Chapter 2, Verse 71
Verse textविहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
Verse transliteration
vihāya kāmān yaḥ sarvān pumānśh charati niḥspṛihaḥ nirmamo nirahankāraḥ sa śhāntim adhigachchhati
Verse words
- vihāya—giving up
- kāmān—material desires
- yaḥ—who
- sarvān—all
- pumān—a person
- charati—lives
- niḥspṛihaḥ—free from hankering
- nirmamaḥ—without a sense of proprietorship
- nirahankāraḥ—without egoism
- saḥ—that person
- śhāntim—perfect peace
- adhigachchhati—attains
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
That person, who, by abandoning all desires, consumes [objects] without longing, without a sense of ownership, and without egotism, attains peace.
Swami Ramsukhdas
।।2.71।। जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
Swami Tejomayananda
।।2.71।। जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित? ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है।।
Swami Adidevananda
The one who, abandoning all desires, abides without longing, possession, and the sense of 'I' and 'mine', wins peace.
Swami Gambirananda
That man attains peace who, after rejecting all desires, moves about free from hankering, without the idea of 'me' and 'mine', and devoid of pride.
Swami Sivananda
That person attains peace who, abandoning all desires, moves about without longing, without the sense of ownership, and without egoism.
Shri Purohit Swami
He attains peace who, giving up desire, moves through the world without aspiration, possessing nothing that he can call his own and is free from pride.
Verse commentaries
Sri Sridhara Swami
।।2.71।।यस्मादेवं तस्मात् विहायेति। प्राप्तान्कामान्विहाय त्यक्त्वोपेक्ष्य अप्राप्तेषु च निःस्पृहः यतो निरहंकारः अतएव तद्भोगसाधनेषु निर्ममः सन्नन्तर्दृष्टिर्भूत्वा यश्चरति प्रारब्धवशेन भोगान्भुङ्क्ते यत्र क्वापि गच्छति वा स शान्तिमाप्नोति।
Swami Ramsukhdas
2.71।। व्याख्या-- 'विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः'-- अप्राप्त वस्तुकी इच्छाका नाम 'कामना' है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है। कामनाओंका त्याग कर देने पर भी शरीरके निर्वाहमात्रके लिये देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिकी जो आवश्यकता दीखती है अर्थात् जीवन-निर्वाहके लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु आदिकी जो जरूरत दीखती है, उसका नाम स्पृहा है। स्थितप्रज्ञ पुरुष इस 'स्पृहाका' भी त्याग कर देता है। कारण कि जिसके लिये शरीर मिला था और जिसकी आवश्यकता थी, उस तत्त्वकी प्राप्ति हो गयी, वह आवश्यकता पूरी हो गयी। अब शरीर रहे चाहे न रहे, शरीरनिर्वाह हो चाहे न हो--इस तरफ वह बेपरवाह रहता है। यही उसका निःस्पृह होना है। निःस्पृह होनेका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन करता ही नहीं। वह निर्वाहकी वस्तुओंका सेवन भी करता है, पथ्य-कुपथ्यका भी ध्यान रखता है अर्थात् पहले साधनावस्थामें शरीर आदिके साथ जैसा व्यवहार करता था, वैसा ही व्यवहार अब भी करता है; परन्तु शरीर बना रहे तो अच्छा है, जीवन-निर्वाहकी वस्तुएँ मिलती रहें तो अच्छा है--ऐसी उसके भीतर कोई परवाह नहीं होती। इसी अध्यायके पचपनवें श्लोकमें 'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्' पदोंसे कामना-त्यागकी जो बात कही थी, वही बात यहाँ 'विहाय कामान्यः सर्वान्' पदोंसे कही है। इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग किये बिना कोई स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। 