Chapter 2, Verse 52
Verse textयदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।
Verse transliteration
yadā te moha-kalilaṁ buddhir vyatitariṣhyati tadā gantāsi nirvedaṁ śhrotavyasya śhrutasya cha
Verse words
- yadā—when
- te—your
- moha—delusion
- kalilam—quagmire
- buddhiḥ—intellect
- vyatitariṣhyati—crosses
- tadā—then
- gantāsi—you shall acquire
- nirvedam—indifferent
- śhrotavyasya—to what is yet to be heard
- śhrutasya—to what has been heard
- cha—and
Verse translations
Swami Gambirananda
When your mind goes beyond the turbidity of delusion, then you will acquire dispassion for what has to be heard and what has already been heard.
Swami Ramsukhdas
।।2.52।। जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।
Swami Tejomayananda
।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।
Swami Adidevananda
When your intellect has passed beyond the tangle of delusion, you will yourself feel disgusted with what you have heard and what you will hear.
Swami Sivananda
When your intellect passes beyond the mire of delusion, then you will attain indifference to what has been heard and what has yet to be heard.
Dr. S. Sankaranarayan
When your determining faculty surpasses the impenetrable thicket of delusion, then you will attain an attitude of futility regarding what needs to be heard and what has been heard.
Shri Purohit Swami
When your reason has crossed the entanglements of illusion, then you will become indifferent to both the philosophies you have heard and those you may yet hear.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।2.52 2.53।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामि इत्यपेक्षायामाह यदेति द्वाभ्याम्। निश्चला विशोकधैर्यादिवती ते यदा बुद्धिर्व्यवसायात्मिकैव तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च त्रैगुण्यस्य कर्मफलस्य निर्वेदं वैराग्यं प्राप्स्यसि। तस्यात्रानुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः। तादृशी सती ते बुद्धिरचला यदा समाधीयते तदा योगं योगस्वरूपं यास्यसि ततश्च कार्यसिद्धिः।
Swami Sivananda
2.52 यदा when? ते thy? मोहकलिलम् mire of delusion? बुद्धिः intellect? व्यतितरिष्यति crosses beyond? तदा then? गन्तासि thou shalt attain? निर्वेदम् to indifference? श्रोतव्यस्य of what has to be heard? श्रुतस्य what has been heard? च and.Commentary The mire of delusion is the identification of the Self with the notself. The sense of discrimination between the Self and the notSelf is confounded by the mire of delusion and the mind runs towards the sensual objects and the body is takes as the pure Self. When you attain purity of mind? you will attain to indifference regarding things heard and yet to be heard. They will appear to you to be of no use. You will not care a bit for them. You will entertain disgust for them. (Cf.XVI.24).
