वादिति भावः। किञ्च विपरीतग्रहादेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां दोषजन्यत्वावगमादपि नात्मधर्मतेत्याह -- तामसे चेति। तमःशब्दिताज्ञानोत्थवस्तुप्रकाशप्रतिबन्धकस्तिमिरकाचादिदोषस्तस्मिन्सत्यज्ञानं मिथ्याधीः संशयश्चेति त्रयस्योपलम्भादसति तस्मिन्नप्रतीतेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां विपरीतज्ञानादेर्दोषाधीनत्वाधिगमान्न केवलात्मधर्मतेत्यर्थः। दोषस्य निमित्तत्वाद्भावकार्यस्योपादाननियमादनिर्वाच्याविद्यायाश्चासंमतेस्तस्यैव विपर्ययादेरुपादानमिति चोदयति -- अत्राहेति। विपरीतग्रहादेर्दोषोत्थत्वं सप्तम्यर्थः। अग्रहादित्रितयमविद्या। विपर्ययादेः सत्योपादानत्वे सत्यत्वप्रसङ्गान्नात्मा तदुपादानं किंतु दोषस्य चक्षुरादिधर्मकत्वग्रहणादग्रहणादेरपि दोषत्वात्करणधर्मत्वे करणमविद्योत्थमन्तःकरणं न च तद्धेतुरविद्याऽसिद्धेति वाच्यमज्ञोऽहमित्यनुभवात्स्वापे चाज्ञानपरामर्शात्तदवगमात्कार्यलिङ्गकानुमानादागमाच्च तत्प्रसिद्धेरिति परिहरति -- नेत्यादिना। संगृहीतचोद्यपरिहारयोश्चोद्यं विवृणोति -- यत्त्विति। अविद्यावत्त्वेऽपि ज्ञातुरसंसारिऽत्वादुत्खातदंष्ट्रोरगवदविद्या किं करिष्यतीत्याशङ्क्याह -- तदेवेति। मिथ्याज्ञानादिमत्त्वमेवात्मनः संसारित्वमिति स्थिते फलितमाह -- तत्रेति। न कारणे चक्षुषीत्यादिनोक्तमेव परिहारं प्रपञ्चयति -- तन्नेत्यादिना। तिमिरादिदोषस्तत्कृतो विपरीतग्रहादिश्च न ग्रहीतुरात्मनोऽस्तीत्यत्र हेतुमाह -- चक्षुष इति। तद्गतेनाञ्जनादिसंस्कारेण तिमिरादौ पराकृते देवदत्तस्य ग्रहीतुर्दोषाद्यनुपलम्भान्न तस्य तद्धर्मत्वमतो विमतं तत्त्वतो नात्मधर्मो दोषत्वात्तत्कार्यत्वाद्वा संमतवदित्यर्थः। किञ्च विपरीतग्रहादिस्तत्त्वतो नात्मधर्मो वेद्यत्वात्संप्रतिपन्नवदित्याह -- संवेद्यत्वाच्चेति। किञ्च यद्वेद्यं तत्स्वातिरिक्तवेद्यं यथा दीपादीति व्याप्तेर्विपरीतग्रहादीनामपि वेद्यत्वादतिरिक्तवेद्यत्वे संवेदिता न संवेद्यधर्मवान्वेदितृत्वाद्यथा देवदत्तो न स्वसंवेद्यरूपादिमानित्यनुमानान्तरमाह -- संवेद्यत्वादेवेति। किञ्च विपरीतग्रहादयस्तत्त्वतो नात्मधर्मा व्यभिचारित्वात्कृशत्वादिवदित्याह -- सर्वेति। उक्तमेव विवृण्वन्नात्मनो विपरीतग्रहादिः स्वाभाविको वागन्तुको वेति विकल्प्याद्यं दूषयति -- आत्मन इति। अतोनिर्मोक्षोऽविद्यातज्जध्वस्तेरसद्भावादिति भावः। आगन्तुकोऽपि स्वतश्चेदमुक्तिः परतश्चेत्तत्राह -- अविक्रियस्येति। विभुत्वादविक्रियत्वादमूर्तत्वाच्चात्मा व्योमवन्न केनचित्संयोगविभागावनुभवति नहि विक्रियाभावे व्योम्नि वस्तुतः संयोगविभागावसङ्गत्वाच्चात्मनस्तदसंयोगान्न परतोऽपि तस्मिन्विपरीतग्रहादित्यर्थः। तस्यात्मधर्मत्वाभावे फलितमाह -- सिद्धमिति। आत्मनो निर्धर्मकत्वे भगवदनुमतिमाह -- अनादित्वादिति। ईश्वरत्वे सत्यात्मनोऽसंसारित्वे विधिशास्त्रस्याध्यक्षादेश्चानर्थक्यात्तात्त्विकमेव तस्य संसारित्वमिति शङ्कते -- नन्विति। विद्यावस्थायामविद्यावस्थयां वा शास्त्रानर्थक्यमिति विकल्प्याद्यं प्रत्याह -- न सर्वैरिति। विदुषो मुक्तस्य,संसारतदाधारत्वयोरभावस्य सर्ववादिसंमतत्वात्तत्र शास्त्रानर्थक्यादि चोद्यं मयैव न प्रतिविधेयमित्यर्थः। संग्रहवाक्यं विवृणोति -- सर्वैरिति। अभिप्रायाज्ञानात्प्रश्ने स्वाभिप्रायमाह -- कथमित्यादिना। तर्हि मुक्तान्प्रति विधिशास्त्रस्याध्यक्षादेश्चानर्थक्यमित्याशङ्क्याह -- नचेति। नहि व्यवहारातीतेषु तेषु गुणदोषाशङ्केत्यर्थः। द्वैतिनां मते मुक्तात्मस्विवास्मत्पक्षेऽपि क्षेत्रज्ञस्येश्वरत्वे तंप्रति च शास्त्राद्यानर्थक्यं विद्यावस्थायामास्थितमिति फलितमाह -- तथेति। द्वितीयं दूषयति -- अविद्येति। तदेव दृष्टान्तेन विवृणोति -- यथेति। एवमद्वैतिनामपि विद्योदयात्प्रागर्थवत्त्वं शास्त्रादेरिति शेषः। द्वैतिभिरद्वैतिनां न साम्यमिति शङ्कते -- नन्विति। अवस्थयोर्वस्तुत्वे तन्मते शास्त्राद्यर्थवत्त्वं फलितमाह -- अत इति। सिद्धान्ते तु नावस्थयोर्वस्तुतेति वैषम्यमाह -- अद्वैतिनामिति। व्यावहारिकं द्वैतं तन्मतेऽपि स्वीकृतमित्याशङ्क्याह -- अविद्येति। कल्पितद्वैतेन व्यवहारान्न तस्य वस्तुतेत्यर्थः। बन्धावस्थाया वस्तुत्वाभावे दोषान्तरमाह -- बन्धेति। आत्मनस्तत्त्वतोऽवस्थाभेदो द्वैतिनामपि नास्तीति परिहरति -- नेति। अनुपपत्तिं दर्शयितुं विकल्पयति -- यदीति। तत्राद्यं दूषयति -- युगपदिति। द्वितीयेऽपि क्रमभाविन्योरवस्थयोर्निर्निमित्तत्वं सनिमित्तत्वं वेति विकल्प्याद्ये सदा प्रसङ्गाद्बन्धमोक्षयोरव्यवस्था स्यादित्याह -- क्रमेति। कल्पान्तरं निरस्यति -- अन्येति। बन्धमोक्षावस्थे न परमार्थे अस्वाभाविकत्वात्स्फटिकलौहित्यवदिति स्थिते फलितमाह -- तथाचेति। वस्तुत्वमिच्छतावस्थयोर्वस्तुत्वोपगमादित्यर्थः। इतश्चावस्थयोर्न वस्तुत्वमित्याह -- किञ्चेति। अवस्थयोर्वस्तुत्वमिच्छता तयोर्यौगपद्यायोगाद्वाच्ये क्रमे बन्धस्य पूर्वत्वं मुक्तेश्च पाश्चात्यमिति स्थिते बन्धस्यादित्वकृतं दोषमाह -- बन्धेति। तस्याश्चाकृताभ्यागमकृतविनाशनिवृत्तयेऽनादित्वमेष्टव्यमन्तवत्त्वं च मुक्त्यर्थमास्थेयं तच्च यदनादिभावरूपं तन्नित्यं यथात्मेति व्याप्तिविरुद्धमित्यर्थः। मोक्षस्य पाश्चात्त्यकृतं दोषमाह -- तथेति। सा हि ज्ञानादिसाध्यत्वादादिमती पुनरावृत्त्यनङ्गीकारादनन्ता च। तच्च यत्सादिभावरूपं तदन्तवद्यथा पटादीतिव्याप्त्यन्तरविरुद्धमित्यर्थः। किञ्च क्रमभाविनीभ्यामवस्थाभ्यामात्मा संबध्यते न वा? प्रथमे पूर्वावस्थया सहैवोत्तरावस्थां गच्छति चेदुत्तरावस्थायामपि पूर्वावस्थावस्थानादनिर्मोक्षः? यदि पूर्वावस्थां त्यक्त्वोत्तरावस्थां गच्छति तदा पूर्वत्यागोत्तराप्त्योरात्मनः सातिशयत्वान्नित्यत्वानुपपत्तिरित्याह -- नचेति। आत्मनोऽवस्थाद्वयसंबन्धो नास्तीति द्वितीयमनूद्य दूषयति -- अथेत्यादिना। तर्हि पक्षद्वयेऽपि दोषाविशेषान्नाद्वैतमतानुरागे हेतुरित्याशङ्क्याविद्याविषये चेत्युक्तं विवृणोति -- नचेति। तदेव स्फुटयति -- अविदुषां हीति। फलं भोक्तृत्वं कर्तृत्वं हेतुः? यद्वा फलं देहविशेषो हेतुरदृष्टं तयोरनात्मनोर्भोक्ताहं कर्ताहं मनुष्योऽहमित्याद्यात्मदर्शनमधिकारकारकं तेनाविद्वद्विषयं विधिनिषेधशास्त्रमित्यर्थः। विदुषामपि मनुष्योऽहमित्यादिव्यवहारात्तद्विषयं शास्त्रं किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नेति। भोक्तृत्वकर्तृत्वाभ्यां ब्राह्मण्यादिमतो देहाद्धर्माधर्माभ्यां चात्मनोऽन्यत्वं पश्यतो न विधिनिषेधाधिकारित्वमुक्तफलादावात्मीयाभिमानासंभवादित्यर्थः। आत्मनो देहादेरन्यत्वदर्शिनो न देहादावात्मधीरित्येतदुपपादयति -- नहीति। विदुषो न विधिनिषेधाधिकारितेत्युक्तमुपसंहरति -- तस्मादिति। शास्त्रस्याविद्वद्विषयत्वमिव विद्वद्विषयत्वमपि मन्तव्यमुभयोरपि शास्त्रश्रवणाविशेषादित्याशङ्क्याह -- नहीति। तत्रस्थो यस्मिन्देशे देवदत्तः स्थितस्तत्रैव वर्तमानः सन्नित्यर्थः। ननु देवदत्ते नियुक्ते विष्णुमित्रोऽपि कदाचिन्नियुक्तोऽस्मीति प्रतिपद्यते? सत्यं नियोगविषयान्नियोज्यादात्मनो विवेकाग्रहणान्नियोज्यत्वभ्रान्तेरित्याह -- नियोगेति। अविवेकिनो नियोगधीर्भवतीति दृष्टान्तमुक्त्वा फले हेतौ चात्मदृष्टिविशिष्टस्याविदुषः संभवत्येव विधिनिषेधाधिकारित्वमिति दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति। विधिनिषेधशास्त्रमविद्वद्विषयमिति वदता शास्त्रानर्थक्यं समाहितं? संप्रति शास्त्रस्य विद्वद्विषयत्वेनैवार्थवत्त्वं शक्यसमर्थनमिति शङ्कते -- नन्विति। प्रकृतिरविद्या ततो जातो यो देहादावभिमानात्मा संबन्धो विद्योदयात्प्रागनुभूतस्तदपेक्षया विधिना प्रवर्तितोऽस्मि निषेधेन