Chapter 13, Verse 9
Verse textइन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।।
Verse transliteration
indriyārtheṣhu vairāgyam anahankāra eva cha janma-mṛityu-jarā-vyādhi-duḥkha-doṣhānudarśhanam
Verse words
- indriya-artheṣhu—toward objects of the senses
- vairāgyam—dispassion
- anahankāraḥ—absence of egotism
- eva cha—and also
- janma—of birth
- mṛityu—death
- jarā—old age
- vyādhi—disease
- duḥkha—evils
- doṣha—faults
- anudarśhanam—perception
Verse translations
Swami Sivananda
Indifference to the objects of the senses and also absence of egoism; perceiving the evil in birth, death, old age, sickness, and pain.
Swami Ramsukhdas
।।13.9।।इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना।
Swami Tejomayananda
।।13.9।। इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन...৷৷.।।
Swami Adidevananda
Absence of desire for sense-objects, and also absence of egotism, the recognition of evil in birth, death, old age, disease, and sorrow;
Swami Gambirananda
Non-attachment to objects of the senses, and also the absence of egotism; seeing the evil in birth, death, aging, diseases, and miseries;
Dr. S. Sankaranarayan
Absence of desire for sense-objects, and also absence of egotism; pondering over the evils of birth, death, old age, sickness, and sorrow;
Shri Purohit Swami
Renouncing the delights of the senses, being without pride, having a right understanding of the painful problem of birth and death, and of age and sickness;
Verse commentaries
Sri Dhanpati
।।13.9।।किंचैहिकामुष्मिकेन्द्रियार्थेषु शब्दादिविषयेषु रागाभावो वैराग्यम्। अहं सर्वोत्तम इति मनसि प्रादुर्भूतो गर्वोऽहंकारस्तदभावोऽनहंकारः। गर्वस्योक्तानुक्तनाशकत्वादनहंकारस्यावश्यसंपाद्यत्वद्योतनार्थ अयोगव्ययवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। तेनामानित्वादीनां विंशतिसंख्याकानां समुच्चितो योग एव ज्ञानमिति प्रोक्तं नत्वेकस्याप्यभाव इत्यर्थ इति केचित्। आचार्यैस्तु सुगमत्वादव्ययार्थः सर्वत्र न प्रदर्श्यते। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुर्दशनं जन्मादिषु दुःखान्तेषु प्रत्येकं दोषानुदर्शनम्। यद्वा दुःखान्येव दोषो दुःखदोषस्तस्य जन्मादिषु दर्शनमालोजनं जन्मादयो दुःखनिमित्तत्वाद्दुःखं दुःखानि पुनः स्वरुपेणैव दुःखमित्येवं जन्मादिषु दुःखदोषानुदर्शनाद्देहेन्द्रियादिविषयाणां भोगेषु वैराग्यमुपजायते। ततश्चात्मदर्शनाय प्रत्यगात्मनि करणानां प्रवृत्तिर्भवतीत्येवं ज्ञानहेतुत्वाज्जन्मादिषु दुःखदषानुदर्शनं ज्ञानमुच्यते। तथाचोक्तं विष्णुपुराणे -- आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुधः। उत्पन्नज्ञानवैराग्यः प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्। आध्यात्मिको वै द्विविधः शारीरो मानसस्तथा। शारीरो बहुभिर्मेदैर्भिद्यते श्रयतां च सः। शिरोरोगप्रतिश्यायज्वरशूलभगन्दरैः। गुल्मार्शःश्वासश्वयथुच्छर्द्यादिभिरनेकधा। तथाक्षिरोगातीसारकुष्ठाङ्गमयसंज्ञिकैः। भिद्यते देहजस्तापो मानसं श्रोतुमर्हसि। इत्येवमादिकैर्भेदैस्तापो ह्यात्धात्मिकः स्मृतः। मृगपक्षिमनुष्याद्यैः पिशाचोरगराक्षसैः। सरीसृपाद्यैश्च नृणां जन्यते चाधिभोतिकः। शीतोष्णवातवर्षाम्बुविद्युदादिसमुद्भवः। तापो द्विजवरश्रेष्ठ कथ्यते