Chapter 2, Verse 11
Verse textश्री भगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।
Verse transliteration
śhrī bhagavān uvācha aśhochyān-anvaśhochas-tvaṁ prajñā-vādānśh cha bhāṣhase gatāsūn-agatāsūnśh-cha nānuśhochanti paṇḍitāḥ
Verse words
- śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Lord said
- aśhochyān—not worthy of grief
- anvaśhochaḥ—are mourning
- tvam—you
- prajñā-vādān—words of wisdom
- cha—and
- bhāṣhase—speaking
- gata āsūn—the dead
- agata asūn—the living
- cha—and
- na—never
- anuśhochanti—lament
- paṇḍitāḥ—the wise
Verse translations
Swami Sivananda
The Blessed Lord said, "You have grieved for those who should not be grieved for; yet, you speak words of wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead."
Shri Purohit Swami
Lord Shri Krishna said: Why grieve for those for whom no grief is due, yet professing wisdom? The wise grieve neither for the dead nor the living.
Swami Ramsukhdas
।।2.11।। श्रीभगवान् बोले - तुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और पण्डिताईकी बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।
Swami Tejomayananda
।।2.11।। श्री भगवान् ने कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत (गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।
Swami Adidevananda
The Lord said, "You grieve for those who should not be grieved for; yet you speak words of wisdom. The wise grieve neither for the dead nor for the living."
Swami Gambirananda
The Blessed Lord said, "You grieve for those who are not to be grieved for; and you speak words of wisdom! The learned do not grieve for the departed nor for those who have not departed.
Dr. S. Sankaranarayan
While lamenting for those who cannot be lamented on and those who do not deserve to be lamented on, you do not speak like a wise man! The learned do not lament for those who have departed life and those who have not departed life.
Verse commentaries
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.11।।तत्रार्जुनस्य युद्धाख्ये स्वधर्मे स्वतो जातापि प्रवृत्तिर्द्विविधेन मोहेन तन्निमित्तेन च शोकेन प्रतिबद्धेति द्विविधो मोहस्तस्य निराकरणीयः। तत्रात्मनि स्वप्रकाशपरमानन्दरूपे सर्वसंसारधर्माऽसंसर्गिणि स्थूलसूक्ष्मशरीरद्वयतत्कारणाविद्याख्योपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरूप एकः सर्वप्राणिसाधारणः। अपरस्तु युद्धाख्ये स्वधर्मे हिंसादिबाहुल्येनाधर्मत्वप्रतिभासरूपोर्जुनस्यैव करुणादिदोषनिबन्धनोऽसाधारणः। एवमुपाधित्रयविवेकेन शुद्धात्मस्वरूपबोधः प्रथमस्य निवर्तकः सर्वसाधारणः द्वितीयस्य तु हिंसादिमत्त्वेऽपि युद्धस्य स्वधर्मत्वेनाधर्मत्वाभावबोधोऽसाधारणः शोकस्य तु कारणनिवृत्त्यैव निवृत्तेर्न पृथक् साधनान्तरापेक्षेत्यभिप्रेत्य क्रमेण भ्रमद्वयमनुवदन् श्रीभगवानुवाच अशोच्यान्शोचितुमयोग्यानेव भीष्मद्रोणादीनात्मसहितांस्त्वं पण्डितोऽपि सन् अन्वशोचोऽनुशोचितवानसि। ते म्रियन्ते मन्निमित्तमहं तैर्विनाभूतः किं करिष्यामि राज्यसुखादिनेत्येवमर्थकेनदृष्टेवमं स्वजनम् इत्यादिना। तथाचाशोच्ये शोच्यभ्रमः पश्वादिसाधारणस्तवात्यन्तपण्डितस्यानुचित इत्यर्थः। तथाकुतस्त्वा कश्मल मित्यादिना मद्वचनेनानुचित्तमिदमाचरितं मयेति विमर्शे प्राप्तेऽपि त्वं स्वयं प्रज्ञोऽपि सन् प्रज्ञानां अवादान्प्रज्ञैर्वक्तुमनुचिताञ्शब्दांश्चकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादीन्भाषसे वदसि नतु लज्जया तूष्णींभवसि। अतःपरं किमनुचितमस्तीति सूचयितुं चकारः। तथाचाधर्मे धर्मत्वभ्रान्तिधर्मे चाधर्मत्वभ्रान्तिरसाधारणी तवातिपण्डितस्य नोचितेति भावः। प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान्भाषसे परं नतु बुध्यस इति वा भाषणापेक्षयानुशोचनस्य प्राक्कालत्वादतीतत्वनिर्देशः। भाषणस्य तु तदुत्तरकालत्वेनाव्यवहितत्वाद्वर्तमानत्वनिर्देशः। छान्दसेन तिङ्व्यत्ययेनानुशोचसीति वर्तमानत्वं व्याख्येयम्। ननु बन्धुविच्छेदे शोको नानुचितः वसिष्ठादिभिर्महाभागैरपि कृतत्वादित्याशङ्क्याह गतासूनिति। ये पण्डिताः विचारजन्यात्मतत्त्वज्ञानवन्तस्ते गतप्राणानगतप्राणांश्च बन्धुत्वेन कल्पितान्देहान्नानुशोचन्ति। एते मृताः सर्वोपकरणपरित्यागेन गताः किं कुर्वन्ति क्व तिष्ठन्ति एते च जीवन्तो बन्धुविच्छेदेन कथं जीविष्यन्तीति न व्यामुह्यन्ति। समाधिसमये तत्प्रतिभासाभावात् व्युत्थानसमये तत्प्रतिभासेऽपि मृषात्वेन निश्चयात्। नहि रज्जुतत्त्वसाक्षात्कारेण सर्पभ्रमेऽपनीते तन्निमित्तभयकम्पादि संभवति नवा पित्तोपहतेन्द्रियस्य कदाचिद्गुडे तिक्तताप्रतिभासेऽपि तिक्तार्थितया तत्र प्रवृत्तिः संभवति मधुरत्वनिश्चयस्य बलबत्त्वात् एवमात्मस्वरूपाज्ञाननिबन्धनत्वाच्छोच्यभ्रमस्य तत्स्वरूपज्ञानेन तदज्ञानेऽपनीते तत्कार्यभूतः शोच्यभ्रमः कथमवतिष्ठेतेति भावः। वसिष्ठादीनां प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्तथा तथानुकरणं न शिष्टाचारतयान्येषामनुष्ठेयतामापादयति शिष्टैर्धर्मबुद्ध्यानुष्ठीयमानस्यालौकिकव्यवहारस्यैव तदाचारत्वात् अन्यथा निष्ठीवनादेरप्यनुष्ठानप्रसङ्गादिति दृष्टव्यम्। यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि पण्डितो भूत्वा शोकं माकार्षीरित्यभिप्रायः।
Sri Purushottamji
।।2.11।।पूर्वं शास्त्रार्थज्ञानेन स्थिरां बुद्धिं कृत्वा भक्त्युपदेशः कर्त्तव्य इति पूर्वं सर्वशास्त्रोक्तज्ञानमुक्त्वा भक्तिमुपदिशन्नात्मानात्मज्ञानार्थमात्मानात्मज्ञानमाह भगवान् अशोच्यानिति। त्वं अशोच्यान् शोकानर्हान् अन्वशोचः अनुशोचितवानसि यतस्तेऽसुरावेशिनो भूभारहरणार्थं मे मारणीया एव न तु ते भक्ताः৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. । किञ्च तेषां शोकं कृत्वा प्रज्ञावादान् प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान् भाषसे वदसि। तेषां वादानेव वदसि न तु त्वं प्रज्ञावान्। यतस्ते प्रज्ञावन्तः पण्डिता मदिच्छयैव सर्वं भवतीति ज्ञानवन्तः अतः गतासून् गतप्राणान्परलोके तेषां का गतिर्भविष्यति अगतासून् जीवतःजीवतां तेषां कथं योगक्षेमो भविष्यति इति नानुशोचन्ति। अत एव श्रुतिरप्याह एष एव तं साधु कर्म कारयति यमुन्निनीषति एष एव तमसाधु कर्म कारयति यमधोनिनीषति (৷৷.ह्येवैन৷৷.तं यमन्वानुनेषति৷৷.तं यमेभ्यो लोकेभ्यो नुनुत्सत) कौ.उ.3।9 इति। अतो मत्कृतेऽर्थे कथं शोकः कर्त्तव्य इति भावः।
Swami Ramsukhdas
