Chapter 2, Verse 72
Verse textएषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।।
Verse transliteration
eṣhā brāhmī sthitiḥ pārtha naināṁ prāpya vimuhyati sthitvāsyām anta-kāle ’pi brahma-nirvāṇam ṛichchhati
Verse words
- eṣhā—such
- brāhmī sthitiḥ—state of God-realization
- pārtha—Arjun, the son of Pritha
- na—never
- enām—this
- prāpya—having attained
- vimuhyati—is deluded
- sthitvā—being established
- asyām—in this
- anta-kāle—at the hour of death
- api—even
- brahma-nirvāṇam—liberation from Maya
- ṛichchhati—attains
Verse translations
Dr. S. Sankaranarayan
O son of Prtha! This is the Brahmanic state; having attained this, one never gets deluded again. Even by remaining in this [state] for a while, one attains at the time of death the Brahman, the Transcendent One.
Swami Ramsukhdas
।।2.72।। हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थितिमें यदि अन्तकालमें भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
Swami Tejomayananda
।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।
Swami Adidevananda
This is the Brahmic state, O Arjuna. No one attaining to this is deluded. By abiding in this state even at the hour of death, one will attain the Self.
Swami Gambirananda
O Partha, this is the state of being established in Brahman. One does not become deluded after attaining this; one attains identification with Brahman by being established in this state even in the closing years of one's life.
Swami Sivananda
O son of Pritha, this is the eternal state, the Brahmic seat. Attaining this, one is not deluded. Being established in it, one attains oneness with Brahman even at the end of life.
Shri Purohit Swami
O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which, if one attains, it shall never be taken away. Even at the time of leaving the body, one will remain firmly enthroned there and become one with the Eternal.
Verse commentaries
Sri Vallabhacharya
।।2.72।।उक्तां योगवन्निष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति एषेति। ब्रह्म हि निर्दोषं समम् तस्यैवेति ब्राह्मी ब्रह्मसम्बन्धिनी वा स्थितिः स्थितधीलक्षणा। अस्यां स्थित्वा ब्रह्मसुखं प्राप्नोति।
Swami Sivananda
2.72 एषा this? ब्राह्मी of Brahmic? स्थितिः state? पार्थ O Partha? न not? एनाम् this? प्राप्य having obtained? विमुह्यति is deluded? स्थित्वा being established? अस्याम् in this? अन्तकाले at the end of life? अपि even? ब्रह्मनिर्वाणम् oneness with Brahman? ऋच्छति attains.Commentary The state described in the previous verse -- to renounce everything and to live in Brahman -- is the Brahmic state or the state of Brahman. If one attains to this state one is never deluded. He attains Moksha if he stays in that state even at the hour of his death. It is needless to say that he who gets establised in Brahman throughout his life attains to the state of Brahman or,BrahmaNirvana (Cf.VIII.5?6).Maharshi Vidyaranya says in his Panchadasi that Antakala here means the moment at which Avidya or mutual superimposition of the Self and the notSelf ends.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the second discourse entitledThe Sankhya Yoga.,
Sri Madhusudan Saraswati
।।2.72।।तदेवं चतुर्णां प्रश्नानामुत्तरव्याजेन सर्वाणि स्थितप्रज्ञलक्षणानि मुमुक्षुकर्तव्यतया कथितानि संप्रति कर्मयोगफलभूतां सांख्यनिष्ठां फलेन स्तुवन्नुपसंहरति एषा स्थितप्रज्ञलक्षणव्याजेन कथिताएषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिः इति च प्रागुक्ता स्थितिर्निष्ठा सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकपरमात्मज्ञानलक्षणा ब्राह्मी ब्रह्मविषया। हे पार्थ एनां स्थितिं प्राप्य यः कश्चिदपि पुनर्न विमुह्यति। नहि ज्ञानबाधितस्याज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति अनादित्वेनोत्पत्त्यसंभवात्। अस्यां स्थितावन्तकालेऽप्यन्त्येऽपि वयसि स्थित्वा ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मणि निर्वाणं निर्वृतिं ब्रह्मरूपं निर्वाणमिति वा ऋच्छति गच्छत्यभेदेन। किमु वक्तव्यं यो ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवमस्यां ब्राह्म्यां स्थिताववतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छतीत्यपिशब्दार्थः।
