Chapter 13, Verse 18
Verse textज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।13.18।।
Verse transliteration
jyotiṣhām api taj jyotis tamasaḥ param uchyate jñānaṁ jñeyaṁ jñāna-gamyaṁ hṛidi sarvasya viṣhṭhitam
Verse words
- jyotiṣhām—in all luminarie
- api—and
- tat—that
- jyotiḥ—the source of light
- tamasaḥ—the darkness
- param—beyond
- uchyate—is said (to be)
- jñānam—knowledge
- jñeyam—the object of knowledge
- jñāna-gamyam—the goal of knowledge
- hṛidi—within the heart
- sarvasya—of all living beings
- viṣhṭhitam—dwells
Verse translations
Swami Sivananda
That Light of all lights is said to be beyond darkness: knowledge, the knowable, and the goal of knowledge, seated in the hearts of all.
Shri Purohit Swami
It is the light of lights, beyond the reach of darkness; the wisdom, the only thing worth knowing or that wisdom can teach; the presence in the hearts of all.
Swami Ramsukhdas
।।13.18।।वह परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंका भी ज्योति और अज्ञानसे अत्यन्त परे कहा गया है। वह ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञान(साधन-समुदाय) से प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदयमें विराजमान है।
Swami Tejomayananda
।।13.18।। (वह ब्रह्म) ज्योतियों की भी ज्योति और (अज्ञान) अन्धकार से परे कहा जाता है। वह ज्ञान (चैतन्यस्वरूप) ज्ञेय और ज्ञान के द्वारा जानने योग्य (ज्ञानगम्य) है। वह सभी के हृदय में स्थित है।।
Swami Adidevananda
The light of all lights is said to be beyond Tamas (darkness); it is known to be knowledge, to be attained through knowledge, and to be present in the hearts of all.
Swami Gambirananda
That is the Light of all lights; It is spoken of as beyond darkness. It is Knowledge, the Knowable, and the Known. It is specially situated in the hearts of all.
Dr. S. Sankaranarayan
This is the Light of all lights, stated to be beyond darkness; it is to be known by the above knowledge; it is to be attained only through knowledge; and it distinctly remains in the heart of all.
Verse commentaries
Swami Chinmayananda
।।13.18।। ब्रह्म ही वह एक चैतन्यस्वरूप प्रकाश है? जिसके द्वारा सभी बौद्धिक ज्ञान अन्तर्प्रज्ञा और अनुभव प्रकाशित होते हैं। उसके कारण ही हमें अपने विविध ज्ञानों तथा अनुभवों का बोध या भान होता है? इसलिए उसकी तुलना प्रकाश या ज्योति से की जाती है। केवल हमारे नेत्र के समक्ष होने से ही बाह्य वस्तुओं का हमें दर्शन नहीं हो सकता वरन् किसी बाह्य प्रकाश से उनका प्रकाशित होना भी आवश्यक होता है। इस लौकिक अनुभव को दृष्टान्त स्वरूप मानें? तो यह भी स्वीकार करना होगा कि हमारी आन्तरिक भावनाओं और विचारों को भी प्रकाशित करने वाला कोई अन्तर्प्रकाश होना चाहिए? अन्यथा इन वृत्तियों का हमें बोध ही नहीं हो सकता था। अन्तकरण की वृत्तिय्ाों के इस प्रकाशक को ही स्वयं प्रकाश आत्मा? या आत्मज्योति कहा जाता है। इस चैतन्य को प्रकाश या ज्योति कहना आध्यात्मिक शास्त्र की परम्परा है।वेदान्त अध्ययन के प्रारम्भिक काल में? शास्त्रीय भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण? जिज्ञासु साधकगण प्रकाश शब्द से लौकिक प्रकाश ही समझते हैं। परन्तु यह धारणा यथार्थ नहीं है? क्योंकि लौकिक प्रकाश तो दृश्यवर्ग में आता है? जबकि आत्मा तो सर्वद्रष्टा है। अत? दृश्यप्रकाश आत्मा नहीं हो सकता और न आत्मा इस प्रकाश के समान हो सकता है। इसलिए? यह आवश्यक हो जाता है कि गुरु? इस आत्मप्रकाश या आत्मज्योति जैसे शब्दों का वास्तविक तात्पर्य स्पष्ट करें।