'निर्ममः'-- स्थितप्रज्ञ महापुरुष ममताका सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओंको अपनी मानता है, वे वास्तवमें अपनी नहीं हैं प्रत्युत संसारसे मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भूल है। यह भूल मिट जानेपर स्थितप्रज्ञ वस्तु व्यक्ति पदार्थ शरीर इन्द्रियाँ आदिमें ममतारहित हो जाता है। 'निरहङ्कारः'-- यह शरीर मैं ही हूँ इस तरह शरीरसे तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञमें यह अहंकार नहीं रहता। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि सभी किसी प्रकाशमें दीखते हैं और जो मैंपन है उसका भी किसी प्रकाशमें भान होता है। अतः प्रकाशकी दृष्टिसे शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि अहंता ( मैंपन) ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्यसे अलग होता है यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जानेसे स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है। 'स शान्तिमधिगच्छति'-- स्थितप्रज्ञ शान्तिको प्राप्त होता है। कामना, स्पृहा, ममता और अहंतासे रहित होनेपर शान्ति आकर प्राप्त होती है--ऐसी बात नही है, प्रत्युत शान्ति तो मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है। केवल उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे सुख भोगनेकी कामना करनेसे, उनसे ममताका सम्बन्ध रखनेसे ही अशान्ति होती है। जब संसारकी कामना, स्पृहा, ममता और अहंता सर्वथा छूट जाती है तब स्वतःसिद्ध शान्तिका अनुभव हो जाता है। इस श्लोकमें कामना, स्पृहा, ममता और अहंता --इन चारोंमें अहंता ही मुख्य है। कारण कि एक अहंताके निषेधसे सबका निषेध हो जाता है अर्थात् यदि 'मैं'-पन ही नहीं रहेगा, तो फिर 'मेरा'-पन कैसे रहेगा और कामना भी कौन करेगा और किसलिये करेगा? जब 'निरहङ्कारः' कहनेमात्रसे कामना आदिका त्याग उसके अन्तर्गत आ जाता था, तो फिर कामना आदिके त्यागका वर्णन क्यों किया? इसका उत्तर यह है कि कामना, स्पृहा, ममता और अहंता--इन चारोंमें कामना स्थूल है। कामनासे सूक्ष्म स्पृहा, स्पृहासे सूक्ष्म ममता और ममतासे सूक्ष्म अहंता है। इसलिये संसारसे सम्बन्ध छोड़नेमें सबसे पहले कामनाका त्याग कर दिया जाय, तो अन्य तीनका त्याग करना सुगम हो जाता है। कामना करनेसे कोई वस्तु नहीं मिलती। वस्तु तो जो मिलनेवाली है, वही मिलेगी। अतः कामनाका त्याग कर देना चाहिये। कामनाका त्याग करनेके बाद भी स्पृहा रहती है। स्पृहा (शरीर-निर्वाहकी आवश्यकता) पूरी हो जाय यह भी हमारे हाथकी बात नहीं है अर्थात् स्पृहाकी पूर्तिमें भी हम स्वतन्त्र नहीं है। जो होना है वह तो होगा ही, फिर स्पृहा रखनेसे क्या लाभ? अतः शरीरके लिये अन्न, जल, वस्त्र आदिकी आशा छोड़नेसे स्पृहा छूट जाती है। अहंताममतासे रहित होनेका उपाय
Swami Chinmayananda
