Chapter 13, Verse 13
Verse textज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13.13।।
Verse transliteration
jñeyaṁ yat tat pravakṣhyāmi yaj jñātvāmṛitam aśhnute anādi mat-paraṁ brahma na sat tan nāsad uchyate
Verse words
- jñeyam—ought to be known
- yat—which
- tat—that
- pravakṣhyāmi—I shall now reveal
- yat—which
- jñātvā—knowing
- amṛitam—immortality
- aśhnute—one achieves
- anādi—beginningless
- mat-param—subordinate to me
- brahma—Brahman
- na—not
- sat—existent
- tat—that
- na—not
- asat—non-existent
- uchyate—is called
Verse translations
Shri Purohit Swami
I will now speak to you of that great truth which one ought to know, since by it one will attain immortal bliss—that which is without beginning, the eternal spirit which dwells in me, neither with form nor without it.
Swami Ramsukhdas
।।13.13।। जो ज्ञेय है, उस-(परमात्मतत्त्व-) को मैं अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेय-तत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
Swami Tejomayananda
।।13.13।। मैं उस ज्ञेय वस्तु को स्पष्ट कहूंगा जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त करता है। वह ज्ञेय है - अनादि, परम ब्रह्म, जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।
Swami Adidevananda
I shall declare that which is to be known, knowing which one attains the immortal Self. It is beginningless Brahman, having Me as the Highest (Anadi Matparam); it is said to be neither being nor non-being.
Swami Gambirananda
I shall speak of that which is to be known, by realizing which one attains immortality. The supreme Brahman is without any beginning; that is called neither being nor non-being.
Swami Sivananda
I will declare that which is to be known, knowing which one attains immortality; the beginningless Supreme Brahman, which is neither being nor non-being.
Dr. S. Sankaranarayan
I shall describe that which is to be known, by knowing which one attains freedom from death: the Supreme Brahman is beginningless and is said to be neither existent nor non-existent.
Verse commentaries
Sri Shankaracharya
।।13.13।। --,ज्ञेयं ज्ञातव्यं यत् तत् प्रवक्ष्यामि प्रकर्षेण यथावत् वक्ष्यामि। किं फलं तत् इति प्ररोचनेन श्रोतुः अभिमुखीकरणाय आह -- यत् ज्ञेयं ज्ञात्वा अमृतम् अमृतत्वम् अश्नुते? न पुनः म्रियते इत्यर्थः। अनादिमत् आदिः अस्य अस्तीति आदिमत्? न आदिमत् अनादिमत् किं तत् परं निरतिशयं ब्रह्म? ज्ञेयम् इति प्रकृतम्।।अत्र केचित् अनादि मत्परम् इति पदं छिन्दन्ति? बहुव्रीहिणा उक्ते अर्थे मतुपः आनर्थक्यम् अनिष्टं स्यात् इति। अर्थविशेषं च दर्शयन्ति -- अहं वासुदेवाख्या परा शक्ितः यस्य तत् मत्परम् इति। सत्यमेवमपुनरुक्तं स्यात्? अर्थः चेत् संभवति। न तु अर्थः संभवति? ब्रह्मणः सर्वविशेषप्रतिषेधेनैव विजिज्ञापयिषितत्वात् न सत्तन्नासदुच्यते इति। विशिष्टशक्ितमत्त्वप्रदर्शनं विशेषप्रतिषेधश्च इति विप्रतिषिद्धम्। तस्मात् मतुपः बहुव्रीहिणा समानार्थत्वेऽपि प्रयोगः श्लोकपूरणार्थः।।अमृतत्वफलं ज्ञेयं मया उच्यते इति प्ररोचनेन अभिमुखीकृत्य आह -- न सत् तत् ज्ञेयमुच्यते इति न अपि असत् तत् उच्यते।।ननु महता परिकरबन्धेन कण्ठरवेण उद्धुष्य ज्ञेयं प्रवक्ष्यामि इति? अननुरूपमुक्तं न सत्तन्नासदुच्यते इति। न? अनुरूपमेव उक्तम्। कथम् सर्वासु हि उपनिषत्सु ज्ञेयं ब्रह्म नेति नेति (बृह0 उ0 4।4।22) अस्थूलमनणु (बृह0 उ0 3।3।8) इत्यादिविशेषप्रतिषेधेनैव निर्दिश्यते? न इदं तत् इति? वाचः अगोचरत्वात्।।ननु न तदस्ति? यद्वस्तु अस्तिशब्देन नोच्यते। अथ अस्तिशब्देन नोच्यते? नास्ति तत् ज्ञेयम्। विप्रतिषिद्धं च -- ज्ञेयं तत् ? अस्तिशब्देन नोच्यते इति च। न तावन्नास्ति? नास्तिबुद्ध्यविषयत्वात्।।ननु सर्वाः बुद्धयः अस्तिनास्तिबुद्ध्यनुगताः एव। तत्र एवं सति ज्ञेयमपि अस्तिबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयं वा स्यात्? नास्तिबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयं वा स्यात्। न? अतीन्द्रियत्वेन उभयबुद्ध्यनुगतप्रत्ययाविषयत्वात्। यद्धि इन्द्रियगम्यं वस्तु घटादिकम्? तत् अस्तिबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयं वा स्यात्? नास्तिबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयं वा स्यात्। इदं तु ज्ञेयम् अतीन्द्रियत्वेन शब्दैकप्रमाणगम्यत्वात् न घटादिवत् उभयबुद्ध्यनुगतप्रत्ययविषयम् इत्यतः न सत्तन्नासत् इति उच्यते।।