Chapter 2, Verse 55
Verse textश्री भगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
Verse transliteration
śhrī bhagavān uvācha prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha mano-gatān ātmany-evātmanā tuṣhṭaḥ sthita-prajñas tadochyate
Verse words
- śhrī-bhagavān uvācha—The Supreme Lord said
- prajahāti—discards
- yadā—when
- kāmān—selfish desires
- sarvān—all
- pārtha—Arjun, the son of Pritha
- manaḥ-gatān—of the mind
- ātmani—of the self
- eva—only
- ātmanā—by the purified mind
- tuṣhṭaḥ—satisfied
- sthita-prajñaḥ—one with steady intellect
- tadā—at that time
- uchyate—is said
Verse translations
Swami Ramsukhdas
।।2.55।। श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
Swami Tejomayananda
।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
Swami Adidevananda
The Lord said, "When a man renounces all the desires of the mind and is content with himself, then he is said to possess firm wisdom."
Swami Gambirananda
The Blessed One said, "O Partha, when one fully renounces all the desires that have entered the mind and remains satisfied in the Self alone, then he is called a man of steady wisdom."
Swami Sivananda
The Blessed Lord said, "When a man completely casts off, O Arjuna, all the desires of the mind and is satisfied in the Self by the Self, then he is said to be one of steady wisdom."
Dr. S. Sankaranarayan
The Bhagavat said, "O son of Prtha! When a man casts off all desires existing in his mind and remains content in the Self by the self (mind), then he is called a man of stabilized intellect."
Shri Purohit Swami
Lord Shri Krishna replied: When a person has given up the desires of their heart and is content with the Self alone, they have surely reached the highest state.
Verse commentaries
Sri Neelkanth
।।2.55।।एतेषां क्रमेणोत्तराण्याह भगवान् प्रजहातीत्यादिना। अत्र यान्येव कृतार्थलक्षणानि तानि ज्ञानसाधनानीति मत्वा उपदिश्यन्ते स्थितप्रज्ञलक्षणानि तेषामकृतार्थेषु यत्नसाध्यत्वात् कृतार्थेषु स्वाभाविकत्वात्। यथोक्तम्उत्पन्नात्मप्रबोधस्य ह्यद्वेष्टृत्वादयो गुणाः। भवन्त्ययत्नतस्तस्य न तु साधकरूपिणः। इति। यदायं योगी सर्वान्स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरभोग्यान् कामान्काम्यमानान्विषयान्प्रकर्षेण समूलं जहाति त्यजति। कीदृशान्कामान्। मनोगतान्मनस्येव संकल्पविकल्पात्मके स्थितान्नतु बहिः। यथोक्तमक्षपादाचार्यैःदोषनिमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः इति। तत्र स्थूलानां कामानां त्याग एकान्तसेवनमात्राद्भवतीति स स्थवीयानेव। विलीनकरणग्रामस्य समनस्कस्य जाग्रद्वासनामयाः स्वप्ने ये कामाः स्फुरन्ति तेषामपि त्यागो भगवद्ध्यानादिरूपसद्वासनाभ्यासबलेन भवति। येतूपसंहृतकरणस्य संप्रज्ञातसमाधिकाले दिव्याः कामाः संकल्पमात्रोपनता दहरविद्यादिषु प्रसिद्धास्तेषामपि त्यागोऽसंप्रज्ञातसमाध्यभ्यासबलेन भवति। एवं त्रिविधान्कामान्त्यक्त्वा आत्मन्येवाखण्डैकरसे आत्मना स्वेनैव स्वरूपानन्देन तुष्टो बाह्यविषयनिरपेक्षो यदा भवति तदायं स्थितप्रज्ञ इत्युच्यते।
