Chapter 2, Verse 14
Verse textमात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
Verse transliteration
mātrā-sparśhās tu kaunteya śhītoṣhṇa-sukha-duḥkha-dāḥ āgamāpāyino ’nityās tans-titikṣhasva bhārata
Verse words
- mātrā-sparśhāḥ—contact of the senses with the sense objects
- tu—indeed
- kaunteya—Arjun, the son of Kunti
- śhīta—winter
- uṣhṇa—summer
- sukha—happiness
- duḥkha—distress
- dāḥ—give
- āgama—come
- apāyinaḥ—go
- anityāḥ—non-permanent
- tān—them
- titikṣhasva—tolerate
- bhārata—descendant of the Bharat
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
O son of Kunti! The touches with the matras cause feelings of cold and heat, pleasure and pain; they are of the nature of coming and going and are transient. Bear them, O Descendant of Bharata!
Shri Purohit Swami
Those external relations that bring cold and heat, pain and happiness come and go; they are not permanent. Endure them bravely, O Prince!
Swami Ramsukhdas
।।2.14।। हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।
Swami Tejomayananda
।।2.14।। हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो।।
Swami Adidevananda
The contact of the senses with their objects, O Arjuna, gives rise to feelings of cold and heat, pleasure and pain. They come and go, never lasting long. Endure them, O Arjuna.
Swami Gambirananda
But the contacts of the organs with the objects are the producers of cold and heat, happiness, and sorrow. They have a beginning and an end and are transient. Bear them, O descendant of Bharata.
Swami Sivananda
The contact of the senses with the objects, O son of Kunti, which causes heat and cold, pleasure and pain, has a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.
Verse commentaries
Sri Anandgiri
।।2.14।।आत्मनः श्रुत्यादिप्रमिते नित्यत्वे तदुत्पत्तिविनाशप्रयुक्तशोकमोहाभावेऽपि प्रकारान्तरेण शोकमोहौ स्यातामित्याशङ्कामनूद्योत्तरत्वेन श्लोकमवतारयति यद्यपीत्यादिना। शीतोष्णयोस्ताभ्यां सुखदुःखयोश्च प्राप्तिं निमित्तीकृत्य यो मोहादिर्दृश्यते तस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां दृश्यमानत्वमाश्रित्य लौकिकविशेषणम्। अशोच्यानित्यत्र यो विद्याधिकारी सूचितस्तस्यतितिक्षुः समाहितो भूत्वा इति श्रुतेस्तितिक्षुत्वं विशेषणमिहोपदिश्यते। व्याख्येयं पदमुपादाय करणव्युत्पत्त्या तस्येन्द्रियविषयत्वं दर्शयति मात्रा इत्यादिना। षष्ठीसमासं दर्शयन् भावव्युत्पत्त्या स्पर्शशब्दार्थमाह मात्राणामिति। तेषामर्थक्रियामादर्शयति ते शीतेति। संप्रति शब्दद्वयस्य कर्मव्युत्पत्त्या शब्दादिविषयपरत्वमुपेत्य समासान्तरं दर्शयन् विषयाणां कार्यं कथयति अथवेति। ननु शीतोष्णप्रदत्वे सुखदुःखप्रदत्वस्य सिद्धत्वात्किमिति शीतोष्णयोः सुखदुःखाभ्यां पृथक्ग्रहणमिति तत्राह शीतमिति। विषयेभ्यस्तु पृथक्कथनं तदन्तर्भूतयोरेव तयोः सुखदुःखहेत्वोरानुकूल्यप्रातिकूल्ययोरुपलक्षणार्थम्। अध्यात्मं हि शीतमुष्णं वा आनुकूल्यं प्रातिकूल्यं वा संपाद्य बाह्या विषयाः सुखादि जनयन्ति। ननु विषयेन्द्रियसंयोगस्यात्मनि सदा सत्त्वात्तत्प्रयुक्तशीतादेरपि तथात्वात्तन्निमित्तौ हर्षविषादौ तस्मिन्नापन्नावित्याशङ्क्योत्तरार्धं व्याचष्टे यस्मादित्यादिना। अत्र च कौन्तेय भारतेति संबोधनाभ्यामुभयकुलशुद्धस्यैव विद्याधिकारित्वमित्येतदेव द्योत्यते।
Swami Ramsukhdas
