Chapter 2, Verse 12
Verse textन त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
Verse transliteration
na tvevāhaṁ jātu nāsaṁ na tvaṁ neme janādhipāḥ na chaiva na bhaviṣhyāmaḥ sarve vayamataḥ param
Verse words
- na—never
- tu—however
- eva—certainly
- aham—I
- jātu—at any time
- na—nor
- āsam—exist
- na—nor
- tvam—you
- na—nor
- ime—these
- jana-adhipāḥ—kings
- na—never
- cha—also
- eva—indeed
- na bhaviṣhyāmaḥ—shall not exist
- sarve vayam—all of us
- ataḥ—from now
- param—after
Verse translations
Swami Sivananda
Nor, at any time, was I not, nor thou, nor these rulers of men; nor, verily, shall we ever cease to be hereafter.
Shri Purohit Swami
There was never a time when I was not, nor you, nor these princes were not; there will never be a time when we shall cease to exist.
Swami Ramsukhdas
।।2.12।। किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग - हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
Swami Tejomayananda
।।2.12।। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
Swami Adidevananda
There never was a time when I did not exist, nor you, nor any of these kings. Nor will there be any time in the future when all of us shall cease to exist.
Swami Gambirananda
But certainly it is not a fact that I did not exist at any time; nor you, nor these rulers of men. And surely it is not that we all shall cease to exist after this.
Dr. S. Sankaranarayan
Never indeed at any time did I not exist, nor you, nor these kings; and never shall we all not exist hereafter.
Verse commentaries
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.12।।नत्वेवेत्याद्येकोनविंशतिश्लोकैःअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यस्य विवरणं क्रियतेस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्याद्यष्टभिः श्लोकैः।प्रज्ञावादांश्च भाषसे इत्यस्य मोहद्वयस्य पृथक्प्रयत्ननिराकर्तव्यत्वात्। तत्र स्थूलशरीरादात्मानं विवेक्तुं नित्यत्वं साधयति। तुशब्दो देहादिभ्यो व्यतिरेकं सूचयति। यथा अहमितः पूर्वं जातु कदाचिदपि नासमिति नैव अपितु आसमेव तथा त्वमप्यासीः इमे जनाधिपाश्चासन्नेव। एतेन प्रागभावाप्रतियोगित्वं दर्शितम्। तथा सर्वे वयं अहं त्वं इमे जनाधिपाश्चातःपरं नभविष्याम इति न अपितु भविष्याम एवेति ध्वंसाप्रतियोगित्वमुक्तम्। अतः कालत्रेयऽपि सत्तायोगित्वादात्मनो नित्यत्वेनानित्याद्देहाद्वैलक्षण्यं सिद्धमित्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
।।2.12।। व्याख्या-- [मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं--शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी-(शरीरमें रहनेवाले-) को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनोंके लिये पूर्वश्लोकमें जो 'अशोच्यान्' पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें करते हैं।] 'न त्वेहाहं जातु ৷৷. जनाधिपाः'-- लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था, तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे। परन्तु मैं, तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे--ऐसी बात नहीं है। यहाँ 'मैं, तू और ये राजालोग पहले थे--ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर 'मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं' ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि 'पहले नहीं थे' ऐसी बात नहीं' ऐसा कहनेसे 'पहले हम सब जरूर थे'--यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। 'जातु' कहनेका तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान-कालमें तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।
Swami Chinmayananda
।।2.12।। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि देह को धारण करने वाली आत्मा एक महान तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ी है जो इस यात्रा के मध्य कुछ काल के लिये विभिन्न शरीरों को ग्रहण करते हुये उनके साथ तादात्म्य कर विशेष अनुभवों को प्राप्त करती है। श्रीकृष्ण अर्जुन और अन्य राजाओं का उन विशेष शरीरों में होना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। न वे शून्य से आये और न ही मृत्यु के बाद शून्य रूप हो जायेंगे। प्रामाणिक तात्त्विक विचार के द्वारा मनुष्य भूत वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की सतत शृंखला समझ सकता है। आत्मा वहीं रहती हुई अनेक शरीरों को ग्रहण करके प्राप्त परिस्थितियों का अनुभव करती प्रतीत होती है।