ज्योतियों की ज्योति द्रष्टा को लक्षित करने के लिए सर्वप्रथम सम्पूर्ण दृश्यवर्ग का निषेध करना होगा? अर्थात् वे आत्मा नहीं हैं? यह सिद्ध करना होगा। प्रकाश के जो स्रोत सूर्य? चन्द्रमा? तारागण? विद्युत् और अग्नि हमें ज्ञात हैं? उनमें किसी में भी आत्मा को प्रकाशित करने की सार्मथ्य नहीं है। उसके समक्ष ये सब निष्प्रभ हो जाते हैं। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण उस आत्मा को ज्योतियों की ज्योति कहते हैं? जो सभी लौकिक दृश्य ज्योतियों को भी प्रकाशित करती है स्वयं प्रकाश कहे जाने वाले इस सूर्य का हमें भान तक नहीं होता? यदि चैतन्यतत्त्व इसे प्रकाशित न कर रहा होता। संसार के सुख और दुख से हम केवल तभी प्रभावित होते हैं जब हमें उनका भान होता है। और यह भान केवल चैतन्य के प्रकाश से ही सम्भव है। इसलिए? चैतन्य को सम्पूर्ण दृश्य वर्ग का प्रकाशक कहा गया है।वह अन्धकार के परे है इतना अधिक स्पष्ट करने पर भी? लौकिक प्रकाश के ज्ञान का संस्कार शिष्य की बुद्धि में अत्यन्त दृढ़ होने के कारण वह फिर उसे प्रकाश की सापेक्ष धारणा के रूप में ही ग्रहण करता है। हम बाह्य प्रकाश को अन्धकार के विरोधी के रूप में ही जानते और समझते हैं। सूर्य के लिए प्रकाश शब्द का कोई अर्थ नहीं है? क्योंकि सूर्य को अन्धकार ज्ञात ही नहीं है अत? आत्मा के पारमार्थिक चैतन्यस्वरूप को दर्शाने के लिए यहाँ कहा गया है कि वह अन्धकार की कल्पना के भी परे है।यह चैतन्य का प्रकाश ऐसा सूक्ष्म है कि वह प्रकाश और अन्धकार दोनों को ही प्रकाशित करता है। उसका किसी से कोई विरोध नहीं है। भगवान् के इस कथन का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आत्मा वह प्रकाश है? जो हमारे अन्तकरण की ज्ञान (प्रकाश) और अज्ञान (अन्धकार) इन दोनों ही वृत्तियों का प्रकाशक है परन्तु वह स्वयं इन दोनों से ही असंस्पृष्ट रहता है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में तीन शब्दों ज्ञान? ज्ञेय और ज्ञानगम्य के द्वारा इस आत्मा या ब्रह्म का ही निर्देश किया गया है। वह ब्रह्म ज्ञान अर्थात् चैतन्यस्वरूप है ब्रह्म ही जानने योग्य ज्ञेय वस्तु है? क्योंकि उसके ज्ञान से ही संसार निवृत्ति हो सकती है। यह ब्रह्म ज्ञानगम्य है अर्थात् अमानित्वादि गुणों से सम्पन्न शुद्ध अन्तकरण के द्वारा अनुभव गम्य है।वह सबके हृदय में स्थित है यदि कोई ऐसा अनन्तस्वरूप चैतन्य तत्त्व है? जो सर्वाभासक है और जिसके बिना जीवन का कोई अस्तित्व ही नहीं है? तो निश्चित ही वह जानने योग्य है। उसे प्राप्त करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो सकता है। उसका अन्वेषण कहाँ करें कौनसी तीर्थयात्रा पर हमें जाना होगा क्या हम ऐसी साहसिक यात्रा के सक्षम हैं सामान्यत? लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं? जिससे यह ज्ञात होता है कि वे आत्मा को अपने से भिन्न कोई वस्तु समझते हैं? जिसकी प्राप्ति किसी देशान्तर या कालान्तर में होने की उनकी धारणा होती है। ऐसी समस्त विपरीत धारणाओं की निवृत्ति के लिए यहाँ स्पष्ट और साहसिक घोषणा की गयी है कि वह अनन्त परमात्मा सबके हृदय में ही स्थित है।दार्शनिक दृष्टि से? हृदय शब्द का अर्थ शुद्ध मन से होता है? जो समस्त आदर्श और पवित्र भावनाओं का उदय स्थान माना जाता है। आन्तरिक शुद्धि के इस वातावरण में? जब बुद्धि उस पारमार्थिक आत्मतत्त्व का ध्यान करती है? जो सर्वातीत होते हुए सर्वव्यापक भी है? तब वह स्वयं ही आत्मस्वरूप बन जाती है। यही आत्मानुभूति है। इसीलिए? हृदय को आत्मा का निवास स्थान माना गया है। स्वहृदय में स्थित आत्मा का अनुभव ही अनन्त ब्रह्म का अनुभव है? क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म है।इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