2.11।। व्याख्या-- [मनुष्यको शोक तब होता है, जब वह संसारके प्राणी-पदार्थोंमें दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्णके हैं और ये हमारे वर्णके नहीं हैं; ये हमारे आश्रमके हैं और ये हमारे आश्रमके नहीं हैं; ये हमारे पक्षके हैं और ये हमारे पक्षके नहीं हैं। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदिसे ही शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष, पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदिसे पैदा न होता हो--यह सिद्धान्त है। गीतामें सबसे पहले धृतराष्ट्रने कहा कि मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने युद्धभूमिमें क्या किया? यद्यपि पाण्डव धृतराष्ट्रको अपने पितासे भी अधिक आदर-दृष्टिसे देखते थे, तथापि धृतराष्ट्रके मनमें अपने पुत्रोंके प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रोंमें और पाण्डवोंमें भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं। जो ममता धृतराष्ट्रमें थी, वही ममता अर्जुनमें भी पैदा हुई। परन्तु अर्जुनकी वह ममता धृतराष्ट्रकी ममताके समान नहीं थी। अर्जुनमें धृतराष्ट्रकी तरह पक्षपात नहीं था अतः वे सभीको स्वजन कहते हैं-- 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (1। 28) और दुर्योधन आदिको भी स्वजन कहते हैं--'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव' (1। 37)। तात्पर्य है कि अर्जुनकी सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें ममता थी और उस ममताके कारण ही उनके मरनेकी आशंकासे अर्जुनको शोक हो रहा था। इस शोकको मिटानेके लिये भगवान्ने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोकसे आरम्भ होता है। इसके अन्तमें भगवान् इसी शोकको अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर--'मा शुचः' (18। 66)। कारण कि संसारका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है और अनन्यभावसे मेरा आश्रय लेनेसे तेरे शोक, चिन्ता आदि सब मिट जायँगे।] 'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्'-- संसारमात्रमें दो चीजें हैं सत् और असत्, शरीरी और शरीर। इन दोनोंमें शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशीका कभी विनाश नहीं होता, इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशीका विनाश होता ही है, वह एक क्षण भी स्थायीरूपसे नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरीको लेकर बन सकता है और न शरीरोंको लेकर ही बन सकता है। शोकके होनेमें तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है। मनुष्यके सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदिके रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्धका अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदिमें और अन्तमें नहीं होती वह बीचमें एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे और मिटती है तो स्थायी कैसे ऐसी प्रतिक्षण मिटनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है। 'प्रज्ञावादांश्च भाषसे'-- एक तरफ तो तू पण्डिताईकी बातें बघार रहा है, और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तवमें तू पण्डित नहीं है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं, वे किसीके लिये भी कभी शोक नहीं करते। कुलका नाश होनेसे कुल-धर्म नष्ट हो जायगा। धर्मके नष्ट होनेसे स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और उनके कुलको नरकोंमें ले जानेवाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलनेसे उनके पितरोंका भी पतन हो जायगा--ऐसी तेरी पण्डिताईकी बातोंसे भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीर स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुलके नरकोंमें जानेका भय नहीं होता, पितरोंका पतन होनेकी चिन्ता नहीं होती। अगर तुझे कुलकी और पितरोंकी चिन्ता होती है, उनका पतन होनेका भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और उसमें रहनेवाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरोंके नाशको लेकर तेरा शोक करना अनुचित है। 'गतासूनगतासूंश्च'-- सबके पिण्ड-प्राणका वियोग अवश्यम्भावी है। उनमेंसे किसीके पिण्ड-प्राणका वियोग हो गया है और किसीका होनेवाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है। जो मर गये हैं, उनके लिये शोक करना तो महान् गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियोंके लिये शोक करनेसे उन प्राणियोंको दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्माके लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोकमें मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्माके लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं वे मृतात्माको परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं (टिप्पणी प0 48) । जो अभी जी रहे हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! आदि चिन्ता-शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिन्ता-शोक करनेसे कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीरके अङ्ग शिथिल हो रहे हैं मुख सूख रहा है, आदि विकारोंके पैदा होनेमें मूल कारण है--शरीरके साथ एकता मानना। कारण कि शरीरके साथ एकता माननेसे ही शरीरका पालन-पोषण करनेवालोंके साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपनके कारण ही कुटुम्बियोंके मरने की आशंकासे अर्जुनके मनमें चिन्ता-शोक हो रहे हैं, तथा चिन्ता-शोकसे ही अर्जुनके शरीरमें उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं इसमें भगवान्ने 'गतासून' और 'अगतासून्' के शोकको ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे 'गतासून्' हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे 'अगतासून्' हैं। पिण्ड और जल न मिलनेसे पितरोंका पतन हो जाता है' (1। 42) यह अर्जुनकी 'गतासून' की चिन्ता है। और 'जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं' (1। 33) यह अर्जुनकी 'अगतासून्' की चिन्ता है। अतः ये दोनों चिन्ताएँ शरीरको लेकर ही हो रही है; अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूपसे एक ही हैं। कारण कि 'गतासून' और 'अगतासून' दोनों ही नाशवान् हैं। 'गतासून्' और 'अगतासून'-- इन दोनोंके लिये कर्तव्य-कर्म करना चिन्ताकी बात नहीं है। 'गतासून' के लिये पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना--यह कर्तव्य है, और 'अगतासून' के लिये व्यवस्था कर देना, निर्वाहका प्रबन्ध कर देना--यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिन्ताका विषय नहीं होता, प्रत्युत विचारका विषय होता है। विचारसे कर्तव्यकाबोध होता है, और चिन्तासे विचारनष्ट होता है। 'नानुशोचन्ति पण्डिताः'-- सत्-असत्-विवेकवती बुद्धिका नाम 'पण्डा' है। वह 'पण्डा' जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत्- असत् स्पष्टतया विवेक हो गया है वे पण्डित हैं। ऐसे पण्डितोंमें सत्-असत् को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत्को सत् माननेसे भी शोक नहीं होता और असत्को असत् माननेसे भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्-स्वरूप है, और बदलनेवाला शरीर असत्-स्वरुप है। असत्को सत् मान लेनेसे ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें, मरें नहीं--इस बातको लेकर ही शोक होता है। सत्को लेकर कभी चिन्ता-शोक होते ही नहीं। सम्बन्ध -- सत्-तत्तवको लेकर शोक करना अनुचित क्यों है--इस शंकाके समाधानके लिये आगेके दो श्लोक कहते हैं।