Swami Chinmayananda
।।2.52।। मोह निवृत्ति होने पर वैराग्य प्राप्ति का आश्वासन यहाँ अर्जुन को दिया गया है। श्रोतव्य शब्द से तात्पर्य उन सभी विषयोपभोगों से है जिनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया गया है तथा श्रुत शब्द से सभी ज्ञान अनुभव सूचित किये गये हैं। यह स्वाभाविक है कि बुद्धि के शुद्ध होने पर विषयोपभोग में कोई राग नहीं रह जाता।स्वरूप से दिव्य होते हुये भी चैतन्य आत्मा मोहावरण में फँसी हुई प्रतीत होती है। इस मोह का कारण है एक अनिर्वचनीय शक्ति माया। अव्यक्त विद्युत के समान माया भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु विभिन्न रूपों में उसकी अभिव्यक्ति से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।सभी जीवों की संरचना में माया के कार्य के निरीक्षण एवं अध्ययन से वेदान्त के आचार्यों ने यह पाया कि मनुष्य के व्यक्तित्व के दो स्तरों पर माया की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। बुद्धि पर आत्मस्वरूप के अज्ञान के रूप में पड़े इस आवरण को वेदान्त में माया की आवरण शक्ति कहा गया है। बुद्धि पर पड़े इस अज्ञान आवरण के कारण मन अनात्म जगत् की कल्पना करता है और उस जगत् के विषय में उसकी दो धारणायें दृढ़ होती हैं कि (क) यह सत्य है और (ख) यह अनात्मा (देह आदि) ही में हूँ। मन के स्तर पर कार्य करने वाली माया की यह शक्ति विक्षेप शक्ति कहलाती है।इस श्लोक में कहा गया है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करते रहने पर बुद्धि की शुद्धि होती है और तब उसके लिये सम्भव होता है कि आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर सके। इस प्रकार मोह निवृति का परिणाम है विषयोपभोग से वैराग्य परन्तु आत्मअज्ञान के होने पर मनुष्य विषयों से ही सुख पाने की आशा में दिनरात परिश्रम करता रहता है।शीत ऋतु में बादलों से सूर्य के आच्छादित होने पर मनुष्य अग्नि जलाकर उसके समीप बैठता है किन्तु धीरेधीरे बादलों के हट जाने पर सूर्य की उष्णता का अनुभव कर वह अग्नि के पास से उठकर धूप का आनन्द लेता है। वैसे ही आनन्दस्वरूप के अज्ञान के कारण विषयों को पाने के लिये चल रही मनुष्य की भागदौड़ स्वत समाप्त हो जाती है जब वह स्वस्वरूप को पहचान लेता है।यहाँ सम्पूर्ण जगत् का निर्देश श्रुत और श्रोतव्य इन दो शब्दों से किया गया है। इसमें सभी इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होने वाले विषय समाविष्ट हैं। कर्मयोगी की बुद्धि न तो पूर्वानुभूत विषय सुखों का स्मरण करती है और न ही भविष्य में प्राप्त होनेवाले अनुभवों की आशा।भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य अगले श्लोक की संगति बताते हैं कि यदि तुम्हारा प्रश्न हो कि मोहावरण भेदकर और विवेकजनित आत्मज्ञान को प्राप्त कर कर्मयोग के फल परमार्थयोग को तुम कब पाओगे तो सुनो
Sri Anandgiri
