Chapter 2, Verse 13
Verse textदेहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।
Verse transliteration
dehino ’smin yathā dehe kaumāraṁ yauvanaṁ jarā tathā dehāntara-prāptir dhīras tatra na muhyati
Verse words
- dehinaḥ—of the embodied
- asmin—in this
- yathā—as
- dehe—in the body
- kaumāram—childhood
- yauvanam—youth
- jarā—old age
- tathā—similarly
- deha-antara—another body
- prāptiḥ—achieves
- dhīraḥ—the wise
- tatra—thereupon
- na muhyati—are not deluded
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
Just as boyhood, youth, and old age come to the embodied soul in this body, so too is the attainment of another body; the wise man is not deluded by this.
Swami Ramsukhdas
।।2.13।। देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
Swami Tejomayananda
।।2.13।। जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता है।।
Swami Adidevananda
Just as the self associated with a body passes through childhood, youth, and old age, so too, at death, it passes into another body. A wise man is not deluded by that.
Swami Gambirananda
As boyhood, youth, and decrepitude are to an embodied being in this present body, so is the acquisition of another body. Therefore, an intelligent person does not get deluded.
Swami Sivananda
Just as the embodied soul passes through childhood, youth, and old age in this body, so too does it pass into another body; the steadfast one does not grieve over this.
Shri Purohit Swami
As the soul experiences infancy, youth, and old age in this body, so finally it passes into another; the wise have no delusion about this.
Verse commentaries
Sri Abhinavgupta
।।2.13 2.14।।एवमर्थद्वयमाह न हीत्यादि। अहं हि नैव नासम् अपि तु आसम् एवं त्वम् अमी च राजानः। आकारान्तरे च सति यदि शोच्यता तर्हि कौमारात् यौवनावाप्तौ किमिति न शोच्यते यो धीरः स न शोचति। धैर्यं च (N धैर्ये च) एतच्छरीरेऽपि यस्यास्था नास्ति तेन सुकरम्। अतस्त्वं धैर्यमन्विच्छ।
Sri Sridhara Swami
।।2.13।।नन्वीश्वरस्य तव जन्मादिशून्यत्वं सत्यमेव जीवानां तु जन्ममरणे प्रसिद्धे तत्राह देहिन इति। देहिनो देहाभिमानिनो जीवस्य यथाऽस्मिन्स्थूलदेहे कौमाराद्यवस्था देहनिबन्धना एव नतु स्वतःपूर्वावस्थानाशेऽवस्थान्तरोत्पत्तावपि स एवाहमति प्रत्यभिज्ञानात्तथैवैतद्देहनाशे देहान्तरप्राप्तिरपि लिङ्गदेहनिबन्धना। नतु तावतात्मनो नाशः। जातमात्रस्य पूर्वसंस्कारेण स्तन्यपानादौ प्रवृत्तिदर्शनात्। अतो धीरः धीमांस्तत्र तयोर्देहनाशोत्पत्त्योर्न मुह्यति आत्मैव मृतो जातश्चेति न मन्यते।
Swami Sivananda
2.13 देहिनः of the embodied (soul)? अस्मिन् in this? यथा as? देहे in body? कौमारम् childhood? यौवनम् youth? जरा old age? तथा so also? देहान्तरप्राप्तिः the attaining of another body? धीरः the firm? तत्र thereat? न not? मुह्यति grieves.Commentary -- Just as there is no interruption in the passing of childhood into youth and youth into old age in this body? so also there is no interruption by death in the continuity of the ego. The Self is not dead at the termination of the stage? viz.? childhood. It is certainly not born again at the beginning of the second stage? viz.? youth. Just as the Self passes unchanged from childhood to youth and from yourth to old age? so also the Self passes unchanged from one body into,another. Therefore? the wise man is not at all distressed about it.
Sri Vallabhacharya
।।2.13।।एवमात्मनामशोच्यतामनुत्पत्त्योपपाद्य देहात्मादीनामशोच्यतामाह देहिन इति। लौकिकनिदर्शनेन यथाऽस्मिन्स्थूलदेहे कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिस्तथा देहान्तरप्राप्तिरात्मनां नियतेति धीरो न मुह्यति न तत्र शोचति।
Sri Shankaracharya
।।2.13।। देहः अस्य अस्तीति देही तस्य देहिनो देहवतः आत्मनः अस्मिन् वर्तमाने देहे यथा येन प्रकारेण कौमारं कुमारभावो बाल्यावस्था यौवनं यूनो भावो मध्यमावस्था जरा वयोहानिः जीर्णावस्था इत्येताः तिस्रः अवस्थाः अन्योन्यविलक्षणाः। तासां प्रथमावस्थानाशे न नाशः द्वितीयावस्थोपजने न उपजननम् आत्मनः। किं तर्हि अविक्रियस्यैव द्वितीयतृतीयावस्थाप्राप्तिः आत्मनो दृष्टा। तथा तद्वदेव देहाद् अन्यो देहो देहान्तरं तस्य प्राप्तिः देहान्तरप्राप्तिः अविक्रियस्यैव आत्मन इत्यर्थः। धीरो धीमान् तत्र एवं सति न मुह्यति न मोहमापद्यते।। यद्यपि आत्मविनाशनिमित्तो मोहो न संभवति नित्य आत्मा इति विजानतः तथापि शीतोष्णसुखदुःखप्राप्तिनिमित्तो मोहो लौकिको दृश्यते सुखवियोगनिमित्तो मोहः दुःखसंयोगनिमित्तश्च शोकः। इत्येतदर्जुनस्य वचनमाशङ्क्य भगवानाह
Sri Purushottamji