Swami Chinmayananda
।।2.11।। जब हम अर्जुन के विषाद को ठीक से समझने का प्रयत्न करते हैं तब यह पहचानना कठिन नहीं होगा कि यद्यपि उसका तात्कालिक कारण युद्ध की चुनौती है परन्तु वास्तव में मानसिक संताप के यह लक्षण किसी अन्य गम्भीर कारण से हैं। जैसा कि एक श्रेष्ठ चिकित्सक रोग के लक्षणों का ही उपचार न करके उस रोग के मूल कारण को दूर करने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के शोक मोह के मूल कारण (आत्मअज्ञान) को ही दूर करने का प्रयत्न करते हैं।शुद्ध आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण अहंकार उत्पन्न होता है। यह अज्ञान न केवल दिव्य स्वरूप को आच्छादित करता है वरन् उसके उस सत्य पर भ्रान्ति भी उत्पन्न कर देता है। अर्जुन की यह अहंकार बुद्धिया जीव बुद्धि कि वह शरीर मन और बुद्धि की उपाधियों से परिच्छिन्न या सीमित है वास्तव में मोह का कारण है जिससे स्वजनों के साथ स्नेहासक्ति होने से उनके प्रति मन में यह विषाद और करुणा का भाव उत्पन्न हो रहा है। वह अपने को असमर्थ और असहाय अनुभव करता है। मोहग्रस्त व्यक्ति को आसक्ति का मूल्य दुख और शोक के रूप में चुकाना पड़ता है। इन शरीरादि उपाधियों के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण हमें दुख प्राप्त होते रहते हैं। हमें अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होने से उनका अन्त हो जाता है।नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मा स्थूल शरीर के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में अपने को बन्धन में अनुभव करती है। वही आत्मतत्त्व मन के साथ अनेक भावनाओं का अनुभव करता है मानो वह भावना जगत् उसी का है। फिर यही चैतन्य बुद्धिउपाधि से युक्त होकर आशा और इच्छा करता है महत्वाकांक्षा और आदर्श रखता है जिनके कारण उसे दुखी भी होना पड़ता है। इच्छा महत्वाकांक्षा आदि बुद्धि के ही धर्म हैं।इस प्रकार इन्द्रिय मन और बुद्धि से युक्त शुद्ध आत्मा जीवभाव को प्राप्त करके बाह्य विषयों भावनाओं और विचारों का दास और शिकार बन जाती है। जीवन के असंख्य दुख और क्षणिक सुख इस जीवभाव के कारण ही हैं। अर्जुन इसी जीवभाव के कारण पीड़ा का अनुभव कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि शोकरूप भ्रांति या विक्षेप का मूल कारण आत्मस्वरूप का अज्ञान आवरण है और इसलिये अर्जुन के विषाद को जड़ से हटाने के लिये वे उसको उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मज्ञान का उपदेश करते हैं।मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विधि के द्वारा मन को पुन शिक्षित करने का ज्ञान भारत ने हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दिया था। यहाँ श्रीकृष्ण का गीतोपदेश के द्वारा यही प्रयत्न है। आत्मज्ञान की पारम्परिक उपदेश विधि के अनुसार जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सीधे ही आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं।भीष्म और द्रोण के अन्तकरण शुद्ध होने के कारण उनमें चैतन्य प्रकाश स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। वे दोनों ही महापुरुष अतुलनीय थे। इस युद्ध में मृत्यु हो जाने पर उनको अधोगति प्राप्त होगी यह विचार केवल एक अपरिपक्व बुद्धि वाला ही कर सकता है। इस श्लोक के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान जीव के उच्च स्वरूप की ओर आकर्षित करते हैं।हमारे व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं और उनमें से प्रत्येक के साथ तादात्म्य कर उसी दृष्टिकोण से हम जीवन का अवलोकन करते हैं। शरीर के द्वारा हम बाह्य अथवा भौतिक जगत् को देखते हैं जो मन के द्वारा अनुभव किये भावनात्मक जगत् से भिन्न होता है और उसी प्रकार बुद्धि के साथ विचारात्मक जगत् का अनुभव हमें होता है।भौतिक दृष्टि से जिसे मैं केवल एक स्त्री समझता हूँ उसी को मन के द्वारा अपनी माँ के रूप में देखता हूँ। यदि बुद्धि से केवल वैज्ञानिक परीक्षण करें तो उसका शरीर जीव द्रव्य और केन्द्रक वाली अनेक कोशिकाओं आदि से बना हुआ एक पिण्ड विशेष ही है। भौतिक वस्तु के दोष अथवा अपूर्णता के कारण होने वाले दुखों को दूर किया जा सकता है यदि मेरी भावना उसके प्रति परिवर्तित हो जाये। इसी प्रकार भौतिक और भावनात्मक दृष्टि से जो वस्तु कुरूप और लज्जाजनक है उसी को यदि बुद्धि द्वारा तात्त्विक दृष्टि से देखें तो हमारे दृष्टिकोण में अन्तर आने से हमारा दुख दूर हो सकता है।इसी तथ्य को और आगे बढ़ाने पर ज्ञात होगा कि यदि मैं जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से देख सकूँ तो शारीरिक मानसिक और बौद्धिक दृष्टिकोणों के कारण उत्पन्न विषाद को आनन्द और प्रेरणादायक स्फूर्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। यहाँ भगवान् अर्जुन को यही शिक्षा देते हैं कि वह अपनी अज्ञान की दृष्टि का त्याग करके गुरुजन स्वजन युद्धभूमि इत्यादि को आध्यात्मिक दृष्टि से देखने और समझने का प्रयत्न करे।इस महान् पारमार्थिक सत्य का उपदेश यहाँ इतने अनपेक्षित ढंग से अचानक किया गया है कि अर्जुन की बुद्धि को एक आघातसा लगा। आगे के श्लोक पढ़ने पर हम समझेंगे कि भगवान् ने जो यह आघात अर्जुन की बुद्धि में पहुँचाया उसका कितना लाभकारी प्रभाव अर्जुन के मन पर पड़ा।इनके लिये शोक करना उचित क्यों नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं। कैसे भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।2.11।।तदेव वचनमुदाहरति श्रीभगवानिति। अतीतसंदर्भस्येत्थमक्षरोत्थमर्थं विवक्षित्वा तस्मिन्नेव वाक्यविभागमवगमयति दृष्ट्वा त्विति। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे इत्यादिराद्यश्लोकस्तावदेकं वाक्यम्। शास्त्रस्य कथासंबन्धपरत्वेन पर्यवसानात्। दृष्ट्वेत्यारभ्य यावत्तूष्णीं बभूव हेति तावच्चैकं वाक्यम्। इत आरभ्यइदं वचः इत्येतदन्तो ग्रन्थो भवत्यपरं वाक्यमिति विभागः। नन्वाद्यश्लोकस्य युक्तमेकवाक्यत्वं प्रकृतशास्त्रस्य महाभारतेऽवतारावद्योतित्वादन्तिमस्यापि संभवत्येकवाक्यत्वमर्जुनाश्वासार्थतया प्रवृत्तत्वात्तन्मध्यमस्य तु कथमेकवाक्यत्वमित्याशङ्क्यार्थैकत्वादित्याह प्राणिनामिति। शोको मानससंतापः मोहो विवेकाभावः। आदिशब्दस्तदवान्तरभेदार्थः स एव संसारस्य दुःखात्मनो बीजभूतो दोषस्तस्योद्भवे कारणमहंकारो ममकारस्तद्धेतुरविद्या च तत्प्रदर्शनार्थत्वेनेति योजना। संगृहीतमर्थं विवृणोति तथाहीति। राज्यं राज्ञः कर्म परिपालनादि। पूजार्हा गुरवो भीष्मद्रोणादयः। पुत्राः स्वयमुत्पादिताः सौभद्रादयः संबन्धान्तरमन्तरेण स्नेहगोचरा गुरुपुत्रप्रभृतयो मित्रशब्देनोच्यन्ते उपकारनिरपेक्षतया स्वयमुपकारिणो हृदयानुरागभाजो