Swami Ramsukhdas
2.55।। व्याख्या-- [गीताकी यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन (कर्मयोग, भक्तियोग आदि) के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधनसे उसकी पूर्णताका वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोगमें साधक भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं--ऐसे अनन्य-योगसे उपासना करता है (12। 6) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहित हो जाता है (12। 13)। ज्ञानयोगमें साधक स्वयंको गुणोंसे सर्वथा असम्बद्ध एवं निर्लिप्त देखता है (14। 19) अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण गुणोंसे सर्वथा अतीत हो जाता है (14। 22--25)। ऐसे ही कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्थामें वह सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है--यह बात इस श्लोकमें बताते हैं]। 'प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्'-- इन पदोंका तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयंमें है और न मनमें ही है। कामना तो आने-जानेवाली है और स्वयं निरन्तर रहनेवाला है; अतः स्वयंमें कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है-- 'मनोगतान्' अतः मनमें भी कामना कैसे हो सकती है परन्तु शरीर-इन्द्रयाँ-मन-बुद्धिसे तादात्म्य होनेके कारण मनुष्य मनमें आनेवाली कामनाओंको अपनेमें मान लेता है। 'जहाति' क्रियाके साथ 'प्र' उपसर्ग देनेका तात्पर्य है कि साधक कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामनाका कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। अपने स्वरूपका कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपनेमें नहीं है, पर उसको अपनेमें मान लिया है। इस मान्यताका त्याग करनेको ही यहाँ 'प्रजहाति' पदसे कहा गया है। यहाँ 'कामान्' शब्दमें बहुवचन होनेसे 'सर्वान्' पद उसीके अन्तर्गत आ जाता है, फिर भी सर्वान् पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामनाका कोई भी अंश बाकी न रहे। 'आत्मन्येवात्मना तुष्टः' जिस कालमें सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है अर्थात् अपनेआपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है। सन्तोष दो तरहका होता है--एक सन्तोष गुण है और एक सन्तोष स्वरूप है। अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कोई भी इच्छा न हो--यह सन्तोष गुण है; और स्वयंमें असन्तोषका अत्यन्ताभाव है--यह सन्तोष स्वरूप है। यह स्वरुपभूत सन्तोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिये कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत सन्तोषमें प्रज्ञा (बुद्धि) स्वतः स्थिर रहती है। 