Chapter 2, Verse 22
Verse textवासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
Verse transliteration
vāsānsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛihṇāti naro ’parāṇi tathā śharīrāṇi vihāya jīrṇānya nyāni sanyāti navāni dehī
Verse words
- vāsānsi—garments
- jīrṇāni—worn-out
- yathā—as
- vihāya—sheds
- navāni—new
- gṛihṇāti—accepts
- naraḥ—a person
- aparāṇi—others
- tathā—likewise
- śharīrāṇi—bodies
- vihāya—casting off
- jirṇāni—worn-out
- anyāni—other
- sanyāti—enters
- navāni—new
- dehī—the embodied soul
Verse translations
Swami Gambirananda
As after rejecting worn-out clothes, a man takes up other new ones, likewise, after rejecting worn-out bodies, the embodied one unites with other new ones.
Swami Ramsukhdas
।।2.22।। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
Swami Tejomayananda
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
As a man casts off worn-out garments and puts on new ones, so does the embodied self cast off its worn-out bodies and enter into new ones.
Swami Sivananda
Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so too the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others that are new.
Dr. S. Sankaranarayan
Just as a man rejects tattered garments and takes on new ones, so too, the embodied Self, discarding worn-out bodies, rightly obtains new ones.
Shri Purohit Swami
As a man discards his threadbare robes and puts on new ones, so the Spirit throws off its worn-out bodies and takes on fresh ones.
Verse commentaries
Sri Jayatritha
।।2.22।।देहानामुपगमापगमयोरप्येक एवायमात्मेत्येतत्देहिनोऽस्मिन् 2।13 इत्यत्रैव सदृष्टान्तमुक्तं अतोवासांसि इति व्यर्थोऽयं श्लोक इत्यत आह देहे ति। कौमारादिदेहानामनतिभिन्नत्वान्न तेन देहात्मनो र्विवेको विनाशित्वाविनाशित्वलक्षणः स्पष्टमनुभवारूढो भवतीति भावः। दृष्टान्तं पूर्वोक्ताद्विलक्षणमिति शेषः। दृष्टान्तमित्युपलक्षणं दार्ष्टान्तिकस्यापि कथितत्वात्।
Sri Purushottamji
।।2.22।।ननु भगवत्क्रीडार्थं सृष्टदेहादीनां मारणमपि दोषरूपं अतः शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। यथा जीर्णानि कार्यानुपयुक्तानि वासांसि विहाय नवानि कार्योपयोगीनि अपराणि पूर्वविलक्षणानि नरो गृह्णाति तथा जीर्णानि मत्क्रीडानुपयुक्तानि शरीराणि विहाय नवानि अन्यानि मत्क्रीडार्थं विलक्षणरसोत्पादकानि देही संयाति मदिच्छया प्राप्नोती त्यर्थः।
Swami Sivananda
2.22 वासांसि clothes? जीर्णानि worn out? यथा as? विहाय having cast away? नवानि new? गृह्णाति takes? नरः man? अपराणि others? तथा so? शरीराणि bodies? विहाय having cast away? जीर्णानि wornout? अन्यानि others? संयाति enters? नवानि new? देही the embodied (one).No commentary.