यही हिन्दू दर्शन का प्रसिद्ध पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के सबसे बड़े विरोधियों ने अपने स्वयं के धर्मग्रन्थ का ही ठीक से अध्ययन नहीं किया प्रतीत होता है। स्वयं ईसा मसीह ने यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जान ही एलिजा था। ओरिजेन नामक विद्वान ईसाई पादरी ने स्पष्ट रूप से कहा है प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के फलस्वरूप यह शरीर प्राप्त हुआ है।कोईभी ऐसा महान विचारक नहीं है जिसने पूर्व जन्म के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। गौतम बुद्ध सदैव अपने पूर्व जन्मों का सन्दर्भ दिया करते थे। वर्जिल और ओविड दोनों ने इस सिद्धान्त को स्वत प्रमाणित स्वीकार किया है। जोसेफस ने कहा है कि उसके समय यहूदियों में पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर पर्याप्त विश्वास था। सालोमन ने बुक आफ विज्डम में कहा है एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ अंगों के साथ जन्म लेना पूर्व जीवन में किये गये पुण्य कर्मों का फल है। और इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के इस कथन को कौन नहीं जानता जिसमें उन्होंने कहा कि मैं पत्थर से मरकर पौधा बना पौधे से मरकर पशु बना पशु से मरकर मैं मनुष्य बना फिर मरने से मैं क्यों डरूँ मरने से मुझमें कमी कब आयी मनुष्य से मरकर मैं देवदूत बनूँगाइसके बाद के काल में जर्मनी के विद्वान दार्शनिक गोथे फिख्टे शेलिंग और लेसिंग ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया। बीसवीं शताब्दी के ही ह्यूम स्पेन्सर और मेक्समूलर जैसे दार्शनिकों ने इसे विवाद रहित सिद्धान्त माना है। पश्चिम के प्रसिद्ध कवियों को भी कल्पना के स्वच्छाकाश में विचरण करते हुये अन्त प्रेरणा से इसी सिद्धान्त का अनुभव हुआ जिनमें ब्राउनिंग रोसेटी टेनिसन वर्डस्वर्थ आदि प्रमुख नाम हैं।पुनर्जन्म का सिद्धान्त तत्त्वचिन्तकों की कोई कोरी कल्पना नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब मनोविज्ञान के क्षेत्र में तेजी से हो रहे विकास के कारण जो तथ्य संग्रहीत किये जा रहें हैं उनके दबाव व प्रभाव से पश्चिमी राष्ट्रों को अपने धर्म ग्रन्थों का पुनर्लेखन करना पड़ेगा। बिना किसी दुराग्रह और दबाव के जीवन की यथार्थता को जो समझना चाहते हैं वे जगत् में दृष्टिगोचर विषमताओं के कारण चिन्तित होते हैं। इन सबको केवल संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता। यदि हम तर्क को स्वीकार करते हैं तो देह से भिन्न जीव के अस्तित्व को मानना ही पड़ता है। मोझार्ट का एक दर्शनीय दृष्टान्त है। उसने 4 वर्ष की आयु में वाद्यवृन्द की रचना की और पांचवें वर्ष में लोगों के सामने कार्यक्रम प्रस्तुत किया और सात वर्ष की अवस्था में संगीत नाटक की रचना की। भारत के शंकराचार्य आदि का जीवन देखें तो ज्ञात होता है कि बाल्यावस्था में ही उनको कितना उच्च ज्ञान था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार न करने पर इन आश्चर्यजनक घटनाओं को संयोग मात्र कहकर कूड़ेदानी में फेंक देना पड़ेगापुनर्जन्म को सिद्ध करने वाली अनेक घटनायें देखी जाती हैं परन्तु उन्हें प्रमाण के रूप में संग्रहीत बहुत कम किया जाता है। जैसा कि मैंने कहा आधुनिक जगत् को इस महान स्वत प्रमाणित जीवन के नियम के सम्बन्ध में शोध करना अभी शेष है। अपरिपक्व विचार वाले व्यक्ति को प्रारम्भ में इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में संदेह हो सकता है। जब भगवान् ने कहा कि उन सबका नाश होने वाला नहीं है तब उनके कथन को जगत् का एक सामान्य व्यक्ति होने के नाते अर्जुन ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया। उसने प्रश्नार्थक मुद्रा में श्रीकृष्ण की ओर देखकर अधिक स्पष्टीकरण की मांग की।इनका शोक क्यों नहीं करना चाहिये क्योंकि स्वरूप से ये सब नित्य हैं। कैसे ৷৷.भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।2.12।।नित्यत्वमशोच्यत्वे कारणमिति सूचितं विवेचयितुं प्रश्नपूर्वकं प्रतिजानीते कुत इत्यादिना। नित्यत्वमसिद्धं प्रमाणाभावादिति चोदयति कथमिति। आत्मा न जायते प्रागभावशून्यत्वान्नरविषाणवदिति परिहरति नत्वेवेति। किंचात्मा नित्यो भावत्वे सत्यजातत्वाद्व्यतिरेके घटवदित्यनुमानान्तरमाह नचैवेति। यत्तु कैश्चिदात्मयाथात्म्यं जिज्ञासितं भगवानुपदिशति नत्वित्यादिना श्लोकचतुष्टयेनेत्यादिष्टं तदसत् विशेषवचने हेत्वभावात् सर्वत्रैवात्मयाथात्म्यप्रतिपादनाविशेषादित्याशयेनपदच्छेदः पदार्थोक्तिर्विग्रहो वाक्ययोजना इति त्रितयमपि व्याख्यानाङ्गं प्रतिपादयति नत्वित्यादिना। नन्वात्मनो देहोत्पत्तिविनाशयोरुत्पत्तिर्विनाशप्रसिद्धेरुक्तमनुमानद्वयं प्रसिद्धिविरुद्धतया कालात्ययापदिष्टमिष्टमिति नेत्याह अतीतेष्विति। चराचरव्यपाश्रयस्तु स्यात् इति न्यायेनात्मनो जन्मविनाशप्रसिद्धेरौपाधिकजन्माविनाशाविषयत्वान्निरुपाधिकस्य तस्य जन्मादिराहित्यमिति भावः। यद्यपि तवेश्वरस्य जन्मराहित्यं तथापि कथं ममेत्याशङ्क्याह तथेति। तथापि भीष्मादीनां कथं जन्माभावस्तत्राह तथाच नेम इति। द्वितीयमनुमानं प्रपञ्चयन्नुत्तरार्धं व्याचष्टे तथेत्यादिना। ननु देहोत्पत्तिविनाशयोरात्मनो जन्मनाशाभावेऽपि महास्वर्गमहाप्रलययोस्तस्याग्निविस्फुलिङ्गदृष्टान्तश्रुत्या जन्मविनाशावेष्टव्यावित्याशङ्क्यनात्मा श्रुतेः इति न्यायेन परिहरति त्रिष्वपीति। यावद्विकारं तु विभागो लोकवत् इति न्यायेन भिन्नत्वाद्विकारित्वमात्मनामनुमीयते भिन्नत्वं च बहुवचनप्रयोगप्रमितमित्याशङ्क्याह देहेति।