'स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते' स्वयं जब बहुशाखाओंवाली अनन्त कामनाओंको अपनेमें मानता था, उस समय भी वास्तवमें कामनाएँ अपनेमें नहीं थीं और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परन्तु उस समय अपनेमें कामनाएँ माननेके कारण बुद्धि स्थिर न होनेसे वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपनेमें से सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर दिया अर्थात् उनकी मान्यताको हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात् उसको अपनी स्थितप्रज्ञताका अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धिको स्थिर बनाता है। परन्तु कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर बुद्धिको स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतःस्वाभाविक स्थिर हो जाती है। कर्मयोगमें साधकका कर्मोंसे ज्यादा सम्बन्ध रहता है। उसके लिये योगमें आरूढ़ होनेमें भी कर्म कारण हैं
Sri Ramanujacharya
।।2.55।।श्री भगवानुवाच आत्मनि एव आत्मना मनसा आत्मैकावलम्बनेन तुष्टः तेन तोषेण तद्व्यतिरिक्तान् सर्वान् मनोगतान् कामान् यदा प्रकर्षेण जहाति तदा अयं स्थितप्रज्ञ इति उच्यते। ज्ञाननिष्ठाकाष्ठा इयम्।अनन्तरं ज्ञाननिष्ठस्य ततः अर्वाचीना अदूरविप्रकृष्टावस्था उच्यते
Swami Chinmayananda
।।2.55।। आत्मानुभवी पुरुष के आन्तरिक और बाह्य जीवन का वर्णन कर भेड़ की खाल में छिपे भालुओं के समान पाखण्डी गुरुओं से भिन्न सच्चे गुरु को पहचानने में गीता हमारी सहायता करती है। इसके अतिरिक्त यह प्रकरण साधकों के लिये विशेष महत्त्व का है क्योंकि इसमें आत्मानुभूति के लिये आवश्यक जीवन मूल्यों एवं विभिन्न परिस्थितियों में मन की स्थिति कैसी होनी चाहिये इसका विस्तार से वर्णन है।इस विषय के प्रारम्भिक श्लोक में ही ज्ञानी पुरुष की आन्तरिक मनस्थिति के वे समस्त लक्षण वर्णित हैं जिन्हे हमको जानना चाहिये। उपनिषद् रूपी उद्यान में खिले शब्द रूपी सुमनों की इस विशिष्ट सुगन्ध से सुपरिचित होने पर ही हमें इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दोंें का सम्यक् ज्ञान हो सकता है। जिसने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग दिया वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है। श्रीकृष्ण ने अब तक जो कहा उसके सन्दर्भ में इस श्लोक का अध्ययन करने पर हम वास्तव में व्यास जी के प्रेरणाप्रद शब्दों के द्वारा औपनिषदीय सुरभि का अनुभव कर सकते हैं।आत्मस्वरूप अज्ञान से दूषित बुद्धि कामनाओं के पल्लवित होने के लिये योग्य क्षेत्र बन जाती है। परन्तु जिस पुरुष का अज्ञान आत्मानुभव के सम्यक् ज्ञान से निवृत्त हो जाता है उसका निष्काम हो जाना स्वाभाविक है। यहाँ कार्य के निषेध से कारण का निषेध किया गया है। जहाँ कामनायें नहीं वहाँ अज्ञान नष्ट हो चुका है और ज्ञान तो वहाँ प्रकाशित हो ही रहा है।यदि सामान्य जनों से ज्ञानी को विशिष्टता प्रदान करने वाला यही एक मात्र लक्षण हो तो आज का कोई भी शिक्षित व्यक्ति हिन्दू महात्मा को पागल ही समझेगा क्योंकि आत्मानुभव के बाद उस ज्ञानी में इतनी भी सार्मथ्य नहीं रहेगी कि वह इच्छा कर सके इच्छा क्या है इच्छा मन की वह क्षमता है जो भविष्य में ऐसी वस्तु को पाने की योजना बनाये जिससे कि मनुष्य पहले से अधिक सुखी बन सके। ज्ञानी पुरुष इस सार्मथ्य को भी खो देगा यह है भौतिकवादियों द्वारा की जाने वाली आलोचना।