Chapter 2, Verse 67
Verse textइन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
Verse transliteration
indriyāṇāṁ hi charatāṁ yan mano ’nuvidhīyate tadasya harati prajñāṁ vāyur nāvam ivāmbhasi
Verse words
- indriyāṇām—of the senses
- hi—indeed
- charatām—roaming
- yat—which
- manaḥ—the mind
- anuvidhīyate—becomes constantly engaged
- tat—that
- asya—of that
- harati—carries away
- prajñām—intellect
- vāyuḥ—wind
- nāvam—boat
- iva—as
- ambhasi—on the water
Verse translations
Swami Adidevananda
For, when the mind follows the senses, experiencing their objects, his understanding is carried away by them, just as the wind carries away a ship on the waters.
Swami Sivananda
For the mind, which follows in the wake of the wandering senses, carries away his discrimination, as the wind carries away a boat on the waters.
Dr. S. Sankaranarayan
That mind, which is directed to follow the wandering sense-organs—that mind carries away his knowledge just as the wind carries away a ship on the waters.
Shri Purohit Swami
As a ship at sea is tossed by the tempest, so the reason is carried away by the mind when preyed upon by straying senses.
Swami Ramsukhdas
।।2.67।। अपने-अपने विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे एक ही इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जलमें नौकाको वायुकी तरह इसकी बुद्धिको हर लेता है।
Swami Tejomayananda
।।2.67।। जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है? वह एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा को हर लेती है।।
Swami Gambirananda
For, the mind which follows in the wake of the wandering senses carries away his wisdom like a boat on the waters.
Verse commentaries
Swami Ramsukhdas
2.67।। व्याख्या-- [मनुष्यका यह जन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः मुझे तो केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है, चाहे जो हो जाय--ऐसा अपना ध्येय दृढ़ होना चाहिये। ध्येय दृढ़ होनेसे साधककी अहंतामेंसे भोगोंका महत्त्व हट जाता है। महत्त्व हट जानेसे व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ हो जाती है। परन्तु जबतक व्यवसायात्मिका बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तबतक उसकी क्या दशा होती है--इसका वर्णन यहाँ कर रहे हैं।] 'इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते' (टिप्पणी प0 103.2)-- जब साधक कार्यक्षेत्रमें सब तरहका व्यवहार करता है, तब इन्द्रियोंके सामने अपने-अपने विषय आ ही जाते हैं। उनमेंसे जिस इन्द्रियका अपने विषयमे राग हो जाता है, वह इन्द्रिय मनको अपना अनुगामी बना लेती है, मनको अपने साथ कर लेती है। अतः मन उस विषयका सुखभोग करने लग जाता है अर्थात् मनमें सुखबुद्धि, भोगबुद्धि पैदा हो जाती है; मनमें उस विषयका रंग चढ़ जाता है, उसका महत्त्व बैठ जाता है। जैसे, भोजन करते समय किसी पदार्थका स्वाद आता है तो रसनेन्द्रिय उसमें आसक्त हो जाती है। आसक्त होनेपर रसनेन्द्रिय मनको भी खीँच लेती है, तो मन उस स्वादमें प्रसन्न हो जाता है राजी हो जाता है। 'तदस्य हरति प्रज्ञाम्'-- जब मनमें विषयका महत्त्व बैठ जाता है, तब वह अकेला मन ही साधककी बुद्धिको हर लेता है अर्थात् साधकमें कर्तव्य-परायणता न रहकर भोगबुद्धि पैदा हो जाती है। वह भोगबुद्धि होनेसे साधकमें 'मुझे परमात्माकी ही प्राप्ति करनी है'--यह व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं रहती। इस तरहका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर बुद्धि विचलित होनेमें देरी नहीं लगती अर्थात् जहाँ इन्द्रियने मनको अपना अनुगामी बनाया कि मनमें भोगबुद्धि पैदा हो जाती है और उसी समय बुद्धि मारी जाती है। 