।।2.13।।ननु वयमेकत्रैव भविष्याम इति सत्यं परन्तु पुनरलौकिको देह एतादृश एव भविष्यति न वेति सन्देहात् शोचामीत्याकाङ्क्षायामाह देहिन इति। देहिनो जीवस्य यथाऽस्मिन्देहे कौमारं यौवनं जरा अवस्थात्रयं भवति कालेन तथा भगवदिच्छया भगवदीयस्य देहान्तरप्राप्तिरलौकिकद्वितीयदेहप्राप्तिर्भवतीत्यर्थः। धीरो भक्तस्तत्र देहप्राप्त्यर्थं न मुह्यति मोहं न प्राप्नोतीत्यर्थः।
Swami Ramsukhdas
2.13।।व्याख्या-- 'देहिनोऽस्मिन्यथा देहे (टिप्पणी प0 50) कौमारं यौवनं जरा'-- शरीरधारीके इस शरीरमें पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीरमें कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यहाँ 'शरीरधारीके इस शरीरमें' ऐसा कहनेसे सिद्ध होता है शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीरमें बालकपन आदि अवस्थाओंका जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरीमें नहीं है। 'तथा देहान्तरप्राप्तिः'-- जैसे शरीरकी कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही देहान्तरकी अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है। जैसे स्थूलशरीर बालकसे जवान एवं जवानसे बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओंके परिवर्तनको लेकर कोई शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरी एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है, तो इस विषयमें भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं ऐसे ही सूक्ष्म और कारणशरीरके रहतेरहते देहान्तरकी प्राप्ति होती है अर्थात् जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल-शरीरकी अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तरकी प्राप्ति (मृत्युके बाद दूसरा शरीर धारण करना) सूक्ष्म और कारण-शरीरकी अवस्था है। स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओंका परिवर्तन होता है--यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो अवस्थाओंकी तरह स्थूलशरीरमें भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्थामें जो शरीर था, वह युवावस्थामें नहीं है। वास्तवमें ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षणमें स्थूलशरीरका परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरमें भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तररूपसे स्पष्ट देखनेमें आता है (टिप्पणी प0 51.1) । अब विचार यह करना है कि स्थूलशरीरका तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण-शरीरका हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तनका ज्ञान हमें कैसे हो सकता है? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूलशरीरका ज्ञान उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है। स्थूलशरीरकी 'जाग्रत्' सूक्ष्म-शरीरकी 'स्वप्न' और कारण-शरीरकी 'सुषुप्ति' अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्थामें अपनेको स्वप्नमें बालक देखता है, युवावस्थामें स्वप्नमें युवा देखता है और वृद्धावस्थामें स्वप्नमें वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूलशरीरके साथ-साथ सूक्ष्मशरीरका भी परिवर्तन होता है। ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्थामें ज्यादा होती है, युवावस्थामें कम होती है और वृद्धावस्थामें वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारणशरीरका परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्थामें नींद लेनेपर शरीर और इन्द्रियोंमें जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्थामें नींद लेनेपर नहीं आती अर्थात् वृद्धावस्थामें बाल्य और युवा-अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीतिसे भी कारण-शरीरका परिवर्तन सिद्ध होता है। जिसको दूसरा-देवता, पशु, पक्षी आदिका शरीर मिलता है, उसको उस शरीरमें (देहाध्यासके कारण) 'मैं यही हूँ'--ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्मशरीरका परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारण-शरीरमें स्वभाव (प्रकृति) रहता है, जिसको स्थूल दृष्टिसे आदत कहते हैं। वह आदत देवताकी और होती है तथा पशु-पक्षी आदिकी और होती है, तो यह कारण-शरीरका परिवर्तन हो गया। अगर शरीरी-(देही-) का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'मैं वही हूँ' (टिप्पणी प0 51.2)--ऐसा ज्ञान नहीं होता। परन्तु अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'जो पहले बालक था, जवान था, वही मैं अब हूँ'--ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरीमें अर्थात् स्वयंमें परिवर्तन नहीं हुआ है। यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूलशरीरकी अवस्थाओंके बदलनेपर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तरकी प्राप्ति होनेपर पहलेके शरीरका ज्ञान क्यों नहीं होता ?