उपर्युक्त प्रकार से इस श्लोक की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि दूसरी पंक्ति में यह बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप में सन्तुष्ट रहता है। केवल यह नहीं कहा कि वह सब कामनाओं को त्याग देता है वरन् निश्चित रूप से वह आत्मानन्द का अनुभव करता है।यह सर्वविदित तथ्य है कि बाल्यावस्था में जिन खिलौनों के साथ बालक रमता है उनको युवावस्था में वह छोड़ देता है। आगे वृद्ध होने पर उसकी इच्छायें परिवर्तित हो जाती हैं और युवावस्था में आकर्षक प्रतीत होने वाली वस्तुओं के प्रति उसके मन में कुछ राग नहीं रह जाता।अज्ञान दशा में मनुष्य स्वयं को परिच्छिन्न अहंकार के रूप में जानता है। इसलिये विषयोपभोग की स्पृहा अपनी भावनाओं एवं विचारों के साथ आसक्ति स्वाभाविक होती है। अज्ञान के नष्ट होने पर यह अहंकार अपने शुद्ध अनन्त स्वरूप में विलीन हो जाता है और स्थितप्रज्ञ पुरुष आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। सब कामनायें समाप्त हो जाती हैं क्योंकि वह स्वयं आनन्दस्वरूप बनकर स्थित हो जाता है।
Sri Anandgiri
।।2.55।।प्रतिवचनमवतारयितुं पातनिकां करोति यो हीति। हिशब्देन कर्मसंन्यासकारणीभूतविरागतासंपत्तिः सूच्यते। आदितो ब्रह्मचर्यावस्थायामिति यावत्। ज्ञानमेव योगो ब्रह्मात्मभावप्रापकत्वात्तस्मिन्निष्ठा परिसमाप्तिस्तस्यामित्यर्थः। कर्मैव योगस्तेन कर्माण्यसंन्यस्य तन्निष्ठायामेव प्रवृत्त इति शेषः। ननु तत्कथमेकेन वाक्येनार्थद्वयमुपदिश्यते द्वैयर्थो वाक्यभेदात् नच लक्षणमेव साधनं कृतार्थलक्षणस्य तत्स्वरूपत्वेन फलत्वे साधनत्वानुपपत्तेरिति तत्राह सर्वत्रैवेति। यद्यपि कृतार्थस्य ज्ञानिनो ज्ञानलक्षणं तद्रूपेण फलत्वान्न साधनत्वमधिगच्छति तथापि जिज्ञासोस्तदेव प्रयत्नसाध्यतया साधनं संपद्यते लक्षणं चात्र ज्ञानसामर्थ्यलब्धमनूद्यते न विधीयते विदुषो विधिनिषेधागोचरत्वात् तेन जिज्ञासोः साधनानुष्ठानाय लक्षणानुवादादेकस्मिन्नेव साधनानुष्ठाने तात्पर्यमित्यर्थः। उक्तेऽर्थे भगवद्वाक्यमुत्थापयति यानीति। लक्षणानि च ज्ञानसामर्थ्यलभ्यान्ययत्नसाध्यानीति शेषः। स्थितप्रज्ञस्य का भाषेति प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह प्रजहातीति। कामत्यागस्य प्रकर्षो वासनाराहित्यं कामानामात्मनिष्ठत्वं कैश्चिदिष्यते तदयुक्तं तेषां मनोनिष्ठत्वश्रुतेरित्याशयवानाह मनोगतानिति। आत्मन्येवात्मनेत्याद्युत्तरभागनिरस्यं चोद्यमनुवदति सर्वकामेति। तर्हि प्रवर्तकाभावाद्विदुषः सर्वप्रवृत्तेरुपशान्तिरिति नेत्याह शरीरेति। उन्मादवानुन्मत्तो विवेकविरहितबुद्धिभ्रमभागी प्रकर्षेण मदमनुभवन् विद्यमानमपि विवेकं निरस्यन्भ्रान्तवद्व्यवहरन्प्रमत्त इति विभागः। उत्तरार्धमवतार्य व्याकरोति उच्यत इति। आत्मन्येवेत्येवकारस्यात्मनेत्यत्रापि संबन्धं द्योतयति स्वेनैवेति। बाह्यलाभनिरपेक्षत्वेन तुष्टिमेव स्पष्टयति परमार्थेति। स्थितप्रज्ञपदं विभजते स्थितेति। प्रज्ञाप्रतिबन्धकसर्वकामविगमावस्था तदेति निर्दिश्यते। उक्तमेव प्रपञ्चयति त्यक्तेति। आत्मानं जिज्ञासमानो वैराग्यद्वारा सर्वैषणात्यागात्मकं संन्यासमासाद्य श्रवणाद्यावृत्त्या तज्ज्ञानं प्राप्य तस्मिन्नेवासक्त्या विषयवैमुख्येन तत्फलभूतां परितुष्टिं तत्रैव प्रतिलभमानः स्थितप्रज्ञव्यपदेशभागित्यर्थः।
