Chapter 2, Verse 7
Verse textकार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्िचतं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।।
Verse transliteration
kārpaṇya-doṣhopahata-svabhāvaḥ pṛichchhāmi tvāṁ dharma-sammūḍha-chetāḥ yach-chhreyaḥ syānniśhchitaṁ brūhi tanme śhiṣhyaste ’haṁ śhādhi māṁ tvāṁ prapannam
Verse words
- kārpaṇya-doṣha—the flaw of cowardice
- upahata—besieged
- sva-bhāvaḥ—nature
- pṛichchhāmi—I am asking
- tvām—to you
- dharma—duty
- sammūḍha—confused
- chetāḥ—in heart
- yat—what
- śhreyaḥ—best
- syāt—may be
- niśhchitam—decisively
- brūhi—tell
- tat—that
- me—to me
- śhiṣhyaḥ—disciple
- te—your
- aham—I
- śhādhi—please instruct
- mām—me
- tvām—unto you
- prapannam—surrendered
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
With my very nature, overpowered by the taint of pity, and with my mind, utterly confused as to the right action at this present juncture, I ask you: Tell me definitely what would be good for me; I am your pupil; please teach me, who is taking refuge in You.
Swami Ramsukhdas
।।2.7।। कायरतारूप दोषसे तिरस्कृत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्तःकरणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो, वह मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
Swami Tejomayananda
।।2.7।। करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
Swami Adidevananda
With my heart stricken by the fault of weak compassion, my mind perplexed about my duty, I implore you to tell me for certain what is good for me. I am your disciple; teach me, who have taken refuge in you.
Swami Gambirananda
With my nature overpowered by weak commiseration, my mind bewildered about duty, I supplicate You. Tell me for certain what is better; I am Your disciple, having taken refuge in You. Instruct me.
Swami Sivananda
My heart is overpowered by the taint of pity; my mind is confused as to my duty. I ask Thee: Tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple; instruct me, who has taken refuge in Thee.
Shri Purohit Swami
My heart is oppressed with pity, and my mind is confused as to what my duty is. Therefore, my Lord, tell me what is best for my spiritual welfare, for I am Your disciple. Please direct me, I pray.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।2.7।।उक्तसंशयवानेव पृच्छति कार्पण्येति। कार्पण्यं दीनत्वम्। स्वभावःशौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यम् इत्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणः। शेषं स्पष्टम्।
Sri Vallabhacharya
।।2.6 2.8।।न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः।
Sri Ramanujacharya
।।2.7।।एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत् अस्तु तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार।
Sri Sridhara Swami