पूर्वशरीरका ज्ञान न होनेमें कारण यह है कि मृत्यु और जन्मके समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्टके कारण बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जानेपर, अधिक वृद्धावस्था होनेपर बुद्धिमें पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्युकालमें तथा जन्मकालमें बहुत बड़ा धक्का लगनेपर पूर्वजन्मका ज्ञान नहीं रहता। (टिप्पणी प0 51.3) परन्तु जिसकी मृत्युमें ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात् शरीरकी अवस्थान्तरकी प्राप्तकी तरह अनायास ही देहान्तरकी प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति रह सकती है (टिप्पणी प0 51.4) । अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तरकी प्राप्तिमें होता है, वैसा ज्ञान देहान्तरकी प्राप्तिमें नहीं होता; परन्तु 'मैं हूँ' इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे, सुषुप्ति-(गाढ़-निद्रा-) में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगनेपर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरेको कुछ पता नहीं रहा, तो 'कुछ पता नहीं रहा'--इसका ज्ञान तो है ही। सोनेसे पहले मैं जो था, वही मैं जगनेके बाद हूँ, तो सुषुप्तिके समय भी मैं वही था--इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान अखण्डरूपसे निरन्तर रहता है। अपनी सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता। शरीरधारीकी सत्ताका सद्भाव अखण्डरूपसे रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त-अवस्थामें वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्त-अवस्थामें उसको शरीरान्तरोंका ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरोंसे अलग हूँ--ऐसा अनुभव तो होता ही है। 'धीरस्तत्र न मुह्यति'-- धीर वही है, जिसको सत्असत्का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषयमें कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी सन्देह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका सङ्ग है, और गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती। यहाँ 'तत्र' पदका अर्थ 'देहान्तर-प्राप्तिके विषयमें' नहीं है, प्रत्युत देह-देहीके विषयमें' है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है?--नित्य क्या है असत् क्या है सत् क्या है विकारी क्या है विकारी क्या है--इस विषयमें वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं इस विषयमें उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असङ्गताका अखण्ड ज्ञान रहता है। सम्बन्ध-- अनित्य वस्तु शरीर आदिको लेकर जो शोक होता है उसकी निवृत्तिके लिये कहते हैं
Swami Chinmayananda
।।2.13।। स्मृति का यह नियम है कि अनुभवकर्त्ता तथा स्मरणकर्त्ता एक ही व्यक्ति होना चाहिये तभी किसी वस्तु का स्मरण करना संभव है। मैं आपके अनुभवों का स्मरण नहीं कर सकता और न आप मेरे अनुभवों का परन्तु हम दोनों अपनेअपने अनुभवों का स्मरण कर सकते हैं।वृद्धावस्था में हम अपने बाल्यकाल और यौवन काल का स्मरण कर सकते हैं। कौमार्य अवस्था के समाप्त होने पर युवावस्था आती है और तत्पश्चात् वृद्धावस्था। अब यह तो स्पष्ट है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति के साथ कौमार्य और युवा दोनों ही अवस्थायें नहीं हैं फिर भी वह उन अवस्थाओं में प्राप्त अनुभवों को स्मरण कर सकता है। स्मृति के नियम से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यक्ति में कुछ है जो तीनों अवस्थाओं में अपरिवर्तनशील है जो बालक और युवा शरीर द्वारा अनुभवों को प्राप्त करता है तथा उनका स्मरण भी करता है।इस प्रकार देखने पर यह ज्ञात होता है कि कौमार्य अवस्था की मृत्यु युवावस्था का जन्म है और युवावस्था की मृत्यु ही वृद्धावस्था का जन्म है। और फिर भी निरन्तर होने वाले इन परिवर्तनों से हमें किसी प्रकार का शोक नहीं होता बल्कि इन अवस्थाओं से गुजरते हुये असंख्य अनुभवों को प्राप्त कर हम प्रसन्न ही होते हैं।जगत् में प्रत्येक व्यक्ति के इस निजी अनुभव का दृष्टान्त के रूप में उपयोग करके श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि बुद्धिमान पुरुष जीवात्मा के एक देह को छोड़कर अन्य शरीर में प्रवेश करने पर शोक नहीं करता।पुनर्जन्म के सिद्धान्त के पीछे छिपे इस सत्य को यह श्लोक और अधिक दृढ़ करता है। अत बुद्धिमान पुरुष के लिये मृत्यु का कोई भय नहीं रह जाता। बाल्यावस्था आदि की मृत्यु होने पर हम शोक नहीं करते क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा अस्तित्व बना रहता है और हम पूर्व अवस्था से उच्च अवस्था को प्राप्त कर रहे हैं। उसी प्रकार एक देह विशेष को त्याग कर जीवात्मा अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार अन्य देह को धारण करता है। इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.13।।