Sri Dhanpati
।।2.12।। तेषां नित्यत्वाच्छोकानर्हतामाह नेति। जातु कदाचिदहं नासमिति न किंत्वासमेव। तथा त्वं नासीरिति न अपित्वासीरेव। तथेमे जनाधिपाः नासन्निति न किंत्वासन्नेव। तथा नच भविष्याम इति न किंतु भविष्याम एव। अतोऽस्माद्देहविनाशादुत्तरकालेऽपि त्रिष्वपि कालेषु नित्यः। आत्मस्वरुपेणेत्यर्थः। स्वस्य मध्ये गणनमात्मैक्याभिप्रायं बुहवचनं तु जीवमेदाभिप्रायेण देहभेदानुवृत्त्या तत्तद्देहाभिमानिनां जीवानामपि भेदान्नतु परमार्थत आत्मभेदाभिप्रायेणेति। तथाच शारीरकभाष्यंभेदस्तुपाधिनिमित्तकः मिथ्याज्ञानकल्पितो न पारमार्थिकः इति बोध्यम्।
Sri Madhavacharya
।।2.12।।किमिति। न त्वेवाहम्। ईश्वरनित्यत्वस्याप्रस्तुतत्वाद्दृष्टान्तत्वेनाह न त्वेवेति। यथाऽहं नित्यः सर्ववेदान्तेषु प्रसिद्धः एवं त्वमेते जनाधिपाश्च नित्याः।
Sri Neelkanth
।।2.12।।ननु देहादन्योऽपि देहनाशेन नश्यतां कोशकार इव कोशनाशेनेति तत्राह नत्वेवाहमिति। त्वमहमिमे च सर्वे अनादयोऽनन्ताश्च स्म इत्यर्थः। जातु कदाचित् अहं न आसं इति न अपितु आसमेव। तथा त्वमपि नासीरिति न अपित्वासीरेव। इमे जनाधिपाः राजान इत्युपलक्षणं सर्वस्य जन्तुजातस्य। नासन्निति न अपित्वासन्नेवेति योजना। अनादित्वादनन्ताश्चेत्याह न चेति। न भविष्याम इति नैव किंतु सर्वे भविष्याम एव। ननु देहस्यानात्मत्वे कथं तत्पीडयायं पीड्यत इति चेद्यक्षवत्तदभिमानमात्रादिति ब्रूमः। यदा हि यक्षः परशरीरे विशति तदा तत्पीडया देहपतिर्न बाध्यते। तस्य तदानीं देहाभिमानाभावात्। यक्षस्तु बाध्यतेऽभिमानसत्वादिति लोके प्रसिद्धम्। किञ्च प्राचीनकर्मव्यतिरेकेण जीवनं नोपपद्यते। कृतहानाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्। वृक्षादिष्वपि प्राक्कर्मास्तीत्यनुमेयम्। स्थावरजीविका प्राक्कर्मपूर्विका जीविकात्वात् पाकादिक्रियापूर्वकास्मदादिजीविकावत्। अपि च क्रियावैचित्र्यात्कार्यवैचित्र्यं दृष्टं घटशरावोदञ्चनादिषु तद्वदिहापि सुखदुःखादिवैचित्र्यं प्राक्कर्मवैचित्र्यादनुमेयम्। तथा सद्यो जातस्य गोवत्सस्य स्तनपानादौ प्रवृत्तिर्जन्तुमात्रस्य मरणात्त्रासश्च प्राग्भवीयानुभवजनितसंस्कारजन्यौ भोजनादिप्रवृत्तिश्चोच्छ्वासादिवदित्यतोऽस्ति प्राचीनं कर्म। अपि च कौलिकशास्त्रप्रसिद्धमेतत्। यथा देवदत्तः स्वशरीरे कण्टकवेधेन खिद्यते एवं शत्रुकृतायां देवदत्तप्रतिमायां कण्टकेन विद्धायां देवदत्तो व्यथते। तत्र व्यथाहेतुर्नान्तरं धातुवैषम्यं नापि बाह्यं कण्टकवेधादि किंतु केवलं प्राक्कर्ममात्रम्। एवंच बीजाङ्कुरन्यायेन कर्मतज्जन्यसंस्कारपरम्परयाऽनादिः संसार इति न देहनाशादात्मनाशोऽस्तीति न भीष्मादयः शोचनीयाः। अत्र पूर्वस्मिन् श्लोके आत्मनो देहादन्यत्वमुक्तं गतासून् देहानिति विशेषणेन। अत्र तु सूक्ष्मशरीरविशिष्टस्यात्मनो व्यवहारदृष्ट्या नित्यत्वं साधितमिति भेदः।
Sri Ramanujacharya
।।2.12।। अहं सर्वेश्वरः तावद् अतो वर्तमानात् पूर्वस्मिन् अनादौ काले न नासम् अपि तु आसम्। त्वन्मुखाः च एते ईशितव्याः क्षेत्रज्ञा न नासन् अपि त्वासन्। अहं च यूयं च सर्वे वयमतः परम् अस्माद् अनन्तरे काले न चैव न भविष्यामः अपि तु भविष्याम एव।यथा अहं सर्वेश्वरः परमात्मा नित्य इति न अत्र संशयः तथैव भवन्तः क्षेत्रज्ञा आत्मानः अपि नित्या एव इति मन्तव्याः।एवं भगवतः सर्वेश्वराद् आत्मनां परस्परं च भेदः पारमार्थिकः इति भगवता एव उक्तम् इति प्रतीयते। अज्ञानमोहितं प्रति तन्निवृत्तये पारमार्थिकनित्यत्वोपदेशसमयेअहम्त्वम्इमेसर्वेवयम् इति व्यपदेशात्।औपाधिकात्मभेदवादे हि आत्मभेदस्य अतात्त्विकत्वेन तत्त्वोपदेशसमये भेदनिर्देशो न संगच्छते।भगवदुक्तात्मभेदः स्वाभाविकः इति श्रुतिः अपि आह नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्। (श्वेता0 6।13) इति। नित्यानां बहूनां चेतनानां य एकः चेतनो नित्यः स कामान् विदधाति इत्यर्थः। अज्ञानकृतभेददृष्टिवादे तु परमपुरुषस्य परमार्थदृष्टेः निर्विशेषकूटस्थनित्यचैतन्यात्मयाथात्म्यसाक्षात्कारात् निवृत्ताज्ञानतत्कार्यतया अज्ञानकृतभेददर्शनं तन्मूलोपदेशादिव्यवहाराः च न संगच्छन्ते।अथ परमपुरुषस्य अधिगताद्वैतज्ञानस्य बाधितानुवृत्तिरूपम् इदं भेदज्ञानं दग्धपटादिवत् न बन्धकम् इति उच्येत न एतद् उपपद्यते मरीचिकाजलज्ञानादिकं हि बाधितम् अनुवर्तमानम् अपि न जलाहरणादिप्रवृत्तिहेतुः। एवम् अत्र अपि अद्वैतज्ञानेन बाधितं भेदज्ञानम् अनुवर्तमानम् अपि मिथ्यार्थविषयत्वनिश्चयात् न उपदेशादिप्रवृत्तिहेतुः भवति। न च ईश्वरस्य पूर्वम् अज्ञस्य शास्त्राधिगततत्त्वज्ञानतया बाधितानुवृत्तिः शक्यते वक्तुम्यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु0 उ0 2।