'वायुर्नावमिवाम्भसि'-- वह बुद्धि किस तरह हर ली जाती है इसको दृष्टान्तरूपसे समझाते हैं कि जलमें चलती हुई नौकाको वायु जैसे हर लेती है, ऐसे ही मन बुद्धिको हर लेता है। जैसे, कोई मनुष्य नौकाके द्वारा नदी या समुद्रको पार करते हुए अपने गन्तव्य स्थानको जा रहा है। यदि उस समय नौकाके विपरीत वायु चलती है तो वह वायु उस नौकाको गन्तव्य स्थानसे विपरीत ले जाती है। ऐसे ही साधक व्यवसायात्मिका बुद्धिरूप नौकापर आरूढ़ होकर संसारसागरको पार करता हुआ परमात्माकी तरफ चलता है, तो एक इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बनाती है, वह अकेला मन ही बुद्धिरूप नौकाको हर लेता है अर्थात् उसे संसारकी तरफ ले जाता है। इससे साधककी विषयोंमें सुख-बुद्धि और उनके उपयोगी पदार्थोंमें महत्त्वबुद्धि हो जाती है। वायु नौकाको दो तरहसे विचलित करती है--नौकाको पथभ्रष्ट कर देती है अथवा जलमें डुबा देती है। परन्तु कोई चतुर नाविक होता है तो वह वायुकी क्रियाको अपने अनुकूल बना लेता है, जिससे वायु नौकाको अपने मार्गसे अलग नहीं ले जा सकती, प्रत्युत उसको गन्तव्य स्थानतक पहुँचानेमें सहायता करती है--ऐसे ही इन्द्रियोंके अनुगामी हुआ मन बुद्धिको दो तरहसे विचलित करता है--परमात्मप्राप्तिके निश्चय को दबाकर भोगबुद्धि पैदा कर देता है अथवा निषिद्ध भोगोंमें लगाकर पतन करा देता है। परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धिको मन विचलित नहीं करता, प्रत्युत परमात्माके पास पहुँचानेमें सहायता करता है (2। 6465)। सम्बन्ध-- अयुक्त पुरुषकी निश्चयात्मिका बुद्धि क्यों नहीं होती, इसका हेतु तो पूर्वश्लोकमें बता दिया। अब जो युक्त होता है, उसकी स्थितिका वर्णन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।
Swami Chinmayananda
।।2.67।। नाव के नाविक की मृत्यु हो गयी हो और उसके पाल खुले हों तब वह नाव पूरी तरह उन्मत्त तूफानों और उद्दाम तरंगों की दया पर आश्रित होगी। विक्षुब्ध तरंगों के भयंकर थपेड़ों से इधरउधर भटकती हुई वह लक्ष्य को प्राप्त किये बिना बीच में ही नष्ट हो जायेगी। इसी प्रकार संयमरहित पुरुष की इन्द्रियाँ भी विषयों में विचरण करती हुई मन को वासनाओं की अंधीआंधी में भटकाकर विनष्ट कर देती हैं। अत यदि मनुष्य अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहता है तो उसे अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखने का सतत प्रयत्न करते रहना चाहिए।62वें श्लोक से प्रारम्भ किये मनुष्य के पतन के विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।2.67।।आकाङ्क्षाद्वारा श्लोकान्तरमुत्थापयति अयुक्तस्येति। विक्षिप्तचेतसो भावनाभावे साक्षात्कारलक्षणा बुद्धिर्न भवतीति हेत्वन्तरेण साधयति इन्द्रियाणामिति। यत्पदोपात्तं मनस्तत्पदेनापि गृह्यते। इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां विषयाः शब्दादयस्तेषां विकल्पनं मिथो विभज्य ग्रहणं तेनेति यावत्। दृष्टान्तं व्याकरोति उदक इति। करोति यस्मात्तस्मादयुक्तस्य नोत्पद्यते बुद्धिरिति योजना।
Sri Dhanpati
।।2.67।।अयुक्तस्य बुद्धिर्नास्तीत्युक्तं तत्र हेतुमाह इन्द्रियाणामिति। यत्तु तदभावे दोषमाहेति तदयुक्तम्। पूर्वश्लोकऽपि दोषस्यैवोक्तत्वात्। इन्द्रियाणां स्वविषये प्रवर्तमानानां यन्मनोऽनुवर्तते तदिन्द्रियविषयविकल्पे प्रवृत्तमस्य पुरुषस्य विवेकिनः प्रज्ञामात्मानात्मविवेकजां हरति। अम्भसि नावं वायुरिव जले जिगमिषतां मार्गादुद्धृत्योन्मार्गे यथा वायुः प्रवर्तयति तद्वत्। यत्त्विन्द्रियाणां मध्ये यदेकमपीन्द्रियमनु लक्षीकृत्य विधीयते प्रेर्यते। प्रवर्तत इति यावत्। तदिन्द्रियमेकमपि मनसानुसृतं अस्य साधकस्य मनसो वा प्रज्ञां हरतीत्यादि तदयुक्तम्।नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य इत्यनुरोधेन इन्द्रियानुगतमनस एव बुद्धिहरणकर्तृत्वस्य विवक्षितत्वात्। श्रुतं मनःपदं त्यक्त्वाऽश्रुतस्यैकेन्द्रियस्य यत्तत्पदेनोपादानानौचित्यात्। मनस इत्यपि न। साधकस्यैव प्रकृतत्वात्।