2.14।। व्याख्या-- [यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंसे पहले (11 से 13) और आगे (16 से 30 तक) देही और देह--इन दोनोंका ही प्रकरण है। फिर बीचमें 'मात्रास्पर्श' के ये दो श्लोक (प्रकरणसे अलग) कैसे आये? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण जीवोंके नित्य-स्वरूपको बतानेके लिये 'किसी कालमें मैं नहीं था; ऐसी बात नहीं है'--ऐसा कहकर अपनेको उन्हींकी पंक्तिमें रख दिया, ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थोंको अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बतानेके लिये भगवान्ने यहाँ 'मात्रास्पर्श' की बात कही है।] 'तु'--नित्य-त्तत्त्वसे देहादि अनित्य वस्तुओंको अलग बतानेके लिये यहाँ 'तु' पद आया है। 'मात्रास्पर्शाः'-- जिनसे माप-तौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है, उन (ज्ञानके साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरणका नाम मात्रा' है। मात्रासे अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका संयोग होता है, उनका नाम 'स्पर्श' है। अतः इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्टिके मात्र पदार्थ 'मात्रास्पर्शाः' हैं। यहाँ 'मात्रास्पर्शाः' पदसे केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ, पदार्थोंका सम्बन्ध क्यों न लिया जाय? अगर हम यहाँ 'मात्रास्पर्शाः' पदसे केवल पदार्थोंका सम्बन्ध ही लें, तो उस सम्बन्धको 'आगमापायिनः' (आने-जानेवाला) नहीं कह सकते; क्योंकि सम्बन्धकी स्वीकृति केवल अन्तःकरणमें न होकर स्वयंमें (अहम्में) होती है। स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है। स्वयं जबतक उस स्वीकृतिको नहीं छोड़ता, तबतक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थोंका वियोग हो जानेपर भी, पदार्थोंके न रहनेपर भी, उन पदार्थोंका सम्बन्ध बना रहता है (टिप्पणी प0 52) । जैसे, कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पतिसे सदाके लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्षके बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुककी स्त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं! इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी-(पति-) के न रहनेपर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है। इस दृष्टिसे उस सम्बन्धको आने-जानेवाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ 'मात्रास्पर्शाः' पदसे पदार्थोंका सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं। 'शीतोष्णसुखदुःखदाः'-- यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय-(त्वचा-)के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीतका अर्थ अनुकूलता और उष्णका अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है। मात्र पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं, ऐसी अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, देश, काल आदिके मिलनेसे सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते, ऐसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके मिलनेसे दुःख होता है। यहाँ अनुकूलता-प्रतिकूलता कारण हैं और सुख-दुःख कार्य हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इन पदार्थोंमें सुख-दुःख देनेकी सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य इनके साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भावना कर लेता है, जिससे ये पदार्थ सुख-दुःख देनेवाले दीखते हैं। अतः भगवान्ने यहाँ 'सुखदुःखदाः' कहा है। 'आगमापायिनः' मात्र पदार्थ आदि-अन्तवाले, उत्पत्ति-विनाशशील और आने-जानेवाले हैं। वे ठहरनेवाले नहीं है; क्योंकि वे उत्पत्तिसे पहले नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे। इसलिये वे 'आगमापायी' हैं। 'अनित्याः' अगर कोई कहे कि वे उत्पत्तिसे पहले और विनाशके बाद भले ही न हों, पर मध्यमें तो रहते ही होंगे? तो भगवान् कहते हैं कि अनित्य होनेसे वे मध्यमें भी नहीं रहते। वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। इतनी तेजीसे बदलते हैं कि उनको उसी रूपमें दुबारा कोई देख ही नहीं सकता; क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे, दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं। इसलिये भगवान्ने उनको 'अनित्याः' कहा है। केवल वे पदार्थ ही अनित्य, परिवर्तनशील नहीं हैं, प्रत्युत जिनसे उन पदार्थोंका ज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं। उनके