यत्तु उक्तम् -- विरुद्धमुच्यते? ज्ञेयं तत् न सत्तन्नासदुच्यते इति -- न विरुद्धम्? अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि (के0 उ0 1।3) इति श्रुतेः। श्रुतिरपि विरुद्धार्था इति चेत् -- यथा यज्ञाय शालामारभ्य यद्यमुष्िमँल्लोकेऽस्ति वा न वेति (तै0 सं0 6।1।1) इत्येवमिति चेत्? न विदिताविदिताभ्यामन्यत्वश्रुतेः अवश्यविज्ञेयार्थप्रतिपादनपरत्वात् यद्यमुष्मिन् इत्यादि तु विधिशेषः अर्थवादः। उपपत्तेश्च सदसदादिशब्दैः ब्रह्म नोच्यते इति। सर्वो हि शब्दः अर्थप्रकाशनाय प्रयुक्तः? श्रूयमाणश्च श्रोतृभिः? जातिक्रियागुणसंबन्धद्वारेण संकेतग्रहणसव्यपेक्षः अर्थं प्रत्याययति न अन्यथा? अदृष्टत्वात्। तत् यथा -- गौः अश्वः इति वा जातितः? पचति पठति इति वा क्रियातः? शुक्लः कृष्णः इति वा गुणतः? धनी गोमान् इति वा संबन्धतः। न तु ब्रह्म जातिमत्? अतः न सदादिशब्दवाच्यम्। नापि गुणवत्? येन गुणशब्देन उच्येत? निर्गुणत्वात्। नापि क्रियाशब्दवाच्यं निष्क्रियत्वात् निष्कलं निष्क्रियं शान्तम् (श्वे0 उ0 6।19) इति श्रुतेः। न च संबन्धी? एकत्वात्। अद्वयत्वात् अविषयत्वात् आत्मत्वाच्च न केनचित् शब्देन उच्यते इति युक्तम् यतो वाचो निवर्तन्ते (तै0 उ0 2।4।9) इत्यादिश्रुतिभिश्च।।सच्छब्दप्रत्ययाविषयत्वात् असत्त्वाशङ्कायां ज्ञेयस्य सर्वप्राणिकरणोपाधिद्वारेण तदस्तित्वं प्रतिपादयन् तदाशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह --,
Swami Ramsukhdas
।।13.13।। व्याख्या -- ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि -- भगवान् यहाँ ज्ञेय तत्त्वके वर्णनका उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिसकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है? जिसका वर्णन उपनिषदों? शास्त्रों और ग्रन्थोंमें किया गया है? उस प्रापणीय ज्ञेय तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन करूँगा।ज्ञेयम् (अवश्य जाननेयोग्य) कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जितने भी विषय? पदार्थ? विद्याएँ? कलाएँ आदि हैं? वे सभी अवश्य जाननेयोग्य नहीं हैं। अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मा ही है। कारण कि सांसारिक विषयोंको कितना ही जान लें? तो भी जानना बाकी ही रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा और जन्ममरण भी मिट जायगा। अतः संसारमें परमात्माके सिवाय जाननेयोग्य दूसरा कोई है ही नहीं।यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते -- उस ज्ञेय तत्त्वको जाननेपर अमरताका अनुभव हो जाता है अर्थात् स्वतःसिद्ध तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है? जिसकी प्राप्ति होनेपर जानना? करना? पाना आदि कुछ भी बाकी नहीं रहता।वास्तवमें स्वयं पहलेसे ही अमर है? पर उसने मरणशील शरीरादिके साथ एकता करके अपनेको जन्मनेमरनेवाला मान लिया है। परमात्मतत्त्वको जाननेसे यह भूल मिट जाती है और वह अपने वास्तविक स्वरूपको पहचान लेता है अर्थात् अमरताका अनुभव कर लेता है।अनादिमत् -- उससे यावन्मात्र संसार उत्पन्न होता है? उसीमें रहता है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाता है। परन्तु वह आदि? मध्य और अन्तमें ज्योंकात्यों विद्यमान रहता है। अतः वह अनादि कहा जाता है।परं ब्रह्म -- ब्रह्म प्रकृतिको भी कहते हैं? वेदको भी कहते हैं? पर परम ब्रह्म तो एक परमात्मा ही है। जिससे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक? निर्विकार? सदा रहनेवाला तत्त्व नहीं है? वह परम ब्रह्म कहा जाता है।न सत्तन्नासदुच्यते -- उस तत्त्वको सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते। कारण कि असत्की भावना(सत्ता) के बिना उस परमात्मतत्त्वमें सत् शब्दका प्रयोग नहीं होता? इसलिये उसको सत् नहीं कह सकते और उस परमात्मतत्त्वका कभी अभाव नहीं होता? इसलिये उसको असत् भी नहीं कह सकते। तात्पर्य है कि उस परमात्मतत्त्वमें सत्असत् शब्दोंकी अर्थात् वाणीकी प्रवृत्ति होती ही नहीं -- ऐसा वह करणनिरपेक्ष तत्त्व है।