Sri Vallabhacharya
।।2.22।।नन्वात्मनोऽविनाशेऽपि तदीयभोगसाधनदेहानां विनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। यथेति दृष्टान्तः। नरो जीर्णानि वासांसि विहायापराणि नवानि गृह्णाति तथा देही जीव आत्मा जीर्णानि शरीराणि त्यक्त्वाऽन्यानि नवानि प्राप्नोति। कर्मनिबन्धनानां नूतनानां देहानामवश्यम्भावात् न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इति भावः।
Sri Shankaracharya
।।2.22।। वासांसि वस्त्राणि जीर्णानि दुर्बलतां गतानि यथा लोके विहाय परित्यज्य नवानि अभिनवानि गृह्णाति उपादत्ते नरः पुरुषः अपराणि अन्यानि तथा तद्वदेव शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति संगच्छति नवानि देही आत्मा पुरुषवत् अविक्रिय एवेत्यर्थः।।कस्मात् अविक्रिय एवेति आह
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.22।।नन्वेवमात्मनो विनाशित्वाभावेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य च तन्नाशकत्वात्कथं भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधनानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्काया उत्तरं जीर्णानि विहाय वस्त्राणि नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थम्। तेन तथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहायोत्कृष्टानि जनो गृह्णातीत्यौचित्यायातम्। तथा जीर्णानि वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहाय अन्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि चिरोपार्जितधर्मफलभोगाय संयाति सम्यक् गर्भवासादिक्लेशव्यतिरेकेण प्राप्नोति। देही प्रकृष्टधर्मानुष्ठातृदेहवान्भीष्मादिरित्यर्थः।अन्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वा इत्यादिश्रुतेः। एतदुक्तं भवति भीष्मादयो हि यावज्जीवं धर्मानुष्ठानक्लेशेनैव जर्जरशरीरा वर्तमानशरीरपातमन्तरेण तत्फलभोगायासमर्था यदि धर्मयुद्धेन स्वर्गप्रतिबन्धकानि जर्जरशरीराणि पातयित्वा दिव्यदेहसंपादनेन स्वर्गभोगयोग्याः क्रियन्ते त्वया तदात्यन्तमुपकृता एव ते। दुर्योधनादीनामपि स्वर्गभोगयोग्यदेहसंपादनान्महानुपकार एव। तथाचात्यन्तमुपकारके युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरितिअपराणि अन्यानि संयाति इति पदत्रयवशाद्भगवदभिप्राय एवमभ्यूहितः। अनेन दृष्टान्तेनाविकृतत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति तु प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टम्।
Swami Ramsukhdas
2.22।। व्याख्या-- 'वासांसि जीर्णानि ৷৷. संयाति नवानि देही'-- इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये। कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें 'नरः' पद दिया है। यह 'नरः' पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको 'मरना' कह देते हैं, और नया शरीर धारण करनेको 'जन्मना' कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नये-नये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है। यहाँ 'शरीराणि' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता, तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर 'शरीराणि' पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ 'देही' पद आया है। यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है (टिप्पणी प0 62) । शरीर चाहे बच्चोंका हो, चाहे जवानोंका हो, चाहे वृद्धोंका हो, आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे। इस श्लोकमें भगवान्ने 'यथा' और 'तथा' पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपने-आप होती है (2। 13) यहाँ तो 'यथा' (जैसे) और 'तथा' (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है, पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्का तात्पर्य स्वतन्त्रता-परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं हैं, प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपडे धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्यों-का-त्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है; अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है। दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता है, पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ 'यथा' और 'तथा' कैसे घटेंगे? इसका समाधान .यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। 