चाधिदैविकः। गर्भजन्मजराज्ञानमृत्युनारकजं तथा। दुःखं सहस्त्रोशो भेदैर्भिद्यते मुनिसत्तम्। सुकुमारतुनुर्गर्भे जन्तुर्बहुमलावृते। उल्बसंवेष्टितो भग्नपृष्ठग्रीवास्थिसंहतिः। अत्यम्लकटुतीक्ष्णोष्णलवणैर्मार्तुभोजनैः। अतितापिभिरत्यर्थ वर्धमानातिवेदनः। प्रसारणाकुञ्चनादेर्नाङ्गानां प्रभुरात्मनः। शकृन्मूत्रमहापङ्कशायी सर्वत्र पीडितः। निरुच्छ्वासः सचैतन्यः स्मरञ्जन्मशतान्यथ। आस्ते गर्भेऽतिदुःखेन निजकर्मनिबनधनः। जायमानः पुरीषासृङ्यूत्रशुक्राविलाननः। प्राजापत्येन वातेन पीज्यमानावस्थिबन्धनः। अधोमुखो वै क्रियते प्रबलैः सूतिमारुतैः। क्लेशैर्निष्कान्तिमाप्नोति क्रकचैरिव दारितः। पूतिव्रणान्निःपतितो धरायां कृमिको यथा। जराजर्जरदेहश्च शिथिलावयवः पुमान्। विगलच्धीर्णदशनो वलीस्त्रायुशिरावृतः। दुरप्रनष्टनयनो व्योमान्तर्गततारकः। नासाविवरनिर्यातलोमपुञ्जश्र्चलद्वपुः। प्रकटीकृतस्थिर्नतपृष्टास्थिसंहतिः। उत्सन्नजढराग्नित्वाल्पाहारो विचेष्टितः। कृच्छ्रचंक्रमणोत्थानशयनासनचेष्टितः। मन्दीभवच्छ्रोत्रनेत्रः स्त्रवल्लालाविलाननः आपन्नैस्तः समस्थैश्च करणऐर्मरणोन्मुखः। तत्क्षणेऽप्यनुभूतानामस्तार्ताखिलवस्तुनाम्। सकृदुच्चरिते वाक्ये समुद्भूतमहाश्रमः। श्वासकासमहायामममुद्भूतप्रजागरः। अन्येनोत्थाप्यतेऽन्येन तथा संवेश्यते जरी। भृत्यात्मपुत्रदाराणामवमानास्पदीकृतः। संस्मरन्योवने दीर्घं निश्वसत्यतितापितः।,एवमादीनि दुःखानि जरायामनुभूय वै। मरणे यानि दुःखानि जरायामनुभूय वै। मरणै यानि दुःखानि प्राप्नोति श्रृणु तान्यपि। श्वथग्रीवाङ्गिस्तोऽथ व्याप्तो वेपथुना भृशम्। मुहुर्ग्लान्या परवशो मुहुर्ज्ञानलवान्वितः। हिरण्यधान्यकास्योग्रैश्छिद्यमानास्तिबन्धनः। एते कथं भविष्यन्ति ममेति ममताकुलः। मर्मभिद्भिर्महारोगैः क्रकचैरिव दारुणैः। शरैरिवान्तकास्योग्रेश्छिद्यमानास्थिबन्धनः। विवर्तमानताराक्षिर्हस्तं पादं मुहुः क्षिपन्। संशुष्यमाणताल्वौष्ठकण्ठो घुरघुरायते। निरुद्धकण्ठो दोषौघैरुदानश्वासपीडितः। तापेन महता व्याप्तस्तृषा चार्तस्तथा क्षुधा। कल्शादुत्क्रान्तिमाप्नोति याम्यकिंकरपीडितः। ततश्च यातनादेहं क्लेशेन प्रतिपद्यते। एतान्यन्यानि चोग्राणि दुःखानि मरणे नृणाम्।।35।। इत्यादि भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वेन जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषाणामनुदर्शनमिति वा। दोषश्च वातपित्त श्लेष्ममलमूत्रादिपरिपूर्णत्वेन कायजुगुप्सतत्वरुपः दैन्यादिरुपश्चेत्यपि बोध्यम्।
Sri Purushottamji
।।13.9।।इन्द्रियार्थेषु इन्द्रियभोगेषु वैराग्यम्। अनहङ्कार एव च? च पुनः अहङ्कारराहित्यम्। एवकारेणाऽस्यावश्यकत्वं ज्ञापितम्। जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं विचारः। तथाहि। जन्म -- अजन्मनो ब्रह्मांशस्याऽपि योनिमलादिसम्बन्धः। मृत्युर्भगवद्विस्मरणं? जरा शक्तिह्रासः? व्याधिः रोगादिक्लेशः।
Swami Ramsukhdas
।।13.9।। व्याख्या -- इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् -- लोकपरलोकके शब्दादि समस्त विषयोंमें इन्द्रियोंका खिंचाव न होना ही इन्द्रियोंके विषयोंमें रागरहित होना है। इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवननिर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग? आसक्ति? प्रियता नहीं होनी चाहिये।उपाय -- (1) विषयोंमें राग होनेसे ही विषयोंकी महत्ता दीखती है? संसारमें आकर्षण होता है और इसीसे सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयोंमें ही राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति कैसे होगी अगर रागका त्याग कर दें तो परमात्मामें स्थिति हो जायगी -- ऐसा विचार करनेसे विषयोंसे वैराग्य हो जाता है।