जैसे पृथ्वीपर रात और दिन -- ये दो होते हैं। इनमें भी दिनके अभावको रात और रातके अभावको,दिन कह देते हैं। परन्तु सूर्यमें रात और दिन -- ये दो भेद नहीं होते। कारण कि रात तो सूर्यमें है ही नहीं और रातका अत्यन्त अभाव होनेसे सूर्यमें दिन भी नहीं कह सकते क्योंकि दिन शब्दका प्रयोग,रातकी अपेक्षासे किया जाता है। यदि रातकी सत्ता न रहे तो न दिन कह सकते हैं? न रात। ऐसे ही सत्की अपेक्षासे असत् शब्दका प्रयोग होता है और असत्की अपेक्षासे सत् शब्दका प्रयोग होता है। जहाँ परमात्माको सत् कहा जाता है? वहाँ असत्की अपेक्षासे ही कहा जाता है। परन्तु जहाँ असत्का अत्यन्त अभाव है? वहाँ परमात्माको सत् नहीं कह सकते और जो परमात्मा निरन्तर सत् है? उसको असत् नहीं कह सकते। अतः परमात्मामें सत् और असत् -- इन दोनों शब्दोंका प्रयोग नहीं होता। जैसे सूर्य दिनरात दोनोंसे विलक्षण केवल प्रकाशरूप है? ऐसे ही वह ज्ञेय तत्त्व सत्असत् दोनोंसे विलक्षण है (टिप्पणी प0 687.2)।दूसरी बात? सत्असत्का निर्णय बुद्धि करती है और ऐसा कहना भी वहीं होता है? जहाँ वह मन? वाणी और बुद्धिका विषय होता है। परन्तु ज्ञेय तत्त्व मन? वाणी और बुद्धिसे सर्वथा अतीत है अतः उसकी सत्असत् संज्ञा नहीं हो सकती। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वह तत्त्व न सत् कहा जा सकता है? न असत् -- ऐसा कहकर ज्ञेय तत्त्वका निर्गुणनिराकाररूपसे वर्णन किया। अब आगेके श्लोकमें उसी ज्ञेय तत्त्वका सगुणनिराकाररूपसे वर्णन करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।13.13।। पूर्व के पाँच श्लोकों में ज्ञान को बताने के पश्चात्? अब भगवान् ज्ञेय वस्तु को बताने का वचन देते हैं। परन्तु? प्रथम वे इसे जानने का फल बताते हैं? जिसकी कुछ लोग आलोचना करते हैं। किन्तु? यह आलोचना उपयुक्त नहीं है? क्योंकि ज्ञान के फल की स्तुति करने से उसके साधन के अनुष्ठान में प्रवृत्ति? रुचि और उत्साह उत्पन्न होता है।जिसे जानकर? साधक अमृत्व को प्राप्त होता है जड़ पदार्थ का धर्म है मरण। इन जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण अमरणधर्मा आत्मा इनसे अवच्छिन्न हुआ व्यर्थ ही मिथ्या परिच्छिन्नता और मरण का अनुभव करता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त करने से मरण का यह मिथ्या भय समाप्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आत्मा के परमानन्द का अनुभव होता है। ऐसे श्रेष्ठतम लक्ष्य को पाने के लिए पूर्व वर्णित गुणों के द्वारा हमको अपने अन्तकरण को साधन सम्पन्न बनाना चाहिए।अनादिमत्परं ब्रह्म किसी नित्य अधिष्ठान के सन्दर्भ में ही किसी वस्तु के अनादि अर्थात् प्रारम्भ की कल्पना और गणना की जा सकती है। जो परमात्मा काल का भी अधिष्ठान है? उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती।ब्रह्म को न सत् कहा जा सकता है और न असत्। सामान्य दृष्टि से जो वस्तु प्रमाणगोचर होती है? उसे हम सत् कहते हैं। परन्तु जो चैतन्य द्रष्टा है? वह कभी भी इन्द्रिय? मन और बुद्धि का ज्ञेय नहीं हो सकता? इसलिए कहा गया है कि वह सत् नहीं है। चैतन्य तत्त्व समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होते हुए स्वयं समस्त अनुभवों के अतीत है।यदि वह सत् नहीं है? तो हम उसे असत् समझ लेगें? इसलिए यहाँ उसका भी निषेध किया गया है। अत्यन्त अभावरूप वस्तु को असत् कहते हैं? जैसे आकाश? पुष्प? बन्ध्यापुत्र इत्यादि। ब्रह्म को असत् नहीं कह सकते. क्योंकि वह सम्पूर्ण जगत् का कारण है। उसका ही अभाव होने पर जगत् की सिद्धि कैसे हो सकती है इसलिए? उपनिषदों में उसे नेति? नेति (यह नहीं) की भाषा में निर्देशित किया गया है।शंकराचार्य जी कहते हैं? जाति और गुण से रहित होने के कारण ब्रह्म को सत् नहीं कहा जा सकता? और समस्त शरीरों में चैतन्य रूप में व्यक्त होने के कारण असत् भी नहीं कहा जा सकता है।सत् अर्थात् वस्तु है यह वृत्ति तथा असत् अर्थात् वस्तु नहीं है यह वृत्ति भी बुद्धि में ही उठती है। जो आत्मचैतन्य इन दोनों वृत्तियों का प्रकाशक है? वह दोनों से ही भिन्न है। इस तथ्य की पुष्टि यहाँ पर की गयी है।उपर्युक्त कथन से कोई व्यक्ति उसे शून्य न समझ ले? इसलिए समस्त प्राणियों की उपाधियों के द्वारा ब्रह्म के अस्तित्व का बोध कराते हुए भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।13.13।।