'मैं जीता रहूँ'--ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है, तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, उसको मरनेमें दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनन्द होता है! जैसे, मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय, तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे, नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ 'यथा' और 'तथा' पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है। यहाँ भगवान्ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो 'गृह्णाति' (धारण करता है) क्रिया दी, पर शरीरोंके धारण करनेमें संयाति (जाता है) क्रिया दी, ऐसा क्रियाभेद भगवान्ने क्यों किया? लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उन-उन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान्ने क्रियाभेद किया है। 'विशेष बात' गीतामें 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17), 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुः' (2। 24) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा 'संयाति नवानि देही' (2। 22) 'शरीरं यदवाप्नोति' (15। 8) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देशमें न हो, उस देशमें चला जाय, तो इसको 'जाना' कहते हैं; और जो दूसरे देशमें है, वह इस देशमें आ जाय, तो इसको 'आना' कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं! इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि 'मैं जवान हो गया हूँ'। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था, युवावस्थामें भी वह था ,युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तवमें शरीरका धर्म है, पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आना-जाना नहीं होता केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है। अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्म-मरण होता है, ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्म-मरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्की विमुखताके कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान्ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है, उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे (टिप्पणी प0 63) जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। भगवान्से विमुख होनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः भगवान्के सम्मुख होनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। सम्बन्ध-- पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं।
Swami Chinmayananda
।।2.22।। गीता के प्राय उद्धृत किये जाने वाले अनेक प्रसिद्ध श्लोकों में यह एक श्लोक है जिसमें एक अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार जीवात्मा एक देह को छोड़कर अन्य देह के साथ तादात्म्य करके नई परिस्थितियों में नए अनुभव प्राप्त करता है। व्यास जी द्वारा प्रयुक्त यह दृष्टान्त अत्यन्त सुपरिचित है।जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति रात्रिपरिधान (नाईट गाउन) पहने अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है। यही बात मृत्यु के विषय में भी है।यह दृष्टांत इतना सरल और बुद्धिग्राह्य है कि इसके द्वारा न केवल अर्जुन वरन् दीर्घ कालावधि के पश्चात भी गीता का कोई भी अध्येता या श्रोता देह त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है।अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है। शरीर के इस जीर्णत्व का निश्चय इसको धारण करने वाला ही कर सकता है क्योंकि जीर्णत्व का सम्बन्ध न धारणकर्त्ता की आयु से है और न उसकी शारीरिक अवस्था से है।जीर्ण शब्द के तात्पर्य को न समझकर अनेक आलोचक इस श्लोक का विरोध करते हैं। उनकी मुख्य युक्ति यह है कि जगत् में अनेक बालक और युवक मरते देखे जाते हैं जिनका शरीर जीर्ण नहीं था। शारीरिक दृष्टि से यह कथन सही होने पर भी जीव की विकास की दृष्टि से देखें तो यदि जीव के लिये वह शरीर अनुपयोगी हुआ तो उस शरीर को जीर्ण ही माना जायेगा। कोई धनी व्यक्ति प्रतिवर्ष अपना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही घर नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है।यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है जिसकी विवेचना हम 12वें श्लोक में पहले ही कर चुके हैं।इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता और न ही एक वस्त्र के त्याग के बाद हम सदैव विवस्त्र अवस्था में ही रहते हैं। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।आत्मा अविकारी अपरिवर्तनशील क्यों है भगवान् कहते हैं
Sri Anandgiri