Sri Purushottamji
।।13.18।।किञ्च -- ज्योतिषामिति। ज्योतिषां रविचन्द्रादीनामन्यप्रकाशमानानामपि तदेव ज्योतिः प्रकाशकमित्यर्थः।अत्रायं भावः -- न तत्र सूर्यो भाति [कठो.5।15श्वे.उ.6।14मुण्ड.2।2।10] इत्यादिश्रुत्या तत्रैतेषामभानमुक्तं? तथाच तत्प्रकटनवैयर्थ्यं स्यात्तदर्थं तत्प्रकाशनेन तत्र शोभादिकारकमित्यर्थः। अन्यथाऽन्यत्र सर्वप्रकाशकत्वमपि न भवेत् [इति]। तर्हि मुख्यतमोरूपं सर्वप्रकाश्यत्वेन भविष्यतीत्यत आह -- तमसः परमिति। तमसः मुख्यतमसोऽपि परम् उपरि उत्कृष्टं वा उच्यते श्रूयते इत्यर्थः। अतएव श्रुतिरपि -- तमसा गूढमग्रे प्रकेतम् [ऋक्सं.8।7।17।3] इत्याह। ननु स्वप्रकाश्यत्वे स्वस्यैव नानास्वरूपात्मके सर्वेषां कथं न तज्ज्ञानं इत्यत आह -- ज्ञानमिति। ज्ञानबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्त्यात्मकं च तदेव। तेन यत्र ज्ञापनेच्छा तत्रैव तद्रूपेणाविर्भवतीत्यर्थः। तथैव ज्ञेयं ज्ञेयरूपेणाविर्भूतमित्यर्थः। तथापि पुरुषोत्तमगृहात्मकमेवेत्याह -- ज्ञानगम्यमिति। ज्ञाने ज्ञानेन पूर्वोक्तरूपेण गम्यं प्राप्यं तेनाऽक्षरात्मकत्वं ज्ञापितम्। ननु पूर्वं ज्ञानरूपत्वेन सर्वागम्यत्वमुक्तं तत्कथं ज्ञानगम्यं इत्याह -- हृदीति। सर्वस्य प्राणिमात्रस्य हृदि धिष्ठितम्? अधिष्ठितमित्यर्थः। सर्वप्रेरकत्वेन स्थितं तेन यत्र तथेच्छा तत्र ज्ञानरूपेणाविर्भवति? यत्र न ज्ञापनेच्छा तत्राऽऽच्छादकत्वेन भवतीति भावः।
Swami Ramsukhdas
।।13.18।। व्याख्या -- ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः -- ज्योति नाम प्रकाश(ज्ञान) का है अर्थात् जिनसे प्रकाश मिलता है? ज्ञान होता है? वे सभी ज्योति हैं। भौतिक पदार्थ सूर्य? चन्द्र? नक्षत्र? तारा? अग्नि? विद्युत् आदिके प्रकाशमें दीखते हैं अतः भौतिक पदार्थोंकी ज्योति (प्रकाशक) सूर्य? चन्द्र आदि हैं।वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दोंका ज्ञान कानसे होता है अतः शब्दकी ज्योति (प्रकाशक) कान है। शीतउष्ण? कोमलकठोर आदिके स्पर्शका ज्ञान त्वचासे होता है अतः स्पर्शकी ज्योति (प्रकाशक) त्वचा है। श्वेत? नील? पीत आदि रूपोंका ज्ञान नेत्रसे होता है अतः रूपकी ज्योति (प्रकाशक) नेत्र है। खट्टा? मीठा? नमकीन आदि रसोंका ज्ञान जिह्वासे होता है अतः रसकी ज्योति (प्रकाशक) जिह्वा है। सुगन्धदुर्गन्धका ज्ञान नाकसे होता है अतः गन्धकी ज्योति (प्रकाशक) नाक है। इन पाँचों इन्द्रियोंसे शब्दादि पाँचों विषयोंका ज्ञान तभी होता है? जब उन इन्द्रियोंके साथ मन रहता है। अगर उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषयका ज्ञान नहीं होता। अतः इन्द्रियोंकी ज्योति (प्रकाशक) मन है। मनसे विषयोंका ज्ञान होनेपर भी जबतक बुद्धि उसमें नहीं लगती? बुद्धि मनके साथ नहीं रहती? तबतक उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धिके साथ रहनेसे ही उस विषयका स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अतः मनकी ज्योति (प्रकाशक) बुद्धि है। बुद्धिसे कर्तव्यअकर्तव्य? सत्असत्? नित्यअनित्यका ज्ञान होनेपर भी अगर स्वयं (कर्ता) उसको धारण नहीं करता? तो वह बौद्धिक ज्ञान ही रह जाता है वह ज्ञान जीवनमें? आचरणमें नहीं आता। वह बात स्वयंमें नहीं बैठती। जो बात स्वयंमें बैठ जाती है? वह फिर कभी नहीं जाती। अतः बुद्धिकी ज्योति (प्रकाशक) स्वयं है। स्वयं भी परमात्माका अंश है और परमात्मा अंशी है। स्वयंमें ज्ञान? प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अतः स्वयंकी ज्योति (प्रकाशक) परमात्मा है। उस स्वयंप्रकाश परमात्माको कोई भी प्रकाशित नहीं कर सकता।