निवर्तितोऽस्मीति विधिनिषेधविषया सत्यामपि विद्यायां धीर्युक्तैवेत्यर्थः। विदुषोऽपि पूर्वमाविद्यं संबन्धमपेक्ष्यविधिनिषेधविषयां धियमुक्तामेव व्यक्तीकरोति -- इष्टेति। नन्वविदुषो मिथ्याभिमानवन्न विदुषः सोऽनुवर्तते तथाचाविद्यासंबन्धापेक्षया न युक्ता विदुषो यथोक्ता धीरिति तत्राह -- यथेति। पिता पुत्रो भ्रातेत्यादीनां मिथोऽन्यत्वदृष्टावप्यन्योन्यनियोगार्थस्य निषेधार्थस्य च धीर्दृष्टा पितरमधिकृत्य विधौ निषेधे वा तस्य तदनुष्ठानाशक्तौ पुत्रस्य तद्विषया धीरिष्टाअथातः संप्रत्तिर्यदा प्रैषन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं,लोकः इत्यादिसंप्रत्तिश्रुत्याशेषानुष्ठानस्य पुत्रकार्यताप्रतिपादनात्। पुत्रं चाधिकृत्य विधिनिषेधप्रवृत्तौ तस्य तदशक्तौ पितुस्तदर्था धीरुपगता तथा भ्रात्रादिष्वपि द्रष्टव्यम्। एवं विदुषो हेतुफलाभ्यामन्यत्वदर्शनेऽपि प्राक्कालीनाविद्यदेहादिसंबन्धादविरुद्धा विधिनिषेधा धीरित्यर्थः। पुत्रादीनां मिथ्याभिमानान्मिथो नियोगधीर्युक्ता,तत्त्वदर्शिनस्तु तदभावान्न देहादिसंबन्धाधीना नियोगधीरिति परिहरति -- नेत्यादिना। किञ्चसर्वापेक्षया यज्ञादिश्रुतेरश्ववत् इति सर्वापेक्षाधिकरणे सम्यग्ज्ञानस्यादृष्टसाध्यत्वोक्तेर्विधिनिषेधार्थानुष्ठानं सम्यग्ज्ञानात्पूर्वमिति कुतो विदुषस्तदनुष्ठानमित्याह -- प्रतिपन्नेति। सत्यदृष्टे सम्यग्धीदृष्टेरसति चाशुद्धबुद्धेस्तदभावादन्वयव्यतिरेकाभ्यां विविदिषावाक्याच्च विधिनिषेधानुष्ठानात्पूर्वं न सम्यग्धीरित्याह -- न पूर्वमिति। विधिनिषेधयोर्विद्वद्विषयत्वायोगे फलितमाह -- तस्मादिति। शास्त्रस्याविद्वद्विषयत्वेनोक्तमर्थवत्त्वमाक्षेपसमाधिभ्यां प्रपञ्चयितुमाक्षिपति -- नन्विति। चकारादूर्ध्वमप्रवृत्तिरिति संबध्यते। आत्मनो देहाद्व्यतिरेकं पश्यतां देहाद्यभिमानरूपाधिकारहेत्वभावाद्विधितो यागादावप्रवृत्तिर्निषेधाच्चाभक्ष्यभक्षणादेर्न निवृत्तिरतस्तेषां प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभावे देहादावात्मत्वमनुभवतामपि न ते युक्ते तेषां पारलौकिकभोक्तृप्रतिपत्त्यभावादित्यर्थः। विदुषामविदुषां च प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावे फलितमाह -- अत इति। आत्मनो देहाद्यतिरेकं परोक्षमपरोक्षं च देहाद्यात्मत्वं पश्यतः शास्त्रानुरोधादेव प्रवृत्तिनिवृत्त्युपपत्तेर्न शास्त्रानर्थक्यमित्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। प्रसिद्धिरत्र शास्त्रीयाभिमता। एतदेव विवृण्वन्ब्रह्मविदो वा नैरात्म्यवादिनो वा परोक्षज्ञानवतो वा प्रवृत्तिनिवृत्ती विवक्षसीति विकल्प्याद्यं दूषयति -- ईश्वरेति। न निवर्तते चेत्यपि द्रष्टव्यम्। द्वितीयं निरस्यति -- तथेति। पूर्ववदत्रापि संबन्धः। तृतीयमङ्गीकरोति -- यथेति। विधिनिषेधाधीनां प्रसिद्धमनुरुन्धानः सन्निति यावत्। चकारान्निवर्तते चेत्यनुकृष्यते। ब्रह्मविदं नैरात्म्यवादिनं च त्यक्त्वा देहाद्यतिरिक्तमात्मानं परोक्षमपरोक्षं च देहाद्यात्मत्वं पश्यतो विधिनिषेधाधिकारित्वे सिद्धे फलमाह -- अत इति। विधान्तरेण शास्त्रार्थानर्थक्यं चोदयति -- विवेकिनामिति। दृष्टा हि तेषां विधिनिषेधयोरप्रवृत्तिर्नहि देहादिभ्यो निकृष्टमात्मानं दृष्टवतां तयोरधिकारस्तेन तान्प्रति शास्त्रं नार्थवन्न च देहाद्यात्मत्वदृशस्तत्राधिक्रियन्ते तेषां यद्यदाचरतीति न्यायेन विवेकिनोऽनुगच्छतां विध्यादावप्रवृत्तेरतोऽधिकार्यभावाद्विध्यादिशास्त्रस्य तदनुसारिशिष्टाचारस्य चानर्थक्यमित्यर्थः। किं सर्वेषां विवेकित्वादधिकार्यभावादानर्थक्यं शास्त्रस्योच्यते किंवा कस्यचिदेव विवेकित्वेऽपि तदनुवर्तित्वादन्येषामप्रवृत्तेरानर्थक्यं चोद्यते तत्र प्रथमं प्रत्याह -- न कस्यचिदिति। मनुष्याणां सहस्रेष्विति न्यायेनोक्तमेव स्फुटयति -- अनेकेष्विति। तत्रानुभवानुरोधेन दृष्टान्तमाह -- यथेति। द्वितीयं दूषयति -- नचेति। किञ्च विवेकिनामप्रवृत्तावन्येषामप्यप्रवृत्तिरित्याशङ्कां निरसितुं श्येनादौ तदप्रवृत्तावपीतरप्रवृत्तेरित्याह -- अभिचरणादौ चेति। अविवेकिनां रागादिद्वारा प्रवृत्त्यास्पदं सर्वं संग्रहीतुमादिपम्। इतश्च विवेकिनां प्रवृत्त्यभावेऽपि नाज्ञस्याप्रवृत्तिरित्याह -- स्वाभाव्याच्चेति। प्रवृत्तेः स्वभावाख्याज्ञानकार्यत्वे भगवद्वाक्यमनुकूलयति -- स्वभावस्त्विति। प्रवृत्तेरज्ञानजत्वे विधिनिषेधाधीनप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकबन्धस्याविद्यामात्रत्वादविद्वद्विषयत्वं शास्त्रस्य सिद्धमिति फलितमाह -- तस्मादिति। दृष्टमेवानुसरन्नविद्वान्यथा दृष्टस्तद्विषयस्तदाश्रयः संसारस्तथाच प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकसंसारस्याविद्वद्विषयत्वात्तद्धेतुविधिशास्त्रस्यापि तद्विषयत्वमित्यर्थः। नन्वविद्या क्षेत्रज्ञमाश्रयन्ती स्वकार्यं संसारमपि तस्मिन्नाधत्ते तेन तस्यैव शास्त्राधिकारित्वं नेत्याह -- नेति। अविद्यादेः शुद्धे क्षेत्रज्ञे वस्तुतोऽसंबन्धेऽपि तस्मिन्नारोपितं तमेव दुःखीकरोतीत्यत्राह -- नचेति। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- नहीति। क्षेत्रज्ञस्य वस्तुतोऽविद्यासंबन्धे भगवद्वचोऽपि द्योतकमित्याह -- अत इति। क्षेत्रज्ञेश्वरयोरैक्ये किमित्यसावात्मानमहमिति बुध्यमानोऽपि स्वस्येश्वरत्वमीश्वरोऽस्मीति न बुध्यते तत्राह -- अज्ञानेनेति। आत्मनो वस्तुतः संसारासंस्पर्शे विद्वदनुभवविरोधः स्यादिति चोदयति -- अथेति। एवमित्याभिजात्यादिवैशिष्ट्यमुक्तम्? इदमा क्षेत्रकलत्रादि? पण्डितानामपि प्रतीतं संसारित्वमिति शेषः। किं पाण्डित्यं देहादावात्मदर्शनं किंवा कूटस्थात्मदृष्टिराहो संसारित्वादिधीरिति विकल्प्याद्यं निराकुर्वन्नाह -- शृण्विति। तच्च वस्तुतो संसारित्वविरोधि प्रातिभासिकं तु संसारित्वमिष्टमिति शेषः। द्वितीयं दूषयति -- यदीति। नहि कूटस्थात्मविषयं संसारित्वं प्रतीयते येन वस्तुतोऽसंसारित्वं विरुध्येत कूटस्थात्मधीविरुद्धायाः संसारित्वबुद्धेरनवकाशित्वादित्यर्थः। आत्मानमक्रियं पश्यतोऽपि कुतो भोगकर्मणी न स्यातामित्याशङ्क्याह -- विक्रियेति। अविक्रियात्मबुद्धेर्भोगकर्माकाङ्क्षयोरभावे कस्य शास्त्रे प्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह -- अथेति। फलार्थित्वाभावाद्विदुषो न कर्मणि प्रवृत्तिरित्येवं स्थिते सत्यनन्तरमविद्वान्फलार्थित्वात्तदुपाये कर्मणि प्रवर्तते शास्त्राधिकारीत्यर्थः। विदुषो वैधप्रवृत्त्यभावेऽपि निषेधाधीननिवृत्तेरपि दुर्वचत्वात्तस्य निवृत्तिनिष्ठत्वासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- विदुष इति। तृतीयमुत्थापयति -- इदं चेति। सिद्धान्तादविशेषमाशङ्क्य क्षेत्रस्य क्षेत्रज्ञाद्वस्तुतो भिन्नत्वेन तद्विषयत्वाङ्गीकारान्मैवमित्याह -- क्षेत्रं चेति। अहंधीवेद्यस्यात्मनो वस्तुतः संसारित्वस्वीकाराच्च सिद्धान्ताद्भेदोऽस्तीत्याह -- अहंत्विति। संसारित्वमेव,स्फोरयति -- सुखीति। संसारित्वस्य वस्तुत्वे तदनिवृत्त्या पुमर्थासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- संसारेति। कथं तदुपरमस्य हेतुं विना कर्तव्यत्वमित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रेति। क्षेत्रं ज्ञात्वा ततो निष्कृष्टस्य क्षेत्रज्ञस्य ज्ञानं कथं संसारोपरतिमुत्पादयेदित्याशङ्क्याह -- ध्यानेनेति। संसारित्वमात्मनो बुध्यमानस्य तद्रहितादीश्वरादन्यत्वमिति वक्तुमितिशब्दः। तदेवान्यत्वमुपपादयति -- यश्चेति। मम संसारिणोऽसंसारीश्वरत्वं कर्तव्यमित्येवं यो बुध्यते यो वा तथाविधं ज्ञानं तव कर्तव्यमित्युपदिशति स क्षेत्रज्ञादीश्वरादन्यो ज्ञेयोऽन्यथोपदेशानर्थक्यादित्यर्थः। आत्मा संसारी परस्मादात्मनोऽन्यस्तस्य ध्यानाधीनज्ञानेनेश्वरत्वं कर्तव्यमित्येतज्ज्ञानं पाण्डित्यमिति मतं दूषयति -- एवमिति।