Sri Dhanpati
।।2.55।।एवं पृष्टः श्रीभगवान्वासुदेवो मुमुक्षोर्यत्नसाध्यानि जीवन्मुक्तस्वभावभूतानि लक्षणानि वदन्प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह प्रजहातीति द्वाभ्याम्। यदा कामानिच्छाभेदान्मनोगतान्मनसि अतिष्ठितान्सर्वानशेषान्प्रजहाति प्रकर्षेण त्यजति। ननु सर्वान्कामान्परित्यज्यापि प्रारब्धकर्मवशाज्जीवतस्तस्योन्मत्तवत्प्रवृत्तिः प्राप्तेत्यत आह आत्मन्येवेति। आत्मन्येव प्रत्यगात्मस्वरुप एवात्मना स्वेनैव बाह्यविषयलाभनिरपेक्षः परमार्थदर्श नामृतरसलामेनान्यस्मात्प्राप्तालंप्रत्ययस्तुष्टस्तदा स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य स विद्वान् तदोच्यते। आत्मानं जिज्ञासमानो वैराग्यद्वारा पुत्रवित्तलोकेषणात्यागात्मकं संन्यासमासाद्य श्रवणाद्यवृत्त्या तज्ज्ञानं प्राप्य तस्मिन्नेव आसक्त्या विषयवैमुख्येन तत्फलभूतां तुष्टिं तत्रैव प्रतिलभमानः स्थितप्रज्ञव्यपदेशभागित्यर्थः। एतेन समाधिस्थ इति शेष इति प्रत्युक्तम्। शेषस्योक्तयुक्त्या निरर्थकत्वात्। एतादृशसंबन्धलक्षणेन स्थितप्रज्ञ उच्यते। यथा पृथासंबन्धेन त्वं पार्थ इति सचयन्नाह पार्थेति।
Sri Madhavacharya
।।2.55।।गमनादिप्रवृत्तिर्नात्यभिसन्धिपूर्विका मात्रादिप्रवृत्तिवदितिया निशा 2।69 इत्यादिना दर्शयिष्यँल्लक्षणं प्रथमत आह एवं परमानन्दतृप्तः किमर्थमेवं प्रवृत्तिं करोतीति प्रश्नाभिप्रायः। प्रारब्धकर्मणेषत्तिरोहितब्रह्मणो वासना प्रायोऽल्पाभिसन्धिप्रवृत्तिः सम्भवतीत्याशयवान् परिहरति। प्रायः सर्वान्कामान्प्रजहाति शुकादीनामपीषद्दर्शनात्।त्वत्पादभक्तिमिच्छन्ति ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः इत्युक्तेस्तामिच्छन्ति। यदा त्विन्द्रादीनामाग्रहो दृश्यते तदाऽभिभूतं तेषाम्। तच्चोक्तम्आधिकारिकपुंसां तु बृहत्कर्मत्वकारणात्। उद्भवाभिभवौ ज्ञाने ततोऽन्येभ्यो विलक्षणाः इति। अत एव वैलक्षण्यादनधिकारिणां आग्रहादि चेदस्ति न ते ज्ञानिन इत्यवगन्तव्यम्।न चात्र समाधिं कुर्वतो लक्षणमुच्यतेयः सर्वत्रानभिस्नेहः 2।57 इत्यादिस्नेहनिषेधात्। नहि समाधिं कुर्वतस्तस्य शुभाशुभप्राप्तिरस्ति असम्प्रज्ञातसमाधेः। सम्प्रज्ञाते त्वविरोधस्तथापि न तत्रैवेति नियमः।कामादयो न जायन्ते ह्यपि विक्षिप्तचेतसाम्। ज्ञानिनां ज्ञाननिर्धूतमलानां देवसंश्रयात् इति च स्मृतेः। मनोगता हि कामाः अतस्तत्रैव तद्विरुद्धज्ञानोत्पत्तौ युक्तं हानं तेषामिति दर्शयति मनोगतानिति। विरोधश्चोच्यतेरसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59 इति। न चैतददृष्ट्या अपलपनीयम् पुरुषवैशेष्यात्। आत्मना परमात्मना। परमात्मन्येव स्थितः सन्। आत्माख्ये तस्मिन्स्थितस्य तत्प्रसादादेव तुष्टिर्भवतिविषयांस्तु परित्यज्य रामे स्थितिमतस्ततः। देवाद्भवति वै तुष्टिर्नान्यथा तु कथञ्चन इति नारायणरामकल्पेः अतो नात्मा जीवः।