(2) बड़ेबड़े धनी? शूरवीर? राजामहाराजा हुए और उन्होंने बहुतसे भोगोंको भोगा? पर अन्तमें उनका क्या रहा कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमजोर हो गये और अन्तमें सब चले गये। इस प्रकार विचार करनेसे भी वैराग्य हो जाता है।(3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं? जिनके पास भोगसामग्री नहीं है? जो संसारसे विरक्त हैं? उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं? उनमें क्या विलक्षणता? विशेषता आयी कुछ नहीं? प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोकचिन्तामें डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करनेसे भी वैराग्य होता है।अनहंकार एव च -- प्रत्येक व्यक्तिके अनुभवमें मैं हूँ -- इस प्रकारकी एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीरके साथ मिलकर मैं शरीर हूँ -- इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात् अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसीके कारण शरीर? नाम? क्रिया? पदार्थ? भाव? ज्ञान? त्याग? देश? काल आदिके साथ अपना सम्बन्ध मानकर जीव ऊँचनीच योनियोंमें जन्मतामरता रहता है (गीता 13। 21)। यह अहंकार साधनमें प्रायः बहुत दूरतक रहता है। वास्तवमें इसकी सत्ता नहीं है? फिर भी स्वयंकी मान्यता होनेके कारण व्यक्तित्वके रूपमें इसका भान होता रहता है। भगवान्द्वारा ज्ञानके साधनोंमें इस पदका प्रयोग किये जानेका तात्पर्य शरीरादिमें माने हुए अहंकारका सर्वथा अभाव करनेमें है क्योंकि जडचेतनका यथार्थ बोध होनेपर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकाररहित हो सकता है? इसीलिये भगवान् यहाँ अनहंकारः पदसे अहंकारका त्याग करनेकी बात कहते हैं।अभिमान और अहंकारका प्रयोग एक साथ होनेपर उनसे अलगअलग भावोंका बोध होता है। सांसारिक चीजोंके सम्बन्धसे अभिमान पैदा होता है। ऐसे ही त्याग? वैराग्य? विद्या आदिको लेकर अपनेमें विशेषता देखनेसे भी अभिमान पैदा होता है। शरीरको ही अपना स्वरूप माननेसे अंहकार पैदा होता है। यहाँ,अनहंकारः पदसे अभिमान और अहंकार -- दोनोंके सर्वथा अभावका अर्थ लेना चाहिये।मनुष्यको नींदसे जगनेपर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ -- इस वृत्तिका ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर? नाम? जाति? वर्ण? आश्रम आदिका हूँ -- ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्गमें भी अहंकारके नाशका एक क्रम है। सबसे पहले स्थूलशरीरसे सम्बन्धित धनादि पदार्थोंका अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहनेवाले कर्तृत्वाभिमानका नाश होता है। उसके बाद बुद्धिकी प्रधानतासे रहनेवाला ज्ञातापनका अहंकार मिटता है। अन्तमें अहम् वृत्तिकी प्रधानतासे जो साक्षीपनका अहंकार है? वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है।उपाय -- (1) अपनेमें श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है? जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे? गाँवभरमें एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होनेका अभिमान होता है। परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होनेका अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे? प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे (टिप्पणी प0 681.1)।