तात्पर्य यह हुआ कि परमात्माका प्रकाश (ज्ञान) स्वयंमें आता है। स्वयंका प्रकाश बुद्धिमें? बुद्धिका प्रकाश मनमें? मनका प्रकाश इन्द्रियोंमें और इन्द्रियोंका प्रकाश विषयोंमें आता है। मूलमें इन सबमें प्रकाश परमात्मासे ही आता है। अतः इन सब ज्योतियोंका ज्योति? प्रकाशकोंका प्रकाशक परमात्मा ही है (टिप्पणी प0 692)। जैसे एकएकके पीछे बैठे हुए परीक्षार्थी अपनेसे आगे बैठे हुएको तो देख सकते हैं? पर अपनेसे पीछे बैठे हुएको नहीं? ऐसे ही अहम्? बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ आदि भी अपनेसे आगेवालेको तो देख (जान) सकते हैं? पर अपनेसे पीछेवालेको नहीं। जैसे सबसे पीछे बैठा हुआ परीक्षार्थी अपने आगे बैठे हुए समस्त परीक्षार्थियोंको देख सकता है? ऐसे ही परमप्रकाशक परमात्मा अहम्? बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ आदि सबको देखता है? प्रकाशित करता है? पर उसको कोई प्रकाशित नहीं कर सकता। वह परमात्मा सम्पूर्ण चरअचर जगत्का समानरूपसे निरपेक्ष प्रकाशक है -- यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचम् (श्रीमद्भा0 10। 13। 55)। वहाँ प्रकाशक? प्रकाश और प्रकाश्य -- यह त्रिपुटी नहीं है।तमसः परमुच्यते -- वह परमात्मा अज्ञानसे अत्यन्त परे अर्थात् सर्वथा असम्बद्ध और निर्लिप्त है। इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि और अहम् -- इनमें तो ज्ञान और अज्ञान दोनों आतेजाते हैं परन्तु जो सबका परम प्रकाशक है? उस परमात्मामें अज्ञान कभी आता ही नहीं? आ सकता ही नहीं और आना सम्भव ही नहीं। जैसे सूर्यमें अँधेरा कभी आता ही नहीं? ऐसे ही उस परमात्मामें अज्ञान कभी आता ही नहीं। अतः उस परमात्माको अज्ञानसे अत्यन्त परे कहा गया है।ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यम् -- उस परमात्मामें कभी अज्ञान नहीं आता। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और उसीसे सबको प्रकाश मिलता है। अतः उस परमात्माको ज्ञान अर्थात् ज्ञानस्वरूप कहा गया है।इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदिके द्वारा भी (जाननेमें आनेवाले) विषयोंका ज्ञान होता है? पर वे अवश्य जाननेयोग्य नहीं हैं क्योंकि उनको जान लेनेपर भी जानना बाकी रह जाता है? जानना पूरा नहीं होता। वास्तवमें अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मा ही है -- अवसि देखिअहिं देखन जोगू।। ( मानस 1। 229। 3)। उस परमात्माको जान लेनेके बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहता। पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने अपने लिये कहा है कि सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य मैं ही हूँ (15। 15) जो मुझे जान लेता है? वह सर्ववित् हो जाता है (15। 19)। अतः परमात्माको ज्ञेय कहा गया है।इसी अध्यायके सातवेंसे ग्यारहवें श्लोकतक जिन अमानित्वम् आदि साधनोंका ज्ञानके नामसे वर्णन किया गया है? उस ज्ञानके द्वारा असत्का त्याग होनेपर परमात्माको तत्त्वसे जाना जा सकता है। अतः उस परमात्माको ज्ञानगम्य कहा गया है।हृदि सर्वस्य विष्ठितम् -- वह परमात्मा सबके हृदयमें नित्यनिरन्तर विराजमान है। तात्पर्य है कि यद्यपि वह परमात्मा सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? अवस्था आदिमें परिपूर्णरूपसे व्यापक है? तथापि उसका प्राप्तिस्थान तो हृदय ही है।