Sri Sridhara Swami
।।2.55।।अत्र च यानि साधकस्य ज्ञानसाधनानि तान्येव स्वाभाविकानि सिद्धस्य लक्षणानि। अतः सिद्धस्य लक्षणानि कथयन्नेवान्तरङ्गाणि ज्ञानसाधनान्याह यावदध्यायसमाप्ति। तत्र प्रथमप्रश्नोत्तरमाह प्रजहातीति द्वाभ्याम्। श्रीभगवानुवाच। मनसि स्थितान्कामान्यदा प्रकर्षेण जहाति। त्यागे हेतुः आत्मन्येव स्वस्मिन्नेव परमानन्दरूपे आत्मना स्वयमेव तुष्ट इति। आत्मारामः सन्यदा क्षुद्रविषयाभिलाषांस्त्यजति तदा तेन लक्षणेन मुनिः स्थितप्रज्ञ उच्यत इत्यर्थः।
Sri Abhinavgupta
।।2.54 2.55।।यदा ते इति। श्रुतीति। तत्र च योगबुद्धिप्राप्त्यबसरे तव स्फुटमेवेदमभिज्ञानम् श्रोतव्यस्य (S omits श्रोतव्यस्य) श्रुतस्य अभिलष्यमाणस्य च (N वा instead of च) आगमस्य उभस्यापि निर्वेदभावत्वम् (SK भाक्त्वम्)। अनेन चेदमुक्तम् अविद्यापद ( N अविद्यमद) निपतितप्रमात्रनुग्राहकशास्त्रश्रवणसंस्कारविप्रलम्भमहिमा अयं यत् तवास्थाने कुलक्षयादिदोषदर्शनम्। तत्तु तथाशासनबहुमानविगलने विगलिष्यति इति।
Sri Jayatritha
।।2.55।।लक्षणप्रश्नस्यैवोत्तरं प्रतीयते न तुस्थितधीः इत्यादेरित्यतस्तदुत्तरस्थानं दर्शयन्ननन्तरप्रकरणार्थं दर्शयति गमनादी ति। अभिसन्धिः प्रयोजनोद्देशः। ईषदभिसन्धिसूचनायातिशब्दः। प्रवृत्तिमात्रमिहाभिप्रेतं न भाषणादिकमेवेति ज्ञापनाय भाषणादीति नोक्तम्। व्यवहाराय लक्षणप्रश्नो घटते। प्रवृत्त्युद्देशप्रश्नस्तु व्यर्थ एव न च शक्यः प्रतिवक्तुम् अनेकेषां प्रवृत्त्युद्देश्यस्यैकरूपस्याभावादित्यभिप्रायेण भगवतोपेक्षितोऽसाविति किं न स्यात् किं तदुत्तरस्थानप्रदर्शनेन अन्यथाऽल्पमप्युद्देश्यं वक्तव्यमित्यत आह एव मिति। एवं भेरीताडनादावपि अचलेत्युक्तप्रकारेण परमानन्दतृप्तश्चेत्किमर्थं प्रवृत्तिं करोति न कुर्यात् करोति च तस्मादुक्तमसदित्युक्ताक्षेप एव। अत्राभिप्रेतप्रश्नस्तु मुखत एव। अतो नोपेक्षामर्हतीति भावः। एतच्चार्जुनस्य प्रेक्षावत्त्वाद्गम्यते एवं चेद्गमनादिप्रवृत्तिरित्युक्तः परिहारो न पूर्णः प्रवृत्तिकारणानुक्तेरित्यत आह प्रारब्धकर्मणे ति। ईषत्तिरोहितं ब्रह्म यस्यासौ तथोक्तः। परिहरति द्वितीयं प्रश्नम्या निशा इत्यादाविति शेषः। ननु सर्वकामप्रहाणं ज्ञानिलक्षणत्वेनोच्यते तत्कथमल्पाभिसन्ध्यङ्गीकारः इत्यत आह प्राय इति। कुतः सर्वशब्दसङ्कोच इत्यत आह शुकादीना मिति। विरुद्धकामस्येति शेषः। तच्च प्रवृत्तिलिङ्गेनागमाच्च ज्ञातव्यम्। अनुकूलकामस्तु सर्वथाऽस्त्येवातोऽपि सङ्कोच इत्यत आह त्वत्पादे ति। तां भक्तिम्। उपलक्षणमेतत्। प्रायेण विरुद्धकामत्यागो ज्ञानिनो लक्षणं चेदिन्द्रादीनां ज्ञानित्वं न स्यात् बहुतरविरुद्धकामदर्शनात्। तथाभूता अपि चेज्ज्ञानिनस्तर्हि देवदत्तादयोऽपि किं न स्युरित्यत आह यदे ति। आग्रहो विरुद्धकामाभिनिवेशः। एतत्प्रमाणेन स्थापयति तच्चोक्त मिति। आधिकारिका इति पुरुषविशेषसंज्ञाप्रजापाश्च तथा देवाः इत्यादिवचनात्। देवदत्तादिप्रतिबन्दीं मोचयति अत एवे ति। एतदागमोक्तादेव। आदिपदेन विरुद्धक्रोधादिग्रहणम्। अनेन कामशब्दः क्रोधादीनामुपलक्षणार्थ इति सूचितं भवति।