भगवत्प्रमुखाः सुहृदः स्वजना ज्ञातयो दुर्योधनादयः संबन्धिनः श्वशुरश्यालप्रभृतयो द्रुपदधृष्टद्युम्नादयः परंपरया पितृपितामहादिष्वनुरागभाजो राजानो बान्धवास्तेषु यथोक्तं प्रत्ययं निमित्तीकृत्य यः स्नेहो यश्च तैः सह विच्छेदो यच्चैतेषामुपघाते पातकं या च लोकगर्हा सर्वं तन्निमित्तं ययोरात्मनः शोकमोहयोस्तावेतौ संसारबीजभूतौ कथमित्यादिना दर्शितावित्यर्थः। कथं पुनरनयोः संसारबीजयोरर्जुने संभावनोपपद्यते नहि प्रथितमहामहिम्नो विवेकविज्ञानवतः स्वधर्मे प्रवृत्तस्य तस्य शोकमोहावनर्थहेतू संभावितावित्याशङ्क्य विवेकतिरस्कारेणतयोर्विहिताकरणप्रतिषिद्धाचरणकारणत्वादनर्थाधायकयोरस्ति तस्मिन्संभावनेत्याह शोकमोहाभ्यामिति। भिक्षया जीवनं प्राणधारणमादिशब्दादशेषकर्मन्यासलक्षणं पारिव्राज्यमात्माभिध्यानमित्यादि गृह्यते। किंचार्जुने दृश्यमानौ शोकमोहौ संसारबीजं शोकमोहत्वादस्मदादिनिष्ठशोकमोहवदित्युपलब्धौ शोकमोहौ प्रत्येकं पक्षीकृत्यानुमातव्यमित्याह तथाचेति। शोकमोहादीत्यादिशब्देन मिथ्याभिमानस्नेहगर्हादयो गृह्यन्ते स्वभावतश्चित्तदोषसामर्थ्यादित्यर्थः। अस्मदादीनामपि स्वधर्मे प्रवृत्तानां विहिताकरणत्वाद्यभावान्न शोकादेः संसारबीजतेति दृष्टान्तस्य साध्यविकलतेति चेत्तत्राह स्वधर्म इति। कायादीनामित्यादिशब्दादवशिष्टानीन्द्रियाण्यादीयन्ते। फलाभिसन्धिस्तद्विषयेऽभिलाषः कर्तृत्वभोक्तृत्वाभिमानोऽहंकारः। प्रागुक्तप्रकारेण वागादिव्यापारे सति किं सिध्यति तत्राह तत्रेति। शुभकर्मानुष्ठानेन धर्मोपचयादिष्टं देवादिजन्म ततः सुखप्राप्तिः अशुभकर्मानुष्ठानेनाधर्मोपचयादनिष्टं तिर्यगादिजन्म ततो दुःखप्राप्तिः व्यामिश्रकर्मानुष्ठानादुभाभ्यां धर्माधर्माभ्यां मनुष्यजन्म ततः सुखदुःखे भवतः एवमात्मकः संसारः संततो वर्तत इत्यर्थः। अर्जुनस्यान्येषां च शोकमोहयोः संसारबीजत्वमुपपादितमुपसंहरति इत्यत इति। तदेवं प्रथमाध्यायस्य द्वितीयाध्यायैकदेशसहितस्यात्माज्ञानोत्थनिवर्तनीयशोकमोहाख्यसंसारबीजप्रदर्शनपरत्वं दर्शयित्वा वक्ष्यमाणसंदर्भस्य सहेतुकसंसारनिवर्तकसम्यग्नोपदेशे तात्पर्यं दर्शयति तयोश्चेति। तद्यथोक्तं ज्ञानम्उपदिदिक्षुरुपदेष्टुमिच्छन् भगवानाहेति संबन्धः। सर्वलोकानुग्रहार्थं यथोक्तं ज्ञानं भगवानुपदिदिक्षतीत्ययुक्तमर्जुनं प्रत्येवोपदेशादित्याशङ्क्याह अर्जुनमिति। नहि तस्यामवस्थायामर्जुनस्य भगवता यथोक्तज्ञानमुपदेष्टुमिष्टं किंतु स्वधर्मानुष्ठानाद्बुद्धिशुद्ध्युत्तरकालमित्यभिप्रेत्योक्तंनिमित्तीकृत्येति। सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञानादेव केवलात्कैवल्यप्राप्तिरिति गीताशास्त्रार्थः स्वाभिप्रेतो व्याख्यातः। संप्रति वृत्तिकृतामभिप्रेतं निरसितुमनुवदति तत्रेति। निर्धारितः शास्त्रार्थः सतिसप्तम्या परामृश्यते। तेषामुक्तिमेव विवृण्वन्नादौ सैद्धान्तिकमभ्युपगमं प्रत्यादिशति सर्वकर्मेति। वैदिकेन कर्मणा समुच्चयं व्युदसितुं मात्रपदम्। स्मार्तेन कर्मणा समुच्चयं निरसितुमवधारणम्। अभ्याससंबन्धं धुनीते केवलादिति। नैवेत्येवकारः संबध्यते। केन तर्हि प्रकारेण ज्ञानं कैवल्यप्राप्तिकारणमित्याशङ्क्याह किं तर्हीति। किं तत्र प्रमापकमित्याशङ्क्येदमेव शास्त्रमित्याह इति सर्वास्विति। यथा प्रयाजानुयाजाद्युपकृतमेव दर्शपौर्णमासादि स्वर्गसाधनं तथा श्रौतस्मार्तकर्मोपकृतमेव ब्रह्मज्ञानं कैवल्यं साधयति। विमतं सेतिकर्तव्यताकमेव स्वफलसाधकं करणत्वाद्दर्शपौर्णमासादिवत्। तदेवं ज्ञानकर्मसमुच्चयपरं शास्त्रमित्यर्थः। इतिपदमाहुरित्यनेन पूर्वेण संबध्यते। पौर्वापर्यपर्यालोचनायां शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वं न निर्धारितमित्याशङ्क्याह ज्ञापकं चेति। न केवलं ज्ञानं मुक्तिहेतुरपितु समुच्चितमित्यस्यार्थस्य स्वधर्माननुष्ठाने पापप्राप्तिवचनसामर्थ्यलक्षणं लिङ्गं गमकमित्यर्थः। शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वे लिङ्गवद्वाक्यमपि प्रमाणमित्याह कर्मण्येवेति। तत्रैव वाक्यान्तरमुदाहरति कुरु कर्मेति। ननुन हिंस्यात्सर्वा भूतानि इत्यादिना प्रतिषिद्धत्वेन हिंसादेरनर्थहेतुत्वावगमात्तदुपेतं वैदिकं कर्माधर्मायेति नानुष्ठातुं शक्यते तथाच तस्य मोक्षे ज्ञानेन समुच्चयो न सिध्यतीति सांख्यमतमाशङ्क्य परिहरति हिंसादीति। आदिशब्दादुच्छिष्टभक्षणं गृह्यते। यथोक्तशङ्का न कर्तव्येत्यत्राकाङ्क्षापूर्वकं हेतुमाह कथमित्यादिना। स्वशब्देन क्षत्रियो विवक्ष्यते। युद्धाकरणे क्षत्रियस्य प्रत्यवायश्रवणात्तस्य तं प्रति नित्यत्वेनावश्यकर्तव्यत्वप्रतीतेर्गुर्वादिहिंसायुक्तमतिक्रूरमपि कर्म नाधर्मायेति हेत्वन्तरमाह तदकरणे चेति। आचार्यादिहिंसायुक्तमतिक्रूरमपि युद्धं नाधर्मायेति ब्रुवता भगवता श्रौतानां हिंसादियुक्तानामपि कर्मणां दूरतो नाधर्मत्वमिति स्पष्टमुपदिष्टं भवति सामान्यशास्त्रस्य व्यर्थहिंसानिषेधार्थत्वात्क्रतुविषये चोदितहिंसायास्तदविषयत्वात्कुतो वैदिककर्मानुष्ठानानुपपत्तिरित्यर्थः। ज्ञानकर्मसमुच्चयात्कैवल्यसिद्धिरित्युपसंहर्तुमितिशब्दः। यत्तावद्ब्रह्मज्ञानं सेतिकर्तव्यताकं स्वफलसाधकं कारणत्वादित्यनुमानं तद्दूषयति तदसदिति। नहि शुक्तिकादिज्ञानमज्ञाननिवृत्तौ स्वफले सहकारि किंचिदपेक्षते तथाच व्यभिचारादसाधकं करणत्वमित्यर्थः। यत्तु गीताशास्त्रे समुच्चयस्यैव प्रतिपाद्यतेति प्रतिज्ञानं तदपि विभागवचनविरुद्धमित्याह ज्ञानेति। सांख्यबुद्धिर्योगबुद्धिश्चेति बुद्धिद्वयं तत्र सांख्यबुद्ध्याश्रयां ज्ञाननिष्ठां व्याख्यातुं सांख्यशब्दार्थमाह अशोच्यानित्यादिनेति। अशोच्यानित्यादि स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्येतदन्तं वाक्यं यावद्भविष्यति तावता ग्रन्थेन यत्परमार्थभूतमात्मतत्त्वं भगवता निरूपितं तद्यथा सम्यक्ख्यायते प्रकाश्यते सा वैदिकी सम्यग्बुद्धिः संख्या तया प्रकाश्यत्वेन संबन्धि प्रकृतं तत्त्वं सांख्यमित्यर्थः। सांख्यशब्दार्थमुक्त्वा तत्प्रकाशिकां बुद्धिं तद्वतश्च सांख्यान्व्याकरोति तद्विषयेति। तद्विषया बुद्धिःसांख्यबुद्धिरिति संबन्धः। तामेव प्रकटयति आत्मन इति। न जायते म्रियते वा इत्यादिप्रकरणार्थनिरूपणद्वारेणात्मनः षड्भावविक्रियासंभवात्कूटस्थोऽसाविति या बुद्धिरुत्पद्यते सा सांख्यबुद्धिः तत्पराः संन्यासिनः सांख्या इत्यर्थः। संप्रति योगबुद्ध्याश्रयां कर्मनिष्ठां व्याख्यातुकामो योगशब्दार्थमाह एतस्या इति। यथोक्तबुद्ध्युत्पत्तौ विरोधादेवानुष्ठानायोगात्तस्यास्तन्निवर्तकत्वात्पूर्वमेव तदुत्पत्तेरात्मनो देहादिव्यतिरिक्तत्वाद्यपेक्षया धर्माधर्मं निष्कृष्य तेनेश्वराराधनरूपेण कर्मणा पुरुषो मोक्षाय युज्यते योग्यः संपद्यते तेन मोक्षसिद्धये परंपरया साधनीभूतप्रागुक्तधर्मानुष्ठानात्मको योग इत्यर्थः। अथ योगबुद्धिं विभजन्योगिनो विभजते तद्विषयेति। उक्ते बुद्धिद्वये भगवतोऽभिमतिं दर्शयति तथाचेति। सांख्यबुद्ध्याश्रया ज्ञाननिष्ठेत्येतदपि भगवतोऽभिमतमित्याह तयोश्चेति। ज्ञानमेव योगो ज्ञानयोगस्तेन हि ब्रह्मणा युज्यते तादात्म्यमापद्यते तेन संन्यासिनां निष्ठा निश्चयेन स्थितिस्तात्पर्येण परिसमाप्तिस्तां कर्मनिष्ठातो व्यतिरिक्तां निष्ठयोर्मध्ये निष्कृष्य भगवान्वक्ष्यतीति योजना।लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इत्येतद्वाक्यमुक्तार्थविषयमर्थतोऽनुवदति पुरेति। योगबुद्ध्याश्रया कर्मनिष्ठेत्यत्रापि भगवदनुमतिमादर्शयति तथाचेति। कर्मैव योगः कर्मयोगस्तेन हि बुद्धिशुद्धिद्वारा मोक्षहेतुज्ञानाय पुमान्युज्यते तेन निष्ठां कर्मिणां ज्ञाननिष्ठातो विलक्षणां कर्मयोगेनेत्यादिना वक्ष्यति भगवानिति योजना। निष्ठाद्वयं बुद्धिद्वयाश्रयं भगवता विभज्योक्तमुपसंहरति एवमिति। कया पुनरनुपपत्त्या भगवता निष्ठाद्वयं विभज्योक्तमित्याशङ्क्याह ज्ञानकर्मणोरिति। कर्म हि कर्तृत्वाद्यनेकत्वबुद्ध्याश्रयं ज्ञानं पुनरकर्तृत्वैकत्वबुद्ध्याश्रयं तदुभयमित्थं विरुद्धसाधनसाध्यत्वान्नैकावस्थस्यैव पुरुषस्य संभवति अतो युक्तमेव तयोर्विभागवचनमित्यर्थः। भगवदुक्तविभागवचनस्य मूलत्वेन श्रुतिमुदाहरति यथेति। तत्र ज्ञाननिष्ठाविषयं वाक्यं पठति एतमेवेति। प्रकृतमात्मानं नित्यविज्ञप्तिस्वभावं वेदितुमिच्छन्तस्त्रिविधेऽपि कर्मफले वैतृष्ण्यभाजः सर्वाणि कर्माणि परित्यज्य ज्ञाननिष्ठा भवन्तीति पञ्चमलकारस्वीकारेण संन्यासविधिं विवक्षित्वा तस्यैव विधेः शेषेणार्थवादेन किं प्रजयेत्यादिना मोक्षफलं ज्ञानमुक्तमित्यर्थः। ननु फलभावात्प्रजाक्षेपो नोपपद्यते पुत्रेणैतल्लोकजयस्य वाक्यान्तरसिद्धत्वादित्याशङ्क्य विदुषां प्रजासाध्यमनुष्यलोकस्यात्मव्यतिरेकेणाभावादात्मनश्चासाध्यत्वादाक्षेपो युक्तिमानिति विवक्षित्वाह येषामिति। इति ज्ञानं दर्शितमिति शेषः। तस्मिन्नेव ब्राह्मणे कर्मनिष्ठाविषयं वाक्यं दर्शयति तत्रैवेति। प्राकृतत्वमतत्त्वदर्शित्वेनाज्ञत्वं स च ब्रह्मचारी सन्गुरुसमीपे यथाविधि वेदमधीत्यार्थज्ञानार्थं धर्मजिज्ञासां कृत्वा तदुत्तरकालं लोकत्रयप्राप्तिसाधनं पुत्रादित्रयंसोऽकामयत जाया मे स्यात् इत्यादिना कामितवानिति श्रुतमित्यर्थः। वित्तं विभजते द्विप्रकारमिति। तदेव प्रकारद्वैरूप्यमाह मानुषमिति। मानुषं वित्तं व्याचष्टे कर्मरूपमिति। तस्य फलपर्यवसायित्वमाह पितृलोकेति। दैवं वित्तं विभजते विद्यां चेति। तस्यापि फलनिष्ठत्वमाह देवेति। कर्मनिष्ठाविषयत्वेनोदाहृतश्रुतेस्तात्पर्यमाह अविद्येति। अज्ञस्य कामनाविशिष्टस्यैव कर्माणिसोऽकामयत इत्यादिना दर्शितानीत्यर्थः। ज्ञाननिष्ठाविषयत्वेन दर्शितश्रुतेरपि तात्पर्यं दर्शयति तेभ्य इति। कर्मसु विरक्तस्यैव संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा प्रागुदाहृतश्रुत्या दर्शितेत्यर्थः। अवस्थाभेदेन ज्ञानकर्मणोर्भिन्नाधिकारत्वस्य श्रुतत्वात्तन्मूलेन भगवतो विभागवचनेन शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वं प्रतिज्ञातमपबाधितमिति साधितम् किञ्च समुच्चयो ज्ञानस्य श्रौतेन स्मार्तेन वा कर्मणा विवक्ष्यते यदि प्रथमस्तत्राह तदेतदिति। समुच्चयेऽभिप्रेते प्रश्नानुपपत्तिं दोषान्तरमाह नचेति। तामेवानुपपत्तिं प्रकटयति एकपुरुषेति। यदि समुच्चयः शास्त्रार्थो भगवता विवक्षितस्तदा ज्ञानकर्मणोरेकेन पुरुषेणानुष्ठेयत्वमेव तेनोक्तमर्जुनेन च श्रुतं तत् कथं तदसंभवमनुक्तमश्रुतं च मिथ्यैव श्रोता भगवत्यारोपयेत्। न च तदारोपादृते किमिति मां कर्मण्येवातिक्रूरे युद्धलक्षणे नियोजयसीति प्रश्नोऽवकल्पते। तथाच प्रश्नालोचनया प्रष्टृप्रवक्त्रोः शास्त्रार्थतया समुच्चयोऽभिप्रेतो न भवतीति प्रतिभातीत्यर्थः। किञ्च समुच्चयपक्षे कर्मापेक्षया बुद्धेर्ज्यायस्त्वं भगवता पूर्वमनुक्तमर्जुनेन चाश्रुतं कथमसौ तस्मिन्नारोपयितुमर्हति ततश्चानुवादवचनं श्रोतुरनुचितमित्याह बुद्धेश्चेति। इतश्च समुच्चयः शास्त्रार्थो न संभवत्यन्यथा पञ्चमादावर्जुनस्य प्रश्नानुपपत्तेरित्याह किञ्चेति। ननु सर्वान्प्रत्युक्तेऽपि समुच्चयेनार्जुनं प्रत्युक्तोऽसाविति तदीयप्रश्नोपपत्तिरित्याशङ्क्याह यदीति। एतयोः कर्मतत्त्यागयोरिति यावत्। ननु कर्मापेक्षया कर्मत्यागपूर्वकस्य ज्ञानस्य प्राधान्यात्तस्य श्रेयस्त्वात्तद्विषयप्रश्नोपपत्तिरिति चेन्नेत्याह नहीति। तथैव समुच्चये पुरुषार्थसाधने भगवता दर्शिते सत्यन्यतरगोचरो न प्रश्नो भवतीति शेषः। समुच्चये भगवतोक्तेऽपि तदज्ञानादर्जुनस्य प्रश्नोपपत्तिरिति शङ्कते अथेति। अज्ञाननिमित्तं प्रश्नमङ्गीकृत्यापि प्रत्याचष्टे तथापीति। भगवतो भ्रान्त्यभावेन पूर्वापरानुसन्धानसंभवादित्यर्थः। प्रश्नानुरूपत्वमेव प्रतिवचनस्य प्रकटयति मयेति। व्यावर्त्यमंशमादर्शयति नत्विति। प्रतिवचनस्य प्रश्नाननुरूपत्वमेव स्पष्टयति पृष्टादिति। श्रौतेन कर्मणा समुच्चयो ज्ञानस्येति पक्षं प्रतिक्षिप्य पक्षान्तरं प्रतिक्षिपति नापीति। श्रुतिस्मृत्योर्ज्ञानकर्मणोर्विभागवचनमादिशब्दगृहीतं बुद्धेर्ज्यायस्त्वं पञ्चमादौ प्रश्नो भगवत्प्रतिवचनं सर्वमिदं श्रौतेनेव स्मार्तेनापि कर्मणा बुद्धेः समुच्चये विरुद्धं स्यादित्यर्थः। द्वितीयपक्षासंभवे हेत्वन्तरमाह किञ्चेति। समुच्चयपक्षे प्रश्नप्रतिवचनयोरसंभवान्नेदं गीताशास्त्रं तत्परमित्युपसंहरति तस्मादिति। विशुद्धब्रह्मात्मज्ञानं स्वफलसिद्धौ न सहकारिसापेक्षमज्ञाननिवृत्तिफलत्वाद्रज्ज्वादितत्त्वज्ञानवत् अथवा बन्धः सहायानपेक्षेण ज्ञानेन निवर्त्यते अज्ञानात्मकत्वाद्रज्जुसर्पादिवदिति भावः। ननुकुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् इति वक्ष्यमाणत्वात् कथं गीताशास्त्रे समुच्चयो नास्ति तत्राह यस्य त्विति। चोदनासूत्रानुसारेण विधितोऽनुष्ठेयस्य कर्मणो धर्मत्वाद्व्यापारमात्रस्य तथात्वाभावात्तत्त्वविदश्च वर्णाश्रमाभिमानशून्यस्याधिकारप्रतिप्रत्त्यभावाद्यागादिप्रवृत्तीनामविद्यालेशतो जायमानानां कर्माभासत्वात् कुर्याद्विद्वानित्यादि वाक्यं न समुच्चयप्रापकमिति भावः। वा शब्दश्चार्थे द्वितीयस्तु विविदिषावाक्यस्थसाधनान्तरसंग्रहार्थः। सांसारिकं ज्ञानं व्यावर्तयति परमार्थेति। तदेवाभिनयति एकमिति। प्रवृत्तिरूपमिति रूपग्रहणमाभासत्वप्रदर्शनार्थं कर्माभाससमुच्चयस्तु यादृच्छिकत्वान्न मोक्षं फलयतीति शेषः। किञ्च ज्ञानिनो यागादिप्रवृत्तिर्न ज्ञानेन तत्फलेन समुच्चीयते फलाभिसन्धिविकलप्रवृत्तित्वादहंकारविधुरप्रवृत्तित्वाद्वा भगवत्प्रवृत्तिवदित्याह यथेति। हेतुद्वयस्यासिद्धिमाशङ्क्य परिहरति तत्त्वविदिति। कूटस्थं ब्रह्मैवाहमिति मन्वानो विद्वान् प्रवृत्तिं तत्फलं वा नैव स्वगतत्वेन पश्यति रूपादिवद् दृश्यस्य द्रष्टृधर्मत्वायोगात् किंतु कार्यकरणसंघातगतत्वेनैव प्रवृत्त्यादि प्रतिपद्यते ततस्तत्त्वविदो व्याख्यानभिक्षाटनादावहंकारस्य तृप्त्यादिफलाभिसन्धेश्चाभासत्वान्नासिद्धं हेतुद्वयमित्यर्थः। ननु ज्ञानोदयात्प्रागवस्थायामिवोत्तरकालेऽपि प्रतिनियतप्रवृत्त्यादिदर्शनान्न तत्त्वदर्शिनिष्ठप्रवृत्त्यादेराभासत्वमिति तत्राह यथाचेति। स्वर्गादिरेव काम्यमानत्वात्कामस्तदर्थिनः स्वर्गादिकामस्याग्निहोत्रादेरपेक्षितस्वर्गादिसाधनस्यानुष्ठानार्थमग्निमाधाय व्यवस्थितस्य तस्मिन्नेव काम्ये कर्मणि प्रवृत्तस्यार्धकृते केनापि हेतुना कामे विनष्टे तदेवाग्निहोत्रादि निर्वर्तयतो न तत् काम्यं भवति नित्यकाम्यविभागस्य स्वाभाविकत्वाभावात् कामोपबन्धानुपबन्धकृतत्वात् तथा विदुषोऽपि विध्यधिकाराभावाद्यागादिप्रवृत्तीनां