।।2.52।।यस्मिन्कर्मणि क्रियमाणे परमार्थदर्शनलक्षणा बुद्धिरुद्देश्यतया युज्यते तस्मात्कर्मणः सकाशादितरत्कर्म तथाविधोद्देश्यभूतबुद्धिसंबन्धविधुरमतिशयेन निष्कृष्यते ततश्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यत्वेनाश्रित्य कर्मानुष्ठातव्यं परिच्छिन्नफलान्तरमुद्दिश्य तदनुष्ठाने कार्पण्यप्रसङ्गात् किञ्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यमाश्रित्य कर्मानुतिष्ठतः करणशुद्धिद्वारा परमार्थदर्शनसिद्धौ जीवत्येव देहे सुकृतादि हित्वा मोक्षमधिगच्छति। तथाच परमार्थदर्शनलक्षणयोगार्थं मनो धारयितव्यं योगशब्दितं हि परमार्थदर्शनमुद्देश्यतया कर्मस्वनुतिष्ठतो नैपुण्यमिष्यते यदि च परमार्थदर्शनमुद्दिश्य तद्युताः सन्तः समारभेरन्कर्माणि तदा तदनुष्ठानजनितबुद्धिशुद्ध्या ज्ञानिनो भूत्वा कर्मजं फलं परित्यज्य निर्मुक्तबन्धना मुक्तिभाजो भवन्तीत्येवमस्मिन्पक्षे श्लोकत्रयाक्षराणि व्याख्यातव्यानि। यथोक्तबुद्धिप्राप्तिकालं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति योगेति। श्रुतं श्रोतव्यं दृष्टं द्रष्टव्यमित्यादौ फलाभिलाषप्रतिबन्धान्नोक्ता बुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह यदेति। विवेकपरिपाकावस्था कालशब्देनोच्यते। कालुष्यस्य दोषपर्यवसायित्वं दर्शयन्विशिनष्टि येनेति। तदनर्थरूपं कालुष्यं तवेत्यन्वयार्थं पुनर्वचनम्। बुद्धिशुद्धिफलस्य विवेकस्य प्राप्त्या वैराग्यप्राप्तिं दर्शयति तदेति। अध्यात्मशास्त्रातिरिक्तं शास्त्रं श्रोतव्यादिशब्देन गृह्यते। उक्तं वैराग्यमेव स्फोरयति श्रोतव्यमिति। यथोक्तविवेकसिद्धौ सर्वस्मिन्ननात्मविषये नैष्फल्यं प्रतिभातीत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।2.52 2.53।। सांख्यं बुद्धिं सदा प्राप्स्यामि यदर्थं कर्मानुष्ठानं भवतोपदिश्यत इत्यत आह यदेति। यदा यस्यामवस्थायां तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं व्यतिक्रमिष्यति तदा तस्यामवस्थायां श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च वैराग्यं प्राप्तासि। पूर्वं श्रुतिभिरनेकसाध्यसाधनश्रवणैर्विप्रतिपन्ना विक्षिप्ता श्रुतश्रोतवययोर्निर्वेदं लब्ध्वा यदा समाधीयते चित्तमस्मिन्निति समाधिरात्मा तस्मिन्निश्चला विक्षेपरहिता स्थास्यति स्थिरीभूता भविष्यति तदा योगं सांख्ययोगमवाप्स्यसीति द्वयोरर्थः। यद्वा योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धिजा वैराग्यादीतरसाधनसहिता नित्यानित्यवस्तुविवेकरुपा ज्ञानाधिकारसंपादिका बुद्धिः कदा प्राप्यत इत्यत आह यदेति। यदा तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं चित्ताशुद्धिजं व्यतितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं गन्तासि। चित्तशुद्धिद्वारा लब्धात्मविवेकबुद्धिः कर्मयोगजं फलं परमात्मयोगं कदाप्स्यसीति तच्छृणु श्रुतीति। प्राग्वद्य्वाख्यानद्वयमपि भाष्याल्लभ्यत इति बोधम।
Swami Ramsukhdas
2.52।। व्याख्या-- 'यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति'-- शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु, पदार्थ आदिमें ममता करना 'मोह' है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें--परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना--यह सब-का-सब 'कलिल' अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं। यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से-अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपने डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है। हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण-) से वञ्चित थोड़े ही रहना है? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है--ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं। मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं--विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन 2। 11 30 में हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वतः सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वतः मिट जाती है। विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अतः उसकी अपने सुखआरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान्ने सांख्य-योगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (5। 2) सुगम (5। 3) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (5। 6) बताया है। 'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च' मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ 'श्रुतस्य' पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ 'श्रोतव्यस्य' (टिप्पणी प0 90) पदके अन्तर्गत हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन 'श्रुत' ऐहलौकिक और 'श्रोतव्य'--पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अतः इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है? तब 'श्रुत' और 'श्रोतव्य' जितने विषय हैं, उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है। यहाँ भगवान्को 'श्रुत' के स्थानपर भुक्त और 'श्रोतव्य' के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी 'श्रवण' को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है। यहाँ 'यदा' और 'तदा' कहनेका तात्पर्य है कि इन 'श्रुत' और 'श्रोतव्य' विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा--ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण 'श्रुत' और 'श्रोतव्य' विषयोंसे भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है।
Sri Madhavacharya
।।2.52।।कियत्पर्यन्तमवश्यं कर्तव्यानि मुमुक्षुणैवं कर्माणीत्याह यदेति। निर्वेदं नितरां लाभम्। प्रयोगात् तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बृ.उ.3।5।1 इत्यादि। न हि तत्र वैराग्यमुपपद्यते तथा सति पाण्डित्यादिति स्यात्।न च ज्ञानिनां भगवन्महिमादिश्रवणेन विरक्तिर्भवति।आत्मारामा हि मुनयो निर्ग्राह्या (निर्ग्रन्था) अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः भाग.1।7।10 इति वचनात् अनुष्ठानाच्च शुकादीनाम्। न च तेषां फलं सुखं नास्ति तस्यैव महत्सुखत्वात्। तेषांया निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्मध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्। साब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्किम्वन्तकासि लुलितात्पततां विमानात् भाग.4।9।10 इत्यादिवचनात्। तेषामप्युपासनादिफलस्य साधितत्वात् तारतम्याधिगतेश्च।तथाहि यदि तारतम्यं न स्यात्नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं भाग.3।15।48नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचित् भाग.2।25।34एकत्वमप्युत दीयमानं न गृह्णन्ति इति मुक्तिमप्यनिच्छतामपि मोक्ष एव फलम्। तमिच्छतामपि भवति सुप्रतीकादीनाम्। कथमनिच्छतां स्तुतिरुपपन्ना स्यात् वचनाच्च।