परिवर्तनको कैसे समझें? जैसे दिनमें काम करते-करते शामतक इन्द्रियों आदिमें थकावट आ जाती है, और सबेरे तृप्तिपूर्वक नींद लेनेपर उनमें जो ताजगी आयी थी, वह शामतक नहीं रहती। इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है, जिससे इन्द्रियोंकी थकावट मिटती है और ताजगीका अनुभव होता है। जैसे जाग्रत्-अवस्थामें प्रतिक्षण थकावट आती रहती है ,ऐसे ही नींदमें प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। यहाँ मात्र पदार्थोंको स्थूलरूपसे 'आगमापायिनः' और सूक्ष्मरूपसे 'अनित्याः' कहा गया है। इनको अनित्यसे भी सूक्ष्म बतानेके लिये आगे सोलहवें श्लोकमें इनको 'असत्' कहेंगे; और पहले जिस नित्य-तत्त्वका वर्णन हुआ है, उसको 'सत्' कहेंगे।] 'तांस्तितिक्षस्व' ये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं, उनके सामने आनेपर यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है--ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको लेकर अन्तःकरणमें राग-द्वेष हर्षशोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है। अतः अनुकूलता-प्रतिकूलता-का ज्ञान होनेपर भी राग-द्वेषादि विकारोंको पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शोंमें निर्विकार रहना ही उनको सहना है। इस सहनेको ही भगवान्ने 'तितिक्षस्व' कहा है। दूसरा भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिकी क्रियाओँका, अवस्थाओंका आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है। वे क्रियाएँ, अवस्थाएँ तुम्हारेमें नहीं हैं; क्योंकि तुम उनको जाननेवाले हो, उनसे अलग हो। तुम स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हो। अतः उन क्रियाओंमें, अवस्थाओंमें तुम निर्विकार रहो। इनमें निर्विकार रहना ही तितिक्षा है। सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें मात्रास्पर्शोंकी तितिक्षाकी बात कही। अब ऐसी तितिक्षासे क्या होगा इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
Swami Chinmayananda
।।2.14।। विषय ग्रहण की वेदान्त की प्रक्रिया के अनुसार बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है। इन्द्रियाँ तो केवल उपकरण हैं जिनके द्वारा जीव विषय ग्रहण करता है उनको जानता है। जीव के बिना केवल इन्द्रियाँ विषयों का ज्ञान नहीं करा सकतीं।यह तो सर्वविदित है कि एक ही वस्तु दो भिन्न व्यक्तियों को भिन्न प्रकार का अनुभव दे सकती है। एक ही वस्तु के द्वारा जो दो भिन्न अनुभव होते हैं उसका कारण उन दो व्यक्तियों की मानसिक संरचना का अन्तर है।यह भी देखा गया है कि व्यक्ति को एक समय जो वस्तु अत्यन्त प्रिय थी वही जीवन की दूसरी अवस्था में अप्रिय हो जाती है क्योंकि जैसेजैसे समय व्यतीत होता जाता है उसके मन में भी परिवर्तन होता जाता है। संक्षेप में यह स्पष्ट है कि जब हमारा इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होता है तभी किसी प्रकार का अनुभव भी संभव है।जो पुरुष यह समझ लेता है कि जगत् की वस्तुयें नित्य परिवर्तनशील हैं उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं वह पुरुष इन वस्तुओं के कारण स्वयं को कभी विचलित नहीं होने देगा। काल के प्रवाह में भविष्य की घटनायें वर्तमान का रूप लेती हैं और हमें विभिन्न अनुभवों को प्रदान करके निरन्तर भूतकाल में समाविष्ट हो जाती हैं। जगत् की कोई भी वस्तु एक क्षण के लिये भी विकृत हुये बिना नहीं रह सकती । यहाँ परिवर्तन ही एक अपरिवर्तनशील नियम है।इस नियम को समझ कर आदि और अन्त से युक्त वस्तुओं के होने या नहीं होने से बुद्धिमान पुरुष को शोक का कोई कारण नहीं रह जाता। शीत और उष्ण सफलता और असफलता सुख और दुख कोई भी नित्य नहीं हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तो प्रत्येक परिवर्तित परिस्थिति के कारण क्षुब्ध या चिन्तित होना अज्ञान का ही लक्षण है। जीवन में आने वाले कष्टों को चिन्तित हुये बिना शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिये। सभी प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विवेकी पुरुष इस तथ्य को सदा ध्यान में रखता है कि यह भी बीत जायेगा।जगत् की वस्तुयें परिच्छिन्न हैं क्योंकि उनका आदि है और अन्त है। भगवान् कहते हैं कि ये वस्तुयें स्वभाव से ही अनित्य हैं। अनित्य शब्द से तात्पर्य यह है कि एक ही वस्तु किसी एक व्यक्ति के लिये ही कभी सुखदायक तो कभी दुखदायक हो सकती है।शीतउष्ण आदि को समान भाव से सहने वाले व्यक्ति को क्या लाभ मिलेगा सुनिये