अयमात्मा ब्रह्म इत्यात्मनो ब्रह्मत्वश्रुतिविरोधादित्यर्थः। ननु संसारस्य वस्तुत्वाङ्गीकारात्तत्प्रतीत्यवस्थायां कर्मकाण्डस्यार्थवत्त्वं संसारित्वनिरासेनात्मनो ब्रह्मत्वे ध्यानादिना साधिते मोक्षावस्थायां ज्ञानकाण्डस्यार्थवत्त्वं तत्कथं यथोक्तज्ञानवान्पण्डितापसदत्वेनाक्षिप्यते तत्राह -- संसारेति। करोमीति मन्यमानो यः स पण्डितापसद इति पूर्वेण संबन्धः। कर्मकाण्डं हि कल्पितं संसारित्वमधिकृत्य साध्यसाधनसंबन्धं बोधयदर्थवदिष्टं ज्ञानकाण्डमपि तथाविधं संसारित्वं पराकृत्याखण्डैकरसे प्रत्यग्ब्रह्मणि पर्यवस्यदर्थवद्भवेदित्यर्थः। किंचात्मनः शास्त्रसिद्धं ब्रह्मत्वं त्यक्त्वाऽब्रह्मत्वं कल्पयन्नात्महा भूत्वा लोकद्वयबहिर्भूतः स्यादित्याह -- आत्महेति। ननु क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीत्यनेन सर्वक्षेत्रान्तर्यामी परो जीवादन्यो निरुच्यते न जीवस्येश्वरत्वमत्र प्रतिपाद्यते तत्कथमित्थमाक्षिप्यते तत्राह -- स्वयमिति। किञ्च तत्त्वमसीतिवत्प्रसिद्धक्षेत्रज्ञानुवादेनाप्रसिद्धं तस्येश्वरत्वमिहोपदेशतः श्रुतं तस्य हानिमश्रुतस्य च जीवेश्वरयोस्तात्त्विकभेदस्य कल्पनां कुर्वन्कथं व्यामूढो न स्यादित्याह -- श्रुतेति। ननु केचन व्याख्यातारो यथोक्तं पाण्डित्यं पुरस्कृत्य क्षेत्रज्ञं चापीत्यादिश्लोकं व्याख्यातवन्तस्तत्कथमुक्त पाण्डित्यमास्थातुर्व्यामूढत्वं तत्राह -- तस्मादिति। क्षेत्रज्ञं चापीत्यत्र क्षेत्रज्ञेश्वरयोरैक्यं स्वाभीष्टं स्पष्टयितुं प्रत्युक्तमेव चोद्यमनुद्रवति -- यत्तूक्तमिति। तात्त्विकमेकत्वमतात्त्विकं संसारित्वमित्यङ्गीकृत्योक्तमेव समाधिं स्मारयति -- एताविति। ईश्वरस्य संसारित्वं संसार्यभावेन संसाराभावश्चेत्युक्तौ दोषौ विद्याविद्ययोर्वैलक्षण्येऽपि कथं प्रत्युक्ताविति पृच्छति -- कथमिति। कल्पितसंसारेण कल्पनाधिष्ठानमद्वयं वस्तु वस्तुतो न संबद्धमिति परिहरति -- अविद्येति। तद्विषयं कल्पनास्पदमधिष्ठानमिति यावत्। कल्पितेनाधिष्ठानस्य वस्तुतोऽसंस्पर्शे दृष्टान्तं स्मारयति -- तथाचेति। ईश्वरस्य संसारित्वाप्रसङ्गं प्रकटीकृत्य प्रसङ्गान्तरनिरासमनुस्मारयति -- संसारिण इति। न तावदविद्या संसारं संसारिणं च कल्पयति स्वतन्त्रा तत्त्वव्याघातात्पारतन्त्र्ये चाश्रयान्तराभावात्क्षेत्रज्ञस्य तद्वत्त्वे संसारित्वमिति शङ्कते -- नन्विति। न चाविद्यावत्त्वमविद्याकृतमनवस्थानादिति भावः। यत्तूत्खातदंष्ट्रोरगवदविद्या किं करिष्यतीति तत्राह -- तत्कृतं चेति। अविद्यातज्जयोर्ज्ञेयत्वान्नात्मधर्मतेत्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। तदेव प्रपञ्चयति -- यावदिति। ज्ञेयस्य क्षेत्रधर्मत्वेऽपि क्षेत्रद्वारा क्षेत्रज्ञस्य तत्कृतदोषवत्तेत्याशङ्क्याह -- नचेति। क्षेत्रस्यापि ज्ञेयत्वान्न तेन चितो वस्तुतः स्पर्शोऽस्तीत्युपपादयति -- यदीति। धर्मधर्मित्वेन संसर्गेऽपि ज्ञेयत्वे का क्षतिरित्याशङ्क्याह -- यदीति। आत्मधर्मस्यात्मना ज्ञेयत्वे स्वस्यापि ज्ञेयत्वापत्त्या कर्तृकर्मविरोधः स्यादित्यर्थः। किञ्च विमतं न क्षेत्रज्ञाश्रितं तद्वेद्यत्वाद्रूपादिवदित्याह -- कथंवेति। किञ्च महाभूतानीत्यादिना ज्ञेयमात्रस्य क्षेत्रान्तर्भावान्नाविद्यादेर्ज्ञातृधर्मतेत्याह -- ज्ञेयं चेति। किंचैतद्यो वेत्तीत्युक्तत्वात्क्षेत्रज्ञस्य ज्ञातृत्वनिर्णयान्न तत्र ज्ञेयं किंचित्प्रविशतीत्याह -- ज्ञातैवेति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवंस्वाभाव्ये सिद्धे सिद्धं क्षेत्रधर्मत्वमविद्यादेरिति फलितमाह -- इत्यवधारित इति। विरोधाच्च न क्षेत्रज्ञधर्मत्वमविद्यादेरित्याह -- क्षेत्रज्ञेति। विरुद्धवादित्वे मूलं दर्शयति -- अविद्येति। मात्रपदस्य व्यावर्त्यं मानयुक्त्याख्यमवष्टम्भान्तरमिति वक्तुं केवलपदम्। ययाऽविद्यया विरुद्धमपि निर्वोढुं शक्यते तस्याः स्वातन्त्र्याभावाच्चितोऽन्यस्याविद्यमानत्वेनातदाश्रयत्वात्तस्या विद्यास्वभावतया तदाश्रयत्वव्याघातादाश्रयजिज्ञासया पृच्छति -- अत्राहेति। आश्रयमात्रं पृच्छ्यते तद्विशेषो वा? प्रथमे प्रश्नस्यानवकाशत्वं मत्वाह -- यस्येति। अविद्या दृश्याऽदृश्या वा? दृश्यत्वे पारतन्त्र्यात्किंचिन्निष्ठत्वेनैव तद्दृष्टेर्नाश्रयमात्रं प्रष्टव्यमदृश्यत्वे वाऽप्रकाशत्वादसिद्धिरेव स्यादित्यर्थः। द्वितीयमालम्बते -- कस्येति। अविद्याया दृश्यमानत्वादाश्रयविशेषस्यात्मनोऽपि स्वानुभवसिद्धत्वात्प्रश्नस्य निरवकाशतेत्युत्तरमाह -- अत्रेति। प्रश्नानर्थक्यं प्रश्नद्वारा स्फोरयति -- कथमित्यादिना। तथापि कथं प्रश्नासिद्धिस्तत्राह -- नचेति। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- नहीति। दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यं चोदयति -- नन्विति। अज्ञानाश्रयस्य परोक्षत्वेऽपि प्रश्ननैरर्थक्यमित्याह -- अप्रत्यक्षेणेति। अविद्यावतोऽप्रत्यक्षत्वेऽपि तेनाविद्यासंबन्धे सिद्धेप्रष्टुस्तव प्रश्नानर्थक्यसमाधिर्न कश्चिदित्यर्थः। अबुद्धपराभिसन्धिः शङ्कते -- अविद्याया इति।,अविद्यावतस्तत्परिहारान्नान्येन प्रयतितव्यमित्याह -- यस्येति। ममैवाविद्यावत्त्वात्तत्परिहारे मया प्रयतितव्यमिति शङ्कते -- नन्विति। तर्हि प्रश्नानर्थक्यमिति सिद्धान्ती स्वाभिसंधिमाह -- जानासीति। आत्मानमविद्यावन्तं जानन्नपि तद्विषयाध्यक्षाभावात्पृच्छामीति शङ्कते -- जानामीति। अविद्यावतोऽप्रत्यक्षत्वं वदता तस्याहमविद्यावानविद्याकार्यवत्त्वाद्व्यतिरेकेण मुक्तात्मवदित्यनुमेयत्वमिष्टमित्यभ्युपेत्य दूषयति -- अनुमानेनेति। आत्मनोऽविद्यासंबन्धग्रहे कानुपपत्तिरित्याशङ्क्य ज्ञातैवात्मा स्वस्याविद्यासंबन्धं बुध्यतेऽन्यो वा ज्ञातेति विकल्प्याद्यं दूषयति -- नहीति। तत्काले स्वस्याविद्यां प्रति ज्ञातृत्वावस्थायामिति यावत्। अविद्यां विषयत्वेन गृहीत्वा तज्ज्ञातृत्वेनैवोपयुक्तस्यात्मनस्तस्याः स्वात्मनि कुतः संबन्धज्ञातृत्वमेकस्य कर्मकर्तृत्वविरोधादित्याह -- अविद्याया इति। द्वितीयं निरस्यति -- नचेति। यो ग्रहीता स न संभवतीति संबन्धः। तद्विषयमिति ज्ञातुरविद्यायाश्च संबन्धस्तच्छब्दार्थः। अनवस्थामेव प्रपञ्चयति -- यदीति। आत्मनः स्वपरज्ञेयत्वायोगात्तस्मिन्नविद्यासंबन्धस्याप्रामाणिकत्वान्नित्यानुभवगम्यत्वे स्थिते फलितमाह -- यदि पुनरिति। यदा चैवं तदेत्यध्याहार्यम्। ज्ञातुरात्मनो न किंचिद्दुष्यतीत्येतदमृष्यमाणः शङ्कते -- नन्विति। किं ज्ञातृत्वं ज्ञानक्रियाकर्तृत्वं ज्ञानस्वरूपत्वं वा? नाद्यस्तदनभ्युपगमात्तत्प्रयुक्तदोषाभावात्? द्वितीये ज्ञातृत्वस्यौपचारिकत्वान्न तत्कृतो दोषोऽस्तीत्याह -- नेत्यादिना। असत्यामपि क्रियायां क्रियोपचारं दृष्टान्तेन स्फुटयति -- यथेति। आत्मनि वस्तुतो विक्रियाभावे भगवदनुमतिं दर्शयति -- यथात्रेति। गीताशास्त्रं सप्तम्यर्थः। स्वत एवात्मनि क्रियाद्यात्मत्वाभावो भगवता शास्त्रे यथोक्तस्तथैव व्याख्यातमस्माभिरिति संबन्धः। कथं तर्हि क्रियादिरात्मनि भाति तत्राह -- अविद्येति। यथा वस्तुतो नास्त्यात्मनि क्रियादिरुपचारात्तु भाति तथा तत्र तत्रातीतप्रकरणेषु भगवता कुतो यत्न इत्याह -- तथेति। न केवलमतीतेष्वेव प्रकरणेषु वास्तवक्रियाद्यभावादात्मन्याध्यासिकी तद्धीरुक्ता किंतु वक्ष्यमाणप्रकरणेष्वपि तथैव भगवदभिप्रायदर्शनं भविष्यतीत्याह -- उत्तरेषु चेति। आत्मनि वास्तवक्रियाद्यभावेऽध्यासाच्च तत्सिद्धौ कर्मकाण्डस्याविद्वदधिकारित्वप्राप्तौ विद्वान्यजेत ज्ञात्वा कर्मारभेतेत्यादिशास्त्रविरोधः स्यादिति शङ्कते -- हन्तेति। शास्त्रस्य व्यतिरेकविज्ञानाभिप्रायत्वादशनायाद्यतीतात्मधीविधुरस्यैव कर्मकाण्डाधिकारितेत्यङ्गीकरोति -- सत्यमिति। कथमज्ञस्यैव कर्माधिकारित्वमुपपन्नमित्याशङ्क्याह -- एतदेव चेति। ज्ञानिनो ज्ञाननिष्ठायामेवाधिकारो निष्ठान्तरे त्वज्ञस्यैवेत्युपसंहारप्रकरणे विशेषतो भविष्यतीत्याह -- सर्वेति। तदेवानुक्रामति -- समासेनेति। जीवब्रह्मणोरैक्याभ्युपगमे न किंचिदवद्यमित्युपसंहरति -- अलमिति।