1।9) परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वेता0 6।8)वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।। (गीता 7।26) इति श्रुतिस्मृतिविरोधात्।किं च परमपुरुषश्च इदानीन्तनगुरुपरम्परा च अद्वितीयात्मस्वरूपनिश्चये सति अनुवर्तमाने अपि भेदज्ञाने स्वनिश्चयानुरूपम् अद्वितीयम् आत्मज्ञानं कस्मै उपदिशति इति वक्तव्यम्।प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्यः अर्जुनादिभ्यः इति चेत् न एतद् उपपद्यते न हि अनुन्मत्तः कोऽपि मणिकृपाणदर्पणादिषु प्रतीयमानेषु स्वात्मप्रतिबिम्बेषु तेषां स्वात्मनः अनन्यत्वं जानन् तेभ्यः कमपि अर्थम् उपदिशति।बाधितानुवृत्तिः अपि तैः न शक्यते वक्तुम् बाधकेन अद्वितीयात्मज्ञानेन आत्मव्यतिरिक्तभेदज्ञानकारणस्य अज्ञानादेः विनष्टत्वात्। द्विचन्द्रज्ञानादौ तु चन्द्रैकत्वज्ञानेन पारमार्थिकतिमिरादिदोषस्य द्विचन्द्रज्ञानहेतोः अविनष्टत्वाद् बाधितानुवृत्तिः युक्ता। अनुवर्तमानम् अपि प्रबलप्रमाणबाधितत्वेन अकिञ्चित्करम्। इह तु भेदज्ञानस्य सविषयस्य सकारणस्य अपारमार्थिकत्वेन वस्तुयाथात्म्यज्ञानविनष्टत्वात् न कथञ्चिद् अपि बाधितानुवुत्तिः संभवति। अतः सर्वेश्वरस्य इदानीन्तनगुरुपरम्परायाः च तत्त्वज्ञानम् अस्ति चेद् भेददर्शनतत्कार्योपदेशाद्यसंभवः। भेददर्शनमस्ति इति चेद् अज्ञानस्य तद्धेतोः स्थितत्वेन अज्ञत्वाद् एव सुतराम् उपदेशो न संभवति।किं च गुरोः अद्वितीयात्मविज्ञानाद् एव ब्रह्माज्ञानस्य सकार्यस्य विनष्टत्वात् शिष्यं प्रति उपदेशो निष्प्रयोजनः। गुरुः तज्ज्ञानं च कल्पितम् इति चेत् शिष्यतज्ज्ञानयोः अपि कल्पितत्वात् तदपि अनिवर्त्तकम्। कल्पितत्वेऽपि पूर्वविरोधित्वेन निवर्त्तकम् इति चेत् तदाचार्यज्ञानेऽपि समानम् इति तद् एव निवर्तकं भवति इति उपदेशानर्थक्यम् एव इति कृतम् असमीचीनवादैः निरस्तैः।
Sri Sridhara Swami
।।2.12।।अशोच्यत्वे हेतुमाह नत्वेवेति। यथाऽहं परमेश्वरो जातु कदाचिल्लीलाविग्रहस्याविर्भावे तिरोभावेऽपि नासमिति नैव अपितु आसमेव अनादित्वात्। नच त्वं नासीः नाभूः अपित्वासीरेव। इमेच जनाधिपाः नृपाः नासन्निति न अपितु आसन्नेव मदंशत्वात् तथाऽतःपरं इतउपर्यपि नभविष्यामो न स्थास्याम इति च नैव अपितु स्थास्याम एव। जन्ममरणशून्यत्वादशोच्या इत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।2.12।।एवमुपायोपेयनिवर्त्यस्वभावानभिज्ञं प्रति त्रितयोपदेशाय बुभुत्सोत्पादिता अथ पारलौकिकफलोपायानुष्ठानाधिकारित्वाय देहातिरिक्तत्वेनावश्यं ज्ञातव्यं पुरुषार्थतयोपेयमात्मानं तत्प्राप्तीच्छामुखेन तदुपायेच्छाजननाय प्रथममेवोपदिशतीत्यभिप्रायेणाह प्रथममिति।शृण्वित्यनेन प्रकृतश्लोकस्य प्रतिवादिवाक्यवदुपालम्भमात्रार्थताव्युदासाय अवधानापादनार्थत्वं व्यञ्जितम्। जीवेश्वररूपेष्वात्मसु नित्यत्वे शीघ्रसम्प्रतिपत्तियोग्यांशं प्रथममाहेत्यभिप्रायेणाह अहमिति। ईश्वरस्याहङ्ग्रहः सर्वनियन्तृत्वगर्भ इति तद्व्यपदेशफलितमाह सर्वेश्वर इति।तावदिति सम्प्रतिपत्तिसूचनम्।अतः परम् इत्यत्र अतश्शब्दार्थं तस्य पूर्ववाक्येऽपि यथार्हमनुषङ्गं जातुशब्दाभिप्रेतं च आह अत इत्यादिना। अनभिमतपक्षनिषेधाय व्यतिरेकरूपेऽपि वाक्ये तुशब्दद्योतितमन्वयमाह अपित्वासमिति।न त्वं नेमे इति भेदनिर्देशेऽपि क्षेत्रज्ञत्वाकारेण समुदायीकुर्वन् ईश्वरापेक्षया युष्मदिदंशब्दार्थतया फलितमीशितव्यत्वाकारं च साधारणं दर्शयन् सन्निहितनिदर्शनपराया एकदेशोक्तेस्तात्पर्यतो ब्रह्मादिसकलक्षेत्रज्ञविषयत्वं चाह त्वन्मुखा इति। तुशब्दानुषङ्गं क्रियापदे विभक्तिविपरिणामं च दर्शयति अपित्वासन्निति।न त्वं नेमे जनाधिपाः इत्यत्रन त्वेव इत्येतदनुषज्य न त्वं नासीः नेमे जनाधिपा नासन् इत्यन्वयः।सर्वे वयम् इत्यस्य पूर्वोक्तजीवेश्वरसमुदाये सम्प्रतिपत्तव्यांशं विविनक्ति अहं चेति।त्यदादीनां मिथः सहोक्तौ यत्परं तच्छिष्यते वार्तिकं.अष्टा.1।2।72 इति युष्मदस्भदोरत्रैकशेषः। एवमुत्तरत्रभवन्तः इत्यत्रापि मन्तव्यम्। कालानन्त्यात् पर्वतादीनामिवातिस्थिराणामपिकदाचित् नाशः स्यादित्युत्प्रेक्षां निवारयति अपितु भविष्याम एवेति।अप्रस्तुतस्वनिर्देशस्य दृष्टान्तार्थतां तत्रअहमिति निर्देशाभिप्रेतसर्वेश्वरत्वसर्वात्मत्वरूपनित्यत्वोपपत्तिं दार्ष्टान्तिके च नित्यत्वसम्भावनामाह यथेति।सर्वेश्वरः कालत्रयवर्तिनः सर्वस्याधिपतिः कथं न कालत्रयवर्ती कथं च सर्वेषां नियन्ता केनचित्कदाचिन्निरुद्ध्येत इति भावः।परमात्मा देशकालस्वरूपानवच्छिन्नव्याप्तिः इति परमात्मपदनिरुक्तिः। तथा च व्याप्तत्वात् व्याप्यैरस्य न नाशः सर्वात्मत्वेन सर्वकालवर्तित्वं च सिद्धमिति भावः। ननु यः प्रत्यक्षयोग्ये देहातिरिक्ते जीवेऽपि संशेते स कथं ततो व्यतिरिक्तेऽत्यन्तागोचरे परमात्मनि निःसंशयः स्यात् उच्यते न ह्यसावर्जुनःपुरुषं शाश्वतं दिव्यम् 10।