(2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीरमें व्याप्त है? ऐसे ही वह अन्य शरीरोंमें भी व्याप्त है -- सर्वगतः (गीता 2। 24)। परन्तु मनुष्य अज्ञानसे सर्वव्यापी आत्माको एक अपने शरीरमें ही सीमित मानकर शरीरको मैं मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंकमें रखे हुए बहुतसे रुपयोंमेंसे केवल अपने द्वारा जमा किये हुए कुछ रुपयोंमें ही ममता करके? उनके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको धनी मान लेता है? ऐसे ही एक शरीरमें मैं शरीर हूँ -- ऐसी अहंता करके वह कालसे सम्बन्ध मानकर मैं इस समयमें हूँ? देशसे सम्बन्ध मानकर मैं यहाँ हूँ? बुद्धिसे सम्बन्ध मानकर मैं समझदार हूँ? वाणीसे सम्बन्ध मानकर मैं वक्ता हूँ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकारके सम्बन्ध न मानना ही अहंकार रहित होनेका उपाय है। (3) शास्त्रोंमें परमात्माका सच्चिदानन्दघनरूपसे वर्णन आया है। सत् (सत्ता)? चित् (ज्ञान) और आनन्द (अविनाशी सुख) -- ये तीनों परमात्माके भिन्नभिन्न स्वरूप नही हैं? प्रत्युत एक ही परमात्मतत्त्वके तीन नाम हैं। अतः साधक इन तीनोंमेंसे किसी एक विशेषणसे भी परमात्माका लक्ष्य करके निर्विकल्प (टिप्पणी प0 681.2) हो सकता है। निर्विकल्प होनेसे उसको परमात्मतत्त्वमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका,अनुभव हो जाता है और अहंकारका सर्वथा नाश हो जाता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिये -- (क) सत् -- परमात्मतत्त्व सदासे ही था? सदासे है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनताबिगड़ता नहीं? कमज्यादा भी नहीं होता? सदा ज्योंकात्यों रहता है -- ऐसा बुद्धिके द्वारा विचार करके निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधकका बुद्धिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और उस सत्तत्त्वमें अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।(ख) चित् -- जैसे प्रत्येक व्यक्तिके शरीरादि अहम् के अन्तर्गत दृश्य हैं? ऐसे ही अहम् भी (मैं? तू? यह और वहके रूपमें) एक ज्ञानके अन्तर्गत दृश्य है (टिप्पणी प0 681.3)। उस ज्ञान(चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे परमात्मतत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता।(ग) आनन्द -- साधकलोग प्रायः बुद्धि और अहम्को प्रकाशित करनेवाले चेतनको भी बुद्धिके द्वारा ही जाननेकी चेष्टा किया करते हैं। वास्तवमें बुद्धिके द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषयको ज्ञान की संज्ञा देना और उससे अपनेआपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व बुद्धिके द्वारा कैसे जाना जा सकता है यद्यपि साधकके पास बुद्धिके सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है? जिससे वह तत्त्व जाना जा सके? तथापि बुद्धिके द्वारा केवल जड संसारकी वास्तविकताको ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है? उस तत्त्वको बुद्धि नहीं जान सकती। उस तत्त्वको जाननेके लिये बुद्धिसे भी सम्बन्धविच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाले परमात्मतत्त्वमें निर्विकल्परूपसे स्थित हो जानेपर बुद्धिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। फिर एक आनन्दस्वरूप (जहाँ दुःखका लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है? जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्वमें निर्विकल्प (चुप) हो जानेपर आनन्दहीआनन्द है -- ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् -- जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखनेका तात्पर्य है -- जैसे आँवामें मटका पकता है? ऐसे ही जन्मसे पहले माताके उदरमें बच्चा जठराग्निमें पकता रहता है। माताके खाये हुए नमक? मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थोंसे बच्चेके शरीरमें जलन होती है। गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चेको काटते रहते हैं। प्रसवके समय माताको जो पीड़ा होती है? उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चेको होती है। इस तरह जन्मके दुःखरूप दोषोंका बारबार विचार करके इस विचाको दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःखहीदुःख है। जो जन्मता है? उसको मरना ही पड़ता है -- यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्युके समय जब प्राण शरीरसे निकलते हैं? तब हजारों बिच्छू शरीरमें एक साथ डंक मारते हों -- ऐसी पीड़ा होती है। उम्रभरमें कमाये हुए धनसे? उम्रभरमें रहे हुए मकानसे और अपने परिवारसे जब वियोग होता है और फिर उनके मिलनेकी सम्भावना नहीं रहती? तब (ममताआसक्तिके कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धनको कभी किसीको दिखाना नहीं चाहता था? जिस धनको परिवारवालोंसे छिपाछिपाकर तिजोरीमें रखा था? उसकी चाबी परिवारवालोंके हाथमें पड़ी देखकर मनमें असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्युके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।वृद्धावस्थामें शरीर और अवयवोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है? जिससे चलनेफिरने? उठनेबैठनेमें कष्ट होता है। हरेक तरहका भोजन पचता नहीं। बड़ा होनेके कारण परिवारसे आदर चाहता है? पर कोई प्रयोजन न रहनेसे घरवाले निरादर? अपमान करते हैं। तब मनमें पहलेकी बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया है?,इनको पालापोसा है? पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं इन बातोंको लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्थाके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यह शरीर व्याधियोंका? रोगोंका घर है -- शरीरं व्याधिमन्दिरम्। शरीरमें वात? कफ आदिसे पैदा होनेवाले अनेक प्रकारके रोग होते रहते हैं और न रोगोंसे शरीरमें बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यहाँ बारबार देखनेका तात्पर्य बारबार चिन्तन करनेसे नहीं है? प्रत्युत विचार करनेसे है। जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखोंको बारबार देखनेसे अर्थात् विचार करनेसे उनके मूल कारण -- उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंमें राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात् भोगोंसे वैराग्य हो जाता है। तात्पर्य है कि जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंको देखना भोगोंसे वैराग्य होनेमें हेतु है क्योंकि भोगोंके रागसे अर्थात् गुणोंके सङ्गसे ही जन्म होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21) और जो जन्म होता है? वह सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है। भगवान्ने पुनर्जन्मको दुःखालय बताया है -- पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् (गीता 8। 15)।शरीर आदि जड पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे? उनको महत्त्व देनेसे? उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं -- देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति। परमात्माका स्वरूप अथवा उसका ही अंश होनेके ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है -- चेतन अमल सहज सुखरासी (मानस 7। 117। 1)। यही कारण है कि जीवात्माको दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषोंके कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान् जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंके मूल कारण देहाभिमानको विचारपूर्वक मिटानेके लिये कह रहे हैं।