Sri Madhavacharya
।।2.14।।तथापि तद्दर्शनाभाविदना शोक इति चेत् न इत्याह मात्रास्पर्शा इति। मीयन्त इति मात्रा विषयाः तेषां स्पर्शाः सम्बन्धाः त एव शीतोष्णसुखदुःखदाः। देहे शीतोष्णादिसम्बन्धाद्धि शीतोष्णाद्यनुभव आत्मनः। ततश्च सुखदुःखे।न ह्यात्मनः स्वतो दुःखादिः सम्भवति। कुतः आगमापायित्वात्। यद्यात्मनः स्वतः स्युः सुप्तावपि स्युः। अतो यतो ते मात्रास्पर्शा जाग्रदादावेव सन्ति नान्यदेति तदन्वव्यतिरेकित्वात्तन्निमित्ता एव नात्मनः स्वतः। आत्मनश्च तैर्विषयविषयीभावादन्यः सम्बन्धो नास्ति। न चागमापायित्वेऽपि प्रवाहरूपेणाऽपि नित्यत्वमस्ति सुप्तिप्रलयादावभावादित्याह अनित्या इति। अत आत्मनो देहाद्यात्प्रभ्रम एव दुःखकारणम्। अतस्तद्विमुक्तस्य बन्धुमरणादौ दुःखं न भवति। अतोऽभिमानं परित्यज्य तान् शीतोष्णादींस्तितिक्षस्व।
Sri Neelkanth
।।2.14।।ननु आत्मनो लिङ्गशरीरादन्यत्वेऽप्यहं दुःखीत्याद्यनुभवाद्दुःखादिधर्माश्रयत्वं दुर्वारम्। ततश्च भीष्मादिबन्धुवर्गनाशे सति दुःखसंबन्धो भवत्येवेत्याशङ्क्याह मात्रास्पर्शा इति। मीयन्ते विषया आभिस्ता मात्रा इन्द्रियवृत्तयः। यद्वा दश प्रज्ञामात्राः वागादयः दश भूतमात्राः नामादयः कौषीतकिप्रसिद्धा इन्द्रियविषयरूपा ग्राह्याः। तासां स्पर्शाः परस्परं विषयविषयिभावेन संबन्धा इति व्याख्येयम्। यद्वा मात्रा प्रमात्रा सह स्पर्शाः विषयेन्द्रियसंबन्धाः। स्पर्शशब्दस्य तद्वाचित्वंस्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् इत्यत्र दृष्टम्। तत्र स्पर्शपदेन तद्वतोर्विषयेन्द्रिययोरपि लाभः। तेन प्रमातुः प्रमाणद्वारा प्रमेयेण सह संबन्धाः सर्वे शीतोष्णादिवदागमापायिन उत्पत्तिविनाशशीला अतएवानित्याश्च तद्वदेव सुखदुःखदाश्च। अतस्तान् तितिक्षस्व सहस्व। हे कौन्तेय भारतेत्युत्तमवंश्यत्वेन धीरत्वमस्य सूचयति। प्रमातृत्वादिरनर्थो हि सुप्तिसमाधिग्रहावेशादिष्वभावाज्जाग्रत्स्वप्नादौ भावाच्च कादाचित्कतया आत्मनि प्रतीयमानोऽपि रज्जूरगादिवन्मिथ्याभूतः सन्न तद्धर्मत्वं भजते। यद्धि यत्राभेदेन कदाचिद्भाति तत्तत्राध्यस्तं रज्ज्वामिव सर्पः। प्रमात्रादिश्च प्रतीचि प्रत्यगभेदेन कदाचिद्भाति अतो मिथ्येति निश्चितम्। तेन प्रतीचि प्रमातृसंबन्ध एव नास्ति। सत्यमिथ्यावस्तुनोर्वास्तवसंबन्धायोगात्। प्रमातृधर्माणां दुःखादीनां तु प्रतीचि संबन्धो दूरापेत एव। कथं तर्ह्यात्मनि दुःखित्वप्रत्ययः। तत्तदुपाधितादात्म्याध्यासादिति ब्रूमः। अतएव जाग्रति दृष्टं दुःखं स्वप्ने नानुवर्तते स्वप्नदृष्टं वा जाग्रति न दृश्यते। तथा च श्रुतिःस यत्तत्र पश्यति पुण्यं च पापं चानन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुषः इति।कामः संकल्पो विचिकित्सा इत्यादिश्रुतिरेतत्सर्वं मन एवेति अभेदनिर्देशात्मकामादिसर्वविकारोपादानत्वं मनस एवाह। तस्मात्स्वप्न इवात्मनि दुःखित्वप्रतीतिर्भ्रान्तिरेवेतीष्टवियोगजनितां तां तितिक्षस्वेति भावः।
Sri Ramanujacharya
।।2.14।।शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः साश्रयाः तन्मात्राकार्यत्वात् मात्रा इति उच्यन्ते। श्रोत्रादिभिः तेषां स्पर्शाः शीतोष्ण मृदुपरुषादिरूपसुखदुःखदा भवन्ति। शीतोष्णशब्दः प्रदर्शनार्थः तान् धैर्येण यावद्युद्धादिशास्त्रीयकर्मसमाप्ति तितिक्षस्व। ते च आगमापायि त्वाद् धैर्यवतां क्षन्तुं योग्याः। अनित्याः च एते बन्धहेतुभूतकर्मनाशे सति आगमापायित्वेन अपि निवर्तन्ते इत्यर्थः।तत्क्षान्तिः किमर्था इत्यत आह
Sri Sridhara Swami