12 इत्यादेः स्वयं वक्ता नारदासितदेवलव्यासादिपरमर्षिशतवचनविदितपरब्रह्मभूतपरमपुरुषस्वभावः प्रत्यक्षीकृतपुरन्दरलोकसकलास्त्रमन्त्रतपःप्रभावादिः निरतिशयगुरुदेवताभक्तिः अस्खलितसकलवर्णाश्रमाचारः धर्मलोपभयविह्वलः देहातिरिक्तमात्मानमीश्वरं चात्यन्तानित्यतया वा नास्तीति भ्राम्यति संशेते वा। तत्प्रकारविशेषानभिज्ञतयैव हि तस्य शोकादिः। ततोऽयमीश्वरं तन्नित्यतां च सर्वेश्वरत्वादिसिद्धां सामान्यतो मन्यते लोकदृष्ट्या जन्मविनाशादिदर्शनात्। न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति बृ.उ.2।4।12 इत्यादिश्रुत्यर्थापातप्रतीत्या च जीवप्रकारविशेषांस्तत्त्वतो न जानातीति न कश्चिद्दोषः।क्षेत्रज्ञा आत्मान इति यथा जीवात् परमात्मनो वैलक्षण्येन जीवस्वभावास्तस्मिन्न भवन्ति तथा क्षेत्राद्विलक्षणत्वेन वक्ष्यमाणेन क्षेत्रगतमनित्यत्वादिकं तन्नियन्तरि जीवे न शङ्कनीयमिति भावः।अथ कुमतिसौचिकविनिर्मितानामामूलचूडमघटितविघटितजरत्कर्पटशकलकन्थासगन्धानां प्रबन्धानां दोषान् स्थालीपुलाकन्यायेन निदर्शयन् प्रथमं शास्त्रोपक्रमविरोधं शास्त्रप्रवृत्त्यनुपपत्तिं च वदति एवमित्यादिना। एवं तत्त्वोपदेशप्रवृत्तशास्त्रारम्भोक्तिप्रकारेणेत्यर्थः।भगवतः सर्वेश्वरादिति। उभयलिङ्गात् सर्वनियन्तुः अहमिति निर्दिष्टादित्यर्थः। यदीश्वराज्जीवानां भेदः पारमार्थिको न स्यात् उभयलिङ्गत्वदुःखित्वादिस्वभावसङ्करः स्यात् यदि चात्मनां मिथोभेदः सत्यो न स्यात् बद्धमुक्तशिष्याचार्यादिव्यवस्थानुपपत्तिः स्यादिति भावः।भगवतैव न तु रथ्यापुरुषकल्पेन केनचित्। यद्वात्वमेव त्वां वेत्थ योऽसि सोऽसि यजुःकाठके1प्र.6 सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ऋक्सं.8।7।11 इत्युक्तेर्भगवता स्वेनैव स्वस्य स्वशरीरभूतजीवानां च तत्त्वमुक्तमिति प्रतीयत इत्यभिप्रायः।अज्ञानमोहितमिति न हि स्वयं बम्भ्रम्यमाणस्याप्तेनापि भ्रान्तिरेवोत्पादनीयेति भावः। बुद्धाद्यवतारेणासुरादिभ्य इवायं उपदेशः किं न स्यादित्यत्रोक्तंतन्निवृत्तय इति। मोहनिवृत्त्यर्था गीतोपनिषदिति भवद्भिरपि स्वीकृत्य व्याख्यानादि च कृतमिति भावः।देहभेदाभिप्रायेण बहुवचनम् नात्मभेदाभिप्रायेण इतिशङ्करोक्तं दूषयति पारमार्थिकेति। न ह्यसौन त्वेवाहम् इत्यादिग्रन्थो भ्रान्तिनिवृत्त्यर्थो मन्त्रपाठः येन भेदनिर्देशस्यान्यपरतां मन्येमहि किन्त्वसौ तत्त्वार्थोपदेशरूप इति भावः।अहम् इति प्रत्यक्त्वेनत्वम् इति स्वाभिमुखचेतनान्तरत्वेनइमे इति स्वपराङ्मुखानेकचेतनत्वेनसर्वे इति एकोपाधिसङ्गृहीतानेकव्यक्तित्वेनवयम् इति स्वेन सहात्मतयैकवर्गीकृतानन्तव्यक्तित्वेन इति भावः।इति व्यपदेशादिति न ह्यत्र नाहमिति कश्चिदस्ति न च त्वमिति नाप्यन्य इति प्रत्यादेशः कृत इति भावः। भास्करमते भेदस्य सत्योपाधिप्रयुक्तत्वात् भेदनिर्देश उपपद्यत इति शङ्कायां तत्रापि सामान्यत उक्तं दूषणमपरिहार्यमित्याह औपाधिकेति।हिशब्द उपाधिभेदोपहितस्य परोक्तघटाकाशाद्युदाहरणेष्वपि भेदांशातात्त्विकत्वाभ्युपगमपरः। उपाधिसत्यत्वेऽपि यथैकस्यैव मुखचन्द्रादेर्मणिकृपाणसरित्समुद्रादिभिः सत्यैरप्युपाधिभिर्भेदोऽपारमार्थिकः यथा चैकस्यैवाकाशादेर्घटमणिकादिसत्योपाधिभिरपि संयोगभेदातिरिक्तो नोपाध्यधीनो भेदः एवमन्तःकरणादिभिः सत्यैरप्युपाधिभिर्निरवयवत्वेन छेदनभेदनाद्ययोग्यस्य सर्वत्र परिपूर्णस्य ब्रह्मणो भेदोऽपारमार्थिक इत्यभ्युपगन्तव्यम्। ततश्च तत्त्वोपदेशसमये तद्विपरीतोपदेशो हितोपदेशिनो न घटत इति भावः।द्वयोरपि पक्षयोः श्रुतिविरोधोऽपि दूषणम् स्वपक्षे च श्रुत्यैकार्थ्यान्न बुद्धागमादिवन्मोहनार्थत्वशङ्केत्यभिप्रायेणाह भगवदिति। यद्वा भास्करपक्षदूषणायैव श्रुतिरुपात्ता ततश्च कैमुत्येन शङ्करपक्षोऽपि दूषितः। अपिशब्दः प्रमाणद्वयसमुच्चये।भगवदुक्तात्मभेद इत्यनेन श्रौतवदेव प्रमाणान्तरनैरपेक्ष्यं सूच्यते। श्रुतिरपि नित्या तदाज्ञारूपतयैव हि प्रमाणम्। नित्यो नित्यानाम् श्वे.उ.6।13 इत्यत्रापिपवित्राणां पवित्रम् म.भा.13।149।10 इत्यादिवद्योजनया जीवानित्यत्वपर्यवसितमर्थान्तरभ्रमं निरस्यन् नित्यत्वबहुत्वचेतनत्वसामानाधिकरण्येन निरुपाधिकमेवात्मनां बहुत्वं चेतनत्वं चेति प्रदर्शयन् तत एवात्मानित्यत्ववादिनां सौगतादीनां अविद्यादिमूलभेदवादिनां शङ्करादीनां आगमापायिचैतन्यवादिनां वैशेषिकादीनां चिच्छक्तिमात्रनित्यत्ववादिनामन्येषामपि निरासमभिप्रयन् प्रथमान्तपदचतुष्टयसामानाधिकरण्यबलादीश्वरैक्यं तदैक्यस्य हिरण्यगर्भरुद्रेन्द्रादिवत्कालादिभेदाभेद्यत्वेन प्रवाहेश्वरपक्षप्रतिक्षेपं श्रुत्यन्तरादिप्रसिद्धनित्यचैतन्यं प्रसरादिकं च सूचयन्यदाग्नेयः यजुः3।9।17 इत्यादिवदनुवादलिङ्गसद्भावेऽप्यप्राप्तत्वबलेन विशिष्टविधित्वं च व्यञ्जयन् सर्वदा सर्वत्र सर्वेषां चेतनानामेक एवेश्वरस्तत्तत्कर्मसमाराधितस्तत्तदनुरूपाण्यपेक्षितानि करोतीति श्रुत्यर्थमाह नित्यानामिति।पुनः सिंहावलोकितेन शङ्करमतस्योपदेशानुपपत्तिरूपं शास्त्रारम्भमूलघातमाह अज्ञानेति। किमयं भगवान् स्वेन ज्ञातमर्थमुपदिशति अज्ञातं वा ज्ञातमपि साक्षात्कृतम् श्रुतमात्रं वा उभयत्रापि तदज्ञानं निवृत्तम् अनिवृत्तं वा तन्निवृत्तावपि तत्कार्यभेदभ्रमो निवर्तते न वा इति विकल्पमभिप्रेत्य साक्षात्कारादज्ञानतत्कार्यनिवृत्तिपक्षे दूषणमाह परमपुरुषस्येति। क्षेत्रज्ञस्य हि अपरमार्थदृष्टिः स्यादिति भाव।