Swami Ramsukhdas
।।2.72।। व्याख्या-- 'एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ'-- यह ब्राह्मी स्थिति है अर्थात् ब्रह्मको प्राप्त हुए मनुष्यकी स्थिति है। अहंकाररहित होनेसे जब व्यक्तित्व मिट जाता है, तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्ममें होती है। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही व्यक्तित्व था। उस सम्बन्धको सर्वथा छोड़ देनेसे योगीकी अपनी कोई व्यक्तिगत स्थिति नहीं रहती। अत्यन्त नजदीकका वाचक होनेसे यहाँ 'एषा' पद पूर्वश्लोकमें आये 'विहाय कामान्' 'निःस्पृहः निर्ममः' और 'निरहङ्कारः' पदोंका लक्ष्य करता है। भगवान्के मुखसे 'तेरी बुद्धि जब मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्तिसे तर जायगी, तब तू योगको प्राप्त हो जायगा'--ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वह स्थिति क्या होगी? इसपर अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये। उन चारों प्रश्नोंका उत्तर देकर भगवान्ने यहाँ वह स्थिति बतायी कि वह ब्राह्मी स्थिति है। तात्पर्य है कि वह व्यक्तिगत स्थिति नहीं है अर्थात् उसमें व्यक्तित्व नहीं रहता। वह नित्ययोगकी प्राप्ति है। उसमें एक ही तत्त्व रहता है। इस विषयकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ 'पार्थ' सम्बोधन दिया गया है। 'नैनां प्राप्य विमुह्यति'-- जबतक शरीरमें अहंकार रहता है, तभीतक मोहित होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु जब अहंकारका सर्वथा अभाव होकर ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव हो जाता है, तब व्यक्तित्व टूटनेके कारण फिर कभी मोहित होनेकी सम्भावना नहीं रहती। सत् और असत्को ठीक तरहसे न जानना ही मोह है। तात्पर्य है कि स्वयं सत् होते हुए भी असत्के साथ अपनी एकता मानते रहना ही मोह है। जब साधक असत्को ठीक तरहसे जान लेता है, तब असत्से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (टिप्पणी प0 109) और सत्में अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। इस स्थितिका अनुभव होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता (गीता 4। 35)। 'स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति'-- यह मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। इसलिये भगवान् यह मौका देते हैं कि साधारण-से-साधारण और पापी-से-पापी व्यक्ति ही क्यों न हो, अगर वह अन्तकालमें भी अपनी स्थिति परमात्मामें कर ले अर्थात् जडतासे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, तो उसे भी निर्वाण (शान्त) ब्रह्मकी प्राप्ति हो जायगी, वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा। ऐसी ही बात भगवान्ने सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कही है कि 'अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ एक भगवान् ही हैं--ऐसा प्रयाणकालमें भी मेरेको जो जान लेते हैं, वे मेरेको यथार्थरूपसे जान लेते हैं अर्थात् मेरेको प्राप्त हो जाते हैं।' आठवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा कि 'अन्तकालमें मेरा स्मरण करता हुआ कोई प्राण छोड़ता है, वह मेरेको ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।'दूसरी बात, उपर्युक्त पदोंसे भगवान् उस ब्राह्मी स्थितिकी महिमाका वर्णन करते हैं कि इसमें यदि अन्तकालमें भी कोई स्थित हो जाय, तो वह शान्त ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। जैसे समबुद्धिके विषयमें भगवान्ने कहा था कि इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा कर लेता है (2। 40) ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि अन्तकालमें भी ब्राह्मी स्थिति हो जाय, जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय, तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस स्थितिका अनुभव होनेमें जडताका राग ही बाधक है। यह राग अन्तकालमें भी कोई छोड़ देता है तो उसको अपनी स्वतःसिद्ध वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है।यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो अनुभव उम्रभरमें नहीं हुआ, वह अन्तकालमें कैसे होगा? अर्थात् स्वस्थ अवस्थामें तो साधककी बुद्धि स्वस्थ होगी, विचार-शक्ति होगी, सावधानी होगी तो वह ब्राह्मी स्थितिका अनुभव कर लेगा; परन्तु अन्तकालमें प्राण छूटते समय बुद्धि विकल हो जाती है, सावधानी नहीं रहती--ऐसी अवस्थामें ब्राह्मी स्थितिका अनूभव कैसे होगा? इसका समाधान यह है कि मृत्युके समयमें जब प्राण छूटते हैं, तब शरीर आदिसे स्वतः ही सम्बन्ध-विच्छेद होता है। यदि उस समय उस स्वतःसिद्ध तत्त्वकी तरफ लक्ष्य हो जाय, तो उसका अनुभव सुगमतासे हो जाता है। कारण कि निर्विकल्प अवस्थाकी प्राप्तिमें तो बुद्धि, विवेक आदिकी आवश्यकता है, पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्तिमें केवल लक्ष्यकी आवश्यकता है (टिप्पणी प0 110) । वह लक्ष्य चाहे पहलेके अभ्याससे हो जाय, चाहे किसी शुभ संस्कारसे हो जाय, चाहे भगवान् या सन्तकी अहैतुकी कृपासे हो जाय लक्ष्य होनेपर उसकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है।यहाँ 'अपि' पदका तात्पर्य है कि अन्तकालसे पहले अर्थात् जीवित-अवस्थामें यह स्थिति प्राप्ति कर ले तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है; परन्तु अगर अन्तकालमें भी यह स्थिति हो जाय अर्थात् निर्मम-निरहंकार हो जाय तो वह भी मुक्त हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि यह स्थिति तत्काल हो जाती है। स्थितिके लिये अभ्यास करने, ध्यान करने, समाधि लगानेकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है।भगवान्ने यहाँ कर्मयोगके प्रकरणमें 'ब्रह्मनिर्वाणम्' पद दिया है। इसका तात्पर्य है कि जैसे सांख्ययोगीको निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है (गीता 5। 2426) ऐसे ही कर्मयोगीको भी निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। इसी बातको पाँचवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि सांख्ययोगी द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, वही स्थान कर्मयोगीद्वारा भी प्राप्त किया जाता है।
Sri Purushottamji
।।2.72।।उपसंहरति एषेति। एषा ब्राह्मी ब्रह्मनिष्ठस्य स्थितिः। एनां प्राप्य न विमुह्यति मोहं न प्राप्नोति। अन्तकाले क्षणमप्यस्यां स्थित्वा ब्रह्मनिर्वाणं पुरुषोत्तममुक्तिं प्राप्नोति। गीतायाश्चोपनिषद्रूपत्वादत्र ब्रह्मपदं पुरुषोत्तमवाचकमेव। आजन्मस्थितौ तु किं वक्तव्यम् इति भावः।इति श्रीमद्भगवद्गीताटीकायां गीतामृततरङ्गिण्यां द्वितीयोऽध्यायः।।2।।
Swami Chinmayananda
।।2.72।। सब इच्छाओं के त्याग का अर्थ है अहंकार का त्याग। अहंकार रहित अवस्था निष्क्रिय अर्थहीन शून्य नहीं है। जहाँ भ्रान्तिजनित अहंकार समाप्त हुआ वहीं पर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित होता है। अपने हृदय में स्थित आत्मा को पहचानने का ही अर्थ है उसी समय सर्वत्र व्याप्त नित्य ब्रह्म को पहचानना। अहंकार के नष्ट होने पर नित्य चैतन्य आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् उसके साथ एकत्व का अनुभव ही होता है। अत इस साक्षात्कार को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।यहाँ एक शंका उठ सकती है कि क्या आत्मानुभव के पश्चात् भी हमें पुन मोहित होकर अहंकार से उत्पन्न दुखों का भोग हो सकता है ऐसे किसी पुनर्मोह का यहाँ निषेध करके भगवान् हमारे भय को दूर कर देते हैं और भी एक बात है कि आत्मसाक्षात्कार का युवावस्था में ही होना आवश्यक नहीं हैं। वृद्धावस्था अथवा जीवन के अन्तिम क्षणों में भी यदि मनुष्य अपने स्वयंसिद्ध नित्य स्वरूप को पहचान लेता है तब भी वह अनुभव ब्राह्मी स्थिति के लिए पर्याप्त है।मिथ्या का निषेध और सत्य का प्रतिपादन यही वह मार्ग है जिसका उपनिषदों में आत्मप्राप्ति के लिए उपदेश है। कर्मयोग उस ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है जिसका निरूपण व्यासजी ने गीता में अपनी मौलिक शैली में किया है। अनासक्त भाव से सिद्धि और असिद्धि में समान रहते हुए कर्म करने का अर्थ है अहंकार के अधिकार को ही समाप्त करना और इस प्रकार अनजाने ही वहाँ उच्चतर सत्य की स्थापना करना। अस्तु वेदान्त के निदिध्यासन से गीता में वर्णित कर्मयोग की साधना भिन्न नहीं है। परन्तु अर्जुन भगवान् के केवल वाच्यार्थ को ही ग्रहण करता है और उसके मन में एक सन्देह उत्पन्न होता है जिसे वह तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में व्यक्त करता है। अत अगले अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हैं।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायांयोगाशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनाम द्वितीयोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का सांख्ययोग नामक दूसरा अध्याय समाप्त होता है।कपिल मुनि जी के सांख्य दर्शन के अर्थ में इस अध्याय का नाम सांख्ययोग नहीं है। यहाँ सांख्य शब्द का प्रयोग उसकी व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है जिसके अनुसार सांख्य का अर्थ हैं किसी विषय का युक्तियुक्त वह विवेचन जिसमें अनेक तर्क प्रस्तुत करने के पश्चात् किसी विवेकपूर्ण निष्कर्ष पर हम पहुँचते हैं। इस अर्थ में तत्त्वज्ञान से पूर्ण इस अध्याय को संकल्प वाक्य में सांख्ययोग कहा गया है।यह सत्य है कि मूल महाभारत में गीता के अध्यायों के अन्त में यह संकल्प वाक्य नहीं मिलते। किसी एक व्यक्ति को इनकी रचना का श्रेय देने के विषय में व्याख्याकारों में मतभेद है। तथापि यह स्वीकार किया जाता है कि एक अथवा अनेक विद्वानों ने प्रत्येक अध्याय के विषय का अध्ययन कर उसका उचित नामकरण किया है। गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए वास्तव में ये नाम उपयोगी हैं। श्री शंकराचार्य जी ने इस विषय पर भाष्य नहीं लिखा है।
Sri Anandgiri
।।2.72।।तत्र तत्र संक्षेपविस्तराभ्यां प्रदर्शितां ज्ञाननिष्ठामधिकारिप्रवृत्त्यर्थत्वेन स्तोतुमुत्तरश्लोकमवतारयति सैषेति। गृहस्थः संन्यासीत्युभावपि चेन्मुक्तिभोगिनौ किं तर्हि कष्टेन सर्वथैव संन्यासेनेत्याशङ्क्य संन्यासिव्यतिरिक्तानामन्तरायसंभवादपेक्षितः संन्यासो मुमुक्षोरित्याह एषेति। स्थितिमेव व्याचष्टे सर्वमिति। न विमुह्यतीति पुनर्नञोऽनुकर्षणमन्वयार्थं संन्यासिनो विमोहाभावेऽपि गृहस्थो धनहान्यादिनिमित्तं प्रायेण विमुह्यति। विक्षिप्तः सन्परमार्थविवेकरहितो भवतीत्यर्थः। यथोक्ता ब्राह्मी स्थितिः सर्वकर्मसंन्यासपूर्विका ब्रह्मनिष्ठा तस्यां स्थित्वा तामिमामायुषश्चतुर्थेऽपि भागे कृत्वेत्यर्थः। अपिशब्दसूचितं कैमुतिकन्यायमाह किमु वक्तव्यमिति। तदेवं तत्त्वंपदार्थौ तदैक्यं वाक्यार्थस्तज्ज्ञानादेकाकिनो मुक्तिस्तदुपायश्चेत्येतेषामेकैकत्रश्लोके प्राधान्येन प्रदर्शितमिति निष्ठाद्वयमुपायोपेयभूतमध्यायेन सिद्धम्।इति परमहंस श्रीमदानन्दगिरिकृतटीकायां द्वितीयोऽध्यायः।।2।।
Sri Shankaracharya
।।2.72।। एषा यथोक्ता ब्राह्मी ब्रह्मणि भवा इयं स्थितिः सर्वं कर्म संन्यस्य ब्रह्मरूपेणैव अवस्थानम् इत्येतत्। हे पार्थ न एनां स्थितिं प्राप्य लब्ध्वा न विमुह्यति न मोहं प्राप्नोति। स्थित्वा अस्यां स्थितौ ब्राह्म्यां यथोक्तायां अन्तकालेऽपि अन्त्ये वयस्यपि ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मनिर्वृतिं मोक्षम् ऋच्छति गच्छति। किमु वक्तव्यं ब्रह्मचर्यादेव संन्यस्य यावज्जीवं यो ब्रह्मण्येव अवतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येद्वितीयोऽध्यायः।।
Sri Dhanpati
।।2.72।।ज्ञाननिष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति एषेति। एषा यथोक्ता ब्रह्मणि भवा स्थितिः। सर्वं परित्यज्य ब्रह्मरुपेणैवावस्थानमिति यावत्।ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति इति श्रुत्या ब्रह्मशब्देनात्र ब्रह्मविद्गृह्यत इति व्याख्यानं त्वाचार्यैर्न कृतं मुख्यार्थेन वाक्यार्थनिर्वाहेऽमुख्यार्थस्यानौचित्यात्। एनां स्थितिं लब्ध्वा न विमुह्यति मोहं न प्राप्नोति। अस्यां ब्राहृयां स्थितावन्तकाले वृद्धावस्थायामपि स्थित्वा ब्रह्मणि निर्वृतिं मोक्षमृच्छति गच्छति किं वक्तव्यं प्रथमावस्थात् आस्भ्य ब्रह्मण्येव योऽवतिष्ठते स ब्रह्मनिर्वाणमृच्छतीति। अन्तकाले मृत्युसमये इत्यर्थस्तु न तस्मिन्काले एतादृशस्थित्यसंभवात्। नतु तदा विवशस्य स्मरणोद्यमः संभवतीति। यंयं वापीति श्लोकस्थस्वोक्तिविरोधाच्च ब्रह्मणि निर्वाणमिति भाष्यस्योपलक्षणत्वेन ब्रह्मरुपं निर्वाणमित्यर्थोऽप्यविरुद्धः। निर्गतं वानं गमनं यस्मिन्नित्यर्थोऽपि तवाप्ययं शोकमोहाभिभूतत्वरुपः स्वभावो नोचितः किंतु जीवन्मुक्तस्वभाव एवेति सूचयन्नाह पार्थेति। यद्वा मत्संबन्धिनस्तव मयि ब्रह्मण्येवावस्थानं युक्तमिति सूचयन्नाह पार्थेति। तदनेन द्वितीयाध्यायेन तत्पदलक्ष्यं परमात्मानमेव त्वंपदलक्ष्यत्वेन प्रतिपादयता साक्षाच्छोकमोहनिवृत्तिहेतुभूतां ज्ञाननिष्ठां लक्षणसहितां प्राधान्येन तदुपायभूतां योगनिष्ठां च गुणभावेन प्रदर्शयता उपायोपेयभूतं निष्ठाद्वयं प्रकाशितम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां गीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां द्वितीयोऽध्यायः।।2।।
Sri Madhavacharya
।।2.72।।उपसंहरति एषेति। ब्राह्मी स्थितिः ब्रह्मविषया स्थितिः लक्षणम्। अन्तकालेऽप्यस्यां स्थित्वैव ब्रह्म गच्छति अन्यथा जन्मान्तरं प्राप्नोति।यं यं वाऽपि 8।6 इति वक्ष्यमाणत्वात्। ज्ञानिनामपि सति प्रारब्धकर्मणि शरीरान्तरं युक्तम्।भोगेन त्वितरे इति ह्युक्तम्। सन्ति हि बहुशरीरफलानि कर्माणि कानिचित्सप्तजन्मनि विप्रः स्यात् इत्यादेः दृष्टेश्च ज्ञानिनामपि बहुशरीरप्राप्तेः। तथा ह्युक्तम्स्थितप्रज्ञोऽपि यस्तूर्ध्वः प्राप्य रुद्रपदं गतः। साङ्कर्षणं ततो मुक्तिमगाद्विष्णुप्रसादतः इति गारुडे।महादेव परे जन्मनि तव मुक्तिर्निरूप्यते इति नारदीये।निश्चितफलं च ज्ञानं तस्य तावदेव चिरम् छां.उ.6।14।2़। यदु৷৷. च नार्चिषमेवाभिसम्भवन्ति छां.उ.4।15।5 इत्यादिश्रुतिभ्यः न च कायव्यूहापेक्षा तद्यथेषीकातूलम् छां.उ.5।24।3। तद्यथा पुष्करपलाशे छां.उ.4।14।3ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि 4।37 इत्यादिवचनेभ्यः। प्रारब्धे त्वविरोधः प्रमाणाभावाच्च। न च तच्छास्त्रं प्रमाणम्।अक्षपादकणादानां साङ्ख्ययोगजटाभृताम्। मतमालम्ब्य ये वेदं दूषयन्त्यल्पचेतसः इति निन्दावचनात्।यत्र तु स्तुतिस्तत्र शिवभक्तानां स्तुतिपरत्वमेव न सत्यत्वम्। न हि तेषामपीतरग्रन्थविरुद्धार्थे प्रामाण्यम्। तथाह्युक्तम्एष मोहं सृजाम्याशु यो जनान्मोहयिप्यति। त्वं च रुद्र महाबाहो मोहशास्त्राणि कारय। अतथ्यानि वितथ्यानि दर्शयस्व महाभुज। प्रकाशं कुरु चात्मानमप्रकाशं च मां कुरु इति वाराहे।कुत्सितानि च मिश्राणि रुद्रो विष्णुप्रचोदितः। चकार शास्त्राणि विभुः ऋषयस्तत्प्रचोदिताः। दधीचाद्याः पुराणानि तच्छास्त्रसमयेन तु। चक्रुर्वेदैश्च ब्राह्मणानि वैष्णवा विष्णुचोदिताः। पञ्चरात्रं भारतं च मूलरामायणं तथा। तथा पुराणं भागवतं विष्णुर्वेद इतीरितः। अतः शैवपुराणानि योज्यान्यन्याविरोधतः इति नारदीये।अतो ज्ञानिनां भवत्येव मुक्तिः। भीष्मादीनां तु तत्क्षणे मुक्त्यभावः। स्मरंस्त्यजतीति वर्तमानव्यपदेशो हि कृतः। तच्चोक्तम्ज्ञानिनां क्रमयुक्तानां कायत्यागक्षणो यदा। विष्णुमाया तदा तेषां मनो बाह्यं करोति हि इति गारुडे। न चान्येषां तदा स्मृतिर्भवति।बहुजन्मविपाकेन भक्तिज्ञानेन ये हरिम्। भजन्ति तत्स्मृतिं त्वन्ते देवो याति न चान्यथा इति ब्रह्मवैवर्ते। निर्वाणमशरीरम्।कायो बाणं शरीरं च इत्यभिधानात्।एतद्बाणमवष्टभ्य इति प्रयोगाच्च। निर्वाणशब्दप्रतिपादनंअनिन्द्रियाः म.भा.12।336।29 इत्यादिवत्। कथमन्यथा सर्वपुराणादिप्रसिद्धाऽऽकृतिर्भगवत उपपद्यते। न चान्यद्भगवत उत्तमं ब्रह्म।ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शद्ब्यते इति भागवते।भगवन्तं परं ब्रह्मपरं ब्रह्मञ्जनार्दन।परमं यो महद्ब्रह्म म.भा.13।149।9यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। 15।18योऽप्तावतीन्द्रियग्राह्यः।नास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति।न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यः 11।43 इत्यादिभ्यः। न च तस्य ब्रह्मणोऽशरीरत्वादेतत्कल्प्यम् तस्यापि शरीरश्रवणात् आनन्दरूपममृतम् मुं.उ.2।2।7 सुवर्णज्योतिः तै.उ.3।10।6 दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः छां.उ.8।1।2 इत्यादिषु।यदि रूपं न स्यात् आनन्दमित्येव स्यात् न त्वानन्दरूपमिति। कथं सुवर्णरूपत्वं स्यादरूपस्य कथं दहरत्वम् दहरस्थश्च केचित्स्वदेहेत्यादौ रूपवानुच्यते सहस्रशीर्षा पुरुषः ऋक्सं.8।4।17।1य.सं.31।1 रुक्मवर्णं कर्तारं मुं.उ.3।1।3 आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् य.सं.31।18 सर्वतः पाणिपादं तत् 13।13श्वे.उ.3।16 विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः। ऋक्सं. 8।3।16।3य.सं.17।19 इत्यादिवचनात्। विश्वरूपाध्यायादेश्च रूपवानवसीयते। अतिपरिपूर्णतमज्ञानैश्वर्यवीर्यानन्दयशश्श्रीशक्त्यादिमांश्च भगवान्। पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकीं ज्ञानबलक्रिया च। श्वे.उ.6।8 यः सर्वज्ञः मुं.उ.1।1।92।2।7 आनन्दं ब्रह्मणः तै.उ.2।4।12।9।1 एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति। बृ.उ.4।3।32अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यसहस्रलक्षामितकान्तिकान्तम्।मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48विज्ञानशक्तिरहमासमन्तशक्तेः भाग.3।9।24तुर्यं तत्सर्वदृक् सदा। गौ.पा.का.1।12आत्मानमन्यं च स वेद विद्वान् भाग.11।11।7अन्यतमो मुकुन्दात्को नाम लोके भगवत्पदार्थः भाग.3।18।21ऐश्वर्यस्य समग्रस्य। वि.पु.6।5।74अतीव परिपूर्णं ते सुखं ज्ञानं च सौभगम्। यच्चात्ययुक्तं स्मर्तुं वा शक्तः कर्तुमतः परः इत्यादिभ्यः। तानि सर्वाण्यन्योन्यानन्यरूपाणि। विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् तै.उ.3।6 सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तै.उ.2।1 यस्य ज्ञानमयं तपः मुं.उ.।1।19 समा भग प्रविश स्वाहा तै.उ.1।4।3न तस्य प्राकृता मूर्तिर्मांसमेदोस्थिसम्भवा। न योगित्वादीश्वरत्वात्सत्यरूपोऽच्युतो विभुः। सद्देहःसुखगन्धश्च ज्ञानभाः सत्पराक्रमः। ज्ञानज्ञानः सुखसुखः स विष्णुः परमोऽक्षरः इति पैङ्गिखिले।देहोऽयं मे सदानन्दो नायं प्रकृतिनिर्मितः। परिपूर्णश्च सर्वत्र तेन नारायणोऽस्म्यहम्। इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते।तदेव लीलया चासौ परिच्छिन्नादिरूपेण दर्शयति मायया।न च गर्भैऽवसद्देव्या न चापि वसुदेवतः। न चापि राघवाज्जातो न चापि जमदग्नितः। नित्यानन्दोऽव्ययोऽप्येवं क्रीडते मोघदर्शनः इति च पाद्मे।न वै स आत्माऽऽत्मव (तां सुहृत्तमाः सक्तस्त्रिलोक्यां) तामधीश्वरो भुङ्क्ते हि दुःखं भगवान्वासुदेवः भाग.5।19।6स्वर्गादेरीशिताञ्जः परमसुखनिधिर्बोधरूपोऽय बोधं लोकानां दर्शयन्यो मुनिसुतहृतात्मप्रियार्थे जगाम।स ब्रह्मवन्द्यचरणो जनमोहनाय स्त्रीसङ्गिनामिति रतिं प्रथयंश्चचार।पूर्तेरचिन्त्यवीर्यो यो यश्च दाशरथिः स्वयम्। रुद्रवाक्यमृतं कर्तुमजितो जितवत्स्थितः। योऽजितो विजितो भक्त्या गाङ्गेयं न जघान ह। न चाम्बां ग्राहयामास करुणः कोऽपरस्ततः इत्यादिभ्यश्च स्कान्दे।न तत्र संसारधर्मा निरूप्याः यत्र च परापरभेदोऽवगम्यते तत्राज्ञबुद्धिमपेक्ष्यावरत्वं विश्वरूपमपेक्ष्य अन्यत्र। तच्चोक्तम् परिपूर्णानि रूपाणि समान्यखिलरूपतः। तथाप्यपेक्ष्य मन्दानां दृष्टिं त्वामृषयोऽपि हि। परावरं वदन्त्येव ह्यभक्तानां विमोहनम् इति गारु़डे। न चात्र किञ्चिदुपचारादिति वाच्यम् अचिन्त्यशक्तेः पदार्थवैचित्र्याच्चेत्युक्तम्।रामकृष्णादिरूपाणि परिपूर्णानि सर्वदा। न चाणुमात्रं भिन्नानि तथाप्यस्प्तान्विमोहसि इत्यादेश्च नारदीये। तस्मात्सर्वदा सर्वरूपेष्वपरिगणितानन्तगुणगणं नित्यनिरस्ताशेषदोषं च नारायणाख्यं परं ब्रह्मापरोक्षज्ञान्यृच्छतीति च सिद्धम्।
Sri Neelkanth
।।2.72।।प्रतिपादितां कर्मयोगप्राप्यां सांख्ययोगनिष्ठां फलेन स्तुवन्नुपसंहरति एषेति। एषा स्थितप्रज्ञलक्षणप्रसङ्गात्कथिता ब्राह्मी। ब्रह्मशब्देनात्र ब्रह्मविदुच्यते।ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। तस्येयं ब्राह्मी स्थितिर्निष्ठा एनां निष्ठां प्राप्य नरो न विमुह्यति पुनर्मोहं न प्राप्नोति। अस्यामन्तकालेऽपि स्थित्वेति सकृज्जातापीयं फलवती नतूपासनावच्चिराभ्याससापेक्षेत्युक्तम्। ब्रह्म ऋच्छति प्राप्नोति। किं लोकान्तरवद्गतिप्राप्यं ब्रह्म नेत्याह निर्वाणमिति। निर्गतं वानं गमनं यस्मिन्प्राप्ये ब्रह्मणि तन्निर्वाणम्। तथा च श्रुतिःन तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति इति। गतिमन्तरेण प्राणरूपोपाधिप्रविलयमात्राद्धटाकाशस्य महाकाशत्वप्राप्तिवत् जीवस्य ब्रह्मप्राप्तिमाह। अन्तकालेऽपीत्यपिशब्दाद्यो ब्रह्मचर्यादारभ्यात्र तिष्ठति स ब्रह्मनिर्वाणं कैमुतिकन्यायेन प्राप्नोतीति गम्यते। अस्याध्यायस्यार्थः संगृहीतो मधूसूदनश्रीपादैःज्ञानं तत्साधनं कर्म सत्त्वशुद्धिश्च तत्फलम्। तत्फलं ज्ञाननिष्ठैवेत्यध्यायेऽस्मिन्प्रकीर्तितम्।
Sri Ramanujacharya
।।2.72।। एषा नित्यात्मज्ञानपूर्विका असङ्गकर्मणि स्थितिः स्थितधीलक्षणा ब्राह्मी ब्रह्मप्रापिका। ईदृशीं कर्मस्थितिं प्राप्य न विमुह्यति न पुनः संसारम् आप्नोति। अस्यां स्थित्याम् अन्तिमे अपि वयसि स्थित्वा ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति निर्वाणमयं ब्रह्म गच्छति सुखैकतानम् आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः।एवम् आत्मयाथात्म्यं युद्धाख्यस्य च कर्मणः तत्प्राप्तिसाधनताम् अजानतः शरीरात्मज्ञानेन मोहितस्य तेन च मोहेन युद्धात् निवृत्तस्य तन्मोहशान्तये नित्यात्मविषया सांख्यबुद्धिः तत्पूर्विका च असङ्गकर्मानुष्ठानरूपकर्मयोगविषया बुद्धिः स्थितप्रज्ञतायोगसाधनभूता द्वितीयेऽध्याये प्रोक्ता। तदुक्तम् नित्यात्मासङ्गकर्मेहागोचरा सांख्ययोगधीः। द्वितीये स्थितधीलक्ष्या प्रोक्ता तन्मोहशान्तये।। (गीतार्थसंग्रहे 6) इति।
Sri Sridhara Swami
।।2.72।।उक्तां ज्ञाननिष्ठां स्तुवन्नुपसंहरति एषेति। ब्राह्मीस्थितिर्ब्रह्मज्ञाननिष्ठा एषा एवंविधा। एनां परमेश्वराराधनेन शुद्धान्तःकरणः पुमान् प्राप्य न विमुह्यति पुनः संसारमोहं न प्राप्नोति। यतः अन्तकाले मृत्युसमयेऽप्यस्यां क्षणमात्रमपि स्थित्वा ब्रह्मणि निर्वाणं लयमृच्छति प्राप्नोति किं पुनर्वक्तव्यं बाल्यमारभ्य स्थित्वा प्राप्नोतीति।
Sri Abhinavgupta
।।2.72।।अत एव आपूर्यमाणमिति। योगी न कामार्थ बहिर्धावति अपि तु इन्द्रियधर्मतया तं ( N omit तं and read विषयानुप्रविशन्तो नतरां यान्ति ( न तरंगयन्ति) विषया अनुप्रविशन्तो न तरङ्गयन्ति नदीवेगा इवोदधिम्। एवं तृतीयो निर्णीतः।
Sri Jayatritha
।।2.72।।ज्ञानी स्तूयतेएषा इत्यनेनेत्यसत् प्रथमवाक्ये तददर्शनादिति भावेनाह उपसंहरती ति। प्रकरणं समापयतीत्यर्थः। ब्रह्मधर्मभूतेति प्रतीतिनिरासायाह ब्राह्मी ति। स्थितिर्नोक्ता कथमेवमुच्यते इत्यत आह लक्षणमिति ब्रह्मविषयज्ञानवतो लक्षणमुक्तमित्यर्थः।किं प्रभाषेत 2।5 इत्यादिप्रश्नपरिहारस्यार्थादुक्तत्वादनुपसंहारः।अन्तकाले चरमे वयस्यपि यः परिव्रज्यास्यां स्थितौ तिष्ठति सोऽपि ब्रह्माप्नोतीति किमु ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रज्य इति (शां.) व्याख्यानमसत् अप्रकृतत्वात् इत्याशयवान्व्याचष्टे अन्तकालेऽपी ति। ज्ञानिनो ब्रह्मप्राप्तिरुक्ता सा किं तद्देहपातान्तरमेव उतान्यथा इत्यपेक्षयामिदमुच्यते। कुतोऽस्यार्थस्य भगवदभिप्रेतत्वं इत्यत आह यं यमि ति। ननु ज्ञानमेव मोक्षसाधनम् कारणपौष्कल्ये च कार्यं भवत्येव अतः कथं ज्ञानिनः शरीरान्तरप्राप्तिः इत्यत आह ज्ञानिना मिति। प्रारब्धकर्म सामग्र्याः प्रतिबन्धकं तदेवान्तकाले ब्रह्मानुसन्धानं प्रतिबध्नातीति भावः। ननु ज्ञानादेव सर्वं कर्म क्षीणमित्यत आह भोगेने ति। अस्तु प्रारब्धकर्मणो भोगेनैव क्षयः स च ज्ञानं यच्छरीरे जातं तत्रैवाभूत् अतः कथं शरीरान्तरारम्भ इत्यत आह सन्ति ही ति। तानि कथमेकेनैव शरीरेण भुज्येरन्निति शेषः। सप्तजन्मनीति द्विगुः। इतश्चैवमित्याह दृष्टेश्चे ति। बह्वित्यनेकोपलक्षणम्। कथं ज्ञानिनां बहुशरीरप्राप्तिर्दृश्यते इत्यत आह तथाही ति।ननु ज्ञानिनोऽपि यदि शरीरान्तरप्राप्तिस्तर्हि गर्भवासादिभिर्दुःखैर्लुप्तशक्तिकं ज्ञानं न मोक्षाय पर्याप्तं स्यादित्यत आह निश्चिते ति। तस्य ज्ञानिनस्तावदेव चिरं तावानेव विलम्बः यावन्न विमोक्ष्ये विमोक्ष्यते प्रारब्धकर्मणा अवसिते कर्मणि ब्रह्म सम्पत्स्यत इत्यर्थः अवसितकर्मणि ज्ञानिनि विषये यदि पुत्रादयः शव्यकर्म कुर्वन्ति यदु च न यदि वा न कुर्वन्ति। सर्वथाऽर्चिषमभिसम्भवति प्राप्नोत्येवेत्यर्थः। तदिदमुक्तंनैनां प्राप्य विमुह्यति इति। पाशुपतवैशेषिकादयस्त्वाहुः अनियतकालविपाकान्यपि कर्माणि ज्ञानी योगसामर्थ्यात्समाहृत्यानेकशरीरफलान्यपि कायव्यूहनिर्माणेन क्षपयित्वा प्रव्रज्यते तत्कुतोऽस्य देहान्तरमिति तत्राह न चे ति। ज्ञानिनः कर्मक्षयार्थमिति शेषः। तथा हि अप्रारब्धकर्मक्षयार्थं वा सा स्यात् प्रारब्धकर्मक्षयार्थं वा नाद्यः तेषां ज्ञानेनैव क्षीणत्वात् इति भावेनाह तद्यथे ति। द्वितीये तु यः कश्चिज्ज्ञानी तथा करोति सर्वो वा आद्ये सम्प्रतिपत्तिमुत्तरमाह प्रारब्धे त्वि ति। द्वितीयासम्भवे हेतुमाह प्रमाणे ति। चशब्दात्प्रागुदाहृतप्रमाणविरोधाच्च। पाशुपतादिशास्त्रेषु तथोक्तत्वात्कथं प्रमाणाभावः इत्यत आह न चे ति। तच्छिष्या अपि तच्छब्देनोच्यन्ते इति बहुवचनम्।उमापतिः पशुपतिः श्रीकण्ठो ब्रह्मणः सुतः। उक्तवानिदमव्यग्रं ज्ञानं पाशुपतं शिवः इत्यादौ तत्स्तुतिरपि दृश्यते इत्यत आह यत्रे ति। वैष्णवशास्त्रोक्तप्रकारेण शिवभक्तानां लक्षणयेति शेषः। सत्यत्वं तदुक्तार्थस्येति शेषः। उक्तनिन्दाविरोधादिति भावः। तर्हि शैवपुराणानि कायव्यूहनिर्माणनियमादौ प्रमाणानीत्यत आह न ही ति। तेषामिति बुद्धिस्थशैवपुराणपरामर्शः इतरग्रन्था उदाहृतगारुडादयः। शैवपुराणानां गारुडादिवैष्णवग्रन्थानां च को विशेषो येन बाध्यबाधकभावः इत्याशङ्क्य दुर्जनव्यामोहार्थं प्रणीतपशुपतादिशास्त्राणां व्यामोहनार्थत्वे तावत्प्रमाणमाह तथा ही ति। कारयेति स्वार्थे णिच्। अतथ्यानि सर्वथाऽप्यविद्यमानानि वितथ्यानि व्यधिकरणानि च तेषु दर्शयस्व। प्रकाशं प्रसिद्धम्। इदानीं तन्मूलत्वं शैवपुराणानां इतरेषां पञ्चरात्रादिमूलत्वमित्यत्र प्रमाणमाह कुत्सितानी ति। तच्छास्त्रसमयेन तच्छास्त्रसिद्धान्तमनुसृत्य। वेदैरिति वेदानामापाततः प्रतीतिमनुसृत्य। भागवतं भगवद्विषयम्।उक्तमुपसंहरति अत इति। ज्ञानिनां मुक्तिर्भवतीत्येव न तु तद्देहपातानन्तरमिति नियम इत्युपसंहारार्थः। ननु भीष्मादयो ज्ञानिनोऽन्तकालेऽस्यां ब्राह्म्यां स्थितौ स्थिताश्च न मुक्ताश्च तत्कथमेतदुक्तं इत्यत आह भीष्मादीना मिति। साक्षाद्देहत्यागक्षणे युक्त्या परमेश्वरे मनोयोगेन भाव्यमित्येतत्कुतः इत्यत आह स्मरन्नि ति। ननु तत्क्षणे युक्त्या मुक्तिश्चेदज्ञानिनामपि तत्सम्भवेन मुक्तिरित्यत आह न चे ति। भक्तिज्ञानेनेति द्वन्द्वैकवद्भावः। भक्तिसहितं ज्ञानं भक्तिज्ञानमिति वा।ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मस्वरूपानन्दं इति व्याख्यानं सर्वप्रमाणविरुद्धमित्याशयवान्निर्वाणमिति भिन्नं पदं व्याचष्टे निर्वाण मिति। कथमेतत् इत्यत आह काय इति। कार्यब्रह्मव्यावृत्त्यर्थमेतत्। अनेन ब्रह्मणो निराकारत्वं प्राप्तं तत्प्रतिषेधार्थमाह निर्वाणे ति। प्रतिपादनं व्याख्यानम्। इत्यादिवत् इत्यादेरिव प्राकृतादिविग्रहराहित्याथत्वेनेत्यर्थः। किमनेन व्याख्यानेन निराकारमेव ब्रह्म किं न भवेत् इत्यत आह कथ मिति। भगवतो विष्णोः साकारत्वेऽपि ब्रह्मणो निराकारत्वमेव। न च भगवानेव ब्रह्म तस्य तदुत्तमत्वेन ततोऽन्यत्वात् अतो न पुराणादिविरोध इत्यत आह न चे ति।महत् ब्रह्म इत्येतानि वाक्यानि भगवतो ब्रह्मत्वप्रतिपादकानि।यस्मात् इत्यादीनि तस्यैव सर्वोत्तमत्वेन तदुत्तमाभावप्रतिपादकानि। इन्द्रियग्राह्यमतिक्रान्तस्तदुत्तमः सर्वमेव योगीन्द्रियग्राह्यम्। उत्तमाधमभावेन ब्रह्मेश्वरयोर्भेदो माभूत् ब्रह्माशरीरं ईश्वरस्तु सविग्रह इत्यतो भेदोऽस्तु अभेदस्यापि सत्त्वाद्ब्रह्मशब्दोपपत्तिरित्यत आह न चे ति। तस्य पराभिमतस्य एतद्भगवतोऽन्यत्वम्। कुत इत्यत आह तस्यापी ति।दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं इत्यन्तं वाक्यं इह विवक्षितम्। इत्यादिषु ब्रह्मविद्यात्वेन सम्मतेष्विति शेषः।कथमत्र श्रवणं इत्यत आह यदी ति। रूपं विग्रहः। विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 इत्यानन्दशब्दस्य नपुंसकत्वदर्शनात्तथोपादानम्। ज्योतिश्शब्दो भास्वररूपस्य वाचकः अत उक्तं सुवर्णरूपत्वमिति। दहरत्वं दहरस्थत्वमविग्रहस्येति वर्तते। दहरस्थत्वं कथं अविग्रहस्यानुपपन्नं इत्यत आह दहरस्थश्चे ति। एवमुपपत्तिसापेक्षाणि वाक्यान्युदाहृत्य स्पष्टान्युदाहरति सहस्रशीर्षे ति। अवसीयते परमात्मा। प्राग्भवतोऽन्यस्योत्तमत्वं वाक्यविरुद्धमित्युक्तम् इदानीं व्याहृतं च तदिति भावेनाह अतिपरिपूर्णतमे ति। अत्यादिशब्दैर्निरतिशयत्वं द्योत्यते। ऐश्वर्यं वशित्वम्। श्रीः कान्तिः। परमेश्वरे भगवच्छब्दस्यौपचारिकत्वपरिहारायैतेषां गुणानां सद्भावे प्रमाणान्याह परे ति। आनन्दं ब्रह्मणः इत्यत्र यतो वाचः इति पूर्ववाक्यमभिप्रेतम्। अमितशब्दात्परश्चन्द्रशब्दोऽध्याहार्यः। द्रष्टृपुरुषभेदात्ित्रविधोक्तिः। ऐश्वर्याद्यनन्तगुणत्वे मयीति प्रमाणम्। सङ्ख्यापरिमाणाभ्यां गुणानामानन्त्ययनेनोच्यते। शक्तेः परत्वं प्रागुक्तं तदस्पष्टमित्यतो विज्ञाने ति। ज्ञानस्यापरोक्षरूपताप्रतिपादनाय तुर्य मिति। ईश्वरो नात्मानं वेत्ति कर्तृकर्मभावविरोधात् इत्येतन्निरासाय आत्मान मिति। ईश्वरे भगवच्छब्दस्यौपचारिकत्वासम्भवं दर्शयितुं तदन्यस्य तच्छब्दार्थतानिरासाया न्यतम इति। अन्य एवान्यतमः भगवच्छब्दस्यायमर्थ इत्यत्रैश्वर्येति प्रमाणम्। अत्र षण्णामित्युपलक्षणम्। षाड्गुण्ये सर्वगुणान्तर्भावो वा। तद्वान् भगवानिति सिद्धमेव। भगवत्त्वात्स एव सर्वोत्तम इति। समग्रार्थो वेति अतीवे ति। यदन्येन करिष्यामीति स्मर्तुं बुद्धिस्थीकर्तुं वाऽयुक्तं तत्त्वं कर्तुं शक्तः। मतुपा ज्ञानादीनां भगवता भेदः प्रतीतः। षण्णामित्यादिना परस्परं च तथाऽऽकृतिर्भगवत इत्युक्त्या कृतेस्तन्निरासार्थमाह तानी ति। तत्र प्रमाणान्याह विज्ञान मिति। तप आलोचनक्रिया। ज्ञानमयं ज्ञानात्मकमिति। धर्माणां परस्परमभेदोक्तिः। प्राकृतेति ङीबभावश्छान्दसः। अणञ्भ्यामन्यो वा प्रत्ययः। मांसमेदोऽस्थिभिः सम्भवो यस्याः सा तथोक्ता। एतच्च न योगित्वात् किन्त्वीश्वरत्वात्। अत एव विभुः निर्दोषगुणात्मकविग्रहादच्युतः।ज्ञानज्ञानः इत्यादेरतिशयितज्ञानादित्यर्थः। तेन निर्दोषत्वादिना।भगवद्रूपस्यैवम्भावे कथं परिच्छिन्नत्वगर्भवासादिसंसारिधर्माश्च तत्र दृश्यन्ते इत्यत आह तदेवे ति। किमर्थं इत्यत उक्तं लीलये ति। मायया मोहकशक्त्या। अत्र प्रमाणमाह न चे ति। देव्या देवक्याः। एवं गर्भवासादिप्रदर्शनेन मोघं दर्शनं यस्मिन्विषये स तथा। आत्मवतां भागवतानाम्। आत्मा निरुपाधिकप्रिय इति यावत्। मुनिसुतो रावणः। ब्रह्मवाक्यवत् रुद्रवाक्यमप्यतुलं प्रत्यस्तीत्यतःरुद्रवाक्यं इत्युक्तम्।करुणः करुणावान् अर्शआदित्वादच्।तदेवेत्याद्युक्तमुपसंहरति न तत्रे ति। अत इत्युपस्कर्तव्यम्। यद्येवं तर्हि विश्वरूपं परं तदपेक्षया कृष्णादिरूपाण्यपराणीति कथं ग्रन्थेषूच्यते इत्यत आह यत्र चे ति। यत्र ग्रन्थे। तत्र विश्वरूपमपेक्ष्यान्यत्र कृष्णादावपरत्वमज्ञबुद्धिमपेक्ष्योक्तं ज्ञातव्यमित्यर्थः। कुत एतदित्यत आह तच्चे ति। अखिलरूपतोऽखिलधर्मैः विमोहनं कर्तुम्। नन्वयमुपचारो वा स्तुतिर्वा किं न स्यात् इत्यत आह न चे ति। असम्भवे ह्येषा कल्पना। अचिन्त्यशक्त्या चैकस्यैवानेकपरिमाणत्वादिकं सम्भवति। अन्यत्रादर्शनेन त्वपलापेऽतिप्रसङ्ग इत्यर्थः। अत्रैव प्रमाणमाह कृष्णे ति। विमोहसि विमोहयसि। श्लोकार्थमुपसंहरति तस्मा दिति।