।।2.7।। कार्पण्येति। तस्मात्कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः। एतान्हत्वा कथं जीविष्याम इति कार्पण्यं दोषश्च स्वकुलक्षयकृतः ताभ्यामुपहतोऽभिभूतः स्वभावः शौर्यादिलक्षणो यस्य सोऽहं त्वां पृच्छामि। तथा धर्मे संमूढं चेतो यस्य सः। युद्धं त्यक्त्वा भिक्षाटनमपि क्षत्रियस्य धर्मो वाऽधर्मो वेति संदिग्धचित्तः सन्नित्यर्थः। अतो मे यन्निश्चितं श्रेयो युक्तं स्यात्तद्ब्रूहि। किंच तेऽहं शिष्यः शासनार्हः। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।। 2.7न चैतद्विद्मः इत्यादेश्चकारद्योतितशङ्कापूर्वकं तात्पर्यार्थमाह एवमिति। बन्धुविनाशाद्भीतेन त्वया धर्मसुतभीमनकुलाद्यासन्नतरबन्धुविनाश एव कारितः स्यादितिभवत इत्यनेन सूचितम्।विद्मः इत्यादिबहुवचनानुसारेणाह अस्माकमिति। अस्माकमित्यनेन हन्तव्यतया निर्दिष्टभीष्मद्रोणाद्यपेक्षया सर्वेषां शिष्यत्वादिकमभिप्रेतम्। पूर्वोत्तरार्धाभ्यां विमर्शस्वाभिमतपक्षौ व्यञ्जितौ।यद्वा इतियदि वा इति च तुल्यार्थम्। येषां वधेन जीवनमस्माकमनिष्टं त एवास्मान् जिघांसन्तः स्वहननानुरूपत्वेनावस्थिता इतियानेव इत्यादेरन्वयार्थः।न जिजीविषामः इत्यनेन सूचितां अनिर्णयपर्यवसितां अत एव प्रश्नहेतुभूतां प्रतिभामाह इति मे प्रतिभातीति।यच्छ्रेयः इत्यादेरन्वयफलितार्थमुपदेशयोग्यत्वायोक्तां शिष्यगुणसम्पत्तिं च स्फुटयति यन्मह्यमित्यादिना। निश्चेतव्याकारनिष्कर्षणाय इतिकरणम्। शासनीयो हि शिष्यः अतःशिष्यस्तेऽहं शाधि माम् इति वदति। स्वभावोऽत्र धैर्यम् कर्तव्यविशेषाज्ञानात् शोकापनोदनोपायराहित्यादिना वा अतिमात्रकार्पण्यम्। त्याज्यस्यापरित्यागोऽत्र कार्पण्यमित्येके दयाजनकदीनवृत्तिनिरतत्वमित्यपरे।भगवत्पादाम्बुजमुपससारेति शिष्यत्वप्रपन्नत्वाद्युक्तिफलमेव।
Sri Purushottamji
।।2.7।।एवं स्वविचारमुक्त्वा तस्य दोषरूपतां वदन् भगवदाज्ञां करिष्यमाण आह कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव इति। कार्पण्यं बन्धुमारणानुचितज्ञानरूपं तद्रूपो यो दोषस्तेन उपहतः स्वभावः क्षात्त्रः शौर्यादिरूपो यस्य तादृशस्त्वां पृच्छामि। ननु उपहतस्वभावस्य विकलस्य किं प्रश्नेनेत्यत आह धर्मसम्मूढचेता इति। धर्म धर्मज्ञानार्थं सम्मूढं चेतो यस्य सः। एतन्मारणे त्वं प्रसन्नः किं वा अमारणे एतन्मध्येऽन्यद्वा यच्छ्रेयः श्रेयोरूपं त्वत्प्रसादरूपं स्यात्तन्मे निश्चितं ब्रूहि। अहं ते शिष्यः न तु मित्रं अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं धर्मजिज्ञासया मां त्वं शाधि शिक्षय।
Swami Ramsukhdas
2.7।। व्याख्या--'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः'(टिप्पणी प0 43.1)--यद्यपि अर्जुन अपने मनमें युद्धसे सर्वथा निवृत्त होनेको सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पापसे बचनेके लिये उनको युद्धसे उपराम होनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था। इसलिये वे युद्धसे उपराम होना चाहते थे, और उपराम होनेको गुण ही मानते थे, कायरतारूप दोष नहीं। परन्तु भगवान्ने अर्जुनकी इस उपरतिको कायरता और हृदयकी तुच्छ दुर्बलता कहा, तो भगवान्के उन निःसंदिग्ध वचनोंसे अर्जुनको ऐसा विचार हुआ कि युद्धसे निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है। यह तो एक तरहकी कायरता ही है, जो मेरे स्वभावके बिलकुल विरुद्ध है क्योंकि मेरे क्षात्र-स्वभावमें दीनता और पलायन (पीठ दिखाना)--ये दोनों ही नहीं हैं (टिप्पणी प0 43.2) । इस तरह भगवान्के द्वारा कथित कायरतारूप दोषको अपनेमें स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोषके कारण मेरा क्षात्र-स्वभाव एक तरहसे दब गया है; और दूसरी बात, मैं अपनी बुद्धिसे धर्मके विषयमें कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी बुद्धिमें ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्मके विषयमें मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है तीसरे श्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा दे दी थी कि 'हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको, कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़े हो जाओ'। इससे अर्जुनको धर्म-(कर्तव्य-) के विषयमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था। फिर भी सन्देह रहनेका कारण यह है कि एक तरफ तो युद्धमें कुटुम्बका नाश करना, पूज्यजनोंको मारना अधर्म (पाप) दीखता है, और दूसरी तरफ युद्ध करना क्षत्रियका धर्म दीखता है। इस प्रकार कुटुम्बियोंको देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिये और क्षात्र-धर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहिये-- इन दो बातोंको लेकर अर्जुन धर्म-संकटमें पड़ गये। उनकी बुद्धि धर्मका निर्णय करनेमें कुण्ठित हो गयी। ऐसा होनेपर 'अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है? मेरा धर्म क्या है?'इसका निर्णय करानेके लिये वे भगवान्से पूछते हैं।
Swami Chinmayananda
।।2.7।। अपने आप को असहाय अवस्था तथा कोई निर्णय लेने से सर्वथा असमर्थ पाकर अर्जुन सम्पूर्ण रूप से स्वयं को भगवान् की शरण में समर्पित कर देता है। वह स्वीकार कर रहा है कि उसकी मानसिक स्थिति नष्टभ्रष्ट हो गयी है। वह स्वयं बताता है कि उसका मुख्य कारण करुणा की अत्यधिकता है। अज्ञान के कारण वह समझ नहीं पा रहा है कि उसकी वह करुणा निराधार है। वह स्वीकार करता है कि युद्ध करने या न करने के विषय में उसकी बुद्धि भ्रमाच्छादित होने के कारण वह धर्मअधर्म का निर्णय नहीं कर पा रहा है।हम पहले ही धर्म शब्द का अर्थ देख चुके हैं। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण उस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है उस वस्तु का धर्म कहलाता है। हिन्दू दर्शन मानव धर्म पर बल देता है जिसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुद्ध दैवी स्वरूप के अनुरूप रहना चाहिये और उसका यह प्रयत्न होना चाहिये कि वह स्वस्वरूप की महत्ता बनाये रखे और पशुवत जीवन व्यतीत न करे।यहाँ अर्जुन शिष्यभाव से भगवान् की शरण में जाता है जो यह संकेत करता है कि अब वह उपदेश ग्रहण करने योग्य हो गया है और वह भगवान् के उपदेश का पालन करेगा। एक और बात का भी संकेत मिलता है कि यदि अज्ञानवश अर्जुन अनेक बार अपनी शंका प्रस्तुत करते हुए प्रश्न पूछता है तो उसका समाधान भगवान् को सहानुभूति और धैर्यपूर्वक करना होगा। सम्पूर्ण गीता में हम अनेक स्थानों पर अर्जुन को कृष्णोपदेश के मध्य शंकायें प्रकट करते हुये देखते हैं परन्तु कहीं पर भी श्रीकृष्ण को धैर्य खोते नहीं देखते। इतना ही नहीं अर्जुन द्वारा प्रत्येक प्रश्न पूछे जाने पर वे और अधिक उत्साहित होकर युद्धभूमि में उसका उत्तर देते हैं।
Swami Sivananda
2.7 कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः with nature overpowered by the taint of pity? पृच्छामि I ask? त्वाम् Thee? धर्मसंमूढचेताः with a mind in confusion about duty? यत् which? श्रेयः good? स्यात् may be? निश्चितम् decisively? ब्रूहि say? तत् that? मे for me? शिष्यः disciple? ते Thy? अहम् I? शाधि teach? माम् me? त्वाम् to Thee? प्रपन्नम् taken refuge.No commentary.