ननु समाधिं कुर्वतो ज्ञानिनो लक्षणमेतदिति व्याक्रियताम् तथा सति प्रश्नवाक्यस्थंसमाधिस्थस्य इति पदं समञ्जसं स्यात् सर्वशब्दश्चासङ्कुचितार्थः स्यात् इन्द्रादिविषयाक्षेपाप्रसक्तिश्चेत्यत आह न चे ति। समाधिं कुर्वतः स्नेहनिषेधोऽनुगुण एवेत्यत आह नही ति। नात्र स्नेहनिषेधमात्रमुच्यते किन्तुतत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् 2।57 इति शुभाशुभार्थप्राप्तिपूर्वकं न च तत्प्राप्तिः समाधिं कुर्वतो ज्ञानिनोऽस्ति कुतः इत्यत उक्तम् असम्प्रज्ञाते ति। असम्प्रज्ञातः समाधिर्यस्यासौ तथोक्तः। बाह्यार्थानुसन्धानं यत्र नास्ति सोऽसम्प्रज्ञातसमाधिः इतरः सम्प्रज्ञातसमाधिरिति योगशास्त्रे प्रसिद्धिः। तथा च लक्षणमसम्भवि प्रसज्जेत्। सावकाशेभ्यो बहुभ्यो निरवकाशस्यैकस्य बलवत्त्वमिति भावः। एवं तर्हि सम्प्रज्ञातसमाधिस्थस्यैतल्लक्षणमस्तु तत्रोक्तदोषाभावादित्यत आह सम्प्रज्ञाते त्विति। यद्यपि सम्प्रज्ञातसमाधौ शुभाशुभप्रतीतिसम्भवेनासम्भवित्वं नाम लक्षणविरोधो नास्ति तथापि कामादिहानं समाधिस्थ एव पुंसि इति नियमो नास्ति समाधिस्थेऽपि ज्ञानिनि विद्यमानत्वात् तथा चातिव्याप्तिः स्यादित्यर्थः। असमाधिस्थेऽपि ज्ञानिनि कामाद्यभावः कुतः इत्यत आह कामादय इति। तदर्थं सर्वथेति विशेषणप्रक्षेपेऽपि पुरुषविशेषेऽतिव्याप्तिपरिहारो दुर्घट एव। न चास्मन्मतेऽप्यव्याप्तिदोषः असम्प्रज्ञातसमाधिस्थ व्यतिरिक्तविषयत्वात्। सम्भवतस्तु तद्विषयत्वादिति। कामानां मनोगतत्वाद्व्यर्थं विशेषणमित्यतो नेदं विशेषणम् किन्तु सर्वकामत्यागस्यासम्भवित्वमाशङ्क्य तदुपपादनाय युक्तिरियमुक्तेत्याह मनोगता इति। तत्रैव मनस्येव। कामज्ञानयोर्विरोधः कुतः इत्यत आह विरोधश्चे ति। रसो राग इति वक्ष्यति। ननु सर्वकामप्रहाणमस्मदादिषु न दृष्टम् तद्दृष्टान्तेन ज्ञानिष्वपि तदभावानुमानादसम्भवित्वं लक्षणस्येत्यत आह न चे ति। कुतः उदाहृतप्रमाणविरोधात्। प्रमाणविरुद्धार्थानुमाने पण्डितमूर्खादिपुरुषवैचित्र्यापलापप्रसङ्गादित्याह पुरुषे ति। आत्मन्यात्मने ति पदद्वयेन जीव एवात्रोच्यत इति कश्चित् शं.चा. तृतीयान्तेन मन इत्यपरः रामानुजः तदुभयमसदिति भावेनाह आत्मने ति। स्थितः सन्निति शेषोक्तिः। वाक्यार्थं वदन् स्वव्याख्यानानुपपत्तौ परव्याख्यानुपपत्तौ च युक्तिमाह आत्माख्य इति। तस्मिन् स्थितस्य तदेकाग्रचित्तस्य अत्र त्यक्तविषयस्यापि तुष्टिरुच्यते। सा च परमात्मपरिग्रहे सम्भवति नान्यथेत्यर्थः। कुतः इत्यत आह विषया निति। ततः किम् इत्यत आह अत इति।
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.55।।एतेषां चतुर्णां प्रश्नानां क्रमेणोत्तरं भगवानुवाच यावदध्यायसमाप्ति कामान् कामसंकल्पादीन्मनोवृत्तिविशेषान् प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिभेदेन तन्त्रान्तरे पञ्चधा प्रपञ्चितान्सर्वान्निरवशेषान्प्रकर्षेण कारणबाधेन यदा जहाति परित्यजति सर्ववृत्तिशून्य एव यदा भवति स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते। समाधिस्थ इति शेषः। कामानामनात्मधर्मत्वेन परित्यागयोग्यतामाह मनोगतानिति। यदि