।।2.71।। कुछ व्याख्याकारों का मत है कि इन अन्तिम दो श्लोकों में संन्यास मार्ग की व्याख्या है। वास्तव में गीता में संन्यास की उपेक्षा नहीं की गई है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि इस द्वितीय अध्याय में सम्पूर्ण गीता का सार सन्निहित है। इसलिए आगामी समस्त विषयों की रूपरेखा इस अध्याय में दी हुई है। संन्यास मार्ग का वर्णन भी हमें आगे के अध्यायों में विभिन्न संन्दर्भों और स्थानों पर मिलेगा।इसके पूर्व 38वें श्लोक में सभी द्वन्द्वोंें में समभाव से रहते हुए युद्ध करने का उपदेश अर्जुन को दिया गया था। अध्याय के अन्त में उसी उपदेश को यहाँ भगवान् दूसरे शब्दों में दोहरा रहे हैं।परम शान्ति को प्राप्त पुरुष के मन की स्थिति को प्रथम पंक्ति में बताया गया है कि वह पुरुष सब कामनाओं का तथा विषयों के प्रति स्पृहा लालसा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देता है। दूसरी पंक्ति में ऐसे पुरुष की बुद्धि के भावों को बताते हुए कहते हैं कि उस पुरुष में अहंकार और ममत्व का पूर्ण अभाव होता है। जहाँ अहंकार नहीं होता जैसे निद्रावस्था में वहाँ इच्छा आसक्ति आदि का अनुभव नहीं होता। इस प्रकार प्रथम पंक्ति में अज्ञान के कार्यरूप लक्षणों का निषेध किया गया है और दूसरी पंक्ति में उस कारण का ही निषेध किया गया है जिससे इच्छायें उत्पन्न होती हैं।प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है कि अर्जुन के व्यक्तित्व के विघटन का कारण अहंकार और ममभाव अथवा अहंकार से प्रेरित इच्छायें थीं जिन्होंने उसके मन और बुद्धि को विलग कर दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण सब प्रकार की युक्तियाँ देने के बाद रोग के मुख्य कारण की ओर अर्जुन का ध्यान आकर्षित करते हैं।इस श्लोक का निष्कर्ष यह है कि जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं।संन्यास का अर्थ है त्याग अत अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है जिससे वह साधक सतत अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप की अनुभूति में रह सकता है। जीवन से पलायन करने अथवा गेरुये वस्त्र धारण करने को संन्यास समझने की जो गलत धारणा समाज में फैल गई है उसनेे उपनिषदों के महान् तत्त्वज्ञान पर एक अमिटसा धब्बा लगा दिया है। वास्तव में हिन्दू धर्म केवल उसी को संन्यासी स्वीकार करता है जिसने विवेक द्वारा अहंकार और स्वार्थ को त्याग कर स्फूर्तिमय जीवन जीना सीखा है।एक सच्चे संन्यासी का अत्यन्त सुन्दर वर्णन श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में इस प्रकार करते हैं वह पुरुष जो सब कामनाओं को त्यागकर जीवन में सन्तोषपूर्वक रहता हुआ शरीर धारणमात्र के उपयोग की वस्तुओं में भी ममत्व भाव नहीं रखता न ज्ञान का अभिमान करता है ऐसा ब्रह्मवित् स्थितप्रज्ञ पुरुष निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त करता है जहाँ संसार के सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। संक्षेप में ब्रह्मवित् ज्ञानी पुरुष ब्रह्म ही बन जाता है।इस ज्ञाननिष्ठा की इस प्रकार स्तुति करते है
Sri Anandgiri