ननुदेहमात्रं चैतन्यविशिष्टमात्मा इति लोकायतिकाः। तथाच स्थूलोऽहं गौरोऽहं गच्छामि चेत्यादिप्रत्यक्षप्रतीतानां प्रामाण्यमनपोहितं भविष्यति यतः कथं देहादात्मनो व्यतिरेकः व्यतिरेकेऽपि कथं वा जन्मविनाशशून्यत्वं जातो देवदत्तो मृतो देवदत्त इति प्रतीतेर्देहजन्मनाशाभ्यां सहात्मनोऽपि जन्मविनाशोपपत्तेरित्याशङ्क्याह देहाः सर्वे भूतभविष्यवर्तमाना जगन्मण्डलवर्तिनोऽस्य सन्तीति देही। एकस्यैव विभुत्वेन सर्वदेहयोगित्वात्सर्वत्र चेष्टोपपत्तेर्न प्रतिदेहमात्मभेदे प्रमाणमस्तीति सूचयितुमेकवचनम्। सर्वे वयमिति बहुवचनं तु पूर्वत्रदेहभेदानुवृत्त्या न त्वात्मभेदाभिप्रायेणेति न दोषः। तस्य देहिन एकस्यैव सतोऽस्मिन्वर्तमाने देहे यथा कौमारं यौवनं जरेत्यवस्थात्रयं परस्परविरुद्धं भवति नतु तद्भेदेनात्मभेदः यएवाहं बाल्ये पितरावन्वभूवं सएवाहं वार्धके प्रणप्तृ़ननुभवामीति दृढतरप्रत्यभिज्ञानात् अन्यनिष्ठसंस्कारस्य चान्यत्रानुसन्धानाजनकत्वात् तथा तेनैव प्रकारेणाविकृतस्यैव सत आत्मनो देहान्तरप्राप्तिरेतस्माद्देहादत्यन्तविलक्षणदेहप्राप्तिः स्वप्ने योगैश्वर्ये च तद्देहभेदानुसन्धानेऽपि स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानात्। तथाच यदि देह एवात्मा भवेत्तदा कौमारादिभेदेन देहे भिद्यमाने प्रतिसन्धानं न स्यात् अथतु कौमाराद्यवस्थानामत्यन्तवैलक्षण्येऽप्यवस्थावतो देहस्ययावत्प्रत्यभिज्ञं वस्तुस्थितिः इति न्यायेनैक्यं ब्रूयात्तदापि स्वप्नयोगैश्वर्ययोर्देहधर्मभेदे प्रतिसन्धानं न स्यादित्युभयोदाहरणम्। अतो मरुमरीचिकादावुदकादिबुद्धेरिव स्थूलोऽहमित्यादिबुद्धेरपि भ्रमत्वमवश्यमभ्युपेयम् बाधस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्। एतच्चन जायते इत्यादौ प्रपञ्चयिष्यते। एतेन देहाद्व्यतिरिक्तो देहेन सहोत्पद्यते विनश्यति चेति पक्षोऽपि प्रत्युक्तः। तत्रावस्थाभेदे प्रत्यभिज्ञोपपत्तावपि धर्मिणो देहस्य भेदे प्रत्यभिज्ञानुपपत्तेः। अथवा यथा कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिरविकृतस्यात्मन एकस्यैव तथा देहान्तर प्राप्तिरेतस्माद्देहादुत्क्रान्तौ। तत्र स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानाभावेऽपि जातमात्रस्य हर्षशोकभयादिसंप्रतिपत्तेः पूर्वसंस्कारजन्याया दर्शनात्। अन्यथा स्तनपानादौ प्रवृत्तिर्न स्यात्। तस्या इष्टसाधनतादिज्ञानजन्यत्वस्यादृष्टमात्रजन्यत्वस्य चाभ्युपगमात्। तथाच पूर्वापरदेहयोरात्मैक्यसिद्धिः। अन्यथा कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गादित्यन्यत्र विस्तरः। कृतयोः पुण्यपापयोर्भोगमन्तरेण नाशः कृतनाशः अकृतयोः पुण्यपापयोरकस्मात्फलदातृत्वमकृताभ्यागमः। अथवा देहिन एकस्यैव तव यथा क्रमेण देहावस्थोत्पत्तिविनाशयोर्न भेदः नित्यत्वात् तथा युगपत्सर्वदेहान्तरप्राप्तिरपि तवैकस्यैव विभुत्वात् मध्यमपरिमाणत्वे सावयवत्वेन नित्यत्वायोगात् अणुत्वे सकलदेहव्यापिसुखाद्यनुपलब्धिप्रसङ्गात् विभुत्वे निश्चिते सर्वत्र दृष्टकार्यत्वात्सर्वशरीरेष्वेक एवात्मा त्वमिति निश्चितोऽर्थः। तत्रैवंसति वध्यघातकभेदकल्पनया त्वमधीरत्वान्मुह्यसि धीरस्तु विद्वान्न मुह्यति अहमेषां हन्ता एते मम वध्या इति भेददर्शनाभावात्। तथाच विवादगोचरापन्नाः सर्वे देहा एकभोक्तृकाः देहत्वात्त्वद्देहवत् इति। श्रुतिरपिएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा इत्यादि। एतेन यदाहुःदेहमात्रमात्मा इति चार्वाकाःइन्द्रियाणि मनः प्राणश्च इति तदेकदेशिनःक्षणिकं विज्ञानम् इति सौगताःदेहातिरिक्तः स्थिरो देहपरिमाणः इति दिगम्बराःमध्यमपरिमाणस्य नित्यत्वानुपपत्तेः नित्योऽणुः इत्येकदेशिनः तत्सर्वमपाकृतं भवति नित्यत्वविभुत्वस्थापनात्।
Sri Anandgiri
।।2.13।।ननु पूर्वं देहं विहायापूर्वं देहमुपाददानस्य विक्रियावत्त्वेनोत्पत्तिविनाशवत्त्वविभ्रमः समुद्भवेदिति शङ्कते तत्रेति। अशोच्यत्वप्रतिज्ञायां नित्यत्वे हेतौ कृते सतीति यावत्। अवस्थाभेदे सत्यपि वस्तुतो विक्रियाभावादात्मनो नित्यत्वमुपपन्नमित्युत्तरश्लोकेन दृष्टान्तावष्टम्भेन प्रतिपादयतीत्याह दृष्टान्तमिति। न केवलमागमादेवात्मनो नित्यत्वं किंत्ववस्थान्तरवज्जन्मान्तरे पूर्वसंस्कारानुवृत्तेश्चेत्याह देहिन इति। देहवत्त्वं तस्मिन्नहंममाभिमानभाक्त्वम्। तासामिति निर्धारणे षष्ठी। आत्मनः श्रुतिस्मृत्युपपत्तिभिर्नित्यत्वज्ञानम्। धीमानित्यत्र धीर्विवक्ष्यते। एवं सतीति। तत्त्वतो विक्रियाभावान्नित्यत्वे समधिगते सतीत्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।2.13।। तत्र दृष्टान्तमाह देहिन इति। देहोऽस्यास्तीति देही आत्मा तस्य यथास्मिन्देहेऽवस्थात्रयमेकस्यैव तथा देहान्तरप्राप्तिः तत्रैवं सति धीमानात्मनित्यत्वज्ञानवान्न मुह्यति न मोहं प्राप्नोति। नन्वेतेषां श्लोकानां वादिमतान्याशङ्क्यानवतारणं भाष्यकाराणां न्यूनतेति चेन्न।नानुशोचन्ति पण्डिताःधीरस्तत्र न मुह्यतितांस्तितिक्षस्व भारतयं हि न व्यथयन्त्येते इतिवाक्यशेषाणां सत्त्वात् शोकनिवारणायात्मनित्यत्वव्याख्यानस्य शब्दार्थत्वादात्मानित्यत्ववादी मूर्ख इत्येवमादीनां तेषामश्रवणात् आत्मनो नित्यत्वादिवर्णनेन वादिमतनिराकरणस्यार्थसिद्धत्वात् शारीरकभाष्ये कुमतानां स्वेनैव खण्डितत्वाच्च तथाऽनवतारणे न्यूनताया अभावात्।
Sri Madhavacharya