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.7।।गुरूपसदनमिदानीं प्रतिपाद्यते समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य विधिवद्गुरुमुपसन्नस्यैव विद्याग्रहणेऽधिकारात्। तदेवं भीष्मादिसंकटवशात्व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति इति श्रुतिसिद्धभिक्षाचर्येऽर्जुनस्याभिलाषं प्रदर्श्य विधिवदुपसत्तिमपि तत्संकटव्याजेनैव दर्शयति। यः स्वल्पामपि वित्तक्षतिं न क्षमते स कृपण इति लोके प्रसिद्धस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपुरुषार्थतया कृपणो भवति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं अनात्माध्यासवत्त्वं तन्निमित्तोऽस्मिञ्जन्मन्येत एव मदीयास्तेषु हतेषु किं जीवितेनेत्यभिनिवेशरूपो ममतालक्षणो दोषस्तेनोपहतस्तिरस्कृतः स्वभावः क्षात्रो युद्धोद्योगलक्षणो यस्य सः। तथा धर्मविषये निर्णायकप्रमाणादर्शनात्संमूढं किमेतेषां वधो धर्मः किमेतत्परिपालनं धर्मः तथा किं पृथ्वीपरिपालनं धर्मः किंवा यथावस्थितोऽरण्यनिवासएव धर्मं इत्यादिसंशयैर्व्याप्तं चेतो यस्य स तथा।न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः इत्यत्र व्याख्यातमेतत्। एवंविधः सन्नहं त्वा त्वामिदानीं पृच्छामि। श्रेय इत्यनुषङ्गः। अतो यन्निश्चितमैकान्तिकमात्यन्तिकं च श्रेयः परमपुमर्थभूतं फलं स्यात्तन्मे मह्यं ब्रूहि। साधनानन्तरमवश्यंभावित्वमैकान्तिकत्वम् जातस्याविनाश आत्यन्तिकत्वम् यथा ह्यौषधे कृते कदाचिद्रोगानिवृत्तिर्न भवेदपि जातापि च रोगनिवृत्तिः पुनरपि रोगोत्पत्त्या विनाश्यते एवं कृतेऽपि यागे प्रतिबन्धवशात्स्वर्गो न भवेदपि जातोऽपि स्वर्गो दुःखाक्रान्तो नश्यति चेति नैकान्तिकत्वमात्यन्तिकत्वं वा तयोः। तदुक्तम्दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात्।। इतिदृष्टवदानुश्रविकः सह्यविंशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। तद्विपरीतः श्रेयोन्व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।। इति च। ननु त्वं मम सखा नतु शिष्योऽत आह शिष्येस्तेऽमिति। त्वदनुशासनयोग्यत्वादहं तव शिष्य एव भवामि न सखा न्यूनज्ञानत्वात्। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय करुणया नत्वशिष्यत्वशङ्कयोपेक्षणीयोऽहमित्यर्थः। एतेनतद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठंभृगुर्वै वारुणिः। वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति इत्यादिगुरूसत्तिप्रतिपादकः श्रुत्यर्थो दर्शितः।
Sri Anandgiri