सर्वविशेषरहितस्यावाङ्मनसगोचरस्यादृष्टेर्दृष्टेश्च विपरीतस्य प्राप्ते ब्रह्मणः शून्यत्वे प्रत्यक्त्वेनेन्द्रियप्रवृत्त्यादिहेतुत्वेन कल्पितद्वैतसत्तास्फूर्तिप्रदत्वेनेश्वरत्वेन च सत्त्वं दर्शयन्नादौ देहादीनां प्रवृत्तिमतां रथादिवदचेतनानां प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमत्त्वाच्चेतनाधिष्ठितत्त्वमनुमिमानस्तत्प्रत्यक्चेतनं ब्रह्मेत्याह -- सच्छब्देति। तदस्तित्वमिति तच्छब्दो ज्ञेयब्रह्मार्थः। तदाशङ्केति तच्छब्देनासत्त्वमुच्यते। ननु सर्वदेहेषु पाणिपादमस्येति कथं पाणीनां च पादानां च देहस्थत्वेनात्मधर्मत्वं तत्राह -- सर्वेति। करणप्रवृत्ती रथादिप्रवृत्तितत्प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमत्त्वाच्चेतनाधिष्ठातृपूर्विकेत्यर्थः। उक्तप्रवृत्त्या चेतनास्तित्वसिद्धावपि कथं क्षेत्रज्ञास्तित्वमित्याशङ्क्य चेतनस्यैव क्षेत्रोपाधिना क्षेत्रज्ञत्वाच्चेतनास्तित्वं तदस्तित्वमेवेत्याह -- क्षेत्रज्ञश्चेति।,तस्य क्षेत्रोपाधित्वेऽपि कथं पाणिपादाक्षिशिरोमुखादिमत्त्वमित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रं चेति। अतश्चोपाधितस्तस्मिन्विशेषोक्तिरिति शेषः। कथं तर्हि न सत्तन्नासदिति निर्विशेषत्वोक्तिरित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रेति। पाणिपादादिमत्त्वमौपाधिकं मिथ्या चेज्ज्ञेयप्रवचनाधिकारे कथं तदुक्तिरित्याशङ्क्याह -- उपाधीति। मिथ्यारूपमपि ज्ञेयवस्तुज्ञानोपयोगीत्यत्र वृद्धसंमतिमाह -- तथाहीति। पाणिपादादीनामन्यगतानामात्मधर्मत्वेनारोप्य व्यपदेशे को हेतुरिति चेत्तत्राह -- सर्वत्रेति। ज्ञेयस्य ब्रह्मणः शक्तिः संनिधिमात्रेण प्रवर्तनसामर्थ्यं तत्सत्त्वं निमित्तीकृत्य स्वकार्यवन्तो भवन्ति पाण्यादय इति कृत्वेति योजना। सर्वतोऽक्षीत्यादावुक्तमतिदिशति -- तथेति। तज्ज्ञेयं यथा सर्वतःपाणिपादमिति व्याख्यातं तथेत्युक्तमेव स्फुटयति -- सर्वत इति। सर्वतोऽक्षीत्यादेरक्षरार्थमाह -- सर्वतोऽक्षीति। अक्षिश्रवणवत्त्वमवशिष्टज्ञानेन्द्रियवत्त्वस्य पाणिपादमुखवत्त्वं चावशिष्टकर्मेन्द्रियवत्त्वस्य मनोबुद्ध्यादिमत्त्वस्य चोपलक्षणम्। एकस्य सर्वत्र पाण्यादिमत्त्वं साधयति -- सर्वमिति।
Sri Dhanpati
।।13.13।।यथोक्तज्ञानसाधनेन ज्ञानशब्दितेन ज्ञेयं किमित्याकाङ्क्षायामाह -- ज्ञेयमिति। उक्तज्ञानसाधनपरिपाकलब्धसाक्षात्कारवृत्तिविषयं ज्ञेयं। नचैवमन्तःकरणवृत्तिविषयत्वेन ब्रह्मणो दृश्यत्वं तस्य वृत्तिविषयत्वेन ज्ञेयत्वेऽपि फलविषयत्वाभावेन दृश्यत्वाभावात्। तथाच श्रुतिःस वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता? विज्ञातारमरे केन विजानीयात् इत्याद्या। ज्ञेयं यत्तत्प्रकर्षेण यथावत् वक्ष्यामि। फलप्रदर्शनेन श्रोतारं रोजयन्नभिमुखीकरोति। यज्ज्ञेयं ज्ञात्वाऽमृतमपुनरावृत्तिलक्षणं मोक्षमश्रुते। मुक्तो भवतीत्यर्थः। किं तदित्यत आह। अनादिमत् आदिरस्यास्तीत्यादिमत् नादिमदनादिमत् परं निरतिशयं ब्रह्म ज्ञेयमित्यर्थः। यत्तु अनादिमदिति च्छेदे बहुव्रीहिणोक्तेऽर्थे मतुप,आनर्थक्यप्रसङ्गादुक्तार्थानामप्रयोगीदितिन्यायात् मत्परमिति च्छेदः। अहं वासुदेवाख्या परा शक्तिर्यस्य तस्मत्परमित्यर्थ इति तन्न। न सत्तन्नासदुच्यत इति सर्वविशेषप्रतिषेधेन विजिज्ञापयितत्वेन विशिष्टशक्तिमत्त्वप्रदर्शनस्य विप्रतिषिद्धत्वेनोक्तार्थासंभवात्। तस्मान्मतुपो बहुब्रीहिसमानार्थत्वेऽप्यतिशायने नित्ययोगे वा श्लोकपूरणार्थः प्रयोगः। ननु मम विष्णोः परं निर्विशेषं रुपं मत्तः सगुणात् ब्रह्मणः परमिति वा। यद्वा आदिमच्च ततः परं चादिमत्परे कार्यकारणे ताभ्यामन्यदनादिमत्परिमित्येवं मतुपः सार्थकत्वसंभवे किमित्याचार्यैरेवमुक्तमिति वा। यद्वा आदिमच्च ततः परं चादिमत्परे कार्यकारणे ताभ्यामन्यदनादिमत्परामित्येवं मतुपः सार्थकत्वसंभवे किमित्याचार्यैरेवमुक्तमिति चेत् परमिति विशेषणादेव सगुणात्परस्य निर्विशेषस्य लाभेन मत्पदवैयर्थ्यं मत्तः सगुणात् ब्रह्मणः परमिति वा। यद्वा आदिमच्च ततः परं चादिमत्परे कार्यकारणे ताभ्यामन्यदनादिमत्परमित्येवं मतुपः सार्थकत्वसंभवे किमित्याचार्यैरेवमुक्तमिति चेत् परमिति विशेषणादेव सगुणात्परस्य निर्विशेषस्य लाभेन मत्पदवैय्त्यं मत्तः परतरं नान्यदित्यादिना विरोधं परपदस्य पूर्वनिपातापत्तिं कार्यकारणान्यत्वस्य न सदित्यादिविशेषणेऽन्तर्भावं चाभिप्रेत्येति गृहाण। एतेनानादिमत्परिमित्येकं पदम्। अनादिर्माया तद्वतो मायावच्छिन्नादनाद्यज्ञानवतो जीवात्परं निर्मायज्ञानकृतजीवत्वोपाधिरहितं चेत्येवमादि यत्किंचित्कल्पमस्मदादिभिः क्रियमाणमपि हेयं परमिति विशेषणैवोक्तार्थस्य लाभेनानादिमत्पदस्य वैयर्थ्यात्। अनादिमत्परं ब्रह्म ज्ञेयमृतत्वफलं मयोच्यत इति प्ररोजनेनाभिमुखीकृत्याह। सत् कार्यमभिव्यक्तनामरुपत्वात् असत् कारणं तद्विपर्ययात्। तथा च तज्ज्ञेयं सन्नोच्यते नाप्यसदुच्यते। ननु ज्ञेयं वक्ष्यामिति महता कण्ठवेणोद्धुष्य न सत्तन्नासदुच्यत इत्यननुरुपमुक्तमितिचेन्न। स्वयंज्योतीरुपस्य परब्रह्मणः विधिमुखेनोपदेशायोगादध्यस्तातद्धर्मनिवृत्तये निषेधद्वारोपदेशस्य श्रुतिषु प्रसिद्धेरारेपितविशेषनिषेधरुपस्य