।।2.13।।देहिनो भावे एतद्भवति तदेवासिद्धमिति चेत् न देहिनोऽस्मिन्। यथा कौमारादिशरीरभेदेऽपि देही तदीक्षिता सिद्धः एवं देहान्तरप्राप्तावपि ईक्षितृत्वात्। न हि जडस्य शरीरस्य कौमाराद्यनुभवः सम्भवति मृतस्यादर्शनात्। मृतस्य वाय्वाद्यपगमादनुभवाभावः।अहं मनुष्यः इत्याद्यनुभवाच्चैतत्सिद्धमिति चेत् न सत्येवाविशेषे देहे सुप्त्यादौ ज्ञानादिविशेषादर्शनात्।समश्चाभिमानो मनसि काष्ठादिवच्च। श्रुतेश्च। प्रामाण्यं च प्रत्यक्षादिवत्। न च बौद्धादिवत् अपौरुषेयत्वात्। न ह्यपौरुषेये पौरुषेयाज्ञानादयः कल्पयितुं शक्याः। विना च कस्यचिद्वाक्यस्यापौरुषेयत्वं न सर्वसमयाभिमतधर्मादिसिद्धिः।यश्च तौ नाङ्गीकुरुते नासौ समयी अप्रयोजकत्वात्। मास्तु धर्मो निरूप्यत्वादिति चेत् न सर्वाभिमतस्य प्रमाणं विना निषेद्धुमशक्यत्वात्। न च सिद्धिरप्रमाणकस्येति चेत् न सर्वाभिमतेरेव प्रमाणत्वात् अन्यथा सर्ववाचनिकव्यवहारासिद्धेश्च।न च मया श्रुतमिति तव ज्ञातुं शक्यम् अन्यथा वा प्रत्युत्तरं स्यात् भ्रान्तिर्वा तव स्यात् सर्वदुःखकारणत्वं वा स्यात् एको वाऽन्यथा स्यात्। रचितत्वे च धर्मप्रमाणस्य कर्तुरज्ञानादिदोषशङ्का स्यात्। न चादोषत्वं स्ववाक्येनैव सिद्ध्यति। न च येनकेनचिदपौरुषेयमित्युक्तमुक्तवाक्यसमम् अनादिकालपरिग्रहसिद्धत्वात्।अतः प्रामाण्यं श्रुतेः। अतः कुतर्कैर्धीरस्तत्र न मुह्यति। अथवा जीवनाशं देहनाशं वा अपेक्ष्य शोकः। न जीवनाशं नित्यत्वादित्याह न त्वेवेति। नापि देहनाशमित्याहदेहिन इति। यथा कौमारादिदेहहानेन जरादिप्राप्तावशोकः एवं जीर्णादिदेहहानेन देहान्तरप्राप्तावपि।
Sri Neelkanth
।।2.13।।यद्यप्येवं तथापीष्टदेहवियोगजः शोको भवत्येवेत्याशङ्क्याह देहिन इति। देहौ स्थूलसूक्ष्मौ विद्येते अस्य स देही चिदात्मा तस्य यथास्मिन् स्थूलशरीरे कौमाराद्यवस्थासु देहभेदेऽपि एक एवाहं बाल आसमिदानीं वृद्धोऽस्मीत्यभेदप्रत्यभिज्ञानादैक्यं बालादिशरीरेभ्योऽन्यत्वं च व्यावृत्तेभ्योऽनुवृत्तं भिन्नं कुसुमेभ्यः सूत्रमिवेति न्यायात्। एवं देहान्तरप्राप्तिरपि स्थूलाच्छरीरादन्येषां लिङ्गशरीराणां सूक्ष्माणां स्थूलशरीरानुकारिणां प्राप्तिः। अयमर्थः यथा एकमपि स्थूलं शरीरं कौमाराद्यवस्थाभेदादनेकरूपं एवं नित्यमपि लिङ्गशरीरं प्राणिकर्मभेदात्सुरनरतिर्यगाद्यवस्थाभेदादनेकं भवति। ततश्चोक्तन्यायेन स्थूलादिवत्सूक्ष्मादपि शरीरदात्मा विविक्त एव। एवं च शोकादिघर्मिणो लिङ्गादपि विभिन्नस्य तव इष्टवियोगजः शोकोऽपि न युक्तः। अतएव तत्र तस्मिन्विषये धीरो न मुह्यति। आभिमानिकौ शोकमोहौ देहद्वयाभिमानत्यागाद्धीरं न बाधेते। अतस्त्वमपि धीरो भवेति भावः। पूर्वश्लोकयोर्गतासूनिति वयमिति च बहुवचनं उपाधिभेदाभिप्रायम् अत्र तु देहिन इत्येकवचनमुपधेयचिदात्मैक्याभिप्रायमिति ज्ञेयम्। तथा च श्रुतिरेकस्यात्मन औपाधिकं भेदमाहयथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वानपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन्। उपाधिना क्रियते भेदरूपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽयमात्मा इति। क्षेत्रेषु वक्ष्यमाणलक्षणेषु स्थूलसूक्ष्मदेहद्वयात्मकेषु।एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा इति च। एकत्वाच्च विभुत्वमप्यस्य सिद्धम्। तेन देहादीनामनित्यानामविभूनां च पराभिमतमात्मत्वं प्रत्याख्यातं वेदितव्यम्।
Sri Ramanujacharya
।।2.13।।एकस्मिन् देहे वर्तमानस्य देहिनः कौमारावस्थां विहाय यौवनाद्यवस्थाप्राप्तौ आत्मन स्थिरबुद्ध्या यथा आत्मा नष्ट इति न शोचति देहाद् देहान्तर प्राप्तौ अपि तथा एव स्थिर आत्मा इति बुद्धिमान् न शोचति। अत आत्मनां नित्यत्वाद् आत्मानो न शोकस्थानम्।एतावद् अत्र कर्तव्यम् आत्मनां नित्यानाम् एव अनादिकर्मवश्यतया तत्तत्कर्मोचितदेहसंस्पृष्टानां तैरेव देहैः बन्धनिवृत्तये शास्त्रीयं स्ववर्णोचितं युद्धादिकम् अनभिसंहितफलं कर्म कुर्वताम् अवर्जनीयतया इन्द्रियैः इन्द्रियार्थस्पर्शाः शीतोष्णादिप्रयुक्तसुखदुःखदा भवन्ति ते तु यावच्छास्त्रीयकर्मसमाप्ति क्षन्तव्या इति।इमम् अर्थम् अनन्तरम् एव आह
Sri Jayatritha
।।2.13।।ननु चात्र किं परिदृश्यमानदेहपक्षीकारेणानुमीयते किंवा तदतिरिक्तदेहिपक्षीकारेण। नाद्यः देहोत्पत्तिनाशयोः प्रत्यक्षसिद्धत्वेन हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात्कालात्ययापदिष्टत्वाच्चेति स्फुटत्वान्नोक्तम्। द्वितीये दोषमाह देहिन इति। देहिनो देहवतो देहातिरिक्तस्यात्मनो भावे सद्भावे एतन्नित्यत्वानुमानं सम्भवति देहपक्षोक्तदोषाभावात् किन्तु देहातिरिक्तात्मसत्त्वमेवासिद्धम् प्रमाणाभावात्। ततश्चाश्रयासिद्धिरिति। अस्तु वा देहातिरिक्तात्मसत्वं तथापि नानुमानं सम्भवतीत्याह देहिन इति। देहिन इत्येकवचनमतंत्रम्। पूर्वोत्तरदेहेष्वेक एवात्मेत्यस्यार्थस्य भावे एतदनुमानं सम्भवति स्वरूपसिद्ध्याद्यभावात्। किं नाम तत्पूर्वोत्तरदेहेष्वात्मैक्यमेवासिद्धं प्रमाणाभावात्। तथाच देहोत्पत्तावुत्पत्तिमतस्तद्विनाशे च विनाशवतः कथमनादित्वेन नित्यत्वं साध्यते इति। उभयस्यापि परिहारदर्शनादेवं योज्यम् अर्थद्वयानुगुण्यायैव बहुवचने प्रकृतेऽप्येकवचनम् तथा भाव इति पुँल्लिङ्गे प्रकृतेऽपि तदेवेति सामान्यग्रहणाय नपुंसकनिर्देशः। नेत्याहेति शेषः। देहिनोऽस्मिन्नित्यतःपरमितिशब्दश्च। आक्षेपद्वयपरिहाराय