।।2.14।।ननु गतानागतानहं न शोचामि किंतु दद्वियोगादिदुःखभाजमात्मानमेवेति चेत्तत्राह मात्रास्पर्शा इति। मीयन्ते ज्ञायन्ते विषया आभिरिति मात्रा इन्द्रियवृत्तयः तासां स्पर्शाः विषयैः संबन्धाः ते शीतोष्णादिप्रदा भवन्ति ते त्वागमापायित्वादनित्या अस्थिराः अतस्तांस्तितिक्षस्व सहस्व। यथा जलातपादिसंपर्कास्तत्तत्कालकृताः स्वभावतः शीतोष्णादि प्रयच्छन्ति एवमिष्टसंयोगवियोगा अपि सुखदुःखादि प्रयच्छन्ति तेषां चास्थिरत्वात्सहनं तव धीरस्योचितं नतु तन्निमित्तहर्षविषादपारवश्यमित्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।2.14।।आत्मनित्यत्वप्रकरणपर्यवसाने वक्तव्योऽप्ययमर्थस्तात्पर्यातिशयात्सहसोच्यत इत्याह इममर्थमनन्तरमिति। आभिर्मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि मात्रा इतिशङ्कराद्युक्ताप्रसिद्धयोजनाव्युदासाय मात्राशब्दार्थमाह शब्देति।साश्रया इति। गुणविशिष्टद्रव्यस्य हि तन्मात्राकार्यत्वमिति भावः।तन्मात्राकार्यत्वादिति। तन्मात्राणां मात्राशब्दवाच्यत्वे तावन्नास्ति विवादः।शब्दमात्रा स्पर्शमात्रा इत्यादिप्रयोगाश्च सन्ति। ततश्च तत्कार्यद्रव्यस्यापि तदेकद्रव्यत्वात्तच्छब्दगोचरत्वमुपपन्नमिति भावः। कर्मव्युत्पत्तेरपि भावव्युत्पत्तेः प्रसिद्धिप्रकर्षं विषयसम्बन्धस्यैव च साक्षात्सुखादिहेतुत्वं मत्वा स्पर्शस्य प्रतिसम्बन्ध्यन्तरं निर्दिशन् समासार्थमप्याह श्रोत्रादिभिस्तेषां स्पर्शा इति। शीतोष्णशब्दयोरुपलक्षणत्वं समासार्थं चाह शीतोष्णमृदुपरुषादिरूपेति। एवं हेतुफलभावं विहाय शीतोष्णदाः सुखदुःखदाश्चेति योजनायां पृथग्व्यपदेशवैयर्थ्यमिति भावः। सङ्ग्रामे शीतोष्णयोरप्रसक्तत्वात्किमर्थमिदमुच्यत इत्यत्राह शीतोष्णशब्दः प्रदर्शनार्थ इति। शस्त्रपातादेरिति शेषः। शीतोष्णादिकं तु तेषु तेषु वर्णाश्रमधर्मेषु यथासम्भवं ग्राह्यम्।धीरम् इति वक्ष्यमाणम् 2।15धीरस्तत्र 2।13 इति पूर्वोक्तं चाकृष्याह तान् धैर्येणेति। यद्वाऽत्रैवकौन्तेय भारत शब्दाभ्यां क्षत्ित्रयायामुत्पन्नस्य विशिष्टक्षत्ित्रयसान्तानिकस्य ते धैर्यमेवोचितमिति सूचितम्। यथा तपश्चर्यायां यागादौ च वातातपक्षुत्पिपासापश्वालम्भादयो यावत्तत्कर्मसमाप्ति क्षन्तव्याः तथाऽत्रापि शस्त्रपातशत्रुवधादयः। तस्मादवर्जनीयेन्द्रियार्थस्पर्शनिमित्तदुःखानां शोकेन दुष्परिहरत्वान्निरर्थके शोके तितिक्षैव युक्तेति भावः। अत्र सुखांशस्य क्षमा नाम उपेक्षया अनुत्सेकः। तत्रापि हेतुरागमापायित्वमेव। अनित्यशब्दस्यापौनरुक्त्यायाह बन्धेति। अनित्यशब्दोऽत्र प्रवाहनित्यतानिषेधकः।नित्याः इति पदच्छेदेन नित्यानुबन्धितया तितिक्षितव्यत्वद्योतने तु मन्दम्। मुक्तौ तदभावाच्च प्रवाहतोऽपि नित्यत्वं नास्तीति भावः।
Sri Abhinavgupta
।।2.13 2.14।।एवमर्थद्वयमाह न हीत्यादि। अहं हि नैव नासम् अपि तु आसम् एवं त्वम् अमी च राजानः। आकारान्तरे च सति यदि शोच्यता तर्हि कौमारात् यौवनावाप्तौ किमिति न शोच्यते यो धीरः स न शोचति। धैर्यं च (N धैर्ये च) एतच्छरीरेऽपि यस्यास्था नास्ति तेन सुकरम्। अतस्त्वं धैर्यमन्विच्छ।
Sri Jayatritha
।।2.14।।प्रकारान्तरेण शोकं शङ्कते तथापी ति। यद्यपि बान्धवादीनां हानिर्भविष्यतीति धिया न शोको युक्तः उक्तविधयात्महानेरभावात्। देहहानावपि प्रतिनिधिलाभात्। तथापि तन्मरणे ममैव सुखहानिदुःखावाप्तिश्च भविष्यतीति धिया मे शोकः समुत्पतितः। कथम् तद्दर्शनाभावा दिना। तदिति बान्धवादिपरामर्शः। आदिपदेन विकृततद्दर्शनं च गृह्यते। प्रेमास्पदानां हि दर्शनस्पर्शनालापादिकं सुखहेतुः। तेषु मृतेषु तद्दर्शनाद्यभावात्सुखहानिः। तथा तेषां छेदभेदादिदर्शनेन दुःखावाप्तिश्चेति एतन्निषेधपूर्वकं श्लोकमवतारयति नेति ।मीयन्ते विषया यैरिति मात्रा इन्द्रियाणि इति व्याख्यानमसत्। पुराणादौ मात्राशब्दस्य विषये रूढत्वादित्याशयवान् व्याचष्टे मीयन्त इति। ननु गन्धरसरूपस्पर्शशब्दा विषयाः। अतो भिन्नपदत्वे द्वन्द्वे वा स्पर्शानां विषयान्तर्गतानां पुनरुक्तिर्व्यर्थेत्यत आह तेषा मिति विषयाणाम्। तथाप्यनुपपत्तिः। विषयाणां स्पर्शाभावांदित्यत आह सम्बन्धा इति। एवं तर्हि किं षष्ठीसमासपरिग्रहणेन भिन्नपदत्त्वादावपि दोषाभावादित्यतो वाक्यं योजयति त एवे ति। तुशब्दार्थ एवेति। नहि विषयाणां सम्बन्धानां च पृथगेतत्कार्यं सम्भवतीति भावः। ननु शीतोष्णशब्दौ विषयविशेषवचनौ तत्कथं विषयसम्बन्धा विषयविशेषं दद्युः कथं च साक्षात्सुखदुःखे कश्च प्रतिसम्बन्धी कस्मै ददतीत्यत आह देहे इति। देहशब्देनात्रेन्द्रियाणि लक्ष्यन्ते। अनेन शीतोष्णशब्दौ सकलविषयोपलक्षकौ। विषयोक्त्या च तत्साक्षात्कारो लक्ष्यते इति लक्षितलक्षणेयम्। अनुभवद्वारैव सुखदुःखादानम्। प्रतिसम्बन्धी देहः। दानं च आत्मन इत्युक्तं भवति। एतेन लौकिकी प्रतीतिरर्जुनेन शङ्किताऽनूद्यते। तत्तद्विषयाणां तैस्तैरिन्द्रियैर्ये ये सन्निकर्षास्तैस्तस्तत्तद्विषयसाक्षात्कारा भवन्ति तत्रेष्टविषयसाक्षात्कारात्सुखं भवति अनिष्टविषयसाक्षात्कारात् दुःखं भवतीति।