उस परमात्माका अपने हृदयमें अनुभव करनेका उपाय है -- (1) मनुष्य हरेक विषयको जानता है तो उस जानकारीमें सत् और असत् -- ये दोनों रहते हैं। इन दोनोंका विभाग करनेके लिये साधक यह अनुभव करे कि मेरी जो जाग्रत्? स्वप्न? सुषुप्ति और बालकपन? जवानी? बुढ़ापा आदि अवस्थाएँ तो भिन्नभिन्न हुईं? पर मैं एक रहा। सुखदायीदुःखदायी? अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं और चली गयीं? पर उनमें मैं एक ही रहा। देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदिका संयोगवियोग हुआ? पर उनमें भी मैं एक ही रहा। तात्पर्य यह हुआ कि अवस्थाएँ? परिस्थितियाँ? संयोगवियोग तो भिन्नभिन्न (तरहतरहके) हुए? पर उन सबमें जो एक ही रहा है? भिन्नभिन्न नहीं हुआ है? उसका (उन सबसे अलग करके) अनुभव करे। ऐसा करनेसे जो सबके हृदयमें विराजमान है? उसका अनुभव हो जायगा क्योंकि यह स्वयं परमात्मासे अभिन्न है।(2) जैसे अत्यन्त भूखा अन्नके बिना और अत्यन्त प्यासा जलके बिना रह नहीं सकता? ऐसे ही उस परमात्माके बिना रह नहीं सके? बेचैन हो जाय। उसके बिना न भूख लगे? न प्यास लगे और न नींद आये। उस परमात्माके सिवाय और कहीं वृत्ति जाय ही नहीं। इस तरह परमात्माको पानेके लिये व्याकुल हो जाय तो अपने हृदयमें उस परमात्माका अनुभव हो जायगा।इस प्रकार एक बार हृदयमें परमात्माका अनुभव हो जानेपर साधकको सब जगह परमात्मा ही हैं -- ऐसा अनुभव हो जाता है। यही वास्तविक अनुभव है। सम्बन्ध -- पहले श्लोकसे सत्रहवें श्लोकतक क्षेत्र? ज्ञान और ज्ञेयका जो वर्णन हुआ है? अब आगेके श्लोकमें फलसहित उसका उपसंहार करते हैं।
Sri Anandgiri
।।13.18।।त्वमर्थशुद्ध्यर्थं सविकारं क्षेत्रं पदवाक्यार्थविवेकसाधनं चामानित्वादि तत्पदार्थं च शुद्धं तद्भावोक्त्यर्थमुक्त्वा तेषां फलमुपसंहरति -- यथोक्तेति। पूर्वार्धं विभजते -- इत्येवमिति। वक्तव्यान्तरे सति किमिति त्रितयमेव संक्षिप्योपसंहृतं तत्राह -- एतावानिति। उत्तरार्धमाकाङ्क्षाद्वारावतारयति -- अस्मिन्निति। ईश्वरे समर्पितसर्वात्मभावमेवाभिनयति -- यत्पश्यतीति। विज्ञाय लब्ध्वेत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।13.18।।सर्वत्र विद्यमानं सन्नोपलभ्यते चेज्ज्ञेयं तर्हि तम इति भ्रमनिवृत्त्यर्थमाह -- ज्योतिषमिति। ज्योतिषामादित्यादीनां बुद्य्धादीनामपि तज्ज्ञेयं ज्योतिस्तेषामात्मचैतन्यज्योतिरिद्धदीप्तिमत्त्वात्।येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः?न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्दि मामकम् इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः ज्ञेयस्य ज्योतिःस्वरुपत्वेऽपि,तमःस्पष्टत्वभ्रमं वारयति। तमसो ज्ञानात्परमसंस्पृष्टमुच्यते।अदित्यवर्ण तसमः परस्तात् इत्यादिश्रुतिभिः कथ्यत इत्यर्थः। किंच ज्ञाततेऽनेनेति ज्ञानममानित्वादि। ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामीत्यादिनोक्तं ज्ञेयमेव सत् ज्ञातं ज्ञानफलमिति ज्ञानगम्यमुच्यते। ज्ञायमानं तु ज्ञेयम्। अतो ज्ञेयपदेन ज्ञानगम्यत्वान्न पौररुक्त्यम्। ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यमित्येतन्त्र्यं सर्वस्य प्राणिजातस्य हृदि बुद्धौ विष्ठितं विशेषेण स्थितं। धिष्ठितमिति पाठस्त्वाचार्यैरनादृतत्वादपपाठः। दुःसंपादनबुद्य्धा प्राप्तावसादस्य ज्ञानादेः पकटीकरणार्तं ज्ञानादेः दुःसंपादनबुद्य्धा प्राप्तावसादस्यार्जुनस्याश्वसनार्थे वा ज्ञेयप्रवचनोत्तरं भगवतेदमुक्तं हृदि विष्ठितमिति। बुद्धावेव तेषामनुभूयमानत्वात्। ननु तदेव वृत्तावभिव्यक्तं संविद्रूपं ज्ञानं रुपाद्याकारेण ज्ञेयं सर्वस्य प्राणिजातस्य हृदि बुद्धौ विष्ठितं सर्वत्र सामान्येन स्थितमपि विशेषरुपेण तत्र स्थितमभिव्यक्तजीवरुपेणान्तर्यामिरुपेण चेत्याचार्यैः कुतो न व्याख्यामिति चेत्सुगमत्स्वोक्तार्थे स्वरसाधिक्यादुक्तार्थस्य बहिरन्तश्च भूतानामित्यादावन्तर्भावाच्चेति गृहाण। अन्तर्भावप्रकारश्च बहिर्भुतेभ्यो बाह्यं रुपाद्याकारमन्तर्भूतानां हृदि अभिव्यक्तजीवरुपेणान्तर्यामिरुपेण च स्थितं ज्योतिषामपि तज्जयोतिर्वृत्त्याभिव्यक्तसंविदादिरुपेण बुद्य्धादीनां प्रकाशकमित्येवंरित्या बोध्यः।