पादत्रयं व्याख्याति यथे ति। अत्र देहीति तदीक्षिता सिद्ध इति देहातिरिक्तात्मसाधनं तदिति कौमारादिपरामर्शः। याजकादित्वात्समासः। द्वितीयान्तस्य तृन्नन्तेन वा समासः। अस्ति तावत्कौमारादिविषयमीक्षणम्। न चेक्षणमीक्षितारं विना सम्भवति। स च वक्ष्यमाणात् परिशेषप्रमाणाद्देही देहातिरिक्तः सिद्ध इति। अत्र कौमारादिग्रहणमतन्त्रम् ज्ञानमात्रेण ज्ञातुः सिद्धेः। देहशब्दश्चेन्द्रियादिसहितशरीरवृत्तिः श्लोके च कौमारं यौवनं जरेति विषयेण विषयीक्षणमुपलक्ष्यते तद्देहिनो देहातिरिक्तस्येत्युक्तं भवति। यथेत्यादि समस्तं वाक्यं श्लोके च पादत्रयं देहभेदेऽप्यात्मैकत्वे साधनम्। कौमारादिमच्छरीरभेद इत्यर्थः। देही एक एवेत्यर्थः। तदीक्षिते ति। योऽहं कुमारशरीरवानभूवं स इदानीं युवशरीरवान्वर्त इत्यादिप्रत्यभिज्ञातेत्यर्थः। देहान्तरप्राप्तावपीति अनेकदेहप्राप्तावपीत्यर्थः। एक एव देही सिद्ध इति वर्तते। ईक्षितृत्वादिति प्रत्यग्रजातस्य शिशोः आहाराद्यभिलाषेण पूर्वदेहानुसन्धानसिद्धेरित्याशयः। एवमात्मनो देहातिरिक्तत्वं देहभेदेप्येकत्वं च प्रसाध्यधीरस्तत्र न मुह्यति इत्युच्यते तस्य वैयर्थ्यमित्याशङ्क्य येऽस्मिन्विषयेऽन्येऽपि मोहास्ते धीरेण स्वयं निराकार्या इत्येवमर्थत्वान्न वैयर्थ्यमित्याशयवान् तत्प्रदर्शनार्थमुत्तरं प्रकरणमारभते। तत्रेक्षणेन कथं देहातिरिक्तात्मसिद्धिः ईक्षिता हि तेन सिध्यति। स च शरीरप्राणजठरानलेन्द्रियमनोविषयसन्निधौ ईक्षणदर्शनात्तेषामन्यतमः किं न स्यात् इत्यतः शरीरस्य तावदीक्षणं निषेधति न हीति । अत्रापि कौमारादीत्यतन्त्रम्। शरीरस्यानुभवो न सम्भवतीति प्रतिज्ञा। जडस्य शरीर स्येति हेतुद्वयम्। मृतस्यादर्शनादिति दृष्टान्तोक्तिः। जडत्वं च भौतिकत्वं विवक्षितमिति न साध्याविशिष्टता। अप्रयोजकत्वाभिप्रायेण शङ्कते मृतस्ये ति। जीवच्छरीरमृतशरीरयोर्भौतिकत्वे शरीरत्वे च समानेऽपि मा भून्मृतशरीरस्येक्षणम् प्राणादिवायूनां जाठरानलस्येन्द्रियाणां चापगमात्। जीवतस्तु प्राणादिसन्निधानाद्भविष्यतीति। को विरोधः मा हि भूदेकधर्मोपपन्नानामवान्तरकारणवैचित्र्यात् वैचित्र्याभावः। न केवलमिदमाशङ्कते किन्तु अहं मनुष्य इत्याद्यनुभवादेतद्देहस्येक्षितृत्वं सिद्धं प्रमितं चेत्यर्थः। दूषयति ने ति। न प्राणादिसन्निधानं शरीरस्येक्षितृत्वे प्रयोजकं वाच्यम् सुप्तिमूर्छयोः शरीरे प्राणाद्यपगमलक्षणरहिते सत्येव ज्ञानादीनां धर्माणामदर्शनात्। ज्ञानग्रहणमुपलक्षणम्। सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नैरप्यात्मा साध्य इति सूचयितुमादिपदम्। मृतादौ ज्ञानाद्यभावश्च तत्कार्यादर्शनात्सिद्ध इति दर्शयितुं ज्ञानादिविशेषे त्युक्तम्। ज्ञानादीनां विशेषः कार्यमिति। एतेन सङ्घातचैतन्यपक्षः प्राणादिचैतन्यपक्षश्च पराकृतो वेदितव्यः।मनस ईक्षितृत्वमतिदेशेन निराचष्टे समश्चे ति। मनोविषय ईक्षितृत्वाभिमानश्च पूर्वेण समः सुप्त्यादौ सत्यपि मनसि ज्ञानादर्शनात्। एवं तर्ह्यात्मापि ज्ञाता न स्यादिति चेत् न तदा तस्य मनसा सन्निकर्षाभावात्। मनसोऽपि तथाऽस्त्विति चेत् सिद्धस्तावदात्मा। मनसो ज्ञातृत्वे दोषान्तरमाह काष्ठादिवच्चे ति। मनो न ज्ञातृ ज्ञानकरणत्वात्। यद्यस्यां क्रियायां करणं न तत्तत्र कर्तृः यथा पाके काष्ठानि छिदायां कुठारो वा। न चासिद्धो हेतुः मनसा जानामीत्यनुभवात्। एतेनात्मसन्निकर्षेण मनो ज्ञात्रिति निरस्तम्। ननु जन्यज्ञानं मनोनिष्ठमिति सिद्धान्तः तत्कथमेतत् मैवम् मनोनिष्ठस्यापि ज्ञानस्य न मनः कर्तृ किन्तु आत्मैव यथाऽवयवविक्लेदलक्षणस्य पाकस्य न तण्डुलाः कर्तारः किन्तु देवदत्त इति। एतेनेन्द्रियचैतन्यपक्षोऽपि निरस्तः चक्षुषा पश्यामीत्यादौ तेषामपि करणत्वप्रतीतेरिति। अतीतादिज्ञानदर्शनाद्विषयचैतन्यपक्षः स्फुटदूषण इति न निराकृतः। एवं परिशेषप्रमाणेन देहातिरिक्तात्मा सिद्धः तस्य स्वभावादेवाहाराद्यभिलाषोपपत्तेः प्रत्यभिज्ञानमसिद्धमिति वदन्तं प्रति आत्मनित्यत्वे प्रमाणान्तरं चाह श्रुतेश्चे ति। अस्माच्छरीरभेदादूर्ध्वमुत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके ऐ.उ.4।6 इत्यादिश्रुतेश्च देहातिरिक्तो नित्य आत्मा सिद्धः। अत एव न स्वभाववादानवकाश इति। ननु बौद्धचार्वाकादीन् प्रति देहातिरिक्तनित्यात्मसाधनमिदम् न च ते श्रुतेः प्रामाण्यमङ्गीकुर्वते तत्कथं श्रुत्युदाहरणमित्यत आह प्रामाण्यं चे ति। बौद्धेन तावत्प्रत्यक्षानुमानयोश्चार्वाकेण च प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यमङ्गीकृतम् तत्कुतः इति वक्तव्यम्। बोधकत्वेनेति चेत्तर्हि तद्वच्छ्रुतेरप्यङ्गीक्रियताम्। ननु वाक्यत्वे समेऽपि केषाञ्चिद्बौद्धादिवाक्यानामप्रामाण्यदर्शनाच्छ्रुतेरपि तदाशङ्क्यत इत्यत आह नचे ति। बुद्धस्येदं बौद्धम् चार्वाको बौद्धमुदाहरति बौद्धस्त्वन्यदिति द्रष्टव्यम्। अप्रामाण्यं श्रुतेः शङ्कनीयमिति शेषः। तथा सति इन्द्रियलिङ्गयोरपि क्वचिदप्रामाण्यदर्शनात् सम्प्रतिपन्नयोरपि प्रत्यक्षानुमानयोस्तच्छङ्काप्रसङ्गादिति भावः। प्रसक्ताऽपि शङ्का तत्र निर्दोषत्वेनापनीयत इति चेत्समं प्रकृतेऽपीत्याह अपौरुषेयत्वादि ति। अपौरुषेयत्वेऽपि दोषित्वं