निर्विशेषेत्यादि निर्विशेषत्वं सजातीयविजातीयस्वगतभेदराहित्यम् कूटस्थत्वं मायानिष्ठत्वं साधारण्यं निर्विकारत्वं वा। स्वयमविक्रियमाणस्यापि कूटस्य यथा स्वसंसर्गिणामयःप्रभृतीनां विकारहेतुत्वं तद्वत् तत एव नित्यत्वं कालानवच्छिन्नत्वम्।याथात्म्यम् उक्तप्रकारम् अयथासाक्षात्कारोऽस्मदादीनामपि परैरभ्युपगत इति तद्व्युदासाययाथात्म्यसाक्षात्कारोक्तिः। अज्ञानं अविद्या तत्कार्यं भेदभ्रमः। आदिशब्देनानुष्ठापनादि गृह्यते। उपदेशादिव्यवहारो हि उपदेश्यार्थ तद्वाचकाधिकारिशिष्याचार्यप्रयोजनभेदादिनानाविधभेददर्शनमूलः। भेददर्शनं चाज्ञानेनैव कृतमिति त्वन्मतम्। ततश्चाज्ञान तत्कार्यनिवृत्तौ कथं तत्कार्यपरम्परानुवृत्तिरिति व्याघातापसिद्धान्तशास्त्रानारम्भोपदेशाभावनिष्फलपरिश्रमत्वश्रुतिविरोधादिदोषशतमुन्मिषेदिति भावः।अद्वैतज्ञानादज्ञाननिवृत्तावपि वासनादिवशाद्भेदभ्रमस्यानुवृत्तिं तस्य चाबन्धकत्वमाशङ्कते अथेति।दग्धपटादिवदिति यथा दग्धपटादेः पटादिप्रतिभासविषयत्वेऽपि न पटादिकार्यकरत्वम् तद्वदत्र भेदभ्रमस्यानुवृत्तस्यापि न संसारहेतुत्वमिति भावः।नैतदुपपद्यते इति दृष्टान्तमात्रमुक्तं नतूपपत्तिः प्रत्युतानुपपत्तिश्च विद्यत इति भावः। अनुपपत्तिं सोदाहरणामाह मरीचिकेति। एवमत्र प्रसङ्गः विप्रतिपन्नभेदज्ञानमद्वैतज्ञानबाधिततया मिथ्यार्थविषयमिति निश्चितं चेत् न स्वविषयानुरूपप्रवृत्तिहेतुः स्यात् यथा बाधितानुवृत्तं मरीचिकाजलज्ञानम् इति। एवं च बाधितानुवृत्तभेदज्ञानं दग्धपटादिवत् न स्वकार्यकरमिति बाधितानुवृत्तिफलाभावात् स्वेष्टव्याघात इति भावः। श्रुतमात्रपक्षेऽपि निर्विशेषविषयसाक्षात्कारश्रवणयोर्विषयानतिरेकेणाज्ञाननिवृत्तिरनुपपन्नेति कृत्वाऽथ सर्वेश्वरे बाधितानुवृत्तिस्वरूपं दूषयति न चेति। ईश्वरत्वादेव पूर्वमज्ञ इति वक्तुं न शक्यते अनीश्वरत्वप्रसङ्गात्। ईश्वरोऽपि चेत् पूर्वमज्ञः तस्य शास्त्राधिगमोऽपि न सम्भवति तदधिकज्ञानवतोऽन्यस्य शास्त्रोपदेष्टुरभावात्। भावेऽपि स एवेश्वरोऽनीश्वरो वा सन् कुतः सिद्धज्ञान इत्यनवस्थादिदोषात्। न च प्रवाहेश्वरपारम्पर्यमस्ति तस्य दूषितत्वात्। न चेश्वरः स्वकृतेन शास्त्रेण तत्त्वमवगच्छति वेदानित्यत्वान्योन्याश्रयादिप्रसङ्गात्। न चानादीनेव वेदान् स्मृत्वा तैरर्थमधिजगाम स्मृत्यादिहेतोः पूर्वोपलम्भस्याप्युपदेष्ट्रभावादिदुःस्थत्वात् इत्यादिदोषानभिप्रेत्योक्तंपूर्वमज्ञस्येत्यादि। ईश्वरस्य पूर्वमज्ञत्वे शास्त्राधीनज्ञानत्वे तदुपदेष्ट्रन्तरसद्भावे भ्रान्त्यनुवृत्तौ च श्रुतिस्मृतिविरोधमाह यः सर्वज्ञ इति। स्वरूपतः प्रकारतश्च सर्वं जानाति वेत्तीति विवक्षया सर्वज्ञसर्वविच्छब्दयोरपुनरुक्तिः सर्वं विन्दति प्राप्नोतीति वा सर्ववित्।एवमुपदेशस्य हेत्वनुपपत्तिरुक्ता। अथोपदेष्टृतापि नोपपद्यत इत्याह किञ्चेति।इदानीन्तनेति। न केवलमीश्वरकृतः प्रथम एवोपदेशोऽनुपपन्नः अपित्वद्यतनोऽपीति कुमतिमठपतिपरम्परायाः शिष्यान्नकुक्षिम्भरेः शिष्याद्यभावात्प्रायोपवेशनं प्रसज्यत इति भावः। अज्ञातोपदेशपक्षानुपपत्तिमभिप्रेत्याह स्वरूपनिश्चयेति। न ह्येतेऽनुपलब्धार्थाः नापि सन्दिग्धार्थाः नापि विप्रलम्भकाः न च परोक्तानुवादिनः नापि बालोन्मत्तादिवद्यथोपनतजल्पाकाः इति भावः।कस्मा इति। स्वस्मै परस्मै वा पूर्वत्र भिन्नतया निश्चिताय अन्यथा वा भिन्नतयेत्यत्रापि सत्यतया निर्णीताय असत्यतया वा परस्मा इत्यत्रापि तात्त्विकाय अतात्त्विकाय वा अतात्त्विकत्वेऽपि तथा प्रतीताय अन्यथा वा इति विकल्प्य प्रष्ट्रे तदुत्तरं वक्तव्यमित्यर्थः। तत्र स्वस्यैव भिन्नस्य सत्यत्वनिश्चयेऽपसिद्धान्ताज्ञत्वादिदोषप्रसङ्गः। असत्यत्वनिश्चये वन्ध्यातनयादिभ्य इवानुपदेशः। अभिन्नतया निश्चिताय स्वस्मै चेत् अर्जुनादिप्रतिभासमन्तरेण सर्वदोपदेशः स्यात् न च तत्रोपदेशस्य किञ्चित्प्रयोजनमस्ति परस्मै तात्त्विकायेति तु शरीरभेदेऽपि भवान्नाभ्युपगच्छति अतात्त्विकतयैव प्रतीताय परस्मै चेत् पूर्ववदेवानिर्वचनीयत्वेनासत्त्वेन वा निश्चितेभ्यः प्रतिबिम्बवन्ध्यासुतादिभ्योऽप्युपदेशप्रसङ्गः अतात्त्विकस्यैव परस्य तात्त्विकत्वबोधे तु तत्त्ववेदित्वमेव न स्यादिति न तत्त्वोपदेशित्वसिद्धिरिति स्थिते परमार्थत एकत्वेऽपि भ्रान्त्या भिन्नतया प्रतीयमानेभ्यो बाधकज्ञानबलेनाभिन्नतया निश्चितेभ्यश्चेति पक्षं शङ्कते प्रतिबिम्बवदिति। दूषयति नेति। अनुपपत्तिं विवृणोति न हीति।अनुन्मत्त इति ईश्वरादेरुन्माद एव भवता स्वीकृतः स्यादिति भावः।कोऽपीति किमुतेश्वर इति भावः।अनन्यत्वं जानन्निति अनन्यत्वमजानन्तो बालादयः काममुपदिशेयुः अत्रोपदेष्टुरन्यत्वाध्यवसाये भ्रान्तत्वादिप्रसङ्ग इति भावः।कमपीति लौकिकमलौकिकं वा दृष्टार्थमदृष्टार्थं वा किं पुनर्मोक्षार्थमित्यर्थः।बाधितानुवृत्तिस्वरूपमभ्युपगम्य पूर्वं दूषणान्तरमुक्तम् इदानीं तन्मते तदेव न सिध्यतीत्याह बाधितेति। उपपादयति बाधकेनेति। न हि कारणाभावे कार्यं घटेत न च दोषनिवृत्तौ भ्रान्तिनिवृत्तिर्न स्यादिति वक्तुं युक्तम्।