Sri Dhanpati
।।13.2।।यो मायां जगदेकमोहनकरीमाश्रित्य सृष्ट्वालयं देहं जीवतयानुविश्य मतिभिः संयाति नानात्मताम्।वन्दे तं परमार्थतः सुखधनं ब्रह्माद्वयं केवलं कृष्णं वेदशिरोभिरेव विदितं श्रीशंकरं शाश्वतम्।।1।।आकाशस्य यथा धटादिभिरसौ भेदो नचास्तत्यर्थत एवं ब्रह्माणि निर्गुणेऽतिविमले बुद्य्धादिभूः कल्पितः।यस्मिन्नेकरसे विमायममितं तं वासुदेवं भजे सत्यानन्दचिदात्मकं गुरुगुरुं शर्वं तमोनाशकम्।।2।।देवीं भक्तजनार्थसार्थजननीं प्रत्हूदैत्यार्दिनीं प्रत्यूहदैत्यार्दिनीं भानुं भानुमृगेन्द्रसूदितमहद्विघ्नौघनागं प्रभुम्।शुण्डावज्रनिरस्तसर्वदुरितागं पावनं मङ्गलं ध्येयं नौमि गजाननं सुरगणैरिन्द्रं गणानां विभुम्।।3।।एवं षट्कद्वयेन त्वंपदार्थ तत्पदार्थं च प्रतिपाद्याखण्डार्थप्रतिपादनाय तृतीयषट्कमारभ्यते। तत्रभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्। एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृतस्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। इति सप्तमेऽध्याये त्रिगुणात्मिका क्षेत्रलक्षणा संसारहेतुत्वादपरैका? अन्या च जीवभूता क्षेत्रलक्षणा ईश्वरात्मकत्वात्परेतीश्वरस्य द्वे प्रकृती सूचिते। याभ्यामीश्वरो जगदुत्पत्त्यादिहुतुत्वं प्रतिपद्यते। तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणप्रकृतिद्वयनिरुपणद्वारा तद्वत ईश्वरस्य तत्त्वनिर्णयार्थं द्वादशाध्याये चअद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च इत्यादितत्त्वज्ञविशेषणान्युक्तानि। येन पुनस्तत्त्वज्ञानेन संपन्ना यथोक्तविशेषणविशिष्टा मम प्रिया भवन्तीत्यस्तत्त्वज्ञानावधारणार्थं च श्रीभगवानुवाच -- इदमित्यादिना। इदं प्रत्यक्षादिनोपलभ्यमानं दृश्यम्। इदमोक्तं विशिनष्टि शरीरं। त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः सर्वकार्यकारणविषयाकारेण परिणता पुरुषस्य भोगापवर्गयोरर्थयोरेव कर्तव्यतया देहेन्द्रियाद्याकारेण संहन्यते सोयं संघातः शरीरशब्देनोच्यते। इदं शरीरं हे कौन्तेय क्षतात्र्णात्क्षेत्रं? क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्राति तं विद्यया? क्षीयते नश्यति क्षरति अपक्षीयतेऽतोपि क्षेत्रमित्यभिधीयते। क्षेत्रवदस्मिन्कर्मफलं निष्पद्यते इति वा। यथा कुन्ती त्वत्प्रादुर्भावस्थानत्वात्क्षेत्रं तथात्मनोऽभिव्यक्तिस्थानत्वादपीदं क्षेत्रमिति संबोधनाशयः। अनेन शरीरस्यात्मनोऽन्यत्वं बोधितं क्षेत्रशब्दादुपस्थितमितिपदं क्षेत्रशब्दविषयमन्यथावैयर्थ्यात्क्षेत्रमित्येवमनेन क्षेत्रशब्देनाभिधीयते कथ्यत इत्यर्थः। दृश्यं शरीरं प्रदर्श्य ततोऽतिरिक्तं द्रष्टारमात्मानं दर्शयति। एतच्छरीरं क्षेत्रं यो वेत्ति आपदतलमस्तकं मनुष्योऽहं ममेदं शरीरमिति स्वाभाविकेन? शरीरं आत्मा दृश्यत्वात् घटवदित्यौपदेशिकेन स्वातिरिक्तत्वेन वा ज्ञानेन जानाति विषयीकरोति तं तद्विदस्तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ दृश्यत्वेन द्रष्टत्वेन विदन्तीति तथा तं क्षेत्रज्ञ इति प्राहुः क्षेत्रज्ञ इत्येवम्। क्षेत्रज्ञशब्देन तं कथयन्तीत्यर्थः।
Sri Madhavacharya
।।13.2।।श्रीज्ञानदात्रे नमः। पूर्वोक्तज्ञानज्ञेयक्षेत्रपुरुषान् पिण्डीकृत्य विविच्य दर्शयत्यनेनाध्यायेन।
Sri Neelkanth
।।13.2।।ननु अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः इति द्वितीये त्वंपदार्थस्वरूपमुक्तम्। तथा द्वादशे ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् इति तत्पदार्थस्वरूपमुक्तम्। न च तयोर्भेदः संभवति। लक्षणैक्यात्। लक्षणं हि तयोरव्यक्तत्वमचिन्त्यत्वमचलत्वं सर्वगतत्वं चेत्यादि समानम्। न च द्वयोः सर्वगतत्वं संभवति। अन्योन्यव्यावृत्तत्वेनासर्वगतत्वापत्तेः। न च लक्षणभेदाभावेऽपि तत्तदात्मगतविशेषाः सन्ति ये मुक्तात्मनां जीवेशयोश्चान्योन्यं भेदमावहन्ति स्वात्मानं च स्वाश्रयात्स्वयमेव व्यावर्तयन्तीति वाच्यम्। विशेषाणां सत्त्वे प्रमाणाभावात्। ननु मा सन्तु विशेषाः बन्धमोक्षादिव्यवस्थान्यथानुपपत्त्या तु निर्विशेषेष्वपि पुरुषेषु भेदः सिध्यति। यथोक्तं सांख्यवृद्धैःजन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव इति। जन्मादिव्यवस्थातो युगपत्प्रवृत्त्यदर्शनात् सात्विकराजसादिभेदाच्च न पुरुषैक्यमित्यर्थ इति चेन्न। व्यापकानेकात्मवादे भोगसांकर्यप्रसङ्गात्। नह्येकत्रान्तःकरणे सुखादिरूपेण परिणते तत्प्रतिसंवेदी एक एव चेतन इति नियन्तुं शक्यम्। सर्वेषां सान्निध्याविशेषेण प्रतिसंवेदनापत्तेरवर्जनीयत्वात्। श्रोत्रस्यैकस्यापि कर्णशष्कुलीरूपोपाधिभेदादिवान्तःकरणरूपोपाधिभेदादेकस्याप्यात्मनः शब्दग्रहव्यवस्थावज्जन्मादिव्यवस्थापि सेत्स्यतीति न पुरुषबहुत्वं वक्तव्यम्। ततश्च जीवेशयोर्लक्षणैक्यादभेदे सिद्धे किमुत्तरग्रन्थेन तत्प्रतिपादनार्थेनेति चेत्सत्यम्।यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत् इति श्रुतेर्विद्यावस्थायां भेदाभावेऽपि अविद्यावस्थायांअन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानाम्एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते इतिव्यवहारदशायां शास्यशासितृभावेन कर्तृकारयितृभावेन च प्रसक्तस्य जीवेश्वरयोर्भेदस्य निरासार्थत्वादुत्तरग्रन्थस्यारम्भ उपपद्यते। तत्रानुपदोक्तेन तत्पदार्थेन सहास्याभेदं वक्तुं योग्यतायै भास्यभासकभावेन क्षेत्रात्क्षेत्रज्ञस्य कुम्भाद्भास्वत इव विवेकं दर्शयति -- इदमिति। इदमनात्मत्वेन भास्यं घटाद्यहंकारान्तं शरीरं विशरणधर्मि हे कौन्तेय? क्षेत्रं क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्रायते च विद्ययेति क्षेत्रं कर्मबीजप्ररोहस्थानं क्षेत्रशब्देनोच्यते। एतद्यो वेत्ति भासयति तं चिदात्मानं क्षेत्रज्ञ इत्यन्वर्थसंज्ञं प्राहुः। के प्राहुः। तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविदः। एतेन गच्छामि पश्यामि भुञ्जे इत्यनुभवाद्देहेन्द्रियाहंकाराः प्रतीतितो भासककोटिनिविष्टा इव भान्ति तथापि तेषां तत्त्वतो भास्यत्वलक्षणोऽनात्मभावः सिद्धः।
Sri Ramanujacharya