Sri Neelkanth
।।13.18।।एवं ज्ञेयस्य तटस्थलक्षणमुक्त्वा स्वरूपलक्षणमाह -- ज्योतिषामिति। ज्योतिषां बाह्यानामादित्यादीनामान्तराणां च बुद्ध्यादीनामितरावभासकानामपि तज्ज्ञेयं ब्रह्म ज्योतिरवभासकं। चैतन्यज्योतिषो जडज्योतिरवभासकत्वोपपत्तेः। तथा च श्रुतयःयेन सूर्यस्तपति तेजसेद्धःतस्य भासा सर्वमिदं विभाति इत्याद्याः। वक्ष्यति चयदादित्यगतं तेजः इत्यादि। तमसोऽज्ञानात् भूतग्रासप्रसवहेतोः परं दूरस्थं तदुच्यते। ननु यथा चान्द्रस्य ज्योतिषोऽवभासकं तत्सजातीयं सौरं ज्योतिरिति ज्योतिःशास्त्रे प्रसिद्धम्। एवं सौरादिज्योतिषामप्यवभासकं किंचित्तत्सजातीयं ज्योतिरलौकिकं स्यादित्याशङ्क्याह -- ज्ञानमिति। केवलज्ञप्तिमात्रशरीरं यज्ज्योतिर्नतु भौतिकं तदेव ज्ञेयं वस्तु आवृतत्वाज्ज्ञानेन प्राप्तुमिष्टतमम्। कुतस्तर्हि तज्ज्ञानमत आह -- ज्ञानगम्यमिति। यतस्तज्ज्ञानेनामानित्वादिना ज्ञानसाधनेन गम्यं प्राप्यम्। किं तर्हि ग्रामान्तरवद्देशव्यवहितं वा बाल्ययौवनाद्यवस्थान्तरवत्कालव्यवहितं वा तत्प्राप्यमस्तीत्यत आह -- हृदि सर्वस्य विष्ठितमिति। स्वात्मभूतमेव तदन्तर्दृष्टीनां सम्यक्प्रकाशत इत्यर्थः।
Sri Ramanujacharya
।।13.18।।एवंमहाभूतान्यहंकारः (गीता 13।5) इत्यादिनासंघातश्चेतनाधृतिः (गीता 13।6) इत्यन्तेन क्षेत्रतत्त्वं समासेन उक्तम्।अमानित्वम् (गीता 13।7) इत्यादिनातत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (गीता 13।11) इत्यन्तेन ज्ञातव्यस्य आत्मतत्त्वस्य ज्ञानसाधनम् उक्तम्।अनादिमत्परम् (गीता 13।12) इत्यादिनाहृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता 13।17) इत्यन्तेन ज्ञेयस्य क्षेत्रज्ञस्य याथात्म्यं च संक्षेपेण उक्तम्। मद्भक्त एतत् क्षेत्रयाथात्म्यं क्षेत्राद् विविक्तात्मस्वरूपप्राप्त्युपाययाथात्म्यं क्षेत्रज्ञयाथात्म्यं च विज्ञाय मद्भावाय उपपद्यते।मम यो भावः स्वमावः असंसारित्वम्? असंसारित्वप्राप्तये उपपन्नो भवति इत्यर्थः।अथ अत्यन्तविविक्तस्वभावयोः प्रकृत्यात्मनोः संसर्गस्य अनादित्वं संसृष्टयोः द्वयोः कार्यभेदः संसर्गहेतुः च उच्यते --
Sri Sridhara Swami
।।13.18।। किंच -- ज्योतिषामिति। ज्योतिषां चन्द्रादित्यादीनामपि तज्ज्योतिः प्रकाशकं ततोयेन सूर्यस्तपति तेजसेद्धःन तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इत्यादिश्रुतेः। अतएव तमसोऽज्ञानात्परं तेनासंस्पृष्टमुच्यते।आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् इत्यादिश्रुतेः। ज्ञानं च तदेव बुद्धिवृत्तावभिव्यक्तं? तदेव रूपाद्याकारेण ज्ञेयं च ज्ञानेन गम्यं चअमानित्वमदम्भित्वम् इत्यादिलक्षणेन पूर्वोक्तेन ज्ञानसाधनेन प्राप्यमित्यर्थः। ज्ञानगम्यं विशिनष्टि। सर्वस्य प्राणिमात्रस्य हृदि विष्ठितं विशेषेणाप्रच्युतस्वरूपेण नियन्तृतया स्थितम्। धिष्ठितमिति पाठेऽधिष्ठाय स्थितमित्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।13.18।।