भवेदेवं ततः किं प्रकृतशङ्काया इत्यतस्तुशब्दात्परया काक्वा सिद्धमर्थमाह न ही ति। स्वत इति। विषयेन्द्रियेनन्निकर्षमात्रेण। दुःखादि रिति विषयसाक्षात्कारः सुखदुःखे च। अनेन मात्रास्पर्शा एव केवलाः किं शीतोष्णसुखदुःखदाः नहि किन्नामाभिमानसहिताः इत्युक्तं भवति। अभिमानो नामात्र विषयेषु शोभनत्वाध्यासनिमित्तस्नेहः। अरित्वादिभ्रमनिमित्तो द्वेषश्च शरीरेन्द्रियान्तःकरणेषु ममतातिशयहेतुकोऽविवेक इत्यादि। विषयेन्द्रियसन्निकर्षा एव ज्ञानस्य सुखदुःखयोश्च कारणं कुतो न स्युः येनाभिमानोऽधिकः कारणसामग्र्यां निवेश्यत इति शङ्कापूर्वकमुत्तरपादं व्याचष्टे कुत इति। ननु कथमिदं लभ्यते यत इत्यध्याहारादिति ब्रूमः प्रयोजनान्तराभावाद्धेत्वर्थगर्भत्वेन वा।सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्क्रामतः इति न्यायात्। शीतोष्णसुखदुःखदत्वविशिष्टानां मात्रास्पर्शानामिदं विशेषणं भवच्छीतोष्णसुखदुःखदत्वमुपसङ्क्रामति। मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वं यत्तस्यागमापायित्वादित्यर्थः। अनेन कथमुक्तशङ्कापरिहार इत्यतोऽतिप्रसङ्गमुखेन व्याचष्टे यदी ति। मात्रास्पर्शा यदि स्वतः स्वयमेवाभिमानमनपेक्ष्यात्मनः शीतोष्णसुखदुःखदाः स्युः तर्हि सुप्तावपि स्युः । नहि कारणसामग्री कार्यं व्यभिचरतीत्यर्थः। नच वाच्यं सुप्तौ विषयेन्द्रियसम्बन्धा एव न सन्तीति स्पर्शत्वगिन्द्रियसम्बन्धस्यावर्जनीयत्वात्। अतएव शीतोष्णग्रहणं कृतम्। एतेनेन्द्रियमनस्सन्निकर्षाभावोऽपि प्रत्युक्तः। न चात्मनः सन्निकर्षाभावः मनसः कदाप्यात्मवियोगाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात्। अतिप्रसङ्गस्य विपर्यये पर्यवसानं वदन्साक्षादर्थं दर्शयति अत इति। अतो मात्रास्पर्शा नात्मनः स्वतः स्वयमेव केवलाः शीतोष्णसुखदुःखदा भवन्तीति सम्बन्धः। अत इत्युक्तस्य विवरणं यतस्तन्निमित्ता एवेति। तदित्यभिमानपरामर्शः। तेन निमित्तेन सहिता एव शीतोष्णसुखदुःखदा यत इत्यर्थः। तत्कुत इत्यत उक्तं मात्रे ति। मात्रास्पर्शा जाग्रत्स्वप्नयोरभिमानवतोरेव ते तथाविधाः शीतोष्णसुखदुःखदाः सन्तः सम्भवन्ति। नान्यदा अभिमानरहिते सुप्त्यादाविति मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वस्याभिमानान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादित्यर्थः। न चाभिमानहीनेऽपि ज्ञानोत्पत्तिस्तृणादौ दृश्यते सत्यं सुखदुःखहेतुभूतज्ञानमत्राधिकृतमित्यदोष इति। इतश्चाभिमान एवात्मन उपप्लव इत्याह आत्मनश्चे ति। अत्र तैरिति ज्ञानसुखदुःखपरामर्शः। आत्मनो ज्ञानादिभिः सम्बन्धो नास्ति तेषां मनोवृत्तित्वात्। तथा चान्यगतधर्माः कथमन्यस्य विक्रियाहेतवो विनाभिमानात्। प्रसिद्धं च स्वाभिमतगृहदाहो देवदत्तं दुःखीकरोतीति। ज्ञानादिभिरात्मनः सम्बन्धाभावे कथमुक्तं शीतोष्णाद्यनुभव आत्मन इत्यादीत्यत उक्तम् विषये ति। मनोवृत्तिरूपाणि ज्ञानादीनि विषयभूतानि। आत्मा च विषयी साक्षिचैतन्यस्य तद्विषयत्वात्। एतमेव सम्बन्धमभिप्रेत्यात्मनो ज्ञानमित्यादिव्यवहारः। उपलक्षणं चैतत्। ईश्वराधीनं स्वामित्वमपि ग्राह्यं तादात्म्यसमवायिनिरासे तात्पर्यात्।