।।13.2।।देवमनुष्यादिसर्वक्षेत्रेषु वेदितृत्वैकाकारं क्षेत्रज्ञं च मां विद्धि -- मदात्मकं विद्धि। क्षेत्रज्ञं च अपि इति अपिशब्दात् क्षेत्रम् अपि मां विद्धि इति उक्तम् इति अवगम्यते।यथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेः तत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यं? तथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञः च मद्विशेषणतैकस्वभावतया मदपृथक्सिद्धेः मत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यौ विद्धि।वक्ष्यति हि क्षेत्रात् क्षेत्रज्ञात् च बद्धमुक्तोभयावस्थात् क्षराक्षरशब्दनिर्दिष्टाद् अर्थान्तरत्वं परस्य ब्रह्मणो वासुदेवस्य -- द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। (गीता 15।1618) इति।पृथिव्यादिसंघातरूपस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रज्ञस्य च भगवच्छरीरतैकस्वभावस्वरूपतया भगवदात्मकत्वं श्रुतयो वदन्ति।यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृह0 उ0 3।7।3) इत्यारभ्यय आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा वेद यस्यात्मा शरीरं यः आत्मानमन्तरो यमयति। स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृह0 उ0 3।7।22) इत्याद्याः।इदम् एव अन्तर्यामितया सर्वक्षेत्रज्ञानाम् आत्मत्वेन अवस्थानं भगवत्सामानाधिकरण्येन व्यपदेशहेतुः।अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। (गीता 10।20)न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। (गीता 10।39)विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। (गीता 10।42) इति। पुरुस्ताद् उपरिष्टात् च अभिधाय मध्ये सामानाधिकरण्येन व्यपदिशति।आदित्यानामहं विष्णुः (गीता 10।21) इत्यादिना।यद् इदं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विवेकविषयं तयोः मदात्मकत्वविषयं च ज्ञानम् उक्तम्? तद् एव उपादेयं ज्ञानम् इति मम मतम्।केचिद् आहुः -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि इति सामानाधिकरण्येन एकत्वं अवगम्यते? ततश्च ईश्वरस्य एव सतः अज्ञानात् क्षेत्रज्ञत्वम् इव भवति इति अभ्युपगन्तव्यम्? तन्निवृत्त्यर्थः च अयम् एकत्वोपदेशः। अनेन च आप्ततमभगवदुपदेशेन रज्जुः इयं न सर्पः? इति आप्तोपदेशेन सर्पत्वभ्रमनिवृत्तिवत् क्षेत्रज्ञत्वभ्रमो निवर्तते इति।ते प्रष्टव्याः अयम् उपदेष्टा भगवान् वासुदेवः परमेश्वरः किम् आत्मयाथात्म्यसाक्षात्कारेण निवृत्ताज्ञानः? उत न इति।निवृत्ताज्ञानः चेत्? निर्विशेषचिन्मात्रैकस्वरूपे आत्मनि अतद्रूपाध्यासासम्भावनया कौन्तेयादिभेददर्शनं तान् प्रति उपदेशादिव्यापारः च न संभवति।अथ आत्मयाथात्म्यसाक्षात्काराभावाद् अनिवृत्ताज्ञानः? तर्हि तस्य अज्ञत्वाद् एव आत्मज्ञानोपदेशारम्भो न संभवतिउपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः। (गीता 4।34) इति हि उक्तम्।अत एवमादिवादा अनाकलित -- श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणन्यायसदाचार -- स्ववाक्यविरोधैः स्ववचः स्थापनदुराग्रहैः अज्ञानिभिः जगन्मोहनाय प्रवर्तिताः? इति अनादरणीयाः।अत्र इदं तत्त्वम् -- अचिद्वस्तुनः चिद्वस्तुनः परस्य ब्रह्मणो भोग्यत्वेन भोक्तृत्वेन ईशितृत्वेन च स्वरूपविवेकम् आहुः काश्चन श्रुतयः -- असमान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः।। (श्वे0 उ0 4।9)मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। (श्वे0 उ0 4।10)क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। (श्वे0 उ0 1।10)अमृताक्षरं हरः इति भोक्ता निर्दिश्यते? प्रधानं भोग्यत्वेन हरति इति हरः।स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः।। (श्वे0 उ0 6।9)प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः। (श्वे0 उ0 6।16)पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवमच्युतम्। (तै0 ना0 उ0 1।)ज्ञाज्ञौद्वावजावीशनीशौ। (श्वे0 उ0 1।9)नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।। (श्वे0 उ0 6।13)भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा (श्वे0 उ0 1।12)?पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृत्वमेति (श्वे0 उ0 1।6)तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति। (मु0 उ0 3।1।1)अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजा सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। (श्वे0 उ0 4।5)गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी। (मु0 उ0 5)समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः। जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः (श्वे0 उ0 4।7) इत्याद्याः।अत्रापि -- अहंकारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7।45)सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। (गीता 9।7?8)मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। (गीता 9।10)प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि। (गीता 23।19)मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। (गीता 14।3) इति।कृत्स्नजगद्योनिभूतं महद् ब्रह्म मदीयं प्रकृत्याख्यं भूतसूक्ष्मम् अचिद्वस्तु यत् तस्मिन् चेतनाख्यं गर्भं संयोजयामि? ततो मत्संकल्पकृतात् चिदचित्संसर्गाद् एव देवादिस्थावरान्तानाम् अचिन्मिश्राणां सर्वभूतानां संभवो भवति इत्यर्थः।श्रुतौ अपि भूतसूक्ष्मं ब्रह्म इति निर्दिष्टम्तस्माद् एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मु0 उ0 1।1।9) इति।एवं भोक्तृभोग्यरूपेण अवस्थितयोः सर्वावस्थावस्थितयोः चिदचितोः परमपुरुषशरीरतया तन्नियाम्यत्वेन तदपृथक्स्थितिं परमपुरुषस्य च आत्मत्वम् आहुः काश्चन श्रुतयः -- यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद? यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ उ0 3।7।3) इत्यारभ्यय आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद? यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृ0 उ0 3।7।22) इति। तथायस्य पृथिवी शरीरम्? यः पृथिवीमन्तरे संचरयन् यं पृथिवी न वेद इति आरभ्ययस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन् यमक्षरं न वेदयस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद। स एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः (सुबालो0 7) अत्र मृत्युशब्देन तमःशब्दवाच्यं सूक्ष्मावस्थम् अचिद्वस्तु अभिधीयते। अस्याम् एव उपनिषदिअव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते। तमः परे देव एकीभूय तिष्ठति (सुबालो0 2) इति वचनात्अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा (तै0 आ0 3।11) इति च।एवं सर्वावस्थावस्थितचिदचिद्वस्तुशरीरतया तत्प्रकारः परमपुरुष एव कार्यावस्थकारणावस्थजगद्रूपेण अवस्थित इति इमं अर्थं ज्ञापयितुं काश्चन श्रुतयः कार्यावस्थं कारणावस्थं जगत् स एव इति आहु --,यथासदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। (छा0 उ0 6।2।2)तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत (छा0 उ0 6।2।3) इति आरभ्यसन्मूलाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः (छा0 उ0 6।8।6)ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो (छा0 उ0 6।8।7) इति।तथासोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत इत्यारभ्यसत्यं चानृतं च सत्यमभवत् (तै0 उ0 2।6।1) इत्याद्याः।अत्र अपि श्रुत्यन्तरसिद्धः चिदचितोः परमपुरुषस्य च स्वरूपविवेकः स्मारितः।हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति (छा0 उ0 6।3।2)तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। विज्ञानं चाविज्ञानं च सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् (तै0 उ0 2।6।1) इति च।अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य इति जीवस्य ब्रह्मात्मकत्वं? तद्सच्च त्यच्चाभवत् विज्ञानं चाविज्ञानं च इति अनेन ऐकार्थ्याद् आत्मशरीरभावनिबन्धनम् इति विज्ञायते।एवंभूतम् एव यन्नामरूपव्याकरणंतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियते (बृ0 उ0 1।4।7) इत्यत्र अपि उक्तम्।अतः कार्यावस्थः कारणावस्थः च स्थूलसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरः परमपुरुष एव? इति कारणात् कार्यस्य अनन्यत्वेन कारणाविज्ञानेन कार्यस्य ज्ञाततया एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं समीहितम् उपपन्नतरम्।हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि (छा0 उ0 6।3।