।।2.71।।यदि गृहस्थेनापि मनसा समस्ताभिमानं हित्वा कूटस्थं ब्रह्मात्मानं परिभावयता ब्रह्मनिर्वाणमाप्यते प्राप्तं तर्हि मौढ्यादिविडम्बनमेवेत्याशङ्क्याह यस्मादिति। शब्दादिविषयप्रवणस्य तत्तदिच्छाभेदमानिनो न मुक्तिरिति व्यतिरेकस्य सिद्धत्वात् पूर्वोक्तमन्वयं निगमयितुमनन्तरं वाक्यमित्यर्थः। अशेषविषयत्यागे जीवनमपि कथमित्याशङ्क्याह जीवनेति। संभवद्रागद्वेषादिके देशे निवासव्यावृत्त्यर्थं चरतीत्येतद्व्याचष्टे पर्यटतीति। विहाय कामानित्यनेन पुनरुक्तिं परिहरति शरीरेति। निःस्पृहत्वमुक्त्वा निर्ममत्वं पुनर्वदन् कथं पुनरुक्तिमार्थिकीं न पश्यसीत्याशङ्क्याह शरीरजीवनेति। सत्यहंकारे ममकारस्यावश्यकत्वान्निरहंकारत्वं व्याकरोति विद्यावत्त्वादीति। स शान्तिमाप्नोतीत्युक्तमुपसंहरति स एवंभूत इति। संन्यासिनो मोक्षमपेक्षमाणस्य सर्वकामपरित्यागादीनि श्लोकोक्तानि विशेषणानि यत्नसाध्यानि तत्संमतिफलं तु कैवल्यमित्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।2.71।।चतुर्थप्रश्रस्योत्तरमुपसंहरति विहायेति। यस्मादेवं तस्माद्विहाय कामान्सर्वान्यः स्थितप्रज्ञः शरीरजीवनमात्रेऽपि निःस्पृहः अतएव शरीरजीवमात्राक्षिप्तपरिग्रहेऽपि ममेदमित्यभिनिवेशरहितः निरहंकारः विद्यावत्त्वादिनिमित्तात्मसंभावनावर्जितः। ननु देहाभिमानरहित इत्याचार्यैः कुतो न व्याख्यातमिति चेदुक्ताहंभावेऽस्यान्तर्भावविवक्षयेत्यदोषः। चरति पर्यटति स शान्तिमविद्यातत्कार्योपरमरुपां निर्वाणाभिधामधिगच्छति प्राप्नोति।
Sri Madhavacharya
।।2.71।।एतदेव प्रपञ्चयति विहायेति। कामान् विषयान् निस्स्पृहतया विहाय यश्चरेति भक्षयति भक्षयामीत्यहङ्कारममकारवर्जितश्च स हि पुमान्। स एव च मुक्तिमधिगच्छतीत्यर्थः।
Sri Neelkanth
।।2.71।।प्रासङ्गिकीमाशङ्कां परिहृत्य व्रजेत किमित्यस्य प्रश्नस्योत्तरमाह विहायेति। पूर्वोक्तांस्त्रिविधान्कामान्विहाय यः चरति विषयान्भुङ्क्ते निस्पृहश्च। यतो निर्ममः। ममतावान्हि इदं मम भूयादित्यन्यधनाद्यर्थं स्पृहां करोति न निर्ममोऽपि। कुतः यतो निरहंकारः। नह्यहंकारशून्यस्य सुप्त्यादौ ममता दृष्टा। तस्मादहंकारप्रविलयाच्छान्तिं मोक्षं प्राप्नोति। अत्र यः सर्वत्रानभिस्नेह इति सर्वत्र यच्छब्ददर्शनात्साधनविधिपर एवायं ग्रन्थः। अन्यथा स्थितप्रज्ञस्य प्रकृतत्वात्तदनुवादार्थो यच्छब्दोऽनर्थकः प्राप्नोति। लोकेऽपि हि परस्वभावकथने स एवं करोतीति तच्छब्द एव प्रयुज्यते न तु यच्छब्दः। विधौ तु य एवं करोति स इदं प्राप्नोतीति द्वयोरपि प्रयोगो दृश्यते। लक्षणकथनार्थत्वेऽपि तत्र तात्पर्याभावाद्विधावेव पर्यवस्यतीति दिक्।
Sri Ramanujacharya
।।2.71।।काम्यन्ते इति कामाः शब्दादयो विषयाः। यः पुमान् शब्दादीन् सर्वान् विषयान् विहाय तत्र निःस्पृहः ममतारहितश्च अनात्मनि देहे आत्माभिमानरहितः चरति स आत्मानं दृष्ट्वा शान्तिम् अधिगच्छति।
Sri Abhinavgupta
।।2.71।।योगी च सर्वव्यवहारान् कुर्वाणोऽपि (S omits अपि) लोकोत्तर इति निरूपयता परमेश्वरेण संक्षिप्यास्य स्वरूपं कथ्यते या निशेति। या सर्वेषां भूतानां निशा मोहिनी (K मोहनी) माया तस्यां मुनिर्जागर्त्ति कथमियं हेया इति। यस्यां च दशायां लोको जगर्त्ति नानाविधां (S विविधां) चेष्टां कुरुते सा मुनेः रात्रिः यतोऽसौ व्यवहारं प्रत्यबुद्धः।एतदुक्तं भवति येयं माया खलु तस्या द्वे रूपे ( N omit द्वे रूपे) मोहकत्वं ( N मोहकत्वे) नाम रूपं सुखतन्त्र ( N तन्तु for तन्त्र hereinafter ) ताभासनं च। तत्र लोकः प्राच्यं स्वरूपमस्या अपरामृश्यैव द्वितीयस्मिन् रूपे निबद्धस्मृतिरास्ते। योगी तु तद्विपरीतस्तदीयं मोहकत्वं तदुन्मूलनाय पश्यति। सुखतन्त्रतां च नाद्रियते (N नाश्रीयते) पश्यन् सम्यग्ज्ञानी। मिथ्याज्ञानोपघाताच्च सुखतन्त्रतानादरः (S तन्त्रतायां नादरः)। एवं च पश्यत एव सा रात्रिरिति चित्रम्। विद्याया वा बुध्यते (S K यां चावधत्ते) योगी यत्र सर्वोऽपि (S N omit अपि) विमूढः अविद्यायां त्वबुद्धः यत्र जनः प्रबुद्ध इत्यपि चित्रम्।