अनादेरिति। स्वरूपतः प्रवाहतो वा अनादेरन्यानिवर्त्यतयैतावन्तं कालमनुवृत्तस्य भेदज्ञानकारणभूतस्य दोषस्य यदि अद्वैतज्ञानेनापि नाशो न स्यात् नित्यसंसारित्वं ब्रह्मणः स्यादिति भावः। अत्राज्ञानादेरिति कश्चित्पाठः तत्रादिशब्देन भेदभ्रमस्तद्विषयश्च गृह्यते। परैरुदाहृते दृष्टान्ते बाधितानुवृत्तेरुपपत्तिमाह द्विचन्द्रेति।पारमार्थिकेति न हि पारमार्थिकं बाध्येत तथासति बाधाबाधविप्लवप्रसङ्गादिति भावः।द्विचन्द्रज्ञानहेतोरिति न हि बाधकज्ञानेन पूर्वज्ञानस्य कारणं बाध्यते इन्द्रियादेरपि बाधप्रसङ्गात्। अतो विषय एवारोपितस्तदधिष्ठानविषयेण विरुद्धाकारग्राहिणा ज्ञानेन बाध्यः। न चात्र तिमिरादिद्विचन्द्रज्ञानस्य चन्द्रैकत्वज्ञानस्य वा विषयः। भवतस्तु समस्तभेदभ्रमोपादानस्याज्ञानवासनादेः साक्षिचैतन्यविषयत्वात् बाधकज्ञानस्य चाद्वितीयात्मव्यतिरिक्तसमस्तभावगोचरत्वात् कारणस्याप्यनादेर्बाध एवेति भावः।युक्तेति सामग्र्यनुवृत्तौ कार्यानुवृत्तिरुपपन्नेति भावः। यदि भ्रान्तिरनुवृत्ता कथं तर्हि तत्कार्यविस्मयभयादिनिवृत्तिरित्यत्राह अनुवर्तमानमपीति।प्रबलशब्देन परपक्षे भेदभ्रमतद्बाधकयोरविशेषः सूचितः। द्वयोरपि हि अज्ञानकारणत्वं तैराश्रितम् अन्यथा सत्यद्वयप्रसङ्गात्। तथाच सति किं कस्य बाधकं बाध्यं वा। न च दोषमूलत्वं बाधकज्ञानस्याज्ञातमिति वाच्यम् प्रथममेव श्रवणवेलायां ब्रह्मव्यतिरिक्तसमस्तमिथ्यात्वप्रत्ययात्। न चाज्ञातमिति तावता तत्त्वसिद्धिः सत्यरजतबाधकेन शुक्तिकाज्ञानेनाज्ञातदोषेणापि तत्त्वतो रजतस्वरूपबाधाभावात्। दोषमूलत्वाविशेषेऽपि पूर्वत्वपरत्वाभ्यां बाध्यबाधकव्यवस्थेति चेत् न दोषमूलत्वे ज्ञाते सति परत्वस्याकिञ्चित्करत्वात् भ्रान्ततयाऽवगतेनोक्तसर्वबाधकवाक्यवत्। अन्यथा शून्यमेव तत्त्वमिति माध्यमिकवाक्येन दोषमूलतया ज्ञातेनापि परत्वमात्रेण संविन्मात्रस्यापि बाधः स्यात्।अथ कारणस्यापि बाध्यतया विषयत्वापारमार्थिकत्वलक्षणं दृष्टान्ताद्वैषम्यं विवृण्वन् बाधितानुवृत्त्यसम्भवं निगमयति इह त्विति।न कथञ्चिदपि अनाद्यज्ञानेन वा भेदज्ञानवासनादिभिर्वेत्यर्थः। ज्ञातं वा अज्ञातं वेति विकल्पाभिप्रायेणोपक्रान्तामुपदेशकारणाद्यनुपपत्तिं विकल्पस्फोरणेनोपसंहरति अत इति।सुतरामिति जानतस्तु बाधितानुवृत्तौ दृष्टान्तमात्रमपि तावदस्ति अजानत उपदेशे सोऽपि नास्तीति भावः।उपदेशस्य कारणाद्यनुपपत्तिरुक्ता अथानर्थक्यमाह किञ्चेति। प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्य इत्यादिना पूर्वमेव जीवाज्ञानपक्षस्यापि दूषितत्वाद्ब्रह्माज्ञानपक्षे अधिकदूषणमिदमुच्यते। ते खलुएकमेव ब्रह्माविद्याशबलमेक एव जीवः स्वप्नदृश इवैकस्यैव तस्य भ्रमात् स्वप्नदृष्टपुरुषादय इवान्ये जीवादयः प्रतिभान्ति तस्यैकस्यैवानिश्चितदेशविशेषस्थितेरनिर्णीतकालेन भविष्यता तत्त्वज्ञानजागरेण समस्तः प्रपञ्चो़ऽपि स्वप्नप्रपञ्चवद्बाध्यते इति वर्णयन्ति। तत्रायमुपदेष्टा वासुदेवादिर्गुरुः स एव तद्दृष्टो वा शिष्योऽप्यर्जुनादिः स एव तद्दृष्टो वा इति विकल्पमभिप्रेत्य गुरुः स एवेति पक्षे दूषणमाह गुरोरिति।सकार्यस्येति शिष्याचार्यत्वादेरपीति भावः तेनोपदेष्ट्रभावः प्रष्ट्रभाव उपदेशपरिकराभावश्चोक्तो भवति। गुरोस्तद्दृष्टत्वपक्षमनुवदति गुरुरिति। न हि स्वप्नदृशा कल्पितपुरुषविज्ञानेन स्वप्नो बाध्येत तद्वदत्रापि गुरोर्ज्ञानेन प्रपञ्चबाधाभावात्तद्बाधायोपदेशः सप्रयोजन इति भावः। दूषयति शिष्येति।अयं भावः न तावदत्रार्जुनादिः स एव जीव इति तृतीयकल्पे प्रमाणमुपलभामहे न चअयं मम शिष्यो जीवो मुक्तो भविष्यति अहं त्वनेन स्वप्नदृशेव कल्पितः इत्याचार्योऽपि मन्यते तथा सति स्वसंहारकारिणे महापकारिणे तस्मै नोपदिशेत् स्वयं हि स्वप्नस्वभावान्नियमेनैव निवृत्तः स्यादिति न मोक्षोपायमाचरेत् शिष्योऽपि यदि स्वप्नदृष्टवद्गुरुं मन्येत ततो न श्रुणुयात्। गुरुतज्ज्ञानविशेषयोः स्वभ्रान्तिकल्पिततया स्वयमेव तज्ज्ञानविषयविशेषं जानन् ततः किमर्थं श्रुणोति स्वकल्पितोपदेष्टृजनितोपदेशभ्रमात् स्वभ्रान्तिनिवृत्तिरिति च हास्यम् तमन्तरेणापि स्वप्रत्यक्षभ्रमादपि तन्निवृत्त्युपपत्तेः। न च ज्ञातार्थेऽप्यर्जुनेऽद्य यावत् भ्रमनिवृत्तिर्दृश्यते अतः शिष्योऽप्याचार्यवत्समस्तप्रपञ्चस्वप्नदृशान्येनैव दृष्ट इति चतुर्थः कल्पः परिशिष्यते। ततश्च शुकवामदेवादिज्ञानवदर्जुनादिज्ञानमपि नाज्ञाननिवर्तकमिति निष्फलः शिष्याचार्याणां कृष्णार्जुनादीनां त्रिवर्गपरित्यागेनापवर्गार्थ प्रयास इति शास्त्रारम्भोऽनुपपन्नः।अथ परिहासकाकुपूर्वमपच्छेदनयमाशङ्क्य परिहरति कल्पितत्वेऽपीत्यादिना। एवमुपदेशानुपपत्तौ तस्य सर्वद्रष्टुरेकस्यापि जीवस्य कदाचिदपि मोक्षायोगात् शास्त्रप्रयोजनमपि नास्तीति ततोऽपि शास्त्रारम्भानुपपत्तिरिति फलितम्। एवं शास्त्रोपदेशस्य तदुपदेष्टुस्तच्छ्रोतुस्तत्प्रयोजनस्य चानुपपत्तौ सामान्यतः सर्वस्मिन्नपि परमते दूषिते किमवान्तरदूषणैरित्यन्यपरतयोपसंहरति इति कृतमिति। कृतं अलमित्यर्थः।असमीचीनवादैरित्यनेन भास्करादिमतेऽप्येवंविधदूषणशतं शारीरकभाष्याद्युक्तं स्मारितम्।