2) इति तिस्रो देवता इति सर्वम् अचिद् वस्तु निर्दिश्य तत्र स्वात्मकजीवानुप्रवेशेन नामरूपव्याकरणवचनात् सर्वे वाचकाः शब्दाः अचिज्जीवविशिष्टपरमात्मन एव वाचकाः? इति कारणावस्थपरमात्मवाचिना शब्देन कार्यवाचिनः शब्दस्य सामानाधिकरण्यं मुख्यवृत्तम्। अतः स्थूलसूक्ष्मचिदचित्प्रकारं ब्रह्म एव कार्यं कारणं च इति ब्रह्मोपादानं जगत्।सूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्म एव कारणम् इति जगतो ब्रह्मोपादानत्वे अपि संघातस्य उपादानत्वेन चिदचितोः ब्रह्मणः च स्वभावासंकरः अपि उपपन्नतरः।यथा शुक्लकृष्णरक्ततन्तुसंघातोपादानत्वे अपि विचित्रपटस्य तत्तत्तन्तुप्रदेशे एव शौक्ल्यादिसंयोगः? इति कार्यावस्थायाम् अपि न सर्वत्र वर्णसंकरः? कारणवत् सर्वत्र च असंकरः तथा चिदचिदीश्वरसंघातोपादानत्वे अपि जगतः कार्यावस्थायाम् अपि भोक्तृत्वभोग्यत्वनियन्तृत्वनियम्यत्वाद्यसंकरः।तन्तूनां पृथक्स्थितियोग्यानाम् एव पुरुषेच्छया कदाचित्संहतानां कारणत्वं कार्यत्वं च इह तु चिदचितोः सर्वावस्थयोः परमपुरुषशरीरत्वेन तत्प्रकारतया एव पदार्थत्वात् तत्प्रकारः परमपुरुष एव कारणं कार्यं च? स एव सर्वदा सर्वशब्दवाच्य इति विशेषः स्वभावभेदः तदसंकरः च तत्र च अत्र च तुल्यः।एवं च सति परस्य ब्रह्मणः कार्यानुप्रवेशे अपि स्वरूपान्यथाभावाभावाद् अविकृतत्वम् उपपन्नतरम्। स्थूलावस्थस्य नामरूपविभागविभक्तस्य चिदचिद्वस्तुन आत्मतया अवस्थानात् कार्यत्वम् अपि उपपन्नतरम्। अवस्थान्तरापत्तिः एव हि कार्यता। निर्गुणवादाः च परस्य ब्रह्मणो हेयगुणसंबन्धाभावाद्उपपद्यन्ते।अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोविजिघत्सोऽपिपासः (छा0 उ0 8।7।1) इति हेयगुणान् प्रतिषिध्यसत्यकामः सत्यसङ्कल्पः (छा0 उ0 8।7।1) इति कल्याणगुणान् विदधती इयं श्रुतिः एव अन्यत्र सामान्येन अवगतं गुणनिषेधं हेयगुणविषयं व्यवस्थापयति।ज्ञानस्वरूपं ब्रह्म इति वादः च सर्वज्ञस्य सर्वशक्तेः निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणगुणाकरस्य परस्य ब्रह्मणः स्वरूपं ज्ञानैकनिरूपणीयं स्वप्रकाशतया ज्ञानस्वरूपं च इति अभ्युपगमाद् उपपन्नतरः।यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु0 उ0 1।1।9)परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वे0 उ0 6।8)विज्ञातारमरे केन विजानीयात् (बृ0 उ0 2।4।14) इत्यादिका ज्ञातृत्वम् आवेदयन्ति।सत्यं ज्ञानमनन्तम् (तै0 उ0 2।1।1) इत्यादिकाश्च? ज्ञानैकनिरूपणीयतया स्वप्रकाशतया च ज्ञानस्वरूपत्वम्।सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय। (तै0 उ0 2।6।1)तदैक्षत बहु स्याम् (छा उ0 6।2।3)तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियत। (बृ0 उ0 1।4।7)आत्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितं (भवति)। (बृ0 उ0 4।5।6)सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद। (बृ0 उ0 4।5।7)(तस्य ह वा) अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेद्यदृग्वेदः। (बृ0 उ0 4।5।11) इति ब्रह्म एव स्वसंकल्पाद् विचित्र स्थिरत्रसस्वरूपतया नानाप्रकारम् अवस्थितम् इति। तत्प्रत्यनीकाब्रह्मात्मकवस्तुनानात्वम् अतत्त्वम् इति प्रतिषिध्यते।मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति। (बृ0 उ0 4।4।19)नेह नानास्ति किञ्चन। (क0 उ0 2।1।11)यत्र हि द्वैतमिव भवति। ৷৷. तदितर इतरं पश्यति। ৷৷. यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत् केन किं जिघ्रेत् तत्केन कं पश्येत् (बृ0 उ0 2।4।14) इत्यादिना। न पुनःबहु स्यां प्रजायेय (तै0 उ0 2।6) इत्यादिश्रुतिसिद्धस्वसंकल्पकृतं ब्रह्मणो नानानामरूपभाक्त्वेन नानाप्रकारत्वम् अपि निषिध्यते।यत्रत्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् (बृ0 उ0 2।4।14) इति निषेधवाक्यारम्भे च तत्स्थापितंसर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद (बृ0 उ0 4।5।7)तस्य ह वा एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदः (बृ0 उ0 4।5।7) इत्यादिना।एवं चिदचिदीश्वराणां स्वरूपभेदं स्वभावभेदं च वदन्तीनां तासां कार्यकारणभावं कार्यकारणयोः अनन्यत्वं वदन्तीनां च सर्वासां श्रुतीनाम् अविरोधः? चिदचितोः परमात्मनः च सर्वदा शरीरात्मभावं शरीरभूतयोः कारणदशायां नामरूपविभागानर्हसूक्ष्मदशापत्तिं कार्यदशायां च तदर्हस्थूलदशापत्तिं वदन्तीभिः श्रुतिभिः एव,ज्ञायते? इति ब्रह्माज्ञानवादस्य औपाधिकब्रह्मभेदवादस्य अन्यस्य अपि अन्यायमूलकस्य सकलश्रुतिविरुद्धस्य न कथञ्चिद् अपि अवकाशो विद्यते इत्यलम् अतिविस्तरेण।
Sri Sridhara Swami
।।13.2।।भक्तानामहमुद्धर्ता संसारादित्यवादि यत्। त्रयोदशेऽथ तत्सिद्ध्यै तत्त्वज्ञानमुदीर्यते।।1।।तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। भवामि इति पूर्वं प्रतिज्ञातं तन्न चात्मज्ञानं विना संसारादुद्धरणं संभवति इत,तत्त्वज्ञानोपदेशार्थं प्रकृतिपुरुषविवेकाध्याय आरभ्यते। तत्र यत्सप्तमेऽध्याये अपरा परा चेति प्रकृतिद्वयमुक्तं तयोरविवेकाज्जीवभावमापन्नस्य चिदंशस्यायं संसारः याभ्यां जीवोपभोगार्थमीश्वरः सृष्ट्यादिषु प्रवर्तते तदेव प्रकृतिद्वयमुक्तं क्षेत्रक्षेत्रज्ञशब्दवाच्यं परस्परं विविक्तं तत्त्वतो निरूपयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। इदं भोगायतनं शरीरं क्षेत्रमित्यभिधीयते? संसारस्य प्ररोहभूमित्वात्। एतद्यो वेत्ति अहं ममेति मन्यते तं क्षेत्रज्ञ इति प्राहुः? कृषीवलवत्तत्फलभोक्तृत्वात्। तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेकज्ञाः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।13.2।।अथ तृतीयषट्कसङ्गतिं वक्तुं प्रथमद्वितीयषट्कार्थं सङ्ग्रहेणाह -- पूर्वस्मिन्निति। अत्र पदानां भावः प्राक्प्रपञ्चितः।ज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्ष्ये सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते [गी.सं.2] इति प्रथमषट्कार्थसङ्ग्रहः। सिषाधयिषितपर्यन्ताविच्छिन्नसाधनानुष्ठानमिह निष्ठा।मध्यमे भगवत्तत्त्वयाथात्म्यावाप्तिसिद्धये। ज्ञानकर्माभिनिर्वर्त्यो भक्तियोगः प्रकीर्तितः [गी.सं.3] इति सङ्ग्रहानुसारेण मध्यमषट्कप्रधानार्थमुक्त्वा प्रसङ्गोक्तं चाह -- अतिशयितेति।इतिचेति चकारोऽन्वाचयार्थः। इदं चान्ते सङ्गृहीतं -- भक्तियोगस्तदर्थी चेत्समग्रैश्वर्यसाधनम्। आत्मार्थी चेत्त्रयोऽप्येते तत्कैवल्यस्य साधकाः [गी.सं.27] इति।,प्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वरविवेचनम्। कर्मधीर्भक्तिरित्यादिः पूर्वशेषोऽन्तिमोदितः [गी.सं.4] इति सङ्ग्रहश्लोकव्याख्यानाभिप्रायेण तृतीयषट्कं पूर्वोक्तषट्कद्वयेन सङ्गमयति -- इदानीमिति। इदानीं सामान्यतः प्रतिपत्त्या बुभुत्सोदयेन विशोधनावसरे प्राप्त इत्यर्थः।तत्संसर्गरूपप्रपञ्चेति व्यक्तशब्दार्थविवरणम्। संसर्गोऽत्र समुदायः यद्वा?तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। संभवः सर्वभूतानां ततो भवति [14।3] इति संसर्गविशेषमूलत्वात्संसर्गरूपतोक्ितः। याथात्म्यशब्देन विवेचनशब्दाभिप्रेतकथनम्। विविच्यतेऽनेनेति व्यावर्तकधर्मोऽत्र विवेचनम्।तदुपादानप्रकारा इति आदिशब्दसङ्गृहीतोक्तिः।षट्कद्वयोदिता विशोध्यन्त इत्यनेनपूर्वशेषोऽन्तिमोदितः इत्येतदभिप्रेतसङ्गतिविशेषविवरणम्।विशोध्यन्त इतिवचनं वक्ष्यमाणस्य सर्वस्य सामान्यतः पुनरुक्तिपरिहारार्थम्। आभिप्रायिकानुक्तापेक्षितांशप्रतिपादनेन प्रागुक्तानां सर्वप्रकारेण निस्संशयीकरणं विशोधनम्। अथदेहस्वरूपमात्माप्तिहेतुरात्मविशोधनम्। बन्धहेतुर्विवेकश्च त्रयोदशे [गी.सं.17] इति सङ्ग्रहश्लोकमपि व्याकुर्वंस्त्रयोदशमवतारयति -- तत्र तावदिति।तत्र तृतीयषट्के -- वक्तव्ये?