नन्वभिमानसहितानामेव मात्रास्पर्शानां ज्ञानादिहेतुत्वं न केवलानामित्युपपादितमेतत् ततो नित्या इति व्यर्थमिति चेत् न आगमापायित्वस्यैवानेन व्याख्यानात् व्याख्यानेऽपि किं प्रयोजनमित्यत आह नचे ति। आगमापायिशब्दो द्वयोः प्रयुज्यते यत्प्रवाहरूपेण नित्यं व्यक्तिरूपेणानित्यं यथा गङ्गोदकं तदेकमागमापायीत्युच्यते। यस्य तु प्रवाहोऽपि छिद्यते यथा किंशुककुसुमानां तदपरमिति। तत्रागमापायिशब्दादुभयप्रतीतौ आगमापायित्वेऽप्यागमापायिशब्दार्थोऽपि यत्प्रवाहरूपेण नित्यत्वं तदत्र विवक्षितं नास्ति न भवति। मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वे सम्भवात् प्रकृतानुपयोगाच्च। किन्तु द्वितीयमेव सुप्त्यादावभावेन सम्भवादुक्तरीत्या प्रकृतोपयोगाच्च इत्येतदनित्या इत्यनेनाह भगवानित्यर्थः। प्रलयो मूर्छा। आदिपदेनासम्प्रज्ञातसमाधेर्ग्रहणम्। नन्वनित्यपदमनेकार्थमेव सत्यम् तथापि पुनः प्रयत्नाद्यालोचनादेतत्सिद्धिः। एतदपि विशेषणोपसङ्क्रान्तं विशेषणम्। आगामिव्याख्यानमपेक्ष्य भाष्यकृताऽयमर्थः प्रागुपन्यस्त इति ज्ञेयम्। उक्तमर्थं पिण्डीकृत्योपसंहरति अत इति। उक्तप्रकारेण देहादावात्मनो ममैत इत्यादिभ्रम एव भ्रमसहिता एव मात्रास्पर्शा इत्यर्थः। ततः किमित्यतश्चतुर्थपदं व्याख्यातुमुपोद्धातमाह अत इति। तद्विसुक्तस्य भ्रमविमुक्तस्य बन्धुमरणादिदुःखं यत्प्राक् शङ्कितं न हि सामग्रीकार्यमेकदेशेन भवतीति भावः। ततः किमित्यतश्चतुर्थपादं व्याख्यातिं अत इति। तितिक्षस्व विफलीकुर्विति भावः। ननु तानिति मात्रास्पर्शानां परामर्शो युक्तः तत्कथं शीतोष्णादीनित्युक्तम् मैवम्। शीतोष्णहेतूनां मात्रास्पर्शानामेव तच्छब्देनोपलक्षणात्।
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.14।।नन्वात्मनो नित्यत्वे विभुत्वे च न विवदामः प्रतिदेहमेकत्वं तु न सहामहे। तथाहि बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाख्यनवविशेषगुणवन्तः प्रतिदेहं भिन्नाः एवं नित्या विभवश्चात्मानः इति वैशेषिका मन्यन्ते। इममेवच पक्षं तार्किकमीमांसकादयोऽपि प्रतिपन्नाः। सांख्यास्तु विप्रतिपद्यमाना अप्यात्मनो गुणवत्त्वे प्रतिदेहं भेदे न विप्रतिपद्यन्ते। अन्यथा सुखदुःखादिसंकरप्रसङ्गात्। तथाच भीष्मादिभिन्नस्य मम नित्यत्वे विभुत्वेऽपि सुखदुःखादियोगित्वाद्भीष्मादिबन्धुदेहविच्छेदे सुखवियोगो दुःखसंयोगश्च स्यादिति कथं शोकमोहौ नानुचितावित्यर्जुनाभिप्रायमाशङ्क्य लिङ्गशरीरविवेकायाह मीयन्ते आभिर्विषया इति मात्रा इन्द्रियाणि तासां स्पर्शा विषयैः संबन्धास्तत्तद्विषयाकारान्तःकरणपरिणामा वा ते आगमापायिन उत्पत्तिविनाशवतोऽन्तःकरणस्यैव शीतोष्णादिद्वारा सुखदुःखदाः नतु नित्यस्य विभोरात्मनः। तस्य निर्गुणात्वान्निर्विकारत्वाच्च। नहि नित्यस्यानित्यधर्माश्रयत्वं संभवति धर्मधर्मिणोरभेदात्संबन्धान्तरानुपपत्तेः। साक्ष्यस्य साक्षिधर्मत्वानुपपत्तेश्च। तदुक्तम् नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः।। इति। तथाच सुखदुःखाद्याश्रयीभूतान्तःकरणभेदादेव सर्वव्यवस्थोपपत्तेर्न निर्विकारस्य सर्वभासकस्यात्मनो भेदे मानमस्ति सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वत्रानुगमात्। अन्तःकरणस्य तावत्सुखदुःखादौ जनकत्वमुभयवादिसिद्धम्। तत्र समवायिकारणत्वस्यैवाभ्यर्हितत्वात्तदेव कल्पयितुमुचितं नतु समवायिकारणान्तरानुपस्थितौ निमित्तत्वमात्रम्। तथाचकामः संकल्पः इत्यादिश्रुतिःएतत्सर्वं मन एव इति कामादिसर्वविकारोपादानत्वमभेदनिर्देशान्मनस आह। आत्मनश्च स्वप्रकाशज्ञानानन्दरूपत्वस्य श्रुतिभिर्बोधनान्न कामाद्याश्रयत्वम् अतो वैशेषिकादयो भ्रान्त्यैवात्मनो विकारित्वं भेदं चाङ्गीकृतवन्त इत्यर्थः। अन्तःकरणस्यागमापायित्वात् दृश्यत्वाच्च नित्यदृग्रूपात्त्वत्तो भिन्नस्य सुखादिजनका ये मात्रास्पर्शास्तेऽप्यनित्या अनियतरूपाः एकदा सुखजनकस्यैव शीतोष्णादेरन्यदा दुःखजनकत्वदर्शनात्। एवं कदचिद्दुःखजनकस्याप्यन्यदा सुखजनकत्वदर्शनात्। शीतोष्णग्रहणमाध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकसुखदुःखोपलक्षणार्थम्। शीतमुष्णं च कदाचित्सुखं कदाचिद्दुःखं सुखदुःखे तु न कदापि विपर्ययेते इति पृथङ्निर्देशः। तथा चात्यन्तास्थिरान् त्वद्भिन्नस्य विकारिणः सुखदुःखादिप्रदान्भीष्मादिसंयोगवियोगरूपान्मात्रास्पर्शांस्त्वं तितिक्षस्व नैते मम किंचित्करा इति विवेकेनोपेक्षस्व। दुःखितादात्माध्यासेनात्मानं दुःखिनं मा ज्ञासीरित्यर्थः। कौन्तेय भारतेति संबोधनद्वयेनोभयकुलविशुद्धस्य तवाज्ञानमनुचितमिति सूचयति।
Sri Purushottamji