कर्माभासतेत्यर्थः। विद्वत्प्रवृत्तीनां कर्माभासत्वमित्यत्र भगवदनुमतिमुपन्यस्यति तथाचेति। ननु विद्वद्व्यापारेऽपि कर्मशब्दप्रयोगदर्शनात् तद्व्यापारस्य कर्माभासत्वानुपपत्तेः समुच्चयसिद्धिरिति तत्राह यच्चेति। ज्ञानकर्मणोः समुच्चित्यैव संसिद्धिहेतुत्वे प्रतिपन्ने कुतो विभज्यार्थज्ञानमिति पृच्छति तत्कथमिति। तत्र किं जनकादयोऽपि तत्त्वविदः प्रवृत्तकर्माणः स्युराहोस्विदतत्त्वविद इति विकल्प्य प्रथमं प्रत्याह यदिति। तत्त्ववित्त्वे कथं न प्रवृत्तकर्मत्वं कर्मणामकिंचित्करत्वादित्याशङ्क्याह ते लोकेति। तेषामुक्तप्रयोजनार्थमपि न प्रवृत्तिर्युक्ता सर्वत्राप्युदासीनत्वादित्याशङ्क्याह गुणा इति। इन्द्रियाणां विषयेषु प्रवृत्तिद्वारा तत्त्वविदां प्रवृत्तकर्मत्वेऽपि ज्ञानेनैव तेषां मुक्तिरित्याह ज्ञानेनेति। उक्तमेवार्थं संक्षिप्य दर्शयति कर्मेति। कर्मणेत्यादौ बाधितानुवृत्त्या प्रवृत्त्याभासो गृह्यते। द्वितीयमनुवदति अथेति। तत्र वाक्यार्थं कथयति ईश्वरेति। विभज्य विज्ञेयत्वं वाक्यार्थस्योक्तमुपसंहरति इति व्याख्येयमिति। कर्मणां चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानहेतुत्वमित्युक्तेऽर्थे वाक्यशेषं प्रमाणयति एतमेवेति। योगिनः कर्म कुर्वन्ति इत्यादिवाक्यमर्थतोऽनुवदति सत्त्वेति। स्वकर्मणेत्यादौ साक्षादेव मोक्षहेतुत्वं कर्मणां वक्ष्यतीत्याशङ्क्याह स्वकर्मणेति। स्वकर्मानुष्ठानादीश्वरप्रसादद्वारा ज्ञाननिष्ठायोग्यता लभ्यते ततो ज्ञाननिष्ठया मुक्तिस्तेन न साक्षात्कर्मणां मुक्तिहेतुतेत्यग्रे स्फुटीभविष्यतीत्यर्थः। तत्त्वज्ञानोत्तरकालं कर्मासंभवे फलितमुपसंहरति तस्मादिति। ननु यद्यपि गीताशास्त्रं तत्त्वज्ञानप्रधानमेकं वाक्यं तथापि तन्मध्ये श्रूयमाणं कर्म तदङ्गमङ्गीकर्तव्यं प्रकरणप्रामाण्यादिति समुच्चयसिद्धिस्तत्राह यथाचेति। अर्थशब्देनात्मज्ञानमेव केवलं कैवल्यहेतुरिति गृह्यते। वृत्तिकृतामभिप्रायं प्रत्याख्याय स्वाभिप्रेतः शास्त्रार्थः समर्थितः। संप्रत्यशोच्यानित्यस्मात्प्राक्तनग्रन्थसंदर्भस्य प्रागुक्तं तात्पर्यमनूद्याशोच्यानित्यादेः स्वधर्ममपि चावेक्ष्येत्येतदन्तस्य समुदायस्य तात्पर्यमाह तत्रेति। अत्र हि शास्त्रे त्रीणि काण्डानि अष्टादशसंख्याकानामध्यायानां षट्कत्रितयमुपादाय त्रैविध्यात् तत्र पूर्वषट्कात्मकं पूर्वकाण्डं त्वंपदार्थं विषयीकरोति मध्यमषट्करूपं मध्यमकाण्डं तत्पदार्थं गोचरयति अन्तिमषट्कलक्षणमन्तिमं काण्डंपदार्थयोरैक्यं वाक्यार्थमधिकरोति तज्ज्ञानसाधनानि तत्र तत्र प्रसङ्गादुपन्यस्यन्ते तज्ज्ञानस्य तदधीनत्वात् तत्त्वज्ञानमेव केवलं कैवल्यसाधनमिति च सर्वत्र विगीतम्। एवं पूर्वोक्तरीत्या गीताशास्त्रार्थे परिनिश्चिते सतीति यावत्। धर्मे संमूढं कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलं चेतो यस्य तस्य मिथ्याज्ञानवतोऽहंकारममकारवतः शोकाख्यसागरे दुरुत्तारे प्रविश्य क्लिश्यतो ब्रह्मात्मैक्यलक्षणवाक्यार्थज्ञानमात्मज्ञानं तदतिरेकेणोद्धरणासिद्धेस्तमतिभक्तमतिस्निग्धं शोकादुद्धर्तुमिच्छन्भगवान्यथोक्तज्ञानार्थं तमर्जुनमवतारयन् पदार्थपरिशोधने प्रवर्तयन्नादौ त्वंपदार्थं शोधयितुमशोच्यानित्यादिवाक्यमाहेति योजना। यस्याज्ञानं तस्य भ्रमो यस्य भ्रमस्तस्य पदार्थपरिशोधनपूर्वकं सम्यग्ज्ञानं वाक्यादुदेतीति ज्ञानाधिकारिणमभिप्रेत्याह अशोच्यानित्यादीति। यत्तु कैश्चित्आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः इत्याद्यात्मयाथात्म्यदर्शनविधिवाक्यार्थमनेन श्लोकेन व्याचष्टे स्वयं हरिरित्युक्तं तदयुक्तं कृतियोग्यतैकार्थसमवेतश्रेयःसाधनताया वा पराभिमतनियोगस्य वा विध्यर्थस्यात्राप्रतीयमानस्य कल्पनाहेत्वभावात्। न च दर्शने पुरुषतन्त्रत्वरहिते विधेययागादिविलक्षणे विधिरुपपद्यते कृत्यान्तर्भूतस्यार्हार्थत्वात् तव्यो न विधिमधिकरोतीत्यभिप्रेत्य व्याचष्टे न शोच्या इति। कथं तेषामशोच्यत्वमित्युक्ते भीष्मादिशब्दवाच्यानां वा शोच्यत्वं तत्पदलक्ष्याणां वेति विकल्प्याद्यं दूषयति सद्वृत्तत्वादिति। ये भीष्मादिशब्दैरुच्यन्ते ते श्रुतिस्मृत्युदीरिताविगीताचारवत्त्वान्न शोच्यतामश्नुवीरन्नित्यर्थः। द्वितीयं प्रत्याह परमार्थेति। अरजते रजतबुद्धिवदशोच्येषु शोच्यबुद्ध्या भ्रान्तोऽसीत्याह तानिति। अनुशोचनप्रकारमभिनयन्भ्रान्तिमेव प्रकटयति ते म्रियन्त इति। पुत्रभार्यादिप्रयुक्तं सुखमादिशब्देन गृह्यते। इत्यनुशोचितवानसीति संबन्धः। विरुद्धार्थाभिधायित्वेनापि भ्रान्तत्वमर्जुनस्य साधयति त्वं प्रज्ञावतामिति। वचनानिउत्सन्नकुलधर्माणाम् इत्यादीनि। किमेतावता फलितमिति तदाह तदेतदिति। तन्मौढ्यमशोच्येषु शोच्यदृष्टित्वमेतत्पाण्डित्यं बुद्धिमतां वचनभाषित्वमिति यावत्। अर्जुनस्य पूर्वोक्तभ्रान्तिभाक्त्वे निमित्तमात्माज्ञानमित्याह यस्मादिति। ननु सूक्ष्मबुद्धिभाक्त्वमेव पाण्डित्यं न त्वात्मज्ञत्वं हेत्वभावादित्याशङ्क्याह तेहीति। पाण्डित्यं पण्डितभावमात्मज्ञानं निर्विद्य निश्चयेन लब्ध्वाबाल्ये न तिष्ठासेद् इति बृहदारण्यकश्रुतिमुक्तार्थामुदाहरति पाण्डित्यमिति। यथोक्तपाण्डित्यराहित्यं कथं ममावगतमित्याशङ्क्य कार्यदर्शनादित्याह परमार्थतस्त्विति। यस्मादित्यस्यापेक्षितं दर्शयति अत इति।
Sri Dhanpati
।।2.11।। तदेवमर्जुनः कथं भीष्ममहमित्यादिना प्रदर्शिताभ्यां गुर्वादिष्वहमेतेषां ममैत इति भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्तस्त्रेहाविच्छेदादिनिमित्ताभ्यां शोकमोहाभ्यां स्वतएव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽप्यभिभूतविवेकविज्ञानस्तस्माद्युद्धादुपरराम परधर्मं च भिक्षाशनादिकं कर्तुं प्रववृते तथाच सर्वप्राणिनां शोकमोहाविष्टचेतसां स्वभावत एव स्वधर्मपरित्यागः प्रतिषिद्धाश्रयणं च स्यात्। स्वधर्मे प्रवृत्तानामपि तेषां कायिकादित्रिविधं कर्म फलाभिसंधिपूर्वकमेव साहंकारं भवति तत्रैवंसति धर्माधर्मोपचयादिष्टानिष्टजन्ममरणादिसंप्राप्तिलक्षणः संसारो नोपशाम्यत्यतो धर्मसंमूढचेतसं महति शोकसागरे निमग्नं लोकमुद्दिधीर्षुः संसारबीचभूतयोस्तयोश्चित्तशुद्धिजनकनिष्कामकर्मणो लब्धात्तत्वज्ञानात्केवलादन्यतो निवृत्तिमपश्यन् उपयोपेयभूतं निष्ठाद्वयमुपदिदिक्षुरर्जुनं निमित्तीकृत्य भगवान्वासुदेव आह अशोच्याजित्यादिना। एतेन तत्रार्जुनस्य द्विविधो मोहो निराकरणीयः। तत्रात्मन्युपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरुपः सर्वप्राणिसाधारण एकः अपरस्तु स्वधर्मेऽधर्मत्वप्रतिभासरुपोऽर्जुनस्यैवासाधारण इति प्रत्युक्तम्। सर्व प्राणिसाधारण्योर्मोहयोर्लोक उपलभ्यमानत्वात्। तथाच सर्वप्राणिनामिति भाष्यकारैस्तथैवोक्तत्वात् अर्जुनं निमित्तीकृत्य लोकार्थमेव भगवतोपदेशः कृत इति भाष्यकृद्धिः स्वेन च स्थापितत्वात् अशुद्धान्तःकरणानां तु योगनिष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थंधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिनेति लोकेऽस्मिन्निति श्लोकस्थस्वग्रन्थविरोधाच्चेति दिक्। अशोच्यान्शोकानर्हान्सद्भूतत्वात्परमार्थरुपेण नित्यत्वाच्च शोचितवानसि। प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादान्किं नो राज्येनकथं भीष्ममहम् इत्यादीनि वचनानि च भाषसे तदेतदुभयमुन्मत्तचेष्टितमित्यभिप्रायः। यतः पण्डिता आत्मज्ञाः गतासून्मृतानगतासूनमृतांश्च नानुशोचन्ति। अहो कष्टमेते मृता एते मरिष्यन्तीति चिन्तां न कुर्वन्तीत्यर्थः। यत्तु प्रज्ञानां पण्डितानामवादान्वक्तुमयोग्यान्भाषस इति तदुपेक्ष्यम् अर्हार्थे घञो दुर्लभत्वात् विशेष्याध्याहारसापेक्षत्वाच्चेति।