किं न स्यादित्यत आह नही ति। सामान्योक्तित्वादपौरुषेये इति नपुंसकत्वोक्तिः। अन्यथा श्रुतेः प्रकृतत्वात्स्त्रीलिङ्गं स्यात्। शब्दे ह्यबोधकत्वादयो दोषाः ते च वक्तृपुरुषाश्रिताज्ञानादिमूलाः। यस्य तु वक्ता पुरुष एव नास्ति तत्र कथं वक्तृपुरुषाश्रिताज्ञानादयो दोषमूलत्वेन कल्पयितुं शक्याः व्याहतेरिति। अत्राज्ञानादीनां पौरुषेयत्वोक्तिरुपचारात् पुरुषशब्दात्तत्कृतवाक्यादिष्वेव ढञः स्मरणात्। ननु श्रुतेरपौरुषेयत्वमेव नास्ति वाक्यत्वात्। लौकिकवाक्यवदिति चेत् किमेवं वदतः किमपि वाक्यमपौरुषेयं नास्तीति मतम् उत किञ्चिदस्तीति। आद्ये दोषमाह विने ति। कस्यचिद्वाक्यस्यापौरुषेयत्वाभावे धर्माधर्मयोरनिश्चयः प्रसज्येत निश्चायकप्रमाणाभावात्। नच तथाऽस्त्विति वक्तुं शक्यम् तत्सद्भावस्य सर्वैः समयिभिर्निश्चितत्वादिति।ननु प्रत्यक्षैकमप्रमाणवादी यश्चार्वाको धर्माधर्मौ नाङ्गीकुरुते तस्य नेदमनिष्टम् किमप्यपौरुषेयं वाक्यं अनङ्गीकृत्य वेदापौरुषेयत्वं प्रत्याचक्षाणान्सर्वान्प्रति चायं प्रसङ्ग इत्यतस्तेनापि धर्मादिकमङ्गीकार्यैतं प्रसङगं वक्ष्याम इत्याशयेनाह यश्चे ति। तौ धर्माधर्मौ इति प्रसज्येत इति शेषः। धर्माद्यनङ्गीकारे कुतस्तच्छास्त्रस्याशास्त्रत्वप्रसङ्गो येनासौ शास्त्री न स्याक्ष्त्यित आह अप्रयोजकत्वा दिति। प्रयुज्यते प्रवर्त्यते प्रणेता प्रणयने श्रोता च श्रवणे शास्त्रे याभ्यां ते प्रयोजके विषयप्रयोजने अविद्यमाने प्रयोजके यस्य शास्त्रस्य तत्तथा। अनन्यलभ्यं कमपि पुरुषार्थमधिकृत्य तत्साधनं तथाविधमर्थं प्रतिपादयन्वाक्यसमूहो हि शास्त्रम् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् न चातीन्द्रियस्याभावेऽन्यत्तथानुभूतं शक्यनिरूपणम्। अतः शास्त्रत्वसिद्धये विषयादित्वेन धर्मादिकं किमप्यङ्गीकार्यमिति भावः। शङ्कते मा स्त्विति। मायं न माङ्। अस्त्वित्यव्ययम्। धर्म इत्युपलक्षणम् अनिरूप्यत्वात् तत्प्रमाणाभावेन प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। इदमुक्तं भवति विषयप्रयोजने हि ते भवतः ये प्रमाणेन प्रतिपादयितुं शक्येते वाङ्मात्रस्य श्रोतृभिरनादरणात्। नच धर्मादिकं प्रमाणेन प्रतिपादयितुं शक्यम् प्रत्यक्षागोचरत्वात् अनुमानादेश्च प्रामाण्याभावात्। अतो न शास्त्रस्य विषयत्वादिना धर्मादिकमङ्गीकर्तुमुचितम्। न चैतावता निर्विषयत्वाद्यापत्तिः यतो धर्माद्यभावो विषयो भविष्यति। प्रयोजनं च श्रोतृ़णां धर्माद्यनुष्ठानप्रसक्तक्लेशनिवृत्तिः धर्मादिसद्भावभ्रमोपरुद्धविषयसुखावाप्तिश्च प्रणेतुश्च लोकोपकारः उपकर्तारं च प्रत्युपकुर्वन्ति लोका इति निराकरोति ने ति। एवं वदता धर्माद्यभावोऽपि न शास्त्रविषयत्वेन शक्यते वक्तुम् सर्वाभिमतस्य धर्मादेः प्रमाणं विना वाङ्मात्रेण निषेद्धुं नास्तीति प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। घटाद्यभाव इव प्रत्यक्षेणैव धर्माद्यभावो निश्चेष्यत इति चेत् स्यादेवम् यद्यत्र न काचिद्विप्रतिपत्तिः। यत्र त्वस्तित्वाभिमानस्तत्र पिशाचादाविव प्रत्यक्षानुपलम्भः सन्देहहेतुरेव भवति इति। तदिदमुक्तं सर्वाभिमत स्येति। पुनः शङ्कते नचे ति। मा भूद्धमार्द्यभावस्य विषयत्वं तत्साधकप्रमाणाभावात् तथापि धर्मादेर्विषयत्वादिकं न घटते अप्रामाणिकस्य प्रमित्यनुपपत्त्या साधयितुमशक्यत्वादिति निराकरोति ने ति। अस्ति तावद्धर्मादिविषये सर्वेषामाविपालगोपालमस्तित्वाभिमानः। अभिमानो ज्ञानमेव। न च तस्य बाधकं किञ्चित् धर्माद्यभावप्रतिपादकप्रमाणाभावस्योक्तत्वात्। अतः सर्वाभिमतेरेव धर्मादौ प्रमाणत्वात् तत्करणस्य च प्रमाणत्वात् धर्मादेः प्रामाणिकत्वसिद्धौ किमनया व्यर्थचिन्तया। नच तत्र प्रमाणविशेषोऽशक्यनिरूपणः आगमस्य तत्सहकारिणोऽनुमानस्य च सत्वात्। अत एव नान्धपरम्पराऽपि। आगमादेः प्रामाण्यं नास्तीति उक्तमित्यत आह अन्यथे ति। यदाऽऽगमस्यानुमानस्य च न प्रामाण्यं तदा सर्वस्य वाचा निर्वर्त्यस्य व्यवहारस्यासिद्धिः स्यात्। परप्रत्ययनार्थो हि वाग्व्यवहारः स यदि न परं प्रत्याययेत् व्यर्थो न क्रियेतैवेति। चशब्दः प्रमाणसामान्यसिद्ध्या तद्विशेषसिद्धेः समुच्चये।भवत्वागमप्रामाण्ये वाचनिकव्यवहारासिद्धिः अनुमानप्रामाण्ये तु कथमित्यत आह नचे ति। त्वदीयं वाक्यं मया श्रूयते इति ज्ञात्वा मां प्रति त्वया वाग्व्यवहारः क्रियते अन्यथा वा। द्वितीये निष्फलो न कर्तव्यः स्यात्। नाद्यः परचित्तवृत्तीनां परस्याप्रत्यक्षत्वेन मया श्रुतमिति तव ज्ञातुमशक्यत्वात्। मदीयं प्रत्युत्तरमेव तज्ज्ञानोपाय इत्येव वक्तव्यमिति भावः। अस्त्वेवमित्यत आह अन्यथा वे ति। वाशब्दोऽवधारणे। प्रत्युत्तरं हि लिङ्गतया ज्ञापकम् नच तव मतेऽनुमानं प्रमाणम्। अतः प्रत्युत्तरमन्यथैवाज्ञापकमेव स्यादिति। ननु लिङ्गशब्दयोः प्रामाण्मेव नाङ्गीक्रियते ज्ञापकत्वमात्रमङ्गीक्रियत एव। अतः कथं वाचनिकव्यवहारसिद्धिरित्यत आह भ्रान्तिर्वे ति। ज्ञापकत्वमङ्गीकृत्य प्रामाण्यानङ्गीकारे शब्दलिङ्गाभ्यां जायमानः प्रत्ययस्तव मतेर्भ्रान्तिर्वा स्यात्संशयो वा गत्यन्तराभावात्। न च परस्य भ्रान्त्याद्यर्थं वचनप्रयोगः नापि प्रत्युत्तरेण भ्रान्तः सन्दिग्धो वा वाक्यं प्रयुङ्क्त