ह्यात्मधर्माः स्युस्तदा न त्यक्तुं शक्येरन् वह्न्यौष्ण्यवत्स्वाभाविकत्वात्। मनसस्तु धर्मा एते। अतस्तत्परित्यागेन परित्यक्तुं शक्या एवेत्यर्थः। ननु स्थितप्रज्ञस्य मुखप्रसादलिङ्गगम्यः संतोषविशेषः प्रतीयते स कथं सर्वकामपरित्यागे स्यादित्यत आह आत्मन्येव परमानन्दरूपे नत्वनात्मनि तुच्छे आत्मना स्वप्रकाशचिद्रूपेण भासमाने नतु वृत्त्या तुष्टः परितृप्तः परमपुरुषार्थलाभात्। तथाच श्रुतिःयदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते इति। तथाच समाधिस्थः स्थितप्रज्ञ एवंविधैर्लक्षणवाचिभिः शब्दैर्भाष्यत इति प्रथमप्रश्नस्योत्तरम्।
Sri Purushottamji
।।2.55।।भगवान् पृष्टस्य स्थितप्रज्ञस्य परिभाषामाह प्रजहातीति। हे पार्थ मद्वाक्यश्रवणयोग्य। पृथायाः स्वभक्तायाः पुत्रत्वात् स्ववाक्यश्रवणयोग्यत्वे तथा सम्बोधितवान्। यदा मनोगतान् स्वमनसि स्थितान् न तु भगवदिच्छया कृपया च प्राप्तव्यान्। भक्त्यादिरूपान् सर्वान् कामान् प्रजहाति प्रकर्षेण त्यजति। स्मरणाभावः प्रकर्षः। ननु कामत्यागे किं फलमित्याशङ्क्याह आत्मन्येवेति। आत्मन्येव स्वात्मस्वरूपभूते भवति। आत्मनः स्वस्यैव जीवात्मस्वरूपेण स्वयमेव तदैक्यस्फूर्त्त्या तुष्ट इत्यर्थः। अयं भावः कामाः स्वसन्तोषदा भवन्तीति तदर्थयत्नेन तत्पूर्त्या तोषः स च लौकिक एवातस्तत्त्यागे चात्मस्फूर्त्या लौकिकसन्तोषो भवत्यात्मगामीति फलम्। यदैतादृशः स्यात्तदा स्थितप्रज्ञो निश्चलबुद्धिः स उच्यते कथ्यत इति।
Sri Shankaracharya
।।2.55।। प्रजहाति प्रकर्षेण जहाति परित्यजति यदा यस्मिन्काले सर्वान् समस्तान् कामान् इच्छाभेदान् हे पार्थ मनोगतान् मनसि प्रविष्टान् हृदि प्रविष्टान्। सर्वकामपरित्यागे तुष्टिकारणाभावात् शरीरधारणनिमित्तशेषे च सति उन्मत्तप्रमत्तस्येव प्रवृत्तिः प्राप्ता इत्यत उच्यते आत्मन्येव प्रत्यगात्मस्वरूपे एव आत्मना स्वेनैव बाह्यलाभनिरपेक्षः तुष्टः परमार्थदर्शनामृतरसलाभेन अन्यस्मादलंप्रत्ययवान् स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः विद्वान् तदा उच्यते। त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणः संन्यासी आत्माराम आत्मक्रीडः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः।।किञ्च
Sri Vallabhacharya
।।2.55।।तत्रोत्तरम् प्रजहातीति। इदं तत्स्वरूपमुच्यत इत्यर्थः।
Swami Sivananda
2.55 प्रजहाति casts off? यदा when? कामान् desires? सर्वान् all? पार्थ O Partha? मनोगतान् of the mind? आत्मनि in the Self? एव only? आत्मना by the Self? तुष्टः satisfied? स्थितप्रज्ञः of steady wisdom? तदा then? उच्यते (he) is called.Commentary In this verse Lord Krishna gives His answer to the first part of Arjunas estion.If anyone gets sugarcandy will he crave for blacksugar Certainly not. If anyone can attain the supreme bliss of the Self? will he thirst for the sensual pleasures No? not at all. The sumtotal of all the pleasures of the world will seem worthless for the sage of steady wisdom who is satisfied in the Self. (Cf.III.17VI.7?8).