तावत् प्रथममित्यर्थः। तेनाध्यायान्तरेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यः पञ्चभ्योऽस्य पूर्वत्वं सङ्गतिविशेषसिद्धमित्यभिप्रेतम्। तथाहि -- प्रथमषट्कं हि शास्त्रोपोद्धातशास्त्रावतरणहेतुभूतशोकनिवर्तकात्मदर्शनपरद्विकेन आत्मदर्शनस्यैव साधनप्रपञ्चनपरचतुष्केण च भिन्नम्। द्वितीयं च षट्कं साधनाधिकारिफलादिभेदपरिकरितभक्तियोगस्वरूपपरेण तदुत्पत्तिविवृद्ध्यर्थपरेण च त्रिकभेदेन भिन्नम्। तथा तृतीयं च षट्कं त्रिकद्वयात्मकम्। तत्र प्रथमत्रिकं [अ.13।14।15] प्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वररूपतत्त्वविवेचनपरम्। तत्र प्रसङ्गेन तु मात्रया कर्तव्यानुप्रवेशः। षोडशादित्रिकं [16।17।18] कर्तव्यादिविवेचनपरम्। तत्रापि तत्तत्प्रसङ्गान्मात्रया तत्त्वानुप्रवेशः शास्त्रवश्यत्वादिविवेकोऽपि हि कर्तव्यसिद्ध्यर्थमेव। एवं त्रिकभेदो विवक्षित इति षोडशारम्भे दर्शयिष्यति -- अतीतेनाध्यायत्रयेण [रा.भा.16।11] इत्यादिना। अत्रप्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वरविवेचनम् इति समासपदेन प्रथमत्रिकार्थः संगृहीतः।कर्मधीर्भक्तिरित्यादिः इति तु कर्तव्यरूपद्वितीयत्रिकार्थः संगृहीत इति भाष्यकाराभिप्रायः। एतेनसमाप्तं च पञ्चदशेऽध्याये शास्त्रम् उत्तरैस्त्रिभिः खिलाध्यायैः परिशिष्टा नानाधर्मा निरूपिताः इति यादवप्रकाशकल्पनाऽपि निरस्ता। अत्रच त्रिके त्रयोदशचतुर्दशाभ्यांगतासूनगतासूंश्च [2।11] इत्यादिना क्रमेण देहात्मविवेकादिमुखेन प्रवृत्तप्रथमषट्कार्थशेषभूतदेहात्मयाथात्म्यसंसारतन्निवृत्तितन्निवर्तकादि परिशोध्यते। पञ्चदशेन तु मध्यमषट्कप्रतिपादितद्विविधप्रकृतिशेषिभूतचतुर्विधाधिकारिभजनीयपरमपुरुषपरिशोधनं क्रियते। इमं च भेदं पञ्चदशारम्भे सूचयिष्यति -- क्षेत्राध्याये [रा.भा.15।1] इत्यादिना। क्षेत्राध्यायप्रसक्तबन्धहेतुगुणसङ्गस्य बन्धहेतुताप्रकारतन्निवृत्त्यादिपरतयापरं भूयः इत्यादेः अध्यायस्य पश्चाद्भावित्वं सिद्धम्। ततः क्षेत्राध्यायस्य तृतीयषट्कादित्वं युक्तमिति तदेतदखिलमभिप्रेत्य -- तत्र तावत् त्रयोदशे इत्युक्तम्।देहात्मनोः स्वरूपं देहयाथात्म्यशोधनमिति -- अध्यायशरीरपर्यालोचनेन सङ्ग्रहश्लोकेऽनुक्तस्यापि चकारसमुच्चितस्योक्तिः। देहस्वरूपमिति तत्प्रतिसम्बन्ध्यात्मस्वरूपस्याप्युपलक्षणार्थम्।आत्मविशोधनम् इति सङ्ग्रहश्च देहयाथात्म्यशोधनस्याप्युपलक्षणम्।देहात्मनोः स्वरूपमिति धर्मनिर्देशो विवक्षितः। विवेकशब्देन च न विविच्य प्रतिपादनमात्रं भेदमात्रं वा विवक्षितम्?आत्मविशोधनम् इत्यनेनैव गतार्थत्वात्।ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति [13।25] इत्यादिना द्रष्टव्यत्वेन निर्दिष्टस्यात्मनःसमं सर्वेषु [13।28] इत्यादिना स्वयं विविच्यानुसन्धानप्रकारो हि वक्ष्यते। तदाह -- ततो विवेकानुसन्धानप्रकारश्चेति।अथगतासूनगतासूंश्च [2।11] इतिप्राक्त्वेनैवोपक्षिप्तक्रमेण सप्तमारम्भप्रकृतिद्वयनिर्देशक्रमेण चापृष्टोऽप्यवसरे प्राप्ते स्वयमेव परिशोधयितुं भगवानुवाच -- इदं शरीरम् इति। भ्रान्तिरूपलोकोपलम्भप्रकारनिर्देशपरइदंशब्द इत्यभिप्रायेणदेवोऽहमित्याद्युक्तिः।देवोऽहं मनुष्योऽहम् इत्यनन्तजातिभेदोपलक्षणम्स्थूलोऽहं कृशोऽहम् इत्यनन्तगुणभेदोपलक्षणम्। एवं जातिगुणोदाहरणंगच्छामि इत्यादिक्रियाविशेषोपलक्षणार्थम्। संसारिणां भोक्तृत्वं हि प्रायशो देहात्मभ्रममूलमित्यभिप्रायेणआत्मना भोक्त्रेत्युक्तम्।क्षेत्रमित्यभिधीयते इत्यनेनैव भोग्यत्वं प्रतीतम्। ततश्च केदाराद्देवदत्त इव प्रतिसम्बन्धित्वेनार्थाक्षिप्तो भोक्ताभोक्तृत्वाकारेणार्थान्तरभूतसिद्ध इत्याहभोक्तुरात्मनोऽर्थान्तरभूतस्येति। भोगस्योत्पत्तिस्थानतया क्षेत्रत्ववाचोयुक्तिरित्याह -- भोगक्षेत्रमिति। क्षतत्राणक्षयकरणाद्यप्रसिद्धक्लिष्टार्थग्रहणात्क्षेत्रवत्कर्मबीजफलोत्पत्तिस्थानत्वग्रहणमेवोचितमिति भावः।अभिधीयते इत्यनेनाकाङ्क्षितोचितकर्त्रध्याहारःशरीरयाथात्म्यविद्भिरिति। यद्वातद्विदः इति पदमत्रापि विपरिणामेन प्रकृतविषयतयातद्विद्भिः इति भाव्यम्। विपरिणते च तस्मिन् तच्छब्दः प्रकृतक्षेत्रपर इत्यभिप्रायः।एतद्यो वेत्ति इत्यनेनैव देहाद्व्यतिरेकः स्फुटीक्रियत इत्याह -- एतदवयवशः सङ्घातरूपेण चेदमहं वेद्मीति।अयमभिप्रायः -- इदमहम् इति प्रत्यक्त्वपराक्त्वाभ्यामेव तावद्भेदः प्रतीयते? गृहादिवदेव। नचदेवोऽहं मनुष्योऽहम् इति सामानाधिकरण्यव्यपदेशहेतुभूतदेहात्मबुद्ध्या सा प्रतीतिः भ्रान्तिरिति युक्तम्? तयैव देहात्मबुद्धेर्बाधात्। बलवता हि दुर्बलं बाध्येत। उपपत्तिशास्त्रे च प्राक्प्रपञ्चिते? बलं व्यतिरेकबुद्धेः? देहात्मबुद्धेस्तदुभयमपि प्रतिकूलमिति। प्रागुक्तां प्रत्येकसमुदायादिविकल्पानुपपत्तिमभिप्रेत्यअवयवशः सङ्घातरूपेण चेत्युक्तम्।अवयवश इतिमम मूर्धा? मम हस्तः इत्यादिरूपेणावयवेभ्योऽहमर्थः स्फुटं भिन्नतया प्रतीयते। न तुअहं मूर्धा इत्यादिरूपेणेति भावः।सङ्घातरूपेण चेति -- मम शरीरम् इत्येव हि सङ्घातेऽपि भेदधीरिति भावः।एतद्यो वेत्ति इत्यनेनाभिप्रेतं उपलम्भसिद्धं भेदं दर्शयतिवेद्यभूतादिति।तद्विदः इत्यत्र सामान्यज्ञानमात्रस्य निर्णयानुपयुक्तत्वात्आत्मयाथात्म्यविद इत्युक्तम्।ननु ज्ञाता तावदात्मेति सिद्धम् स च जानामीति प्रतीतिसिद्धः सैव प्रतीतिर्ज्ञा तृत्वमिव देहात्मकत्वमपिदेवोऽहम् इत्यादिरूपेण युगपद्गृह्णाति प्रत्यक्षसिद्धस्य तस्य युक्त्या शास्त्रेण वा देहातिरिक्तत्वसाधने धर्मिग्राहकप्रमाणविरोध इति शङ्काभिप्रायेणाह -- यद्यपीति। यदि ज्ञातुर्देहसमानाधिकरणतयैव प्रतीतिः स्यात्? तदैवं शक्येतापि। न च तदस्ति? देहस्यैव प्रधानतया वेद्यत्वदशायां व्यधिकरणतयैव प्रतीतिसिद्धेः। न च धर्मिग्राहकसिद्धः सर्वोऽप्याकारो नारोपित इति नियमः बुद्बुदमुक्ताफलचषकमुकुरादिसमानपरिमाणान्येव ग्रहनक्षत्रहिमकरमार्तण्डमण्डलानि सर्वैरुपलभ्यन्ते युक्त्या शास्त्रेण च अतिपृथुपरिमाणतया स्थाप्यन्ते तद्वदत्रापीत्यभिप्रायेणाह -- तथापीति। अतो धर्मिग्राहकविरोधरहितश्रुत्युपपत्तिसमानार्थव्यतिरेकप्रत्ययसिद्धं देहात्मनोः परस्परभेदं सनिदर्शनमाह -- इति वेदितुरित्यादिना। इतिर्हेतौ। ननु यद्यतो भिद्यते? न तत्तत्समानाधिकरणतया प्रतीयते यथा घटेन पटः समानाधिकरणश्च मृद्धटादिवद्देहो ज्ञात्रा प्रतीयत इति विपरीतयुक्तिमाशङ्क्याहसामानाधिकरण्येनेति।अयमभिप्रायः -- न तावत्सामानाधिकरण्यमात्रेणाभेदः? जातिगुणादिष्वभावात् न च तानि न सन्तीति सौगती गतिः? अबाधितप्रत्ययबलेन दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिभिश्च धर्मधर्मिभेदसमर्थनात्। नचात्र भेदाभेदः? व्याघातादिप्रसङ्गात् अतो यथा जातिगुणक्रियादिष्वपृथक्सिद्धेरेव सम्बन्धविशेषात्सामानाधिकरण्यम्। तद्वदत्रापीति सर्वानुवृत्तं वक्तव्यमित्यन्यथैवान्यथापि वोपपन्नं भेदसाधने सामानाधिकरण्यम् -- इति।विशेषणतैकस्वभावतयेत्यपृथक्सिद्धिविवरणम्।ननु जातिगुणादिवदिह धर्मधर्मिभावः सामानाधिकरण्यदशायां न प्रतीयते यथागौः शुक्लो गच्छति इत्यादिषु गोत्वशुक्लत्वादिविशिष्ट इति बुद्धिः? न तथाऽत्र धीःदेवोऽहं? मनुष्योऽहम् इत्यत्र हिदेवत्वविशिष्टोऽहं?,मनुष्यत्वविशिष्टोऽहम् इति प्रतीतिः न तुदेवशरीरविशिष्टोऽहं? मनुष्यशरीरविशिष्टोऽहम् इति। अतो घट इत्यत्र घटत्वविशिष्टपिण्डमात्रप्रतीतिवत्देवोऽहं? मनुष्योऽहम् इत्यत्र देवत्वादिजातिविशिष्टपिण्डमात्रप्रतीतेर्देहस्य किञ्चित्प्रति विशेषणत्वादर्शनान्नापृथक्सिद्धिनिबन्धनं देहात्मसमानाधिकरण्यमित्यत्राहतत्र वेदितुरिति। ज्ञानत्वनित्यत्वसूक्ष्मत्वादिरत्रासाधारणाकारः।अयमभिप्रायः -- किं बाह्यकरणैर्देहमात्रप्रतीतिरिह विवक्षिता उत मनोमात्रेण अथवा परिशुद्धेन मनसा। नाद्यः? चक्षुरादीनामात्मग्रहणशक्त्यभावेन योग्यानुपलम्भाभावात्। न द्वितीयः? मनस आत्मग्रहणशक्तत्वेऽपि तस्याशुद्धस्य देहव्यावर्तकपरिमाणादिविशिष्टत्वेन ग्रहणाशक्तेः। न तृतीयः? असिद्धेः। अतिरिक्ततया ग्रहणार्थमेव हि योगोपदेशः। तथाच योगिनामुपलम्भः। अतो यथा गृह्यमाणयोरेव क्षीरनीरद्रव्ययोर्न्यूनाधिकसमभावेन संसर्गविशेषेषु क्षीरत्वेन नीरत्वेन वोपलम्भः तद्वदत्रापि गृह्यमाणयोरेव देहात्मनोः सन्निधिविशेषवशेन रजस्तमोवृद्धिहेतुकर्मवशेन च भेदाग्रहादैक्याध्यास इति निर्णीतदोषतादृशोपलम्भवशेन विरोधो च शङ्कनीयः -- इति। मोहहेतुभूतगुणमयप्रकृतिसन्निधानेन मूढतया यथावस्थितात्मादर्शने वशेन तस्य योगसंस्कृतमनोवेद्यत्वे च वक्ष्यमाणमुदाहरतिवक्ष्यति चेति।,