ननु स्वरूपमात्रप्रकाशरूपस्य आत्मस्वरूपस्य कथं मण्यादिप्रकाशकत्वं इत्यत्राह -- दीपादित्यादीनामपीति। दीपादित्यादीनां यथा विषयसम्बन्धिप्रभाद्वारा प्रकाशकत्वं? न स्वरूपतः तद्वदत्रापि प्रभास्थानीयेन ज्ञानाख्यधर्मेण प्रकाशकत्वमिति भावः। अन्यप्रकाशकानामपीति अपिशब्दार्थः। प्रकाश्यभूतघटादिवत्तत्प्रकाशकज्ञानाश्रयभूते प्रत्यगात्मनीति भावः। विषयेन्द्रियसन्निकर्षशब्देनात्र सामग्री मध्यपातिसन्निकर्षोऽभिप्रेतः तन्मूलप्रकाशो वा लक्षितः? सन्तमसस्य कुड्यादिवदिन्द्रियसन्निकर्षविरोधित्वाभावात् अन्यथा सन्तमसवर्तिनः पुरुषस्य सन्तमसान्तरितप्रकाशमध्यवर्तिनां पदार्थानां कुड्यान्तरितपदार्थवदप्रकाशप्रसङ्गात्। एतेन दीपादेश्चाक्षुषपदार्थमात्रप्रतिनियततया ज्ञानवन्न सर्वव्यापकं प्रकाशकत्वमिति सूचितम्।तावन्मात्रेण? न तु साक्षात्प्रकाशजनकत्वेनापीत्यर्थः।ज्योतिस्सन्निकर्षात् प्रसिद्धिप्राचुर्याच्चात्र तमश्शब्दस्य तिमिरविषयत्वधीव्युदासायाह -- तमश्शब्द इति। ज्योतिषामपि प्रकाशकतया कैमुत्यसिद्धस्य तिमिरात्परत्वस्याभिधाने प्रयोजनाभावात्प्रकृतेः परत्वस्य चावश्यवक्तव्यत्वात्तमश्शब्दस्थ चयस्य तमश्शरीरं [बृ.उ.3।7।13] तम आसीत्तमसा गूढमग्रे प्रकेतं [ऋक्सं.8।7।17।3] यदा तमस्तत् [श्वे.उ.4।18] तमः परे देव एकीभवति [सुबालो.2]आसीदिदं तमोभूतं [मनुः1।5] इत्यादिषु मूलप्रकृतिविषयतया श्रौतस्मार्तप्रयोगप्राचुर्याच्चेति भावः। परं अन्यदित्यर्थः। भोक्तृतया प्रधानभूतमिति वा। प्रागपि हि ते परावरतया प्रकृती विभक्ते।उच्यत इतिनिर्गुणः प्रकृतेः परः इत्यादिष्विति शेषः। एतेन जडवैलक्षण्यं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- अत इति। पूर्ववद्वैधर्म्यानुसन्धानशक्यतायां ज्ञेयशब्दस्य तात्पर्यम् अन्यथा पौनरुक्त्यादित्यभिप्रायेणाहज्ञानैकाकारमिति ज्ञेयमिति।ज्ञानगम्यम् इत्यत्र सर्वसाधारणज्ञानविषयत्वमात्राभिधाने प्रयोजनाभावात्ज्ञेयम् इत्यनेन पौनरुक्त्याद्गम्यशब्दस्य प्राप्यपर्यायत्वप्रसिद्धेश्च प्रकृतिसङ्गतं विवक्षितमाहअमानित्वादिभिरिति।एतज्ज्ञानम् [13।12] इतिवदत्रापि करणव्युत्पत्तिं व्यनक्तिज्ञानसाधनैरुक्तैरिति।मनुष्यादेरिति। पिण्डस्येति शेषः। भोक्तृत्वादिरूपेणावस्थानं विशेषेणावस्थानम्। यद्वा हृदि स्वरूपेणावस्थानम् अवयवान्तरेषु तु स्वधर्मभूतज्ञानेनेति विशेषः। स्थितिशब्दस्यात्र मुख्यार्थायोगात् सन्निधिमात्रपरत्वमुक्तम्सर्वस्य गृहेऽप्ययमेव व्रीहिः इतिवज्जात्यैक्यविवक्षया सर्वस्य हृदि स्थितिनिर्देशः।
Sri Abhinavgupta
।।13.13 -- 13.18।।एतेन ज्ञानेन यत् ज्ञेयं तदुच्यते -- ज्ञेयमित्यादि विष्ठितमित्यन्तम्। अनादिमत् परं ब्रह्म इत्यादिभिर्विशेषणैः ब्रह्मस्वरूपाक्षेपानुग्राहकं,(S -- स्वरूपापेक्षानु -- ) सर्वप्रवादाभिहितविज्ञानापृथग्भावं कथयति (S??N सर्वप्रवादान्तराभिहितपृथग्भावकमुच्यते)। एतानि च विशेषणानि पूर्वमेव व्याख्यातानि इति किं निष्फलया,पुनरुक्त्या।
Sri Madhusudan Saraswati
।।13.18।।ननु सर्वत्र विद्यमानमपि तन्नोपलभ्यते चेत्तर्हि जडमेव स्यात् न स्यात्स्वयंज्योतिषोऽपि तस्य रूपादिहीनत्वेनेन्द्रियाद्यग्राह्यत्वोपपत्तेरित्याह -- ज्योतिषामपीति। तत् ज्ञेयं ब्रह्म ज्योतिषामवभासकानामादित्यादीनां बुद्ध्यादीनां च बाह्यानामान्तराणामपि ज्योतिरवभासकं चैतन्यज्योतिषो जडज्योतिरवभासकत्वोपपत्तेः।येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः।तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इत्यादि श्रुतिभ्यश्च। वक्ष्यति च यदादित्यगतं तेज इत्यादि। स्वयं जडत्वाभावेऽपि जडसंसृष्टं स्यादिति नेत्याह -- तमस इति। तमसो जडवर्गात्परं अविद्यातत्कार्याभ्यामपारमार्थिकाभ्यामसंस्पृष्टं पारमार्थिकं तद् ब्रह्म सदसतोः संबन्धायोगात्। उच्यतेअक्षरात्परतः परः इत्यादिश्रुतिभिर्ब्रह्मवादिभिश्च। तदुक्तंनिःसङ्गस्य ससङ्गेन कूटस्थस्य विकारिणा। आत्मनोऽनात्मना योगो वास्तवो नोपपद्यतेआदित्यवर्णं तमसः परस्तात् इत्यादिश्रुतेश्च। आदित्यवर्णमिति स्वभाने प्रकाशान्तरानपेक्षम्। सर्वस्य प्रकाशकमित्यर्थः। यस्मात्तत्स्वयंज्योतिर्जडासंस्पृष्टं