प्रवचनस्य प्रतिज्ञानुरुपत्वात्। तथाच श्रुतयःअथात आदेशो नेतिनेति? अस्थूलमनणु? अपूर्वमनपरम् इत्यादयः। एवंच ज्ञेयस्य ब्रह्मणो वाचो गोचरत्वात् श्रुत्यादौ निषेधमुखेनैवोपदेशो नत्विदं तदिति विधिमुखेनेति भावः। ननु ब्रह्मणोऽस्तिशब्दावाच्यत्वे नास्तिशब्दवाच्यशशविषाणवन्नास्तित्वप्रसङ्ग इति चेन्न। शशश्रृङ्गवद्ब्रह्मणो नास्तिधीविषयत्वाभावात्। ननु सर्वासां बुद्धीनामस्तिनास्तिनास्तित्वानुगतत्वेन ब्रह्मणोऽन्यतरबुद्य्धविषयत्वेनानिर्वाच्यत्वं दुर्वारमितिचेन्न। इन्द्रियग्राह्यघटादेरुभयबुद्धिविषयाद्विलक्षणस्यातीन्द्रियस्य ब्रह्मणस्तदविषत्वेति शब्दैकप्रमाणगम्यत्वेन ज्ञेयत्वानपायात्। किंच गौरश्व इति वा जातितः? पचति पठतीति वाक्रियातः? शुक्लः कृष्ण इति वा गुणतो? धनी गोमानिति वा संबन्धतः सर्वो गवादिशब्दोऽर्थ प्रत्याययति। ननु ब्रह्म जात्यादिमदतो न सदादिशब्दावाच्य। तथाच श्रुतःअगोत्रमवर्णं? निष्क्रियं शान्तं? केवलो निर्गुणश्च? एकमेवाद्वितीयम् इत्याद्याः। तथाचाविषत्वादात्मत्वात्केनापि शब्देन मुख्यया वृत्त्या ब्रह्म नोच्यत इति युक्तम्।यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इत्यादिश्रुतिभ्यश्च।तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इत्यत्र तु निषेधमुखोपदेशेनोपनिषत्प्रतिपाद्यमित्यर्थ इत्यविरोधः। यत्तु पूरणार्थात्पृ़ इत्यस्माद्धातो परशब्दव्युत्पत्तेः परं पूर्णं त्रिविधपरिच्छेदशून्यं। ननु देशकालवस्तूनामद्वैतमतेऽसत्त्वात्कुतस्तत्कृतच्छेद इत्याशङ्क्याविद्याविलासत्वं देषां वक्तुं ब्रह्म विशिनष्टि -- अनादिमदिति। अनादि अज्ञानं तद्वत्तसंबन्धीत्यर्थः। तेन देशादीनां संभव इति भावः। नन्वयं शान्तिकर्मणि वेदालोदयः यदज्ञानमेवानादिदितीयमङ्गीक्रियत इत्याशङ्क्याज्ञानं विशिनष्टि -- न सदिति। तदज्ञानं न सदुच्यते बाध्यतया सत्त्वेनानिरुपणात्। तथा नासदुच्यते अपरोक्षतया प्रतीतेरस्तस्यानर्वचनात्। भुजंगेनेव रज्जुर्नाज्ञानेन ब्रह्म सद्वितीयमिति भावः। यद्वास्मिन्व्याख्याने द्वितीयनकारवैयर्थ्याद्ब्रह्मैव विशेषणीयं तद्ब्रह्म न सन्नासदिति नोच्यतेऽनिर्वचनीयं न भवति। सत्त्वेन निरुपणादतोऽर्थादनाद्यज्ञानमेवानिर्वचनीयमित्यर्थ इति तच्चिन्त्यम्। ज्ञेयप्रवचनं प्रतिज्ञायाज्ञाननिरुपणस्यानौचित्यात्। अज्ञानवतो जीवस्य ज्ञातत्वेन ज्ञेयत्वाभावात् ब्रह्म विशेषणीयमिति पक्षे तत्सदुच्यते इत्येतावतैव निर्वाहेऽवशिष्टस्य वैयर्थ्यापत्तेःनासदासीन्नो सदासीत् इत्यादिश्रुत्या विरोधापत्तेश्चेति दिक्।
Sri Madhavacharya
।।13.13।।परं ब्रह्मेतिस च यः [13।4] इति प्रतिज्ञातमुच्यते। अन्यत्यत्प्रभावः [13।4] इति आदिमद्देहवर्जितमित्यनादिमत्। अन्यथाऽनादीत्येव स्यात्।
Sri Neelkanth
।।13.13।।एवं क्षेत्रं व्याख्याय स च यो यत्प्रभावश्चेत्युक्तं क्षेत्रज्ञस्वरूपं तस्य मायिकं प्रभावं व्याचष्टे -- ज्ञेयमिति। एतैर्ज्ञानसाधनैर्यज्ज्ञेयं तत्प्रवक्ष्यामि। यज्ज्ञेयं ज्ञात्वा अमृतं मोक्षमश्नुते प्राप्नोति। तस्य स्वरूपं तावदाह -- अनादिमदिति। आदिमत् अव्यक्तम्तस्मादव्यक्तमुत्पन्नम् इति तदुत्पत्तिस्मरणात्। तदन्यदनादिमत्। अनादीत्येतावत्युक्ते प्रवाहनित्यत्वमव्यक्तादीनामप्यस्तीति तेषामप्यनादितायां प्राप्तायां तत्प्रतिषेधार्थमनादिमदित्युक्तम्। यद्वा आदिमच्च ततः परं चादिमत्परे कार्यकारणे ताभ्यामन्यदनादिमत्परमिति। अतएव परं निर्विशेषं नत्वपरं सविशेषम्। ब्रह्म त्रिविधपरिच्छेदशून्यम्। न सत् प्रधानपरमाण्वादिवत्सदिति नोच्यते। नाप्यसत् शून्यवदसदपि नोच्यते। तथा च श्रुतिःनासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् इति। असच्छब्दितस्य शून्यस्य सच्छब्दितस्य प्रधानस्य रजःशब्दितानां परमाणूनां परव्योमशब्दितस्य अस्मदभिमतस्याव्यक्तस्यापि सृष्टेः प्राक् निषेधं दर्शयति।
Sri Ramanujacharya
।।13.13।।सर्वतःपाणिपादं तत् परिशुद्धात्मस्वरूपं सर्वतःपाणिपादकार्यशक्तम्? तथा सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् सर्वतःश्रुतिमत् सर्वतश्चक्षुरादिकार्यकृत् --,अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः (श्वे0 उ0 3।19) इति परस्य ब्रह्मणः अपाणिपादस्य अपि सर्वतःपाणिपादादिकार्यकर्तृत्वं श्रूयते। प्रत्यगात्मनः अपि परिशुद्धस्य तत्साम्यापत्त्या सर्वतःपाणिपादादिकार्यकर्तृत्वं श्रुतिसिद्धम् एव।तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्युपैति (मु0 उ0 3।1।3) इति हि श्रूयते।इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। (गीता 14।2) इति च वक्ष्यते।लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति इति। लोके यद् वस्तुजातं तत् सर्वं व्याप्य तिष्ठति परिशुद्धस्वरूपं देशादिपरिच्छेदरहिततया सर्वगतम् इत्यर्थः।।