Sri Madhavacharya
।।2.67।।कथमयुक्तस्य भावना न भवति इत्याह इन्द्रियाणामिति। अनुविधीयते क्रियते नन्वीश्वरेण इन्द्रियाणामनु बुद्धिर्ज्ञानमिति वक्ष्यमाणत्वात्। प्रज्ञां ज्ञानं उत्पत्स्यदपि निवारयतीत्यर्थः। उत्पन्नस्याप्यभिभवो भवति।
Sri Neelkanth
।।2.67।।तदभावे दोषमाह इन्द्रियाणां हीति। हि यस्मादिन्द्रियाणां चरतां स्वस्वविषये प्रवर्तमानानाम्। कर्मणि षष्ठी। यत् रागादिकलुषितं मनः तान्यनुलक्षीकृत्य विधीयते प्रवर्त्यते। कर्मकर्तरि लकारः। प्रवर्तत इत्यर्थः। तत् इन्द्रियानुसारि मनोऽस्य साधकस्य प्रज्ञामात्मतत्त्वविषयां बुद्धिं हरति। तस्या मनोनुसारित्वात्। दृष्टान्तः स्पष्टार्थः। अन्ये तु इन्द्रियाणां मध्ये यदिन्द्रियमनुलक्षीकृत्य मनः प्रवर्तते तदिन्द्रियमस्य साधकस्य मनसो वा प्रज्ञां हरतीति योजयन्ति। आत्मविषयां प्रज्ञां हृत्वा मनोविषयविषयां करोतीति भाष्यमप्यालोचनीयम्।
Sri Ramanujacharya
।।2.67।। इन्द्रियाणां विषयेषु चरतां विषयेषु वर्तमानानां वर्तनम् अनु यन्मनः अनु विधीयते पुरुषेण अनुवर्त्यते तत् मनः अस्य विविक्तात्मप्रवणां प्रज्ञां हरति विषेयप्रवणतां करोति इत्यर्थः। यथा अम्भसि नीयमानां नावं प्रतिकूलो वायुः प्रसह्य हरति।
Sri Sridhara Swami
।।2.67।।नास्ति बुद्धिरयुक्तस्येत्यत्र हेतुमाह इन्द्रियाणामिति। इन्द्रियाणामवशीकृतानां स्वैरं विषयेषु चरतां मध्ये यदेवैकमिन्द्रियं मनोऽनुविधीयतेऽवशीकृतं सदिन्द्रियेण सह गच्छति तदेवैकमिन्द्रियमस्य मनसः पुरुषस्य वा प्रज्ञां हरति विषयविक्षिप्तां करोति किमुत वक्तव्यं बहूनि प्रज्ञां हरन्तीति। यथा प्रमत्तस्य कर्णधारस्य नावं वायुः समुद्रे सर्वतः परिभ्रामयति तद्वत्।
Sri Abhinavgupta
।।2.66 2.70।।रागद्वेषेत्यादि प्रतिष्ठितेत्यन्तम्। यस्तु मनसो नियामकः स विषयान् सेवमानोऽपि न क्रोधादिकल्लोलैरभिभूयते इति स एव स्थितप्रज्ञो योगीति तात्पर्यम्।
Sri Jayatritha
।।2.67।।एकेनैव श्लोकेन प्रमेयस्य समुदितत्वात् श्लोकाभ्यामिति किमर्थमुक्तमत आह कथ मिति। कृतश्रवणमननस्य ध्यानोपपत्तेरिति भावः। न भवतीत्याशङ्क्येति शेषः। अनुविधानं सदृशभवनं तदत्रासङ्गतं कर्ता चात्र जीव इति प्रतीयतेऽत आह अनुविधीयत इति। विपूर्वो दधातिः करोत्यर्थे वर्तते कर्ता चात्रेश्वर एवेत्यर्थः। अत्रानुः पृष्ठभावित्वार्थः न लक्षणाद्यर्थ इति कर्मप्रवचनीयो न भवति। नन्विति सम्प्रतिपत्तिरुक्ता सा कुतः इत्यत आह बुद्धिरि ति। ग्रहणशक्तिः प्रज्ञा। तद्ग्रहणमत्रायुक्तमित्यत आह प्रज्ञा मिति। परोक्षनिश्चयं यस्य प्रज्ञानं नोत्पन्नं तस्य युक्त्यभावः किं करिष्यति विद्यमानस्य हि हरणमत आह उत्पत्स्यदि ति। तर्ह्युत्पन्नपरोक्षज्ञानस्य युक्त्यभावोऽकिञ्चित्करः इत्यत आह उत्पन्नस्यापी ति। चित्तनिरोधरहितश्रवणमनने अपि न ध्यानोपयोगिनौ तत्त्वनिश्चयवेदार्थनियमौ कुरुत इति भावः।
Swami Sivananda
2.67 इन्द्रियाणाम् senses? हि for? चरताम् wandering? यत् which? मनः mind? अनुविधीयते follows? तत् that? अस्य his? हरति carries away? प्रज्ञाम् discrimination? वायुः the wind? नावम् boat? इव like? अम्भसि in the water.Commentary The mind which constantly dwells on the sensual objects and moves in company with the senses destroys altogether the discrimination of the man. Just as the wind carries away a boat from its course? so also the mind carries away the aspirant from his spiritual path and turns,him towards the objects of the senses.