।।2.7।।समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य मुमुक्षोरुपसन्नस्यात्मोपदेशसंग्रहणेऽधिकारं सूचयति कार्पण्येति। योऽल्पां स्वल्पामपि स्वक्षतिं न क्षमते स कृपणस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपरमपुरुषार्थतया कृपणो भवति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं दैन्यं तेन दोषेणोपहतो दूषितः स्वभावश्चित्तमस्येति विग्रहः। सोऽहं पृच्छाम्यनुयुञ्जे त्वा त्वां धर्मसंमूढचेताः धर्मो धारयतीति परं ब्रह्म तस्मिन्संमूढमविवेकतां गतं चेतो यस्य ममेति तथाहमुक्तः। किं पृच्छसि यन्निश्चितमैकान्तिकमनापेक्षिकं श्रेयः स्यान्न रोगनिवृत्तिवदनैकान्तिकमनात्यन्तिकं स्वर्गवदापेक्षिकं वा तन्निःश्रेयसं मे मह्यं ब्रूहिनापुत्रायाशिष्याय इति निषेधान्न प्रवक्तव्यमिति मा मंस्थाः। यतः शिष्यस्तेऽहं भवामि। शाध्यनुशाधि मां निःश्रेयसं। त्वामहं प्रपन्नोऽस्मि।
Sri Dhanpati
।।2.7।। संसारासारतां ज्ञातवत इहामुत्रार्थे भोगेऽत्यन्तविरक्तस्य मुमुक्षोर्गुरुपसत्तिं सूचयन्नाह कार्पण्येति। अनात्मवित्त्वात्संबन्धिनां वियोगासहनं कार्पण्यम्।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः। तेन कार्पण्येन दैन्यरुपेण दोषेणोपहतो दूषितः स्वभावोऽन्तःकरणं यस्य सः। कार्पण्यदोषेणोपहतोऽभिभूतः स्वभावः शौर्यादिलक्षणो यस्य स इत्यपरे। स्वभावः क्षात्रो युद्धोद्योगलक्षण इति केचित्। यतो धर्मसंमूढचेताः धारयतीति धर्मः सर्वाधिष्ठानं परमात्मा तस्मिन्सम्यङ्मूढमविवेकितां प्राप्तं चेतो यस्य सोऽहं त्वा त्वां पृच्छामि। किमित्यत आह यदिति। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणैर्यच्छ्रेयस्त्वेन नित्यनिरतिशयानन्दत्वेन निश्चितं स्यात्तन्मे ब्रूहि निश्चितमैकान्तिकमनपेक्षिकं श्रेयः स्यान्न रोगनिवृत्तिवदनैकान्तिकमनात्यन्तिकं स्वर्गवदापेक्षिकं चेत्येके। मे मह्यं ब्रूहि कथय। ननु नापुत्रशिष्यायेति निषेधान्न वक्तव्यमिति चेन्नाहमशिष्यः किंतु शिष्यस्तेऽमहतो मां शिष्यं शासनार्हं त्वां प्रपन्नं शरणागतं च शाधि शिक्षय। स्वबुद्य्धा भिक्षाशनं प्रशस्यं मन्यमानोऽपि कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः भिक्षाशनं धर्म उत युद्धमिति संशयापगमाभावात्। धर्मसंमूढचेता अहं त्वां पृच्छामि यद्भैक्षं युद्धं वा निश्चितमव्यभिचारि श्रेयः साधनं तन्मे ब्रूहीति धर्मतत्त्वविषयकोऽपि प्रश्नो बोध्यः। यत्तु केचित् धर्मविषये संमूढं किमतेषां वधो धर्मः किमेतत्परिपालनं धर्मः। तथा किं पृथ्वीपरिपालनं धर्मः किं वा यथावस्थितोऽरण्यनिवास एव धर्म इत्यादिसंशयैर्व्याप्तं चेतो यस्य स एवंविधोऽहं त्वामिदानीं पृच्छामि श्रेय इत्यनुषङ्गः। अतो यन्निश्चिमैकान्तिकमात्यन्तिकं च श्रेयः परमपुरुषार्थभूतं फलं स्यात्तन्मे ब्रूहि। साधनानन्तरमवश्यंभावित्वमैकान्तिकत्वम्। जातस्याविनाशित्वमात्यन्तिकत्वमिति वर्णयन्ति। तत्र धर्मविषयकसंदेहवान्परमपुमर्थभूतं फलं पृच्छाभ्यतस्तन्मे ब्रूहीत्यस्यान्यद्भुक्तमन्यद्वान्तमिति न्यायतुल्यस्य सामञ्जस्यमस्ति नवेति विद्वद्भिराकलनीयम्।
Sri Abhinavgupta
।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।