यथा भक्तिविशेषोऽत्र दृश्यते पुरुषोत्तमे। तथा मुक्तिविशेषोऽपि ज्ञानिनां लिङ्गभेदने इति।योगिनां भिन्नलिङ्गानामाविर्भूतस्वरूपिणाम्। प्राप्तानां परमानन्दं तारतम्यं सदैव हि इति।न त्वामतिशयिष्यन्ति मुक्तावपि कदाचन। मद्भक्तियोगाज्ज्ञानाच्च सर्वानतिशयिष्यसि इति च। साम्यवचनं तु प्राचुर्यविषयम् दुःखाभावविषयं च। तथा चोक्तम् दुःखाभावः परानन्दो लिङ्गभेदः समो मतः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु भिद्यते इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतो न वैराग्यं श्रुतादावत्र विवक्षितम्। न च सङ्कोचे मानं किञ्चिद्विद्यमान इतरत्र प्रयोगे महद्भिः श्रवणीयस्य श्रुतस्य च वेदादेः फलं प्राप्स्यसीत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।2.52।।कदा मनीषिणो भवन्तीत्यत आह यदेति। ते तव मोहः इष्टानिष्टवियोगसंयोगजपरितापजन्यं वैचित्यं तदेव कलिलमिव कलिलं कालुष्यं बुद्धिगतं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति व्यतिक्रमिष्यति बुद्धिः प्रसन्ना भविष्यति तदा श्रोतव्यस्य शास्त्रभागस्य श्रुतस्य च निर्वेदं वैराग्यं गन्तासि। अयं भावः मलिनायां बुद्धावसकृद्गृहीतस्यापि शास्त्रार्थस्याफुरणाच्छ्रोतव्यं श्रुतं च वृथैव तद्वच्छुद्धायामपि बुद्धौ सद्यः शास्त्रार्थस्फुरणात्तयोर्वैयर्थ्यमित्युभयथापि तत्र निर्वेद उचितः। प्रसन्ना च बुद्धिर्निग्रहीतुं योग्या भवतीति श्रवणादिकं त्यक्त्वा ध्याननिष्ठ एव भवेदिति।
Sri Ramanujacharya
।।2.52।।उक्तप्रकारेण कर्मणि वर्तमानस्य तया वृत्त्या निर्धूतकल्मषस्य ते बुद्धिः यदा मोहकलिलम् अत्यल्पफलसङ्गहेतुभूतं मोहरूपं कलुषं व्यतितरिष्यति। तदा अस्मत्त इतः पूर्वं त्याज्यतया श्रुतस्य फलादेः इतः पश्चात् श्रोतव्यस्य च कृते स्वयम् एव निर्वेदं गन्तासि गमिष्यसि।योगे त्विमां श्रृणु इत्यादिना उक्तस्य आत्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकस्य बुद्धिविशेषसंस्कृतकर्मानुष्ठानस्य लक्षणभूतं योगाख्यं फलम् आह
Sri Sridhara Swami
।।2.52।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामीत्यपेक्षायामाह यदेति द्वाभ्याम्। मोहो देहादिष्वात्मबुद्धि तदेव कलिलंकलिलं गहनं विदुः इत्यभिधानकोशस्मृतेः। ततश्चायमर्थः। एवं पमेश्वराराधने क्रियमाणे यदा तत्प्रसादेन तव बुद्धिर्देहाभिमानलक्षणं मोहमयं गहनं दुर्गं विशेषेणातितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्यार्थस्य च निर्वेदं वैराग्यं गन्तासि प्राप्स्यसि। तयोरनुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।2.52।।बुद्धियुक्त इति। उभे इति परस्परव्यभिचारं दर्शयति। तस्माद्योगायेति। यथा हि सुकृतदुष्कृते नश्यतः (N दुष्कृते न नश्यतः) तथाकरणमेव परमं कौशलमिति भावः।
Sri Jayatritha
।।2.52।।यदा ते इति श्लोके योगसम्बन्धि न किमप्युच्यत इत्यतस्तत्सङ्गतिमाह किय दिति। एवं फलकामनादिवर्जितानि ईश्वराराधनरूपाणीत्याकाङ्क्षायामाहेत्यर्थः। नन्वियमाकाङ्क्षैवानुपपन्ना योगो हि ज्ञानफलसाधनतयोपदिष्टः साधनं च साध्यप्राप्तिपर्यन्तमनुष्टेयमिति प्रसिद्धमेव।