Sri Madhavacharya
।।2.11।।तत्र सेनयोर्मध्ये बान्धवादिमोहजालसंवृतं विषीदन्तमर्जुनं भगवानुवाच। प्रज्ञावादान् स्वमनीषोत्थवचनानि। कथमशोच्याः गतासून्।
Sri Neelkanth
।।2.11।।अर्जुनस्य देहनाशे आत्मनाशधीः स्वधर्मे युद्धे चाधर्मधीरिति मोहद्वयम्। तत्राद्यं ब्रह्मविद्यासूत्रभूतैर्विंशत्या श्लोकैरुपनिनीषन् श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वमिति। जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते न जीवो म्रियते इति श्रुतेर्देहाद्युपाधिनाशेऽप्याकाशवन्नाशरहितत्वेन अशोचनीयान् भीष्मादीनन्वशोचः कथमेते गुरवो मया हन्तव्याः कथं वा तैर्विनाहं जीविष्यामिति शोकं कृतवानसि। एवं मूढोऽपि त्वं प्रज्ञावादान् प्रज्ञावतां देहादन्यमात्मानं जानतां वादान् शब्दान्नरके नियतं वासःपतन्ति पितरो ह्येषाम् इत्यादीन् भाषसे परं न तु प्रज्ञावानसि। तत्र हेतुः गतासूनिति। गतासून् गतप्राणान्देहान्नानुशोचन्ति प्रत्युत निर्हरन्त्येव। एतेन प्राण एवेष्टो न तु देहः। तथा च श्रुतिःप्राणो ह पिता प्राणो माता प्राण आचार्यः इत्यादिः। अतएव सप्राणानेतान् अवगणयन्तं नरं पित्रादिहन्ता त्वमसि धिक्त्वामिति वदन्ति उत्क्रान्तप्राणान् दहन्तमपि नैवं वदन्तीति लोकवेदप्रसिद्धिः। तस्मात् आत्मा देहादन्यः चेतनत्वात् व्यतिरेकेण घटवत्। देहो न चेतनः दृश्यत्वात् घटवत्। यदि देहश्चेतनः स्यात् मृतेऽपि तत्र चैतन्यमुपलभ्येत तस्माद्देहनाशेनात्मनाशं मन्वानो मूर्ख एवासीत्यर्थः। यत्तुप्रज्ञानां पण्डितानां अवादान् वक्तुमयोग्यान् भाषसे इति तार्किकव्याख्यानं तत् अर्हार्थे घञो दुर्लभत्वात् विशेषाध्याहारसापेक्षत्वाच्चोपेक्ष्यम्।
Sri Ramanujacharya
।।2.11।।श्रीभगवानुवाच अशोच्यान् प्रति अनुशोचसिपतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः। (गीता 1।41) इत्यादिकान् देहात्मस्वभावप्रज्ञानिमित्तवादान् च भाषसे। देहात्मस्वभावज्ञानवतां न अत्र किञ्चित् शोकनिमित्तम् अस्ति। गतासून् देहान् अगतासून् आत्मनश्च प्रति तयोः स्वभावयाथात्म्यविदो न शोचन्ति। अतः त्वयि विप्रतिषिद्वम् इदम् उपलभ्यते यद्एतान् हनिष्यामि इति अनुशोचनं यच्च देहातिरिक्तात्मज्ञानकृतं धर्माधर्मभाषणम्। अतो देहस्वभावं च न जानासि तदतिरिक्तम् आत्मानं च नित्यम् तत्प्राप्त्युपायभूतं युद्धादिकं धर्मं च। इदं च युद्धं फलाभिसन्धिरहितम्। आत्मयाथात्म्यावाप्त्युपायभूतम्। आत्मा हि न जन्माधीनसद्भावो न मरणाधीनविनाशश्च तस्य जन्ममरणयोः अभावात् अतः स न शोकस्थानम्। देहः तु अचेतनः परिणामस्वभावः तस्य उत्पत्तिविनाशयोगः स्वाभाविकः इति सोऽपि न शोकस्थानम् इति अभिप्रायः।प्रथमं तावद् आत्मनां स्वभावं श्रृणु
Sri Vallabhacharya
।।2.11।।अथ नरस्य मोहशोकनिवृत्त्यर्थं साङ्ख्यबुद्धिमाह तत्र साङ्ख्यं बहुविधमत्रैकं सत्प्रमाणकम्। अष्टाविंशतितत्त्वानां स्वरूपं यत्र वै हरिः।।1।।अन्ये सूत्रे निषिध्यन्ते योगोऽप्येकः सदादृतः। यस्मिन्ध्यानं भगवतो निर्बीजेऽप्यात्मबोधकः।।2।।वैराग्यज्ञानयोगैश्च प्रेम्णा च तपसा तथा। एकेनापि दृढेनेशं भजन् सिद्धिमवाप्नुयात्।।3।।अतः कुमतिनाशार्थं साङ्ख्ययोगौ प्रकीर्तितौ। त्यागात्यागविभागेन साङ्ख्ये त्यागः प्रकीर्त्त्यते।।4।।अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरहङ्कृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थौ हरिमाश्रितः।।5।।अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोऽपि मनसैव हि। यमादयस्तु कर्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता।।6।।ईश्वरालम्बनो योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्।।7।।साङ्ख्येऽपि भगवच्चित्ते फलमेतन्न चान्यथा। समर्पणात्कर्मणां च भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।8।।अतः पूर्वं साङ्ख्यधिया धर्मनिष्ठा निरूप्यते।।9।।तथाहि हृषीकेशो भगवान् वासुदेवस्तदा स्वमार्गे न स्वीकुर्वन्नात्मनस्तत्त्वाविवेकादस्यैवं शोको भवतीति तन्निवारणार्थं साङ्ख्यबुद्धिं प्रदर्शयन्नाह अशोच्यानिति। उभयथाऽपि न शोचितुं योग्यास्तान्प्रति अन्वशोचस्त्वम्।पतन्ति पितरो ह्येषां 1।42 इत्यादिना देहात्मस्वभावप्रज्ञानिमित्तवादांश्च भाषसे देहात्मस्वभावज्ञानवतां शोके निमित्ताभावात्। गतासून्मृतिं प्राप्तान् अगतासून् जीवतः तत्कलत्रादीन्।मृतानां परलोके का गतिर्जीवतामिह का भविता इति न शोचन्ति। यद्वा गतासून् जडान् अनात्मनो देहान् अगतासून् चेतनान् जीवात्मनश्च पण्डिता विवक्षितलक्षणा न शोचन्ति। त्वं च कीदृक् पण्डितो यच्छोचसीति भावः। आत्मनो वक्ष्यमाणचिदक्षरपुरुषत्वादेकविधत्वं देहस्य चानात्मप्रकृतिकार्यत्वादनित्यत्वं प्रसिद्धमिति हृदयम्।
Sri Sridhara Swami
।।2.11।।देहात्मनोरविवेकादस्यैवं शोको भवतीति तद्विवेकप्रदर्शनार्थं श्रीभगवानुवाच अशोच्यानिति। शोकस्याविषयभूतानेव बन्धूंस्त्वमन्वशोचः अनुशोचितवानसिदृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् इत्यादिना तत्रकुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् इत्यादिना मया बोधितोऽपि पुनश्च प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान् शब्दान्कथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादीन्केवलं भाषसे नतु पण्डितोऽसि। यतो गतासून्गतप्राणान्बन्धूनगतासूंश्च जीवतोऽपि बन्धुहीना एते कथं जीविष्यन्तीति नानुशोचन्ति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।2.11।।अशोच्यानन्वशोचः इत्युक्ते केचिदशोच्याः शोचन्ति तदनन्तरमयमपि शोचतीति भ्रान्तिः स्यात् तन्निवृत्त्यर्थमुक्तंअशोच्यान्प्रति इति।अन्वशोचः इति लङ्प्रयोगोऽनुपपन्नः शोकस्याद्यतनत्वात्भाषसे इति वर्तमानार्थव्यपदेशवैरुप्याच्च इत्यत्राह अनुशोचसि इति। अद्यतन एव चिरानुवृत्तत्वविवक्षया सोपसर्गलङ्प्रयोगः यद्वा वर्तमानार्थ एवसुप्तिङुपग्रहः इत्यादिना लकारव्यत्ययः।प्रज्ञावादांश्च भाषसे इत्यत्रवर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा अष्टा.3।3।131 इत्यनुशासनाद्भूते लट्। तेनतूष्णीं बभूव ह 2।9 इत्यनेन न विरोधः। अत्र प्रकृष्टज्ञानवाचिना प्रज्ञाशब्देन देहात्मनोः स्वभावज्ञानमुच्यते। प्रज्ञया कृता व्यवहाराः प्रज्ञावादा इति समासार्थव्यञ्जनाय निमित्तशब्दः। देहात्मभेदज्ञाने सति हि पितृ़णां तदर्थपिण्डोदकक्रियायास्तल्लोपनिमित्तप्रत्यवायादेश्च विश्वासपूर्वको व्यवहार इत्येतत्सूचनायपतन्ति इत्याद्युपात्तम्। फलितमाह देहात्मेति।