Sri Jayatritha
।।2.71।।विहाय इत्यनेनाप्ययमेवार्थ उच्यतेऽतः पुनरुक्तिरित्यत आह एतदेवे ति। यद्यत्र कामा इच्छाविशेषास्तर्हि निस्स्पृह इति पुनरुक्तिः यदि काम्यन्त इति विषयास्तदा चरतिर्यदि भक्षणार्थस्तदा व्याघातः अथ गत्यर्थस्तदा व्यर्थ इत्यतो व्याचष्टे कामा निति।निर्ममो निरहङ्कारः इत्येतदसम्भवपरिहाराय व्याचष्टे भक्षयामी ति। कर्तृत्वाभिमान एवाहङ्कारः स्वामित्वाभिमान एव ममता न त्वहम्प्रत्ययादिमात्रमिति भावः। स हि पुमान् अन्यः पशुरित्यर्थः। कुतः इत्यत आह स एवे ति।स पुमान् इत्यनेनैवान्वयसमाप्तिं वदता ज्ञानिन एव मुक्तिरित्येषोऽर्थो नात्र प्रतिपाद्यत इति दर्शितम् स्त्रीव्यावृत्त्यभावश्च।
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.71।।यस्मादेवं तस्मात्प्राप्तानपि सर्वान्बाह्यन्गृहक्षेत्रादीन् आन्तरान्मनोराज्यरूपान्वासनामात्ररूपांश्च पथि गच्छतस्तृणस्पर्शरूपान्कामांस्त्रिविधान्विहायोपेक्ष्य शरीरजीवनमात्रेऽपि निःस्पृहः सन्। यतो निरहंकारः शरीरेन्द्रियादावयमहमित्यभिमानशून्यः विद्यावत्त्वादिनिमित्तात्मसंभावनारहित इति वा। अतो निर्ममः शरीरयात्रामात्रार्थेऽपि प्रारब्धकर्माक्षिप्ते कौपीनाच्छादनादौ ममेदमित्यभिमानवर्जितः सन् यः पुमांश्चरति प्रारब्धकर्मवशेन भोगान्भुङ्क्ते यादृच्छिकतया यत्र क्वापि गच्छतीति वा। स एवंभूतः स्थितप्रज्ञः शान्तिं सर्वसंसारदुःखोपरमलक्षणामविद्यातत्कार्यनिवृत्तिमधिगच्छति ज्ञानबलेन प्राप्नोति तदेतदीदृशं व्रजनं स्थितप्रज्ञस्येति चतुर्थप्रश्नस्योत्तरं परिसमाप्तम्।
Sri Purushottamji
।।2.71।।यतो लौकिककामाभिलाषी न शान्तिं प्राप्नोत्यतस्तां त्यजेदित्याह विहायेति। यो दुर्लभः पुमान् भगवद्भावनैकयोग्यः सर्वान् कामान् विहाय निस्स्पृहः भगवदेकपरश्चरति सर्वत्र वैकल्येन परिभ्रमति निर्ममो देहादिषु निरहङ्कारो भवति स शान्तिमधिगच्छति प्राप्नोति।
Sri Shankaracharya
।।2.71।। विहाय परित्यज्य कामान् यः संन्यासी पुमान् सर्वान् अशेषतः कात्स्न्र्येन चरति जीवनमात्रचेष्टाशेषः पर्यटतीत्यर्थः। निःस्पृहः शरीरजीवनमात्रेऽपि निर्गता स्पृहा यस्य सः निःस्पृहः सन् निर्ममः शरीरजीवनमात्राक्षिप्तपरिग्रहेऽपि ममेदम् इत्यभिनिवेशवर्जितः निरहंकारः विद्यावत्त्वादिनिमित्तात्मसंभावनारहितः इत्येतत्। सः एवंभूतः स्थितप्रज्ञः ब्रह्मवित् शान्तिं सर्वसंसारदुःखोपरमलक्षणां निर्वाणाख्याम् अधिगच्छति प्राप्नोति ब्रह्मभूतो भवति इत्यर्थः।।सैषा ज्ञाननिष्ठा स्तूयते।।
Sri Vallabhacharya
।।2.71।।यस्मादेवं तस्मात् विहाय कामान्प्राकृतान् त्यक्त्वा स्वात्मारामत्वात् अन्यत्र निस्स्पृहःअहन्ताममतानाशे सर्वथा निरंहकृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते इति। स शान्तिमधिगच्छतीत्यवसेयम्।
Swami Sivananda
2.71 विहाय abandoning? कामान् desires? यः that? सर्वान् all? पुमान् man? चरति moves about? निःस्पृहः free from longing? निर्ममः devoid of mineness? निरहंकारः without egoism? सः he? शान्तिम् to peace? अधिगच्छति attains.Commentary That man who lives destitute of longing? abandoning all desires? without the senses of I and mine? who is satisfied with the bare necessities of life? who does not care even for those bare necessities of life? who has no attachment even for the bare necessities of life? attains Moksha or eternal peace. (Cf.II.55).