नियतपूर्वक्षणवृत्ति कारणं इति तल्लक्षणम्। उच्यते योगो हि न साक्षाज्ज्ञानसाधनम् किन्तु श्रवणादिकमेव प्रमितेः प्रमाणफलत्वात्। योगस्त्वदृष्टद्वारा सत्त्वशुद्धिमुत्पाद्य श्रवणादीनामुपकरोति उपकारस्य च द्वयी गतिर्दृष्टा अतो युक्तैवेयमाकाङ्क्षेति। तथापि जिज्ञासुनेति वक्तव्यम्। सत्यम् मोक्षसाधनज्ञानार्थिनेत्येतावतोऽर्थस्य ग्रहणाय मुमुक्षुणेत्युक्तम्। निर्वेदं वैराग्यमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह निर्वेद मिति। ननु निरः पूर्वो विदिर्वैराग्ये रूढः तत्कुतो लाभार्थतेत्यत आह प्रयोगादि ति। अस्यामपि श्रुतौ वैराग्यार्थता किं न स्यात् इत्यत आह न ही ति। कुतो नोपपद्यत इत्यत आह तथा सती ति।जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसङ्ख्यानम् इति कात्यायनवचनात्पाण्डित्यस्य विरामार्थधातुयोगबलेनापादानत्वप्राप्तौ अपादाने पञ्चमी स्यात् न द्वितीयेत्यर्थः। इदमत्राभिप्रेतम् निरुपसर्गः सत्तार्थस्यैव विदेरर्थं बाधित्वा तं वैराग्यार्थं व्यवस्थापयति निर्विद्यत इति कर्तरि प्रयोगदर्शनात्। लाभार्थस्य विदेरर्थं विशिनष्ट्येव केवलम्।निर्विन्दतिनिर्विन्दते इति वैराग्ये तत्प्रयोगादर्शनादिति। अथवाऽस्तु सर्वत्र निरो धात्वर्थबाधकत्वम् विशेषकत्वमपि क्वचित् किं न स्यात् व्याददातीत्यादावुभयदर्शनादिति।न केवलं गीतायां प्रयोगाल्लाभार्थता किन्तु वैराग्यार्थतानुपपत्तेश्चेत्याह न चे ति। अनेनान्तःकरणस्य मोहकलिलातिक्रमो नाम ज्ञानप्राप्तिरिति सूचितं भवति। आदिपदेन तदुपयुक्तं गृह्यते कुतो न भवति इत्यत आह आत्मारामा इति। भक्तिं श्रवणादिलक्षणाम्।कस्य वा महतीमेतामात्मारामः समभ्यसत् इत्यस्योत्तरत्वात् अनुष्ठानाच्च श्रवणादेरिति शेषः। ननु शुक्रादीनां श्रवणाद्यनुष्ठानेऽपि फलं नास्ति तत्फलस्य ज्ञानस्य प्राप्तत्वात्। फलाभावानुसन्धानमेव चात्र वैराग्यशब्देनाभिप्रेतम्। यथाऽऽह मायावादीतदा श्रोतव्यं श्रुतं च निष्फलं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः शां.भा. इति। अनुष्ठानं तु लोकसङ्ग्रहार्थं संस्काराद्वेत्यत आह न चे ति। कुतो नेत्यत आह तस्यैवे ति। तस्यैव श्रवणादेरेव स्थान्यादेशोक्तिव्यत्ययेन द्वन्द्वेऽल्पाच्तरस्य परनिपातेन चआन्महतः समानाधिकरणजातीययोः अष्टा.6।3।46 इत्यस्य विधेरनित्यत्वज्ञापनात्महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणात् भाग.3।5।29 इत्यादिप्रयोगदर्शनाच्च महत्सुखत्वादिति युक्तम्। तथापि श्रवणादिकमेव कथं सुखम् उत्तरक्षण एव महासुखोदयादैक्योषचार इत्यदोषः। तिष्ठतु तावत् कालान्तरभावि महत्फलमित्येवशब्दः। नन्वस्मदादीनां श्रवणोत्तरक्षणे सुखं नोत्पद्यत इत्यत आह तेषा मिति रसिकानामित्यर्थः। न हि पितृजीवनादिवार्ताश्रवणेनान्येषामिव न पुत्रस्यापि सुखेनोत्पत्तव्यमिति। अस्तु सम्भावना निश्चयस्तु कुतः इत्यत आह ये ति। भवतो भवज्जनानां च स्वमहिमन्याविर्भूतस्वरूपे आब्रह्मण्यल्पमुक्ते। न केवलं तात्कालिकं सुखं तत्फलम् किन्तु मुक्तावानन्दवृद्धिश्चेत्याह तेषा मिति। ज्ञानिनामपि ज्ञानोत्तरस्याप्यनुष्ठानस्य यदि फलं स्यात्तर्ह्यनुष्ठानस्यैकविध्यनियमासम्भवात्। स्वर्गवदपवर्गेऽपि तारतम्यं प्रसज्येत। न च तद्युक्तम् अप्रमाणिकत्वात् प्रमाणविरुद्धत्वाच्चेत्यतो नेदमनिष्टमिति भावेनाह तारतम्ये ति। प्रमाणविरोधाभावाच्चेति चार्थः।