।।2.22।।आत्मनोऽविक्रियत्वेन कर्मासंभवं प्रतिपाद्याविक्रियत्वहेतुसमर्थनार्थमेवोत्तरग्रन्थमवतारयति प्रकृतं त्विति। किं तत्प्रकृतमिति शङ्कमानं प्रत्याह तत्रेति। अविनाशित्वमित्युपलक्षणमविक्रियत्वमित्यर्थः। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयितुमुत्तरश्लोकमुत्थापयति तदित्यादिना। आत्मनः स्वतो विक्रियाभावेऽपि पुरातनदेहत्यागे नूतनदेहोपादाने च विक्रियावत्त्वध्रौव्यादविक्रियत्वमसिद्धमिति चेत्तत्राह वासांसीति। शरीराणि जीर्णानि वयोहानिं गतानि वलीपलितादिसंगतानीत्यर्थः। वाससां पुरातनानां परित्यागे नवानां चोपादाने त्यागोपादानकर्तृभूतलौकिकपुरुषस्याप्यविकारित्वेनैकरूपत्ववदात्मनो देहत्यागोपादानयोरविरुद्धमविक्रियत्वमिति वाक्यार्थमाह पुरुषवदिति।
Sri Dhanpati
।।2.22।।नन्वात्मनः पुरातनदेहत्यागे नवीनदेहोपादाने च सति विक्रियावत्त्वध्रौव्यादविक्रियत्वमसिद्धमित्याशङ्कां दृष्टान्तेन परिहरति वासांसीति। यथा लोके जीर्णानि दुर्बलतां गतानि वस्त्राणि नरः पुरुषः परित्यज्यापराण्यन्यानि नवान्युपादत्ते तद्वदेव देह्यात्मा जीर्णानि शरीराणि विहायान्यानि नवानि संगच्छति। जीर्णानीत्यादिविशेषणत्रयेण वस्त्राणां शरीराणां च जीर्णत्वादिमत्त्वेऽपि तदुपादानत्यागकर्त्रोः पुरुषदेहिनोस्तत्त्वाभावबोधकेन तयोरविक्रियत्वं कथितम्। तथाच पुरुषवदविक्रिय एवात्मेत्यर्थः। यत्तु केचित् नन्वेवमात्मनोऽविनाशित्वेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य तन्नाशकत्वात्कथं भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधकानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्कायां उत्तरं वासांसीति। यथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहाय नवान्युत्कृष्टानि जनो गृह्णाति तथा वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहायान्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि संयाति देही प्रकृष्टधर्मानुष्ठाता देहवान्भीष्मादिरित्यर्थः। तथाचात्यन्तमुपकारके युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरिति। तच्चिन्त्यम्। प्रकरणविरोधस्य विशेष्याध्याहारदोषस्य च स्पष्टत्वात् जीर्णानिति विशेषणात् नवीनादिसाधारणशरीरनाशनिमित्तस्य युद्धस्यात्यन्तोपकारकताया मूलादसिद्धेश्च उक्तरीत्या पराणीति पदस्य सार्थकत्वेन जीर्णानि विहाय नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थमिति वर्णनं त्वयुक्तमिति दिक्। अतएवानेन दृष्टान्तेनाविकृत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टमिति कटाक्षोऽपि परास्तः। आत्माविक्रियत्वप्रतिपादकपूर्वोत्तरप्रकरणानुसारिमूलादतिस्पष्टतया प्रतीयमानस्य भाष्योक्तव्याख्यानस्यैव सभ्यक्त्वात्।
Sri Madhavacharya
।।2.22।।देहात्मविवेकानुभवार्थं दृष्टान्तमाह वासांसीति।
Sri Neelkanth
।।2.22।।ननुब्राह्मणो यजेतजातपुत्रः कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत इति आत्मानं वयोवर्णादिविशेषणवन्तमेवाधिकृत्य कर्मविधयः प्रवर्तन्ते तेन नीलादुत्पलमिव देहादन्य आत्मावधारयितुं न शक्यत इत्याशङ्क्याह वासांसीति। दण्डी प्रैषानन्वाहेति दण्डस्य विशेषणत्वेऽपि न प्रैषानुवक्तृस्वरूपान्तर्गतत्वम् एवं ब्राह्मणत्वादेरपि न स्वर्गकामस्वरूपान्तर्गतत्वमिति वस्त्रदेवदत्तयोरिव जडाजडयोर्देहात्मनोरत्यन्तविलक्षणत्वमस्तीति वस्त्रनाशेन देवदत्तनाशं मन्वानस्येव तव देहनाशादात्मनाशं मन्वानस्यात्यन्तमौढ्यं स्पष्टमिति भावः। स्पष्टार्थश्च श्लोकः।
Sri Ramanujacharya
।।2.22।।धर्मयुद्धे शरीरं त्यजतां त्यक्तशरीराद् अधिकतरकल्याणशरीरग्रहणं शास्त्राद् अवगम्यते इति। जीर्णानि वासांसि विहाय नवानि कल्याणानि वासांसि गृह्णताम् इव हर्षनिमित्तिम् एव अत्र उपलभ्यते।पुनरपिअविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। (गीता 2।17) इति पूर्वोक्तम् अविनाशित्वं सुखग्रहणाय व्यञ्जयन् द्रढयति
Sri Sridhara Swami
।।2.22।। नन्वात्मनोऽविनाशित्वेऽपि तदीयशरीरनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। कर्मनिबन्धनभूतानां देहानामवश्यंभावित्वान्न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इत्यर्थः।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।2.22।।शङ्कापूर्वकंवासांसि इति श्लोकमवतारयति यद्यपीति। ननु सार्वभौमादिशरीरपरित्यागे तत्तत्कर्मानुरूपनारकतिर्यक्स्थावरादिशरीरपरिग्रहसम्भावनया प्रलयवत् अपरिगृहीतशरीरतयाऽवस्थितसम्भावनया चास्त्येव शोकनिमित्तम् न च नूतनत्वमात्रं सुखाय चिरन्तननरपतिगृहपरित्यागेनापि नूतनकारागारप्रवेशादेः जीर्णोशुकप्रहाणेन नूतनगोणीग्रहणादेश्च दुःखरूपत्वात्। न च वयमिह मानुषादिशरीरविलयसमनन्तरं अभिनववसनपरिधानवत् अनिमिषदेहादिसङ्ग्रहमुपलभामह इत्याशङ्क्याह धर्मयुद्धे इति।अधिकतरेति कल्याणविशेषणम्। नवशब्दाभिप्रेतोक्तिः कल्याणानीति।हर्षनिमित्तमेवेति पुरा शोकाविषयमात्रे शोकः कृतः इदानीं तु तद्विपरीतहर्षविषये क्रियत इति भावः।
Sri Abhinavgupta
।।2.22।।वेदेति। य एनमात्मानं प्रबुद्धत्वात् जानाति स न हन्ति न स हन्यते इति तस्य कथं बन्धः (N omits इति बन्धः)।