Sri Sridhara Swami
।।13.13।। एभिः साधनैर्यज्ज्ञेयं तदाह -- ज्ञेयमितिषड्भिः। यज्ज्ञेयं तत्प्रवक्ष्यामि। श्रोतुरादरसिद्धये ज्ञानफलं दर्शयति। यद्वक्ष्यमाणं ज्ञात्वाऽमृतं मोक्षं प्राप्नोति। किं तत् अनादिमत् आदिमन्न भवतीत्यनादिमत्। परं निरतिशयं ब्रह्म। अनादीत्येतावतैव बहुव्रीहिणा अनादिमत्त्वे सिद्धेऽपि पुनर्मतुपः प्रयोगश्छान्दसः। यद्वा अनादीति मत्परमिति च पदद्वयम्। मम विष्णोः परं निर्विशेषं रूपं ब्रह्मेत्यर्थः। तदेवाह। न सत् न चासदुच्यते। विधिमुखेन प्रमाणस्य विषयः सच्छब्देनोच्यते। निषेधस्य विषयस्त्वसच्छब्देनोच्यते। इदं तु तदुभयविलक्षणं? अविषयत्वादित्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।13.13।।ज्ञाता हि पूर्वमुद्दिष्टः -- स च यो यत्प्रभावश्च [13।4] इति? स एव पुनः परामृष्टः तत्कथंज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि इत्युच्यत इत्यत्राह -- अथेति। वेद्यविशेषस्यात्मनो लक्षणतया हि वेदितृत्वं प्रागुक्तमिति भावः। अत एवज्ञेयं यत् इत्यादेः परब्रह्मविषयत्वभ्रमो निरस्तः?क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम् [13।3] इति प्रक्रमात्?क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा [13।35] इति उपसंहरिष्यमाणत्वात्? मध्ये चप्रकृतिं पुरुषं चैव [13।20] इति तयोरेव निरूपणात्? इन्द्रियाधीनभोगत्वोत्क्रमणगुणवश्यत्वादिवचनाच्च। स्वरूपशब्देन नपुंसकनिर्देशविवक्षाद्योतनम् वक्ष्यमाणब्रह्मशब्दापेक्षया वा नपुंसकत्वम्। स्वेतरसमस्तव्यावर्तकं हि लक्षणम्। तत्र वेदितृत्वलक्षणेन विविक्तस्वरूपस्य किमन्यत् स्वरूपशोधनमिति चेत्? तन्न लक्षणेनान्यत्वमात्रं हि प्रतीयते? न पुनर्भावाभावरूपाः सर्वे प्रकाराः यथागन्धवती पृथिवी [त.सं.2] इत्यत्र तेनाकारेण जलादिव्यावृत्तिमात्रं सिध्यति? न पुनः पाकजरूपादिमत्त्वादिकम्? तद्वदिहाऽपि ज्ञातृत्वलक्षणाभिधानेऽपि तस्य ज्ञातुः कार्यत्वाकार्यत्वादिविवेको न सिध्येत् अतः स वक्तव्य इत्यभिप्रायेणज्ञेयम् इत्यनेन सूचितां सङ्गतिमाहअमानित्वादिभिरिति। प्रवक्ष्यामि प्रकर्षेण यथावद्वक्ष्यामीत्यर्थः।अनादिमत् इति पदच्छेदो न युक्तः? प्रत्ययमन्तरेणापि बहुव्रीहिवशात्तदर्थसिद्धेरित्यभिप्रायेणाह -- आदिर्यस्येति। अनादि कारणरहितमित्यर्थः। अयमर्थोनात्माश्रुतेः [ब्र.सू.2।3।18] इत्यधिकरणसिद्ध इत्यभिप्रायेणाह -- अस्य हीति। पूर्वोक्तामृतत्वेऽपि हेतुरयमित्याह -- तत एवेति। उभयत्र प्रमाणमाह -- श्रुतिश्चेति।अनादिमत् इति पदच्छेदेऽत्र निर्दिश्यमानं ब्रह्म परशब्देन विशेषणीयम् तच्चाप्रकरणत्वादस्वरसम् अतः प्रकरणोचितपदच्छेदार्थमाह -- अहं परो यस्येति। प्रागुक्तसङ्ग्रहो ह्ययमित्यभिप्रायेणाह -- इतस्त्वन्यामिति। परशब्दोऽत्र शेषिपरः। शरीरत्वे शेषत्वे च क्रमाच्छ्रुतिमाह -- तथाचेति। एतेनमत्परम् इति पदच्छेदेऽर्थासम्भवान्मतुपो बहुव्रीहिणा समानार्थत्वेऽपि प्रयोगः श्लोकपूरणार्थ इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्।ननु परशब्देनाविशेषितोऽपि ब्रह्मशब्दः परमात्मन्येव मुख्यः? तत्कथमस्य जीवविषयत्वं इत्यत्राह -- बृहत्त्वगुणयोगीति। अणुत्वेन श्रुतिसिद्धस्य संकुचितज्ञानस्य कथं बृहत्त्वं इत्यत्राह -- शरीरादेरिति।परिच्छेदरहितं -- स्वतः सर्वविषयत्वार्हस्य ज्ञानस्य सङ्कोचरहितमित्यर्थः। स्वरूपाविर्भावदशायां बृहत्त्वं श्रुतिसिद्धमित्याह -- स चेति। अनन्तस्वभावस्य परिच्छिन्नत्वासम्भवादानन्त्यमौपचारिकमित्यत्राह -- शरीरपरिच्छिन्नत्वं चेति। औपाधिकमवस्थाभेदेनाविरुद्धं चेत्यभिप्रायः। औपचारिकस्यापि ब्रह्मशब्दप्रयोगस्य प्रसिद्धिमाह -- आत्मन्यपीति। अत एव हि परं ब्रह्मेति विशेषणस्य सार्थतेत्यभिप्रायः। अत्रैव शास्त्रे बहुषु प्रदेशेषु प्रत्यगात्मन्येव ब्रह्मशब्दप्रयोगं दर्शयतिस गुणानिति। ब्रह्मभूयाय ब्रह्मत्वाय। नहि जीवस्य मुक्तस्यापि साक्षाद्ब्रह्मत्वं?मम साधर्म्यमागताः [14।2] इत्यादिविरोधादिति भावः।ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहम् [14।27] इत्यत्रअहम् इति परं ब्रह्म निर्दिश्यते तत्प्रतिष्ठं च ब्रह्म ततोऽन्यदेवेति भावः।ब्रह्मभूतः [18।54] इत्यत्र,श्लोके परब्रह्मप्राप्तिसाधनभूतभक्त्युत्पत्तेः पूर्वमेव ब्रह्मभूतत्वं च नहि परब्रह्मस्वरूपत्वमिति भावः।न सत्तन्नासदुच्यते इत्यत्र न सर्वप्रकारोक्तिगोचरत्वप्रतिक्षेपः? स्ववचनविरोधात्। नच सत्त्वासत्त्वनिषेधः?परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः इति न्यायात् नापि सदसत्संज्ञकाभ्यां वस्तुभ्यां व्यावृत्तिः? तयोरसिद्धत्वात्। न च शुभाशुभादिव्यवच्छेदः? शुभत्वनिषेधायोगात्। अतोऽत्र किमुच्यते इत्यत्राह -- कार्यकारणेति। परिशुद्धाकारविषयमिदमिति ज्ञापनायआत्मस्वरूपमित्युक्तम्। अवस्थाद्वये सदसच्छब्दयोः प्रयोगनिमित्तमाहकार्यावस्थायामिति। तन्निबन्धनं श्रुतौ परमात्मादिविषयप्रयोगं दर्शयतितथाचेति। असद्वा इदम् इत्यत्रासच्छब्दनिर्दिष्टं हि तत इति कारणतयोच्यतेसदजायत इति कार्यं सच्छब्देन? तद्धेदम् इति समानार्थश्रुत्यन्तरेणासदादिशब्दौ क्रमान्नामरूपप्रहाणतद्योगनिमित्तौ व्याख्यातौ। ननुअसद्वा इदमग्र आसीत् इत्याद्युक्तमवस्थाद्वयं जीवस्याप्यस्त्येव? अन्यथा प्रागुक्तप्रकृतित्वानुपपत्तेः। तोयेन जीवान्व्य(न्वि)ससर्ज भूम्याम् [म.ना.1।4] इति श्रुत्या च तत्सिद्धेरित्यत्राह -- कार्यकारणेति। कर्मोपाधिकमेव ह्यवस्थाद्वयं? न पुनः स्वाभाविकम्। अत्र स्वाभाविकरूपमुच्यत इत्यर्थः। ननुकारणत्वेन चाकाशादिषु यथाव्यपदिष्टोक्तेः [ब्र.सू.1।4।14] इत्यस्मिन्नधिकरणे सदसदव्याकृतादयः सर्वे कारणवाक्यगताः शब्दाः परमात्मपरा इति निर्णीतम्? तत्कथमत्रासच्छब्देन जीवप्रसङ्गः इत्यत्राह -- यद्यपीति। सदसच्छब्दौ ह्यत्र परमात्मनि सद्वारकौ? अतो द्वारभूते जीवे तद्वाच्यत्वं सिद्धमिति भावः। तर्हि परिशुद्धावस्थायामपि कार्यनामरूपविभागाभावादसच्छब्दः प्राप्त इत्यत्राह -- क्षेत्रज्ञस्येति। कर्मकृतावस्थाद्वयनिषेधेऽत्र तात्पर्यमिति भावः।,
Sri Abhinavgupta
।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया पुनरुक्त्या।
Sri Jayatritha
।।13.13।।प्रतिज्ञातार्थद्वयप्रतिपादनायज्ञेयं यत्तत् इत्यादिकं वाक्यमिति सूचितम्? तत्र केन तु किमुच्यते इत्यत आह -- परमिति। इति नामोक्त्या अन्यत्अनादिमत् इत्यादिकंयत्प्रभावः [13।4] इति प्रतिज्ञातस्य प्रतिपादकमित्यर्थः। आदिरस्यास्तीत्यादिमन्न आदिमदनादिमदिति व्याख्याने न विद्यते आदिरस्येत्यनादीति बहुव्रीहित्वाश्रयणेनैव विवक्षितार्थसिद्धेः मतुपो वैयर्थ्यमिति दोषं पश्यन्तः केचित्अनादि इतिमत्परं इति च पदं विच्छिद्यअहं वासुदेवाख्या परा शक्तिर्यस्य तन्मत्परं इति व्याचक्षते? तदसत्? अर्थासम्भवात् न हि ब्रह्मेति वासुदेवेति कश्चिद्भेदः। न चावतारेषु पारावर्यमित्युक्तमिति भावेन यथा मतुपो न वैयर्थ्यं तथा व्याचष्टे -- आदिमदिति। आदिर्येषामस्तीत्यादिमन्ति? न विद्यन्ते आदिमन्ति यस्य तदनादिमत्। सामर्थ्यात्तानि देहेन्द्रियगुणक्रियादीनीत्यर्थः। अथवा पूर्वोक्त एव विग्रहः। न च तुमपो वैयर्थ्यं वैदिकं लिङ्गव्यत्ययं विभक्तिलोपं वा मन्यमानस्य बहुव्रीहिर्वा नञ्समासो वाऽयमिति संशयः स्यात्। तथा च ब्रह्म स्वयं कारणं न भवतीत्यपि शङ्क्येत? तन्निवृत्त्यर्थं मतुबन्तेनादिशब्देन नञ्समासस्याश्रयणात् ये त्वेवं प्रयोजनमनभिधाय मतुपः प्रयोगः श्लोकपूरणार्थ इत्युक्तवन्तस्तान्निराचष्टे -- अन्यथेति। अस्मदुक्तप्रयोजनद्वयानङगीकार इत्यर्थः। सार्थकेन शब्दान्तरेण श्लोकपूरणसम्भवादिति भावः। ननु बहुव्रीहिमाश्रित्य पुनर्मतुपः प्रयोगे दोषः स्यात्? न चैवम् किन्तु शब्दान्तरमेवैतत्? तत्कथमयं दोषः अन्यथायद्विकारि [13।4] इत्यत्रापि दोषप्रसङ्गात्। मैवम्? बहुव्रीहिं विवक्षित्वाऽल्पेन शब्देनाभिमतार्थप्रतिपादनसम्भवे बहुयत्नाश्रयणस्य दोषत्वेनोक्तत्वात्।यद्विकारि इत्यत्र गौरवाभावात्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।13.13।।एभिः साधनैर्ज्ञानशब्दितैः किं ज्ञेयमित्यपेक्षायामाह -- ज्ञेयं यत्तदित्यादि षड्भिः। यत् ज्ञेयं मुमुक्षुणा तत्प्रवक्ष्यामि प्रकर्षेण स्पष्टतया वक्ष्यामि। श्रोतुरभिमुखीकरणाय फलेन स्तुवन्नाह -- यदिति। यत्,वक्ष्यमाणं ज्ञेयं ज्ञात्वाऽमृतममृतत्वमश्नुते। संसारान्मुच्यत इत्यर्थः। किं तत्। अनादिमत् आदिमन्न भवतीत्यनादिमत्। परं निरतिशयं ब्रह्म सर्वतोऽनवच्छिन्नं परमात्मवस्तु। अत्रानादीत्येतावतैव बहुव्रीहिणार्थलाभेऽप्यतिशायने नित्ययोगे वा मतुपः प्रयोगः। अनादीति च मत्परमिति च पदं केचिदिच्छन्ति। मत् सगुणाद्ब्रह्मणः परं निर्विशेषं रूपं ब्रह्मेत्यर्थः। अहं वासुदेवाख्या परा शक्तिर्यस्येति त्वपव्याख्यानम्। निर्विशेषस्य ब्रह्मणः प्रतिपाद्यत्वेन तत्र शक्तिमत्त्वस्यावक्तव्यत्वात्। निर्विशेषत्वमाह न सत्तन्नासदुच्यते इति। विधिमुखेन प्रमाणस्य विषयः सच्छब्देनोच्यते निषेधमुखेन प्रमाणस्य विषयस्त्वसच्छब्देन। इदं तु तदुभयविलक्षणं निर्विशेषत्वात् स्वप्रकाशचैतन्यरूपत्वाच्च।यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इत्यादिश्रुतेः। यस्मात्तत् ब्रह्म न सत् भावत्वाश्रयः नासत् अभावत्वाश्रयः अतो नोच्यते केनापि शब्देन मुख्यया वृत्त्या। शब्दप्रवृत्तिहेतूनां तत्रासंभवात्। तद्यथा गौरश्व इति वा जातितः? पचति पठतीति वा क्रियातः? शुक्लः कृष्ण इति वा गुणतः? धनी गोमानिति वा संबन्धतोऽर्थं प्रत्याययति शब्दः। अत्र क्रियागुणसंबन्धेभ्यो विलक्षणः सर्वोपि धर्मो जातिरूप उपाधिरूपो वा जातिपदेन संगृहीतो यद़ृच्छाशब्दोऽपि डित्थडपित्थादिर्यं कंचनधर्मं स्वात्मानं वा प्रति निमित्तीकृत्य प्रवर्तत इति सोपि जातिशब्दः। एवमाकाशशब्दोपि तार्किकाणां शब्दाश्रयत्वादिरूपं यं कंचिद्धर्मं पुरस्कृत्य प्रवर्तते। स्वमते तु पृथिव्यादिवदाकाशव्यक्तीनां जन्यानामनेकत्वादाकाशत्वमपि जातिरेवेति सोपि जातिशब्दः। आकाशातिरिक्ता च दिङ्नास्त्येव कालश्च नेश्वरादतिरिच्यते। अतिरेके वा दिक्कालशब्दावप्युपाधिविशेषप्रवृत्तिनिमित्तकाविति जातिशब्दादेव। तस्मात्प्रवृत्तिनिमित्तचातुर्विध्याच्चतुर्विध एव शब्दः। तत्र न सत्तन्नासदिति जातिनिषेधः क्रियागुणसंबन्धानामपि निषेधोपलक्षणार्थः। एकमेवाद्वितीयमिति जातिनिषेधस्तस्य अनेकव्यक्तिवृत्तेरेकस्मिन्नसंभवात् निर्गुणं निष्क्रियं शान्तमिति गुणक्रियासंबन्धानां क्रमेण निषेधः।असङ्गो ह्ययं पुरुषः इति च।अथात आदेशो नेति नेति इति च सर्वनिषेधः। तस्मात् ब्रह्म न केनचिच्छब्देनोच्यत इत्युक्तं युक्तं। तर्हि कथं प्रवक्ष्यामीत्युक्तं कथं वाशास्त्रयोनित्वात् इति सूत्रं? यथाकथंचिल्लक्षणया शब्देन प्रतिपादनादिति गृहाण। प्रतिपादनप्रकारश्चाश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमित्यत्र व्याख्यातः। विस्तरस्तु भाष्ये द्रष्टव्यः।
Sri Purushottamji
।।13.13।।एवं ज्ञानस्वरूपमुक्त्वा৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. तेन ज्ञेयस्वरूपमाह -- ज्ञेयमित्यादिषड्भिः। स्वगुणरूपैरेवं पूर्वोक्तसाधनैर्यत् ज्ञेयं तत् प्रकर्षेण सर्वाङ्गयुक्तं वक्ष्यामि? कथयामीत्यर्थः। तत्कथनप्रयोजनमाह -- यत् ज्ञात्वा अमृतं मोक्षं अश्नुते प्राप्नोति। एवं कथनं प्रतिज्ञाय तत्स्वरूपमाह -- अनादीति। न विद्यते आदिरुत्पत्तिर्यस्य तादृशं? मत्परं अहमेव परो यस्य मत्स्थानभूतं ब्रह्म बृहत् व्यापकं च। तदेवाह -- न सत् सन्न भवति। तर्ह्यसद्भवति इति चेदित्याशङ्क्याह -- तत् असत् न उच्यते। सदसदनिश्चयोक्त्या दुर्ज्ञेयत्वेन ब्रह्मत्वं प्रतिपादितम्।
Sri Vallabhacharya
।।13.13।।ज्ञेयस्वरूपमाह षड्भिः स्वगुणरूपैः ज्ञेयमिति। शास्त्रतः ज्ञानिभिरधिगम्यम्। ज्ञानस्य फलमाह अमृतमिति। ज्ञेयं नामरूपलक्षणतो निर्दिशति -- अनादिमत्परं ब्रह्मेति। सर्ववेदान्तप्रतिपाद्यं यत्। यद्वा अहं परो यस्मात्तदक्षरं इति च। विरुद्धर्माश्रयं च तदित्याह -- न सत्तन्नासदिति। असत्त्वं सत्त्वं च विरुद्धौ धर्मौ तयोराश्रयंनहि विरोध उभयं भगवत्यपरिगणितगुणगण ईश्वरे इत्यादि भागवतवाक्यैरुच्यते।
Swami Sivananda
13.13 ज्ञेयम् has to be known? यत् which? तत् that? प्रवक्ष्यामि (I) will declare? यत् which? ज्ञात्वा knowing? अमृतम् immortality? अश्नुते (one) attains to? अनादिमत् the beginningless? परम् supreme? ब्रह्म Brahman? न not? सत् being? तत् that? न not? असत् nonbeing? उच्यते is called.Commentary The Lord praises that which ought to be known (Para Brahman) in order to create in Arjuna (or any hearer) an intense desire to know It.Brahman cannot be expressed in words like being or nonbeing? because Brahman does not belong to any class or genus like a Brahmana? cow or horse. It has no ality like whiteness? blackness? etc. It has no relation or connection with anything else? because It is one without a second. It is no object of any sense. It is beyond the reach of the mind and the senses. It is actionless. It is the great transcendental and unmanifested Absolute. It is always the witnessing subject in all objects.The Vedas emphatically declare that Brahman is without attributes? activity? attachment or parts.In chapter IX. 19 it was stated that He is the being and also the nonbeing. It is now stated that He is neither being nor nonbeing. This would seem to the readers to be a contradiction in terms but it is not so. Though the manifest (perishable) and the unmanifest (imperishable) universe are both forms of Brahman? He is beyond both these. (Cf.VII.2XV.16?17and18)