।।2.14।।नन्वग्रे देहाप्तिरपि भविष्यति परं किञ्चित्कालं भवति () भोगदुःखासहिष्णुत्वाच्छोचामीति चेत्तत्राह मात्रास्पर्शा इति। हे कौन्तेय परमस्निग्ध मात्रास्पर्शा इन्द्रियवृत्तिविषयसम्बन्धाः शीतोष्णसुखदुःखदा भवन्ति।अत्रायमर्थः इन्द्रियवृत्तिस्पृष्टा जलातपादयो शीतोष्णदा भवन्ति। तथा मित्रसंयोगविप्रयोगादयश्च सुखदुःखदा भवन्ति। संयोगे स्वस्य सुखं भवति विप्रयोगे च दुःखम् तत्रस्थसुखदुःखादिकं न विचारणीयम्। किन्तु मित्रसुखविचारेण स्वस्य तत्सहनमेवोत्तममुचितं यतस्ते न स्थिरा इत्याह आगमापायिन इति। आगमापायिन आगच्छन्त्यपयान्ति च अत एव अनित्याः अतस्तान् तितिक्षस्व सहस्व।भारत इति सम्बोधनात्तवैतदुचितमिति ज्ञापितम्।
Sri Shankaracharya
।।2.14।। मात्रा आभिः मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि। मात्राणां स्पर्शाः शब्दादिभिः संयोगाः। ते शीतोष्णसुखदुःखदाः शीतम् उष्णं सुखं दुःखं च प्रयच्छन्तीति। अथवा स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः विषयाः शब्दादयः। मात्राश्च स्पर्शाश्च शीतोष्णसुखदुःखदाः। शीतं कदाचित् सुखं कदाचित् दुःखम्। तथा उष्णमपि अनियतस्वरूपम्। सुखदुःखे पुनः नियतरूपे यतो न व्यभिचरतः। अतः ताभ्यां पृथक् शीतोष्णयोः ग्रहणम्। यस्मात् ते मात्रास्पर्शादयः आगमापायिनः आगमापायशीलाः तस्मात् अनित्याः । अतः तान् शीतोष्णादीन् तितिक्षस्व प्रसहस्व। तेषु हर्षं विषादं वा मा कार्षीः इत्यर्थः।।शीतोष्णादीन् सहतः किं स्यादिति श्रृणु
Sri Vallabhacharya
।।2.14।।ननु धैर्यमेव तन्नायाति यतो न मूढः स्यामिति चेत्तत्प्राप्त्युपायमाह मात्रास्पर्शा इति। मात्रा रूपादयस्तासां स्पर्शा इन्द्रियाख्याः इन्द्रियैर्वा स्पर्शाः योगाः शीतादिद्वन्द्वाः तेचागमापायिनोऽनित्यास्तान्विशिष्टानेव सहस्व। सर्वसहनं हि साङ्ख्ये योगे चावश्यकं ततो धीरस्य न मोहः।
Swami Sivananda
2.14 मात्रास्पर्शाः contacts of senses with objects? तु indeed? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? शीतोष्णसुखदुःखदाः producers of cold and heat? pleasure and pain? आगमापायिनः with beginning and end? अनित्याः impermanent? तान् them? तितिक्षस्व bear (thou)? भारत O Bharata.Commentary -- Cold is pleasant at one time and painful at another. Heat is pleasant in winter but painful in summer. The same object that gives pleasure at one time gives pain at another time. So the sensecontacts that give rise to the sensations of heat and cold? pleasure and pain come and go. Therefore? they are impermanent in nature. The objects come in contact with the senses or the Indriyas? viz.? skin? ear? eye? nose? etc.? and the sensations are carried by the nerves to the mind which has its seat in the brain. It is the mind that feels pleasure and pain. One should try to bear patiently heat and cold? pleasure and pain and develop a balanced state of mind. (Cf.V.22)
Sri Dhanpati
।।2.14।।नन्वात्मनो नित्यत्वात्तन्नाशनिमित्तशोकमोहाभावेऽपि सुखवियोगदुःखसंयोगशीतादिप्राप्तिनिमित्तौ तौ दुर्वारावितिचेत्तत्राह मात्रास्पर्शा इति। भीयन्ते आभिर्विषया इति मात्राः इन्द्रियाणि तेषां विषयैः स्पर्शाः संयोगाः। यद्वा स्पृश्यन्त इति स्पर्शा विषयाः मात्राश्च स्पर्शाश्च ते शीतोष्णसुखदुःखदाः। त्वगिन्द्रियतद्विषयसंबन्धस्य तयोर्वाऽनियतसुखदुःखशीतोष्णदातृत्वमप्यस्तीत्यभिप्रेत्य नियतरुपाभ्यां सुखदुःखाभ्यां अनियतसुखदुःखप्रदयोः शीतोष्णयो पृथग्ग्रहणम्। यत उत्पत्तिविनाशशीला अतएवानित्याः। अतएव तान् सहस्व। तेषु हर्षं विषादं च मा कार्षीत्यर्थः। स्त्रीस्वभाववतः सुखादिदानेतान् भरतादिपुरुषधौरेयस्वभावमाश्रित्य सोढुं योग्योऽसीति संबोधनाशयः। अत्र संबोधनद्वयेनोभयकुलशुद्धस्यैव विद्याधिकारित्वं सूचयतीत्येके। उत्तमवंश्यत्वेन धीरत्वमस्येत्यन्ये। उभयकुलविशुद्धस्य तवात्माज्ञानमनुचितमिति केचित्। अय पक्ष उभयकुलशुद्धिमात्रादेवात्मज्ञानं यदि स्यात्तर्हि सभ्यक्। अथवा प्रथमपक्षानुरोधेन व्याख्येयः। भाष्यकृद्भिस्तु सुगमत्वात्संबोधनाभिप्रायवर्णनं न सर्वत्र क्रियत इति बोध्यम्।