Sri Madhusudan Saraswati
।।13.9।।किंचइन्द्रियार्थेष्विति। इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु दृष्टेष्वानुश्रविकेषु वा भोगेषु रागविरोधिन्यस्पृहात्मिका चित्तवृत्तिर्वैराग्यम्। आत्मश्लाघनाभावेऽपि मनसि प्रादुर्भूतोऽहं सर्वोत्कृष्ट इति गर्वोऽहंकारस्तदभावोऽनहंकारः। अयोगव्यवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। तेनामानित्वादीनां विंशतिसंख्याकानां समुच्चितो योग एव ज्ञानमिति प्रोक्तं न त्वेकस्याप्यभाव इत्यर्थः। जन्मनो गर्भवासयोनिद्वारा निस्सरणरूपस्य? मृत्योः सर्वमर्मच्छेदनरूपस्य? जरायाः प्रज्ञाशक्तितेजोनिरोधपरपरिभवादिरूपायाः? व्याधीनां ज्वरातिसारादिरूपाणां? दुःखानामिष्टवियोगानिष्टसंयोगजानामध्यात्माधिभूताधिदैवनिमित्तानां दोषस्य वातपित्तश्लेष्ममलमूत्रादिपरिपूर्णत्वेन कायजुगुप्सितत्वस्य चानुदर्शनं पुनःपुनरालोचनम्। जन्मादिदुःखान्तेषु दोषस्यानुदर्शनं? जन्मादिव्याध्यन्तेषु दुःखरूपदोषस्यानुदर्शनमिति वा। इदं च विषयवैराग्यहेतुत्वेनात्मदर्शनस्योपकरोति।
Swami Chinmayananda
।।13.9।। इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना? यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है? वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है? ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है।अहंकार का अभाव व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है? जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें। यह प्रक्रिया भूमि जोतने के पूर्व घासपात को दूर करने के तुल्य ही है।दुखदोषानुदर्शनम् वर्तमान दशा से असन्तुष्टि ही हमें नवीन? श्रेष्ठतर और सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है। जब तक किसी राष्ट्र या समाज के लोगों में इस बात की जागरूकता नहीं आती है कि उनकी वर्तमान दशा अत्यन्त घृणित और दुखपूर्ण है? तब तक वे अपने दुखों को भूलकर अपने आप को ही उस दशा में जीने के अनुकूल बना लेते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक राजनीतिक नेता या समाज सेवक? सर्वप्रथम? लोगों को उनकी पतित और दरिद्रता की दशा का बोध कराता है। जब लोगों में इस बात की जागरूकता आ जाती है? तब वे उत्साह के साथ? श्रेष्ठतर आनन्द और समृद्ध जीवन जीने का प्रयत्न करने को तत्पर हो ज्ााते हैं।यही पद्धति सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी प्रयोज्य है। जब तक साधक को अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के बन्धनों का पूर्णतया भान नहीं होता है? तब तक वह स्वनिर्मित दुख के गर्त में पड़ा रहता है? और उससे बाहर आने के लिए कदापि प्रयत्न नहीं करता है। मानव शरीर और मन में अपने आप को परिस्थिति के अनुकूल बना लेने की अद्भुत् क्षमता है। वे अत्यन्त घृणित अवस्था को भी स्वीकार कर लेते हैं यहाँ तक कि उसी में सुख भी अनुभव करने लगते हैं।