Sri Jayatritha
।।13.2।।पूर्वसङ्गतत्वेनाध्यायप्रतिपाद्यं दर्शयति -- पूर्वोक्तेति। पूर्वमाषष्ठसमाप्तेर्यत् ज्ञानं ज्ञानसाधनमुक्तम्? यच्च सप्तमादिभिः षड्भिर्ज्ञेयं ब्रह्मस्वरूपमुक्तम्? यदपिभूमिरापः [7।4] इत्यादिना क्षेत्रमुक्तम्? यच्चन त्वेवाहं [2।12] इत्यादिना पुरुषभेद उक्तः? तत्सर्वमनेनाध्यायेन दर्शयति भगवान्। किमर्थं पिण्डीकृत्य विक्षिप्तमेकीकृत्य। गौणोऽत्र क्त्वाप्रत्ययः पिण्डीकरणार्थमित्यर्थः। पिण्डीकरणे मिश्रत्वादप्रतिपत्तिरेवेत्यत उक्तम् -- विविच्येति। प्रकरणशुद्ध्येत्यर्थः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।13.2।।ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु ते।अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं महो धावति।।प्रथममध्यमषट्कयोस्तत्त्वंपदार्थावुक्तावुत्तरषट्कस्तु वाक्यार्थनिष्ठः सम्यग्धीप्रधानोऽधुनारभ्यते। तत्रतेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागराद्भवामि इति प्रागुक्तं। नचात्मज्ञानलक्षणान्मृत्योरात्मज्ञानं विनोद्धरणं संभवति। अतो यादृशेनात्मज्ञानेन। मृत्युसंसारनिवृत्तिर्येन च तत्त्वज्ञानेन युक्ता अद्वेष्टृत्वादिगुणशालिनः संन्यासिनः प्राग्व्याख्यातास्तदात्मतत्त्वज्ञानं वक्तव्यम्। तच्चाद्वितीयेन परमात्मना सह जीवस्याभेदमेव विषयीकरोति तद्भेदभ्रमहेतुकत्वात्सर्वानर्थस्य। तत्र जीवानां संसारिणां प्रतिक्षेत्रं भिन्नानामसंसारिणैकेन परमात्मना कथमभेदः स्यादित्याशङ्कायां संसारस्य भिन्नत्वस्य चाविद्याकल्पितानात्मधर्मत्वान्न जीवस्य संसारित्वं भिन्नत्वं चेति वचनीयं। तदर्थं देहेन्द्रियान्तःकरणेभ्यः क्षेत्रेभ्यो विवेकेन क्षेत्रज्ञः पुरुषो जीवः प्रतिक्षेत्रमेक एव निर्विकार इति प्रतिपादनाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञविवेकः क्रियतेऽस्मिन्नध्याये। तत्र ये द्वे प्रकृती भूम्यादिक्षेत्ररूपतया जीवरूपक्षेत्रज्ञतया चापरपरशब्दवाच्ये सप्तमाध्याये सूचिते तद्विवेकेन तत्त्वं निरूपयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। इदं इन्द्रियान्तःकरणसहितं भोगायतनं शरीरं हे कौन्तेय? क्षेत्रमित्यभिधीयते। सस्यस्येवास्मिन्नसकृत्कर्मणः फलस्य निर्वृत्तेः। एतद्यो वेत्ति अहं ममेत्यभिमन्यते तं क्षेत्रज्ञमिति प्राहुः कृषीवलवत्तत्फलभोक्तृत्वात् तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेकविदः। अत्र चाभिधीयत इति कर्मणिप्रयोगेण क्षेत्रस्य जडत्वात्कर्मत्वं क्षेत्रज्ञशब्दस्य द्वितीयां विनैवेति शब्दमाहरन् स्वप्रकाशत्वात्कर्मत्वाभावमभिप्रैति। तत्रापि क्षेत्रं यैः कश्चिदप्यभिधीयते न तत्र कर्तृगतविशेषापेक्षा। क्षेत्रज्ञं तु कर्मत्वमन्तरेणैव विवेकिन एवाहुः स्थूलदृशामगोचरत्वादिति कथयितुं विलक्षणवचनव्यक्त्यैकत्र कर्तृपदोपादानेव च निर्दिशति भगवान्।
Sri Purushottamji
।।13.2।।भगवान् कृपयाऽवोत्तरमाह -- इदमिति। हे कौन्तेय कृपापात्र इदं शरीरं दृश्यमानं मरणादिधर्मयुक्तं क्षेत्रं ज्ञानादिप्ररोहस्थानं लीलार्थं स्वांशजीवोत्पत्तिस्थानं तद्विदा अभिधीयते कथ्यत इत्यर्थः। एतत् याथातथ्येन यो वेत्ति तं तद्विदः क्षेत्रविदो ज्ञानिनः क्षेत्रज्ञं प्राहुः। अन्योक्तिकथनेन तथा न भवतीति ज्ञापितम्।
Sri Shankaracharya
।।13.2।। --,इदम् इति सर्वनाम्ना उक्तं विशिनष्टि शरीरम् इति। हे कौन्तेय? क्षतत्राणात्? क्षयात्? क्षरणात्? क्षेत्रवद्वा अस्मिन् कर्मफलनिष्पत्तेः क्षेत्रम् इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः -- क्षेत्रम् इत्येवम् अभिधीयते कथ्यते। एतत् शरीरं क्षेत्रं यः वेत्ति विजानाति? आपादतलमस्तकं ज्ञानेन विषयीकरोति? स्वाभाविकेन औपदेशिकेन वा वेदनेन विषयीकरोति विभागशः? तं वेदितारं प्राहुः कथयन्ति क्षेत्रज्ञः इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः एव पूर्ववत् -- क्षेत्रज्ञः इत्येवम् आहुः। के तद्विदः तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ ये विदन्ति ते तद्विदः।।एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ उक्तौ। किम् एतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ इति न इति उच्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।13.2।।सूत्रवत्पूर्वमुक्तस्य द्वितीयस्यापि वृत्तिवत्। तृतीयं सर्वनिर्णयं भाष्यमाभाष्यतेऽधुना।।1।।यत्तावत्प्रथममुपपादितं प्रकृतिद्वयं परापरविवेकेन परप्रकृतिस्वरूपं सोपस्करं क्षेत्रम्? अपरप्रकृतिस्वरूपं तु चेतनः क्षेत्रज्ञ इत्यक्षरमूलस्वरूपत्वात् ज्ञेयं तत्साधनभूतं ज्ञानं चोपदिशन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। अन्यथा मध्ये प्रश्नं विना विवरणं नोपपद्येत। अत्र कैश्चिन्मूलेप्रकृतिं पुरुषं च [13।1] इति पद्यान्तरं लिख्यते तत्तूपेक्ष्यं? असम्भवेन सर्वाप्रयुक्तत्वात् पूर्वोक्तविवरणरूपत्वाच्चस्य षट्कस्य। तथाहि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे इत्याशयात् या पूर्वं प्रकृतिरनात्मा इत्युक्ता तत्परिणामभूतमिदं शरीरं पुरुषस्य निवासभूतत्वाज्जीवनाद्वाक्षेत्रं इत्युच्यते तथाभूतमेतन्न विजानाति पुरुषो विविक्ततया तदा तु क्षेत्रित्वमात्र एव संसारी भवति। एतद्यो वा कश्चिद्विविक्ततया वेत्ति क्षेत्रं जानाति स्वं च द्रष्टारं तं तु क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः प्राहुः।यद्यपि क्षेत्रक्षेत्रज्ञज्ञानं संसारदशायामप्यस्ति तथापि न विविक्ततया? किन्तु क्षेत्रसामानाधिकरण्येन तथापि तद्भोग्यं भोक्तुरात्मनोऽर्थान्तरभूतमेव मृतशरीरे तथा दर्शनात्। किञ्चोभयोः सम्बन्धे तु तत्सम्भवति? न कैवल्ये सम्भवति। यस्य वेत्तृत्वं तस्यैव वेद्यादन्यत्वमर्थसिद्धं दृष्टचरं घटादिनो द्रष्टुरिवदेवोऽहं इत्यतिमन्दानां नाहमितिवदात्मविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेरुपपन्नं भवति। इदं तु पार्थक्यं स्वात्मानं क्षेत्रज्ञमेव भेदेन विजानतो विदुषो भवति? न सर्वस्येति।
Swami Sivananda
13.2 इदम् this? शरीरम् body? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? क्षेत्रम् the field? इति thus? अभिधीयते is called? एतत् this? यः who? वेत्ति knows? तम् him? प्राहुः (they) call? क्षेत्रज्ञः the knower of the field? इति thus? तद्विदः the knowers of that.Commentary Kshetra literally means field. The body is so called because the fruits (harvest) of actions in the form of pleasure and pain are reaped in it as in a field. The physical? the mental and the causal bodies go to constitute the totality of the field. It is not the physical body alone that forms the field.He who knows the field and he who beholds it as distinct from himself through knowledge is the knower of the field or matter.Those who know them The sages.