गतासून् इत्यादेर्विवक्षितं विशेष्यं निर्दिशन् पण्डितशब्दं प्रकृतोपयोगितया व्याकुर्वन्नन्वयमाह गतासूनिति। यद्यपि गतासूनगतासूनितिशब्दौ निष्प्राणसप्राणवाचकौ तथापि तस्यार्थस्य प्रकृतासङ्गतेः अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदेशिकम्। तमः कान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसिबद्धवैराणि भूतानि द्वेषं कुर्वन्ति चेत्ततः। शोच्यान्यहोऽतिमोहेन व्याप्तानीति मनीषिणा इत्यादिषु पण्डितानामेव सप्राणनिष्प्राणविषयशोकदर्शनात्अशोच्यानन्वशोचः इत्यस्य वक्ष्यमाणे विस्तरे चअव्यक्तोऽयम् 2।25 इत्यादिनाअथ चैनम् 2।26 इत्यादिना च नित्यस्यात्मनः अनित्यस्य शरीरस्य च अशोचनीयत्वेन वक्ष्यमाणत्वादत्रापि तद्विषयतैव युक्तेत्यभिप्रायः। देहास्तावन्न शोचनीयाः नश्वरत्वात् आत्मानोऽपि तथा अनश्वरत्वात् इत्यूहापोहक्षमबुद्धिरूपा पण्डा येषां तेऽत्र पण्डिताः। प्रज्ञावादविप्रतिषिद्धशोकेनोन्नींतांस्तदज्ञानविषयानाह अतो देहेत्यादिना। शोकस्तु सिद्धः प्रज्ञा तु वादमात्रस्थेति भावः।को देहस्वभावः कथमात्मा देहातिरिक्तो नित्यश्च कथं च अनयोरशोच्यत्वम् कथं वा घोरं युद्धादिकमात्मप्राप्त्युपायभूतं इत्याशङ्क्य तदज्ञानविषयतयोक्तं त्रयं बुद्धिस्थक्रमेण विवृणोति इदं चेत्यादिना। इदमेव युद्धं बुद्धिविशेषसंस्कृतत्वादात्मयाथात्म्यप्राप्तिकरमित्यर्थः।उपायभूतमित्यत्र च्विप्रत्ययाप्रयोगादयमेवास्य स्वभावः फलान्तराभिसन्धिना तु स प्रतिबद्ध्यत इति भावः।आत्मा हीति हिशब्देनन जायते कठोप.2।18 इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धिं द्योतयति। आत्मनो देहसंयोगवियोगलक्षणजन्ममरणसद्भावेऽपि नोत्पत्तिविनाशरूपे जन्ममरणे इत्यभिप्रायेणाह तस्येति।देहस्त्विति तुशब्द आत्मापेक्षया वैलक्षण्यं प्रत्यक्षादिसिद्धं द्योतयति। देहत्वेनोपचयात्मकत्वादचेतनत्वाच्च घटादिवत्परिणामस्वभाव इत्यर्थः।
Swami Sivananda
2.11 अशोच्यान् those who should not be grieved for? अन्वशोचः hast grieved? त्वम् thou? प्रज्ञावादान् words of wisdom? च and? भाषसे speakest? गतासून् the dead? अगतासून् the living? च and? न अनुशोचन्ति grieve not? पण्डिताः the wise.Commentary -- The philosophy of the Gita begins from this verse.Bhishma and Drona deserve no grief because they are eternal in their real nature and they are virtuous men who possess very good conduct. Though you speak words of wisdom? you are unwise because you grieve for those who are really eternal and who deserve no grief. They who are endowed with the knowledge of the Self are wise men. They will not grieve for the living or for the dead because they know well that the Self is immortal and that It is unborn. They also know that there is no such a thing as death? that it is a separation of the astral body from the physical? that death is nothing more than a disintegration of matter and that the five elements of which the body is composed return to their source. Arjuna had forgotten the eternal nature of the Soul and the changing nature of the body. Because of his ignorance? he began to act as if the temporary relations with kinsmen? teachers? etc.? were permanent. He forgot that his relations with this world in his present life were the results of past actions. These? when exhausted? end all relationship and new ones ones crop up when one takes on another body.The result of past actions is known as karm and that portion of the karma which gave rise to the present incarnation is known as prarabdha karma.
Sri Abhinavgupta
।।2.11।।No commentary.
Sri Shankaracharya
।।2.11।। अशोच्यान् इत्यादि । न शोच्या अशोच्याः भीष्मद्रोणादयः सद्वृत्तत्वात् परमार्थस्वरूपेण च नित्यत्वात् तान् अशोच्यान् अन्वशोचः अनुशोचितवानसि ते म्रियन्ते मन्निमित्तम् अहं तैर्विनाभूतः किं करिष्यामि राज्यसुखादिना इति। त्वं प्रज्ञावादान् प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादांश्च वचनानि च भाषसे। तदेतत् मौढ्यं पाण्डित्यं च विरुद्धम् आत्मनि दर्शयसि उन्मत्त इव इत्यभिप्रायः। यस्मात् गतासून् गतप्राणान् मृतान् अगतासून् अगतप्राणान् जीवतश्च न अनुशोचन्ति पण्डिताः आत्मज्ञाः। पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषां ते हि पण्डिताः पाण्डित्यं निर्विद्य इति श्रुतेः। परमार्थतस्तु तान् नित्यान् अशोच्यान् अनुशोचसि अतो मूढोऽसि इत्यभिप्रायः।।कुतस्ते अशोच्याः यतो नित्याः। कथम्
Sri Jayatritha
।।2.11।।इदानीं गीताव्याख्यानावसरे प्राप्तेधर्मक्षेत्रे 1।1 इत्यारभ्यअशोच्यानन्वशोचस्त्वं इत्यतः प्राक्तनस्य ग्रन्थस्यातिरोहितार्थत्वात्तात्पर्यमाह तत्रे ति। तत्र गीतिकायां कैश्चन श्लोकैरिदमुच्यत इति शेषः। नन्वत्र न धर्मो नापि तत्त्वं प्रतिपाद्यते तत्कुतोऽस्य गीतायामनुप्रवेशः मैवम् भगवतोऽर्जुनबोधने प्रसक्तिं दर्शयतोऽस्य ग्रन्थस्य तादर्थ्यात्तत्र प्रवेशोपपत्तेः। बान्धवादिविषयो मोहोममैते अहमेतेषां एते च मन्निमित्तं नङ्क्ष्यन्ति कथमेतैर्विनाऽहं भवेयम् पापं च मे भविष्यति जयश्च सन्दिग्धः इत्यादिरूपो मिथ्याप्रत्ययो बान्धवादिमोहः तेषु स्नेहो वा। सजालमिव तेन संवृतं तत एव विषीदन्तम्। विषादो नाम मोहनिमित्ताच्छोकाद्यन्मनोदौर्बल्यम् यस्मिन्सति सर्वव्यापारोपरमो भवति। नन्विदानीमेव कुतोऽर्जुनस्य मोहसमुत्पत्तिः न ह्येते बान्धवादय इति प्राङ्नाज्ञासीत् येन युद्धाय महान्तमुद्योगमकार्षीदित्यत आह सेनयोरि ति। महापकारस्मरणेनानुवर्तमानोऽपि कोपो मृदुमनसां बान्धवादिष्वन्तकाले निवर्तते स्नेह श्चोत्पद्यते ततो मोह इति प्रसिद्धमेवेति भावः। अर्जुनस्य ज्ञानित्वान्मोहजालसवृतत्वमीषदेवेति मन्तव्यम्।प्रज्ञावादान् इत्येतत्प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादान् वचनानि इति कश्चिद्व्याख्यातवान् (शं.चा.) तदसत्। न हिदृष्ट्वेमं स्वजनं 1।28 इत्याद्यर्जुनवाक्येषु कश्चिद्बुद्धिमद्वादो दृश्यते। न हि बुद्धिमन्तो नारायणद्विट्तदनुबन्धिनिग्रहमधर्मं वदन्ति। न च धर्माधर्मविषयत्वमात्रेण बुद्धिमद्वादो भवति। बौद्धादेरपि तत्त्वप्रसङ्गादित्याशयेनान्यथा व्याचष्टे प्रज्ञावादानि ति। स्वस्या एव मनीषाया उत्थितानि न तु शास्त्राचार्योपदेशप्राप्तानि। कथमेतल्लभ्यते उच्यते प्रज्ञायाः वादाः प्रज्ञावादाः। कार्यकारणभावे षष्ठी। न हि स वादोऽस्ति यः प्रज्ञापूर्वो न भवतीति। सामर्थ्यात्स्वेति लभ्यते। सावधारणं चैतत्अब्भक्ष इति यथा। अन्यथा पुनर्वैयर्थ्यादिति। कथमशोच्या इत्यत आहेति शेषः। गतासूनित्यतः परमितिशब्दः। आसन्नविनाशाः कथमशोच्या इत्यर्थः। ननु प्रागशो च्यत्वानुवादेनान्वशोच इत्येवोक्तम् न त्वशोच्यत्वम् तत्कथमेवमाक्षेपः मैवम् न हि यथाश्रुतैवाऽत्र वाक्यवृत्तिः।असिद्धस्यानुवादः सिद्धस्य बोधनं इत्यापत्तेः। किन्तु यानन्वशोचस्त्वं तेऽशोच्यास्तस्मात्तान् प्रति न शोकः कार्यः। यांश्च भाषसे ते प्रज्ञावादाः अतो न भाषणीया इति। तथा चाशोच्याः कुतोऽवगन्तव्याः इति प्रश्नो वा आक्षेपो वा युज्यत एव।