इति युक्तम् अतो वाचनिकव्यवहारसिद्ध्यर्थमागमानुमानप्रामाण्यमङ्गीकार्यमिति। एवं चार्वाकशास्त्रस्य विषयं निराकृत्य प्रयोजनमपि निराकुर्वन श्रोतृप्रयोजनं तावन्निराचष्टे सर्वे ति। यथा शास्त्रस्य सर्वेषां श्रोतृ़णां सुखकारणत्वम् यथा धर्माद्यभावज्ञाने सर्वमर्यादातिक्रमे परस्परहिंसादिना सर्वदुःखकारणत्वं च स्यात् तथा च समव्ययफलं निष्प्रयोजनमेवेति। इदानीं शास्त्रप्रणेतृप्रयोजनं निराकरोति एको वे ति। धर्मादिज्ञानशून्याः पशुप्राया नोपकारिणमुपकुर्वन्ति अपितु सर्वेऽप्यपकर्तुमलम्। तदभावेऽप्येको वाऽन्यथाऽपकारकः स्यादिति भावः। तदेवं धर्माद्यनङ्गीकारे शास्त्रस्य विषयाद्यभावेनाशास्त्रत्वप्रसङ्गात्सर्वैर्धर्मादिकमङ्गीकार्यमिति। ननु स्वीकृतं धर्मादिकं पौरुषेयवाक्यात्तन्निंश्चय इत्यत आह रचितत्वे चेति। ततश्च न धर्मादिनिश्चय इति भावः। निर्दोषत्वेन प्रमितोऽसाविति चेत् तस्य निर्दोषत्वं किं तद्वाक्यात्सिद्धं प्रमाणान्तरेण वा। न द्वितीयः तदभावात्। आद्यं दूषयति नचे ति अतिप्रसङ्गादिति भावः। न च प्रत्यक्षादिना धर्मादिसिद्धिः। अतः सर्वैः किमप्यपौरुषेयं वाक्यमङ्गीकार्यम्। अङ्गीकृतं च बौद्धादिभिः स्वसमयापौरुषेयत्वम् शौद्धोदनिप्रभृतयः सम्प्रदायप्रवर्तकाः इत्युक्तत्वात्। ततः किमिति चेद्वाक्यत्वहेतोस्तत्रानैकान्त्यमिति। अस्त्वेवमनुमानस्यान्यतरानैकान्त्याच्छ्रुतेरपौरुषेयत्वे बाधकाभावः। तत्साधकं तु किमिति चेत्कर्तुरप्रसिद्धिरपौरुषेयत्वप्रसिद्धिश्चेति ब्रूमः। एवं तर्हि गूढकर्तृकस्य कृतापौरुषेयत्वप्रसिद्धिकस्याप्यपौरुषेयत्वप्रसङ्ग इत्यत आह न चे ति। केनचित्कृतमिति शेषः। उक्तवाक्यसमं वेदवदपौरुषेयमित्यर्थः। अनादिकाले यः परिग्रहः प्राक्तनमेवैतदिति ज्ञानं तेन विषयीकृतत्वाच्छ्रुतेः इतरस्य तदभावादपौरुषेयत्वप्रसिद्धिरेव तत्र भग्नेति भावः।अपौरुषेयत्वसिद्धौ सिद्धमर्थमुपसंहरति अत इति। एवं चतुर्थपादोपयुक्तं प्रमेयमुक्त्वा तमिदानीं निवेशयति अत इति। यत एवं नैरात्म्यवादिभिरुत्प्रेक्षिताः कुतर्काः अतस्तैः कुतर्कैर्धीरो धीमांस्तत्र देहातिरिक्तनित्यात्मसद्भावविषये न मोहमापद्यते।नरके नियतं वासः 1।44 इत्याद्यर्जुनवचनेन तस्य नित्यात्मप्रतिपत्तिसिद्धेः प्रथमपुरुषप्रयोगः। अनेकार्था गीतेति दर्शयितुं श्लोकद्वयं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे अथ वेति। न जीवनाशमपेक्ष्य शोकः कार्य इति शेषः। नित्यत्वाज्जीवस्य। अनेन योजनापूर्ववदेवेति ज्ञापयति। नापीत्यत्रापि पूर्ववच्छेषः। अत्र पूर्वयोजना न सङ्गच्छते अतोऽन्यथापादत्रयं व्याख्याति यथे ति। जरादिप्राप्तौ देहान्तरप्राप्ताविति निमित्तसप्तम्यौ ततश्चायमर्थः। कौमाराद्यवस्थाविशिष्टदेहहाने तावन्नास्ति शोक इति प्रसिद्धम् तत्कस्य हेतोः इति वाच्यम् जरादिविशिष्टदेहान्तरलाभात्। समानलाभेन हानिर्हि समाधीयत इति चेत् तर्हि मरणेऽपि शोको न कार्यः देहान्तरस्य लाभादेव। यदा तु जीर्णलाभेन समीचीनहानेः प्रतिविधानं तदा तु सुतरां समीचीनलाभेन जीर्णहानेरिति। तत्रावस्थामात्रहानिः अत्र त्ववस्थावतोऽपीत्येतदनुपयुक्तं वैषम्यं निष्कप्रदानेन पटग्रहणदर्शनादिति भावनोक्तं धीर इति।
Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha
।।2.13।।आत्मनामशोचनीयत्वाय नित्यत्वमुक्तम् तत्रात्मनित्यत्वे जन्ममरणादिप्रतीतिव्यवहारौ कथमिति शङ्कां दृष्टान्तेन परिहरति देहिन इति।अस्मिन् इति निर्देशाभिप्रेतमाह एकस्मिन्निति। देहस्यावस्थात्रयान्वयनिदर्शनादपि देहिन्येव तन्निदर्शनमुचितमित्यभिप्रायेणाह देहे वर्तमानस्येति। कौमारं यौवनं जरा इति क्रमनिर्देशसूचितार्थस्वभावफलितमुक्तंविहायेति। कौमारयौवनत्यागयोरपि शोकविशेषनिमित्तत्वात्तद्व्यवच्छेदार्थं यथाशब्दतात्पर्यव्यक्त्यर्थं चोक्तंआत्मन इत्यादि। बाल्यावस्थानिवृत्तावप्यात्मनः स्थिरत्वबुद्धिर्हि तद्विनाशनिमित्तशोकाभावहेतुः सोऽत्रापि समान इत्यर्थः।देहान्तरप्राप्तिः इत्यत्रान्तरशब्दसूचितं पूर्वदेहत्यागाख्यं शोकप्रसञ्जकं दर्शयति देहादिति। धीरशब्दस्य प्रकरणविशेषितोऽर्थःस्थिर आत्मेति बुद्धिमानिति।अशोच्यान् इत्यादिना प्रागुक्तेन सङ्गमयति अत इति।एवं श्लोकद्वयेन क्रमात् प्राप्यं निवर्त्यं च व्यञ्जितम् अथात्र हृद्गतं प्रापकविषयोत्तरश्लोकद्वयफलितं सङ्कलय्य सङ्गतमाह एतावदिति बन्धनिवृत्तय इत्यन्तःअमृतत्वाय कल्पते 2।15 इत्यस्यार्थः। शुद्धस्वभावानां संसारानुपपत्तिपरिहारायोक्तंअनादीति। कर्मवश्यतया न त्वनिर्वचनीयाज्ञानादिवश्यतयेति भावः। स्वतोऽत्यन्तसमानानामात्मनां देहभोगादिवैषम्यसिद्ध्यर्थमुक्तंतत्तत्कर्मेति।देहैर्बन्धनिवृत्तय इति देहैर्यो बन्धस्तस्य निवृत्तय इत्यर्थः। यद्वा देहः कर्म कुर्वतामित्यन्वयः। तदा तु बन्धका एव देहामोक्षसाधनौपयिकाः सम्भवन्तीति अवधारणाभिप्रायः।शास्त्रीयमिति। अन्यथेश्वरशासनातिलङ्घनाद्दण्ड एव स्यादिति भावः।स्ववर्णोचितमिति न तु त्वया युद्धादिकं परित्यज्य भैक्षं चर्तुं श्रेय इति भावः। अमृतत्वहेतुत्वायोक्तंअनभिसंहितेति। प्रतिकूलस्वभावस्य कथं कर्तव्यत्वमिति शङ्कानिवर्तकतुशब्दद्योतितमवर्जनीयत्वं तितिक्षितव्यत्वे हेतुः इत्येतावदत्र कर्तव्यमित्यन्वयः।