अतएव तज्ज्ञानं प्रमाणजन्यचेतोवृत्त्यभिव्यक्तसंविद्रूपं अतएव तदेव ज्ञेयं ज्ञातुमर्हमज्ञातत्वाज्जडस्याज्ञातत्वाभावेन ज्ञातुमनर्हत्वात्। कथं तर्हि सर्वैर्न ज्ञायते तत्राह -- ज्ञानेति। ज्ञानगम्यं पूर्वोक्तेनामानित्वादिना तत्त्वज्ञानार्थदर्शनान्तेन साधनकलापेन ज्ञानहेतुतया ज्ञानशब्दितेन गम्यं प्राप्यं नतु तद्विनेत्यर्थः। ननु साधनेन गम्यं चेत्तत्किं देशान्तरव्यवहितं नेत्याह -- हृदीति। हृदि सर्वस्य धिष्ठितं सर्वस्य प्राणिजातस्य हृदि बुद्धौ धिष्ठितं सर्वत्र सामान्येन स्थितमपि विशेषरूपेण तत्र स्थितमभिव्यक्ते जीवरूपेणान्तर्यामिरूपेण च सौरं तेज इवादर्शसूर्यकान्तादौ अव्यवहितमेव वस्तुतो भ्रान्त्या व्यवहितमिव सर्वभ्रमकारणाज्ञाननिवृत्त्या प्राप्यत इवेत्यर्थः।
Sri Shankaracharya
(13.18।। -- ज्योतिषाम् आदित्यादीनामपि तत् ज्ञेयं ज्योतिः। आत्मचैतन्यज्योतिषा इद्धानि हि आदित्यादीनि ज्योतींषि दीप्यन्ते? येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (श्वे0 उ0 6।14) इत्यादिश्रुतिभ्यः स्मृतेश्च इहैव -- यदादित्यगतं तेजः इत्यादेः। तमसः अज्ञानात् परम् अस्पृष्टम् उच्यते। ज्ञानादेः दुःसंपादनबुद्ध्या प्राप्तावसादस्य उत्तम्भनार्थमाह -- ज्ञानम् अमानित्वादि ज्ञेयम् ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि (गीता 13।12) इत्यादिना उक्तम् ज्ञानगम्यम् ज्ञेयमेव ज्ञातं सत् ज्ञानफलमिति ज्ञानगम्यमुच्यते ज्ञायमानं तु ज्ञेयम्। तत् एतत् त्रयमपि हृदि बुद्धौ सर्वस्य प्राणिजातस्य विष्ठितं विशेषेण स्थिम्। तत्रैव हि त्रयं विभाव्यते।।यथोक्तार्थोपसंहारार्थः अयं श्लोकः आरभ्यते --,
Sri Vallabhacharya
।।13.18।।ज्योतिषामिति। प्रकाशकानां चेतनानां च तन्मूलं ज्योतिरध्यात्मरूपं प्रकाशकं। अतएवोक्तं -- चैत्त्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे [भाग.3।38।28] इति। तमसः प्रकृतेः परं तम आसीत्तमसा गूह्ळमग्रे प्रकेतं [ऋक्सं.8।7।17।3] इति श्रुतावप्युच्यते। अन्तर्यामिपदं च तदित्याह -- हृदि सर्वस्य धिष्ठितमिति स्पष्टम्। ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं चैतन्यं ज्ञानसाधनं अमानित्वादिरूपं वा। तत्तु ज्ञेयं च तज्ज्ञानगम्य हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्।
Swami Sivananda
13.18 ज्योतिषाम् of lights? अपि even? तत् That? ज्योतिः Light? तमसः from darkness? परम् beyond? उच्यते is said (to be)? ज्ञानम् knowledge? ज्ञेयम् that which is to be known? ज्ञानगम्यम् attainable by knowledge? हृदि in the heart? सर्वस्य of all? विष्ठितम् seated.Commentary The Supreme Self illumines the intellect? the mind? the sun? moon? stars? fire and lightning. It is selfluminous? The sun does not shine there? nor do the moon and the stars? nor do these lightnings shine and much less this fire. When It shines? everything shines after It all these shine by Its Light. (Kathopanishad 5.15 also Svetasvataropanishad 6.14)Knowledge Such as humility. (Cf.XIII.7to11)The knowable As described in verses 12 to 7.The goal of knowledge? i.e.? capable of being understood by wisdom.These three are installed in the heart (Buddhi) of every living being. Though the light of the sun shines in all objects? yet the suns light shines more brilliantly in all bright and clean objects such as a mirror. Even so? though Brahman is present in all objects? the intellect shines with special effulgence received from Brahman. (Cf.X.20XIII.3XVIII.61)