इसलिए? यहाँ साधक को अपनी वर्तमान दशा के दोषों को विचारपूर्वक देखने का उपदेश दिया गया है। एक बार जब वह अपनी बद्धावस्था को पूर्णतया समझ लेगा? तब उसमें आवश्यक आध्यात्मिक जिज्ञासा? बौद्धिक सार्मथ्य? मानसिक उत्साह और शारीरिक साहस आदि समस्त गुण आ जायेंगे? जिनके द्वारा वह आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि सरलता से कर सकेगा।जन्ममृत्युजराव्याधि में दोष का दर्शन प्रत्येक शरीर को ये विकार प्राप्त होते हैं। इनमें से प्रत्येक विकार नयेनये दुखों का स्रोत है। इन समस्त विकारों से प्राप्त होने वाले दुखों के प्रति जागरूकता आ जाने पर वह पुरुष उनसे मुक्ति पाने के लिए अधीर हो जाता है। दुख के विरुद्ध विद्रोह का यह भाव ही वह प्रेरक तत्त्व है? जो साधकों को पूर्णत्व के शिखर तक शीघ्रता से पहुँचने के लिए प्रेरित करता है।आगे कहते हैं
Sri Anandgiri
।।13.9।।ज्ञानस्यान्तरङ्गमेव हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। नन्वसक्तिरेवाभिष्वङ्गाभावस्तथाच पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याभिष्वङ्गोक्तिद्वारा निरस्यति -- अभिष्वङ्गो नामेति। अन्यस्मिन्नेव पुत्रादावन्यत्वधिया तद्गते सुखादावात्मनि तद्भावनाख्यं शक्तिविशेषमेवोदाहरति -- यथेति। उक्तविशेषणयोराकाङ्क्षाद्वारा विषयमाह -- क्वेत्यादिना। उक्तविशेषणयोर्ज्ञानशब्दस्योपपत्तिमाह -- तच्चेति। सदा हर्षविषादशून्यमनस्त्वमपि ज्ञानहेतुरित्याह -- नित्यं चेति। तदेव विभजते -- इष्टेति। तस्य ज्ञानहेतुत्वं निगमयति -- तच्चैतदिति।
Sri Neelkanth
।।13.9।।इन्द्रियार्थेषु दृष्टेषु आनुश्रविकेषु वा शब्दादिषु वैराग्यं रागाभावः। अनहंकारो दर्पराहित्यम्। अयोगव्यवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। जन्मादिषु जायमानं दुःखं परस्य व्यथादोषाश्च दैन्यादयस्तेषामनुदर्शनम्।
Sri Ramanujacharya
।।13.9।।असक्तिः आत्मव्यतिरिक्तविषयेषु सङ्गरहितत्वम्? अनभिष्वङ्गःपुत्रदारगृहादिषु तेषु शास्त्रीयकर्मोपकरणत्वातिरेकेण आश्लेषरहितत्वम् नित्यं च समचित्तत्वम् इष्टानिष्टोपपत्तिषु -- संकल्पप्रभवेषु इष्टानिष्टोपनिपातेषु हर्षोद्वेगरहितत्वम्।
Sri Sridhara Swami
।।13.9।। किंच -- इन्द्रियार्थेष्विति। जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं पुनःपुनरालोचनम्। दुःखरूपस्य दोषस्यानुदर्शनमिति वा। स्पष्टमन्यत्।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।13.9।।बाह्यविषयवैराग्यं हि आत्मरागनिबन्धनमित्यभिप्रायेणाह -- आत्मव्यतिरिक्तेषु विषयेष्विति। विरागस्य भावो वैराग्यम्? तत्प्रकारमाहसदोषतानुसन्धानेनोद्वेजनमिति। दुःखसाध्यत्वदुःखमिश्रत्वनश्वरत्वादिभिस्तेषां दोषमयत्वम्। गर्वरूपस्याहङ्कारस्य पूर्वं निषेधादत्राहङ्कारशब्देन देहात्मभ्रमो निवार्यत इत्याहअनात्मनीति। अहङ्कारस्य निषेधस्तन्मूलस्य सर्वत्र तत्सहपठितस्य ममकारस्यापि निषेधं प्रदर्शयितुमित्याहप्रदर्शनार्थमिति। शरीरप्रयुक्तजन्मादिदोषदर्शनं न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोः [छां.उ.8।12।1] इत्यादिप्रकारेण शरीरस्य हेयताप्रतिपत्त्यर्थमित्यभिप्रायेणाहसशरीरत्व इति। जन्ममृत्युजराव्याधिभिर्जन्यं दुःखं जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखम्? स एव दोष इति समासार्थः। जन्मादय एव वा दुःखान्ताः सर्वे दुःखसाधनत्वाद्दुःखत्वाच्च दोषाः। नहि तुषतण्डुलवच्छरीरमवस्थाप्य दोषाः परिहर्तुं शक्या इति दर्शयितुं अवर्जनीयत्वोक्तिः। अनुदर्शनं भूयोभूयोदर्शनमित्याहअनुसन्धानमिति।
Sri Abhinavgupta
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
Sri Shankaracharya