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.67।।अयुक्तस्य कुतो नास्ति बुद्धिरित्यत आह चरतां स्वविषयेषु प्रवर्तमानानामवशीकृतानामिन्द्रियाणां मध्ये यदेकमपीन्द्रियमनुलक्षीकृत्य मनोऽनुविधीयते प्रेर्यते। प्रवर्तत इति यावत्। कर्मकर्तरि लकारः। तदिन्द्रियमेकमपि मनसानुसृतमस्य साधकस्य मनसो वा प्रज्ञामात्मविषयां शास्त्रीयां हरत्यपनयति मनसस्तद्विषयाविष्टत्वात्। यदैकमपीन्द्रियं प्रज्ञां हरति तदा सर्वाणि हरन्तीति किमु वक्तव्यमित्यर्थः। दृष्टान्तस्तु स्पष्टः। अम्भस्येव वायोर्नौकाहरणसामर्थ्यं न भुवीति सूचयितुमम्भसीत्युक्तम्। एवं दार्ष्टान्तिकेऽप्यम्भःस्थानीये मनश्चाञ्चल्ये सत्येव प्रज्ञाहरणसामर्थ्यमिन्द्रियस्य नतु भूस्थानीये मनःस्थैर्य इति सूचितम्।
Sri Purushottamji
।।2.67।।ननु भावनायामास्थितचेतसोऽपीन्द्रियनिग्रहः किमर्थं स तु साधनदशापन्नस्यैव सम्भवति भावनायुक्तस्य तु सिद्धत्वादेव न प्रयोजनं ज्ञानिन इवेत्याशङ्क्याह इन्द्रियाणामिति। चरतां लौकिकेषु स्वेच्छया विहरतामिन्द्रियाणां यस्येन्द्रियस्य सङ्गे मनः अनुविधीयते तत्सङ्गे गच्छति तत् तदेव इन्द्रियस्य पुरुषस्य प्रज्ञां भावनात्मिकां हरति। तत्र दृष्टान्तमाह वायुर्नावमिति। अम्भसि जले नावं तारणसाधिकां वायुरिव। यथा प्रबलो वायुरनवस्थितकर्णधारयुक्तां नावं मज्जयति तथेति भावः।
Sri Shankaracharya
।।2.67।। इन्द्रियाणां हि यस्मात् चरतां स्वस्वविषयेषु प्रवर्तमानानां यत् मनः अनुविधीयते अनुप्रवर्तते तत् इन्द्रियविषयविकल्पनेन प्रवृत्तं मनः अस्य यतेः हरति प्रज्ञाम् आत्मानात्मविवेकजां नाशयति। कथम् वायुः नावमिव अम्भसि उदके जिगमिषतां मार्गादुद्धृत्य उन्मार्गे यथा वायुः नावं प्रवर्तयति एवमात्मविषयां प्रज्ञां हृत्वा मनो विषयविषयां करोति।।यततो हि इत्युपन्यस्तस्यार्थस्य अनेकधा उपपत्तिमुक्त्वा तं चार्थमुपपाद्य उपसंहरति
Sri Vallabhacharya
।।2.67।।अत्र हेतुमाह इन्द्रियाणामिति। विषयेषु चरतामिन्द्रियाणां मध्ये यन्मनः कर्तृ प्रबलमेकमनुविधीयते अनेन चानुक्रियते तदस्य प्रज्ञां हरति। तत्र दृष्टान्तः वायुर्नावमिवाम्भसीति।