कुतः प्रमाणान्मुक्ततारतम्याधिगतिः इत्यतोऽर्थापत्तिं तावदाह तथाही ति। यदि मुक्तानां तारतम्यं न स्यात् तदा मुक्तिमप्यनिच्छतामेकान्तिनां मोक्षमात्रफलं तं मोक्षमिच्छतामपि सुप्रतीकादीनां मोक्षो भवतीत्यङ्गीकार्य स्यात्। तथा च नात्यन्तिकमिति मोक्षमनिच्छतां स्तुतिः कथमुपपन्ना स्यात् निमित्ताभावात् अतः स्तुत्यन्यथानुपपत्त्येच्छतां मुक्तेरनिच्छतां मुक्तिरधिकेति गम्यते इत्यर्थः। आत्यन्तिकं मुक्तिहेतुम्। एकात्मतां सायुज्यम्। एकत्वमपि तदेव। आगमाच्च तारतम्याधिगतिरित्याह वचनाच्चे ति। आविर्भूतस्वरूपिणामिति कर्मधारयादतिशयार्थे इनिः। अनेन जीवन्मुक्तावैश्वर्यतारतम्येनार्थापत्तेरन्यथोपपत्तिः परिहृतालिङ्गभेदने भिन्नलिङ्गानां इत्याद्युक्तेः। परमं साम्यमुपैति मुं.उ.3।1।3 इत्यादिवचनविरुद्धं मुक्ततारतम्यमित्यत आह साम्ये ति। प्राचुर्यं पूर्णत्वम्। कुत एतत् उक्तप्रमाणविरोधात् विशेषवचनाच्चेत्याह तथाचे ति। यद्यपि परानन्दोऽलम्बुद्धिगोचरत्वमात्रेण समः तथापि न च ज्ञानिनामित्यादिनोक्तमर्थमुपसंहरति अत इति। अस्तु तर्हि भगवन्महिमादिव्यतिरिक्तश्रुतादौ वैराग्यमत्र विवक्षितमित्यत आह न चे ति। निर्वेदशब्दस्य वैराग्यार्थकत्वे निश्चिते तद्बलाच्छ्रोतव्यादिशब्दस्यार्थसङ्कोचः क्रियेतापि। इतरत्र नितरां लाभे तस्य प्रयोगे विद्यमाने निर्मूलं सङ्कोचकल्पनमित्यर्थः। ननु लाभार्थतायामपि असच्छास्त्रादिव्युदासाय सङ्कोचः कार्य एवेत्याह महद्भि रिति। अयोग्यतयैव तन्निरासः प्रकरणाद्वेति भावः।
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.52।।एवं कर्माण्यनुतिष्ठतः कदा मे सत्त्वशुद्धिः स्यादित्यत आह न ह्येतावता कालेन सत्त्वशुद्धिर्भवतीति कालनियमोऽस्ति किंतु यदा यस्मिन्काले ते तव बुद्धिरन्तःकरणं मोहकलिलं व्यतितरिष्यति अविवेकात्मकं कालुष्यं अहमिदं ममेदमित्याद्यज्ञानविलसितमतिगहनं व्यतिकमिष्यति। रजस्तमोमलमपहाय शुद्धभावमापत्स्यत इति यावत्। तदा तस्मिन्काले श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं वैतृष्ण्यं गन्तासि प्राप्तासि प्राप्नोषि।परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात् इति श्रुतेः। निर्वेदेन फलेनान्तःकरणशुद्धिं ज्ञास्यसीत्यभिप्रायः।
Sri Purushottamji
।।2.52।।ननु तत्प्राप्तिः कदा स्यात् इत्यत आह यदा त इति। ते बुद्धिर्यदा मोहकलिलं मोहगहनं लौकिकेषु देहादिषु विशेषेणाऽतितरिष्यति तदा निर्वेदं मोक्षं गमिष्यसि। श्रोतव्यस्य अग्रे प्रोच्यमानस्य शास्त्रतो वा श्रुतस्य च निर्वेदं तदैव गन्तासि। यद्वा च पुनः। श्रुतस्य पूर्वोक्तसाङ्ख्यादेः। यदा ते बुद्धिर्मोहकलिलं विशेषेण अतितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य भक्तिमार्गस्य निर्वेदं गन्तासि। अत्रायं भावः यावत्पर्यन्तं कर्मादिमार्गेषु मोहस्तावद्भक्तिमार्गफलं न भवति तस्यानन्यसाध्यत्वात्। अत एवाग्रे तथैवोपदेष्टव्यः। अधुनाऽधिकाराभावान्नोपदिश्यते अधिकारसम्पत्त्यर्थं च सूचितः।
Sri Shankaracharya
।।2.52।। यदा यस्मिन्काले ते तव मोहकलिलं मोहात्मकमविवेकरूपं कालुष्यं येन आत्मानात्मविवेकबोधं कलुषीकृत्य विषयं प्रत्यन्तःकरणं प्रवर्तते तत् तव बुद्धिः व्यतितरिष्यति व्यतिक्रमिष्यति अतिशुद्धभावमापत्स्यते इत्यर्थः। तदा तस्मिन् काले गन्तासि प्राप्स्यसि निर्वेदं वैराग्यं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च तदा श्रोतव्यं श्रुतं च ते निष्फलं प्रतिभातीत्यभिप्रायः।।मोहकलिलात्ययद्वारेण लब्धात्मविवेकजप्रज्ञः कदा कर्मयोगजं फलं परमार्थयोगमवाप्स्यामीति चेत् तत् श्रृणु