।।13.9।। --,इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु दृष्टादृष्टेषु भोगेषु विरागभावो वैराग्यम् अनहंकारः अहंकाराभावः एव च जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनं जन्म च मृत्युश्च जरा च व्याधयश्च दुःखानि च तेषु जन्मादिदुःखान्तेषु प्रत्येकं दोषानुदर्शनम्। जन्मनि गर्भवासयोनिद्वारनिःसरणं दोषः? तस्य अनुदर्शनमालोचनम्। तथा मृत्यौ दोषानुदर्शनम्। तथा जरायां प्रज्ञाशक्तितेजोनिरोधदोषानुदर्शनं परिभूतता चेति। तथा व्याधिषु शिरोरोगादिषु दोषानुदर्शनम्। तथा दुःखेषु अध्यात्माधिभूताधिदैवनिमित्तेषु। अथवा दुःखान्येव दोषः दुःखदोषः तस्य जन्मादिषु पूर्ववत् अनुदर्शनम् -- दुःखं जन्म? दुःखं मृत्युः? दुःखं जरा? दुःखं व्याधयः। दुःखनिमित्तत्वात् जन्मादयः दुःखम्? न पुनः स्वरूपेणैव दुःखमिति। एवं जन्मादिषु दुःखदोषानुदर्शनात् देहेन्द्रियादिविषयभोगेषु वैराग्यमुपजायते। ततः प्रत्यगात्मनि प्रवृत्तिः करणानामात्मदर्शनाय। एवं,ज्ञानहेतुत्वात् ज्ञानमुच्यते जन्मादिदुःखदोषानुदर्शनम्।।किञ्च --,
Sri Vallabhacharya
।।13.9।।इन्द्रियार्थेष्विति -- विषयेषु।
Swami Sivananda
13.9 इन्द्रियार्थेषु in senseobjects? वैराग्यम् dispassion? अनहङ्कारः absence of egoism? एव even? च and? जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् perception of evil in birth? old age? sickness and pain.Commentary The feeling of renunciation towards the objects of the senses is constant in the man of wisdom. He does not even like to talk about them. His senses do not run towards them.Vairagyam Indifference to the senseobjects such as sound? touch? etc.? for pleasure seen or unseen? heard or unheard (for pleasure in heaven? too).Anahankara The idea that arises in the mind I am superior to all? is egoism. Absence of this idea is Anahankara or absence of egoism.Reflection on the evils and miseries of birth? death? old age and sickness One has to dwell in the womb for nine months and to undergo the pangs of birth. These are the evils of birth. The man of wisdom never forgets the troubles of birth? death? old age? etc. He wants to avoid being born. In old age the intellect becomes dull and the memory is lost and the senses become cold and weak. There is decay of power and strength. The old man is treated with contempt by his relatives. These are the evils of old age. A sick man who suffers from piles? suffers from weakness and anaemia through loss of blood. A man suffering from malaria gets an enlarged spleen. These are the evils caused by sickness.Pain The three types of pain or afflictions are referred to in the Introduction.Pain itself is evil. Birth is painful. Birth is misery. Death is misery. Old age is misery. Sickness is misery. Birth? death? etc.? are all miseries? because they produce misery or pain.By such reflection and perception of the evil in these arises indifference to the pleasures of the body and the sensual pleasures. Then the mind turns within towards the innermost Self to attain knowledge of the Self. As the perception of the evil of pain in birth helps to obtain knowledge of the Self? it is spoken of as knowledge.