Sri Abhinavgupta
।।2.12।।अशोच्यानिति। शोचितुमशक्यं कलेबरं सदा नश्वरत्वात्। अशोचनार्हं च आत्मानं शोचसि। न कश्चित् गतासुः मृतः अगतासुः जीवन् वा शोच्योऽस्ति। तथाहि ( S omits हि) आत्मा तावदविनाशी। नानाशरीरेषु संचरतः का अस्य शोच्यता न च देहान्तरसंचारे एव शोच्यता। एवं हि (S omits हि) यौवनादावपि शोच्यता भवेत्।
Sri Jayatritha
।।2.12।। किमिति कस्मात्कारणात्पण्डिता अप्यगतासूनिव गतासूनासन्नविनाशान्नानुशोचन्तीति शेषः। अत्र नित्यत्वादित्युत्तरम्। कुतो नित्यत्वमित्यत आहेति वाक्यं चाध्याहार्थम्। न त्वेवाहमित्यतः परमिति शब्दश्च। अर्जुनं निमित्तीकृत्य प्राप्तलोकोपकारार्थं हि भगवतोपदेशः क्रियते। तत्र ये भगवतः कृष्णस्येश्वरत्वं नित्यत्वं च न जानन्ति तान् प्रति यथाश्रुतैव योजना। दृष्टान्तस्तूत्तरत्र भविष्यति। ये तु तज्ज्ञात्वा जीवनित्यत्वमेव न जानन्ति तान्प्रत्यन्यथा योज्यमित्याह ईश्वरे ति। अप्रस्तुतत्वादनाशङ्कितत्वाद्दृष्टान्तत्वेनाह। जीवनित्यतायां साध्यायामीश्वरमिति शेषः। अत एव कृष्णेत्यनुक्त्वेश्वरेत्युक्तम्। नन्वीश्वरनित्यत्वं कुतः सिद्धं पूर्वार्द्धे वाक्यत्रयसद्भावात् कथञ्चिद्योजनासम्भवेऽपि उत्तरार्द्धस्यैकवाक्यत्वात्कथं योजना इत्यत आह यथे ति। वेदान्ता उपनिषदः। सिद्धस्यार्थस्य साध्यत्वेन निर्देशो दोषायेति सामर्थ्याद्यथैवंशब्दाध्याहारेण वाक्यभेदेन च योज्यमिति भावः। ननु वेदान्तैरीश्वरनित्यत्वं जानन्तस्तत्रैवोक्तं जीवनित्यत्वं कथं न जानन्ति उच्यते नित्यो नित्यानां कठो.5।13श्वे.उ.6।13 इति निर्धारणसामर्थ्याज्जीवानां नित्यत्वमीश्वरस्य परमनित्यत्वमवगम्य मन्दाः प्रतिपद्यन्ते। नित्यत्वं हि विनाशाभावः। नचाभावस्तारतम्यवान्। अत ईश्वर एव नित्यः जीवेषु तूपचार इति। तान्प्रत्यनुमानेन जीवनित्यत्वं ईश्वरदृष्टान्तेन साध्यते। तत्रन त्वेवाहं जातु नासं इति दृष्टान्तेनानादित्वसाधनमनुवदति। न त्वमित्यादिना तस्य पक्षधर्मतामाह नचैवे त्यादिना। दृष्टान्ते पक्षे च साध्याभिधानमिति। अत्र भगवता जीवानां परस्परमीश्वराच्च भेदे प्रतिपादितेऽपि बहुवचनं शरीरापेक्षया न त्वात्मापेक्षयेति वदतो शं.चा. भविष्यत्युत्तरम्।
Sri Purushottamji
।।2.12।।अशोच्यत्वे अभक्तत्वं हेतुमुक्त्वा पुनरशोच्यत्वे हेत्वन्तरमाह नत्विति। अहमेतादृशो यादृशं त्वं द्रक्ष्यसि तादृशो जातु कदाचिदपि नासमिति न किन्त्वेवम्भूतः सर्वदैवाऽऽसम् अस्मीत्यर्थः। एतेन स्वस्य नित्यत्वमुक्तम्। ननु त्वन्नित्यत्वे कथमेते शोकानर्हाः इत्यत आह न त्वमासीः। न च इमे जनाधिपा आसन्निति न किन्तु सर्वं मल्लीलारूपत्वान्नित्यमेवेत्यर्थः। तेनासुराणां मरणमपि नित्यमेवेत्यर्थः। तस्मादेते माया एवेति शोकानर्हा इति भावः ()। नन्वहं युद्धे मरिष्ये चेत्तदा भवच्चरणवियोगो भविष्यत्यधर्माचरणाद्वा तथा भविष्यतीति शोचामीति चेत्तत्राह न चैवति। अतःपरं वर्त्तमानकालानन्तरं सर्वे वयं न भविष्याम इति न किन्तु भविष्याम एव। एवं सर्वस्य नित्यत्वात्सर्वेऽशोच्या इति त्वं शोकं कर्तुं नार्हसीति भावः।
Sri Shankaracharya
।।2.12।। न तु एव जातु कदाचिद् अहं नासम् किं तु आसमेव। अतीतेषु देहोत्पत्तिविनाशेषु घटादिषु वियदिव नित्य एव अहमासमित्यभिप्रायः। तथा न त्वं न आसीः किं तु आसीरेव। तथा न इमे जनाधिपाः न आसन् किं तु आसन्नेव। तथा न च एव न भविष्यामः किं तु भविष्याम एव सर्वे वयम् अतः अस्मात् देहविनाशात् परम् उत्तरकाले अपि। त्रिष्वपि कालेषु नित्या आत्मस्वरूपेण इत्यर्थः। देहेभेदानुवृत्त्या बहुवचनं नात्मभेदाभिप्रायेण।। तत्र कथमिव नित्य आत्मेति दृष्टान्तमाह
Sri Vallabhacharya
।।2.12।।कुत इत्यपेक्षायां शोच्यास्तु ते भवन्ति ये उत्पन्ना म्रियन्ते ते त्वात्मान इत्येषामुत्पत्तिरेव न सम्भवतीत्यात्मवादेनोत्पत्तिं निराकुर्वन्नशोच्यतामाह न त्वेवाहमिति।अहं यूयं सत्यवार्य इमे च द्वारकौकसः इतिवत्कालत्रयेऽपि देहस्येवात्मनो भवनं निवारयति भगवान्। नैव त्वमहं परमात्मोत्पन्नोऽस्मि जातु कदाचिन्नासं न तथाऽभूवं वा नोत्पन्नोऽसि वाऽभूश्च इमे पुरः स्थिता जनाधिपाश्च नोत्पन्नाः किन्तु सर्वदा नित्याः शुद्धाश्चेतना एवात्मान इत्यशोच्याः। नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् कठो.5।13श्वे.उ.6।13 इत्यादिश्रुतेरात्मनामुत्पत्तिरूपो विकारो निराकृतः।
Swami Sivananda
2.12 न not? तु indeed? एव also? अहम् I? जातु at any time? न not? आसम् was? न not? त्वम् thou? न not? इमे these? जनाधिपाः rulers of men? न not? च and? एव also? न not? भविष्यामः shall be? सर्वे all? वयम् we? अतः from this time? परम् after.Commentary -- Lord Krishna speaks here of the immortality of the Soul or the imperishable nature of the